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गर्भवास, कामवासना और आहार की समस्या
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मोह को अपेक्षाकृत पराजित या उपशान्त कर दिया है । (यही कारण है कि ) यहाँ-वहाँ अन्यान्य कुलों से परकृत आहार आदि का उपभोग करते हैं, यहां तक कि ( यावत्) सुन्दर रूपवती नारियों को देखकर भी उनके मन में काम आदि विकारों (पापों) का प्रादुर्भाव नहीं होता ।
प्रश्न- भगवन् ! ऐसा कैसे हो जाता है ?
उत्तर - जैसे जड़ को नष्ट कर देने पर वह वृक्ष नष्ट हो जाता है; फूल को समाप्त कर देने पर फल स्वयं नष्ट हो जाता है । क्या ताड़ वृक्ष के शिरोभाग को सुई से छेद देने पर उसकी वृद्धि संभव है ? ( कदापि नहीं . ) ( इसी प्रकार जिसने काम वासना की जड़ को नष्ट कर दिया है, उसके मन में कामवासना उत्पन्न नहीं हो सकती ।)
प्रस्तुत सूत्र में ऐसी शंका उठाई गई है कि साधक अभी सराग है । वह वीतरागता का पथिक अवश्य है, किन्तु अभी तक उसने पूर्ण वीतरागता प्राप्त नहीं की है । ऐसी स्थिति में आहार आदि के लिए क्या उसके मन में कामना या आसक्ति नहीं होती ? अथवा उसके दर्शन, प्रवचन श्रवण आदि के लिए आने वाली सुन्दर सुन्दर युवतियों का सम्पर्क होने पर भी उसके मन में कामराग क्यों नहीं उत्पन्न होता ? इसका समाधान यहाँ दो प्रकार से किया गया है ।
(१) यद्यपि जिसका मोह उपशान्त या क्षीण हो गया है, ऐसा व्यक्ति ही सम्पूर्ण कामविजेता हो सकता है, तथापि ऐसे कई सराग व्यक्ति भी वीतराता के पथिक होते हैं, जो कामना एवं कामवासना पर विजय पा लेते हैं । उनकी साधना भी इतनी तीव्र एवं प्रमादरहित होती है कि उनके मन में कभी दोषयुक्त आहारादि ग्रहण करने की कामना नहीं पैदा होती, न ही कभी कामवासना उत्पन्न होती है ।
(२) वृक्ष के मूल को नष्ट कर देने पर वह वृक्ष नष्ट हो जाता है, फूल के नष्ट होने पर फल भी नष्ट हो जाता है, तथैव ताड़ के मस्तक के भाग को सुई से छेद देने पर वह आगे नहीं बढ़ पाता. इसी प्रकार साधक के मन में कामना एव वासना की जड़ उखड़ जाने से तथाकथित कामना एवं कामवासना उसके मन में अंकुरित नहीं होती ।
अत्रमत्त साधक की साधना में स्खलना नहीं होती इसी प्रकार की सतत जागृति यदि जीवन में आ जाए तो वह साधक