________________
गर्भवास, कामवासना और आहार की समस्या १०३ इत सात दिनों में मृत्यु नाचती रही। मुझं उन रूपवती ललमुग्ध होने का एक बार भी ध्यान नहीं
जीवन को अन्तसुख कर दिया था; वह थी मृत्यु ! ही मेरी आँखों और मन-मस्तिष्क में नाओं के रूप को देखने का, उनमें
आया ।
गुरु ने शिष्य को समझाते हुए कहा- यही तेरे उस दिन के प्रश्न का उत्तर है । मृत्यु मेरे समक्ष प्रतिक्षण रहती है, तब कामवासना कैसे आ सकती है ? जिसके मन मे प्रतिक्षण मृत्यु की उपस्थिति का विचार बना रहता है, उसका जीवन कामविकार या किसी भी पाप में डूब नहीं सकता । कामवासना के प्रबल निमित्त भी उसके समक्ष उपस्थित हों, तो भी वह उनसे अछूता रहता है; क्योंकि मृत्यु उसे प्रतिक्षण जागृत किये रहती है ।
कामवासना पर विजय की साधना कैसे सम्भव है ?
फिर भी कामवासना इतनी प्रबल है कि उसके जन्म जन्म के संस्कारों की परतें अज्ञात (सूक्ष्म) मन में जमी रहती हैं, वह निमित्त मिलते ही पुनः उभर सकती है । जैसे राख से ढकी हुई अग्नि वायु का निमित्त मिलते ही प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार कामवासना भी प्रबल निमित्त मिलते ही पूर्व संस्कारवश भड़क सकती है ।
अतः इस सम्बन्ध में पुनः इस प्रकार की शंका उठाते हुए अर्हतषि कहते हैं
प्रश्न -
'से कथमेतं ? हत्थि महारुक्ख - णिदरिसणं ।' उत्तर - ' तेल्लापाउधम्पं किपागफल- णिद रिसणं ।'
अर्थात् - ( प्रश्न है कामवासना पर विजय की ) यह साधना कैसे सम्भव है ? क्योंकि जिस प्रकार हाथी एक महावृक्ष को उखाड़ सकता है, उसी प्रकार काम साधनारूप वृक्ष को उखाड़ सकता है ।
इसका उत्तर दो दृष्टान्तों द्वारा दिया गया है- साधक तेलपात्रधारक की भाँति अप्रमत्त होकर घूमे तो काम से बच सकता है । अथवा भौतिक सुखों में किम्पाकफल की छाया देखे ।
तात्पर्य यह है कि साधक ग्राम और नगरों में विचरण करता है । आँखों का स्वभाव देखने का है। सौन्दर्य उसके सामने आता है, तब भी वह देखता है और कुरूपता आती है, उस पर भी उसकी दृष्टि पड़ती है । साधक अपने मन को उस समय नेत्रेन्द्रिय के साथ न जोड़े। मन पर वह विवेक का अंकुश रखे, आत्मा की पहरेदारी रखे । कामवासना के कटु परि