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अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो
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किसी भी नीति से वश में कर लूंगा और उससे अमरता का पट्टा लिखा लूंगा यह कदापि सम्भव नहीं है ।
आप सच मानिये विशालकाय बाँध जल की तीव्रधारा को रोक सकता है, परन्तु ऐसा कोई बाँध नहीं बना है, जो इस अनित्यता (मृत्यु) की धारा को रोक सके । पैसा देकर आप सम्मान खरीद सकते हैं, काल को नहीं; सम्मान देकर आप किसी अधिकारी को मना सकते हैं, किन्तु काल को नहीं मना सकते । साम और भेद की नीति राज्य पर अधिकार कर सकती है, परन्तु काल पर अधिकार नहीं जमा सकती ।
अनित्यता सभी कोटि के मानवों पर हावी है । प्रतिक्षण मानव की आयु कम हो रही है चाहे वह प्रमत्त हो अप्रमत्त, उच्च हो या नीच, अपूज्य हो या पूज्य ।
मानव अपना जीवन नित्य मान कर बड़ी-बड़ी आशाएँ करता है, लम्बे-लम्बे मनसूबे करता है, संकल्प भी करता है. परन्तु ये सब धरे रह जाते हैं, काल बीच में ही आकर उसे दबोच लेता है ।
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एक कवि ने रोचक भाषा में इस तथ्य को समझाया है. आशाओं का हुआ खातमा, दिल की तमन्ना धरी रही । बस परदेशी हुए रवाना, प्यारी काया पड़ी रही || मित्रो ! अनित्यता का यह प्रहार सबकी आशाएँ धूल में मिला देता है । कोई डॉक्टर बनने का स्वप्न देखता है, कोई वकील बनना चाहता है, कोई मिनिस्टर बनने की धुन में है तो कोई इंजीनियर बनने के लिए अमरीका पहुंच जाता है; परन्तु अनित्यता सबकी आशाओं पर पानी फिरा देती है, सबको अपने में विलीन कर लेती है । विविध कर्मानुसार यह अनित्यता एक या अनेक व्यक्तियों में विभिन्न समयों में भिन्न-भिन्न रूपों में भी परिलक्षित होती है । जो आज धनी था, वह कल निर्धन हो जाता है । जो आज बलवान् था, वह एकदम दुर्बल हो जाता है । यह सब अनित्यता की लीला है ।
कर्मानुसारिणी संसार की अनित्यता
अब अर्हषि हरिगिरि संसार में अनित्यता के मूल - कर्म के विविध रूपों का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं ।
जं कडं देहिणा जेणं, णाणावण्णं सुहासुहं । गाणा-वत्थंतरोवेतं सव्वमण्णेति तं तहा ॥ १७॥