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अमरदीप
"-जो आर्य आत्माएँ पापकर्म से विमुक्त हैं, वे पुनः गर्भवास में नहीं आतीं। वे स्वयं प्राणातिपात (हिंसा) नहीं करते, न ही दूसरों को हिंसा की प्रेरणा देते हैं, अनुमोदन भी नहीं करते हैं। (इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, परिग्रह का भी त्रिकरण (कृत-कारित-अनुमोदन)त्रियोग (मन-वचनकाया) से सेवन नहीं करते) यावत् (वे संयत, विरत, प्रतिहत पापकर्मों का प्रत्याख्यान करने वाले) क्रियारहित होते हैं । वे एकान्ततः पण्डित होते हैं; राग-द्वष से वे उपरत रहते हैं। वे त्रिगुप्तियों से गुप्त होते हैं। मन आदि तीनों दण्डों से उपरत होते हैं, वे माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप तीनों शल्यों से रहित होते हैं। वे आत्मभाव के रक्षक होते हैं। उन्होंने चारों कषायों पर विजय पा ली है। उन्होंने चारों विकथाओं को विजित किया है। वे पंच महाव्रत सम्पन्न, तीन गुप्तियों से युक्त, पाँच इन्द्रियों से सुसंवृत, षट्जीवनिकाय की रक्षा में भलीभाँति निरत, सात प्रकार के भय से रहित, अष्टविध मदस्थान के त्यागी, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों (बाड़ों) के पालन में उद्यत, तथा दस प्रकार के समाधिस्थानों में उपयोग रखने वाले हैं, ऐसे महान् व्यक्ति बहुत से पापकर्मों तथा कलियुग के कालुष्य का क्षय करके यहां से च्यव (मर) कर सद्गतिगामी होते हैं।"
गर्भवास के अन्त करने का मतलब है-ससार-चक्र का अन्त करना। प्रस्तुत प्रकरण में यौगन्धरायण ने उस महापुरुष के उन गुणों का उल्लेख किया है, जो गर्भवास में पुनः आगमन की परिसमाप्ति के लिए अनिवार्य हैं। उस व्यक्ति का समस्त पापकर्मों से विमुक्त होना आवश्यक है । हिंसादि पाँच आस्रवों का त्रिकरण-त्रियोग से परित्याग आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना नये आने वाले कर्मों का निरोध (सवर) होना कठिन है । जो राग-द्वेष से परे है। इस विश्व में तथा समाज (सघ) में रहता हुआ भी जो इनके प्रति मोह तथा असक्ति से दूर रहता है। किसी भी पापकर्मबन्धक क्रिया का आरम्भ नहीं करता और न ही शुभक्रिया का अहंकार करके कर्ममल से लिप्त होता है। जो छोटी-छोटी भूलों पर बारीकी से विचार करता है, किसी भी शुभ प्रवृत्ति में भी माया, निदान और मिथ्यात्व के तीखे कांटे न घुस जाए, इसका पूरी सावधानी रखता है । मन, वचन और काया की प्रवृत्ति पर पूरी पहरेदारी रखता है। उसके मन, वाणी और काय-चेष्टा में एकरूपता होती है। इन्द्रियों और मन पर वह पूर्णतया संयम रखता है। कषायों पर उसका पूरा नियन्त्रण होता है । दण्ड, शल्य, विकथा, हिंसादि पाँच पापास्रव, कषाय, भय, मदस्थान एवं अब्रह्मचर्यस्थान, आदि वृत्तियां आत्मा को शुद्ध स्थिति प्राप्त करने में भयंकर रोड़े हैं। इन वृत्तियों का विजेता ही दश प्रकार की आत्म