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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३५ इनकी अलङ्कारता के खण्डन के इस प्रयास से यह अनुमान किया जा सकता है कि भामह के पूर्व कुछ आचार्य उन्हें अलङ्कार के रूप में स्वीकार कर चुके थे । भामह ने अपने पूर्ववर्ती आचार्य के मन्तव्य का कहीं-कहीं निर्देश किया है । आशीः को कुछ लोगों ने अलङ्कार माना है । इससे यह स्पष्ट है कि भरत और भामह के बीच कई आलङ्कारिक अलङ्कार पर विचार कर चुके थे, जिनकी कृतियाँ अब उपलब्ध नहीं । 'काव्यालङ्कार' में अलङ्कार-धारणा के विकास की कई कोटियों का सङ्क ेत मिलता है । भामह ने काव्यालङ्कारों का उल्लेख चार वर्गों में किया है । प्रथम वर्ग में अनुप्रास, यमक, रूपक, दीपक तथा उपमा अलङ्कारों की गणना हुई है । इनमें से प्रथम दो शब्दालङ्कार हैं और शेष तीन अर्थालङ्कार । इनमें भरत के मूल चार अलङ्कार परिगणित हैं । एक अनुप्रास नवीन है, जिसे यमक का ही रूपान्तर माना जा सकता है। द्वितीय वर्ग में छह अलङ्कार उल्लिखित हैं- आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति तथा अतिशयोक्ति । 3 यथासंख्य और उत्प्र ेक्षा अलङ्कारों की गणना एक साथ की गई है । वर्गानुक्रम में इनका स्थान तृतीय है । चतुर्थ वर्ग में स्वभावोक्ति तथा आशीः को छोड़ शेष चौबीस अलङ्कारों का उल्लेख है । स्वभावोक्ति एवं आशी: अलग-अलग उल्लिखित हैं और इनके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि ये कुछ लोगों के मतानुसार अलङ्कार हैं ।" स्पष्ट है कि सभी आलङ्कारिक इनका अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं करते थे । भामह ने इनकी अलङ्कारता का खण्डन नहीं किया है, किन्तु उनके विवेचन में इनकी अलङ्कारता के सम्बन्ध में मतवैभिन्न्य की सम्भावना निहित थी । पीछे चलकर कुन्तक ने स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन कर उसका अलङ्कार्यत्व सिद्ध करने का प्रयास किया है तथा आशीः का अलङ्कारत्व अस्वीकार कर दिया है । मम्मट आदि आचार्यों ने भी आशीः को अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं दी है ।
यह मानने का कोई आधार नहीं है कि 'काव्यालङ्कार' में चार वर्गों में परिगणित अलङ्कार भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय की मान्यता के अनुरूप हैं । प्रथम वर्ग
१. आशीरपि च केषाञ्चिदलङ्कारतया मता । - भामह, काव्यालं० ३,५५ २. अनुप्रासः सयमको रूपकं दीपकोपमे ।
इति वाचामलङ्काराः पञ्चैवाऽन्यैरुदाहृताः ॥ - वही २, ४ ३. आक्षेपोऽर्थान्तरन्यासो व्यतिरेको विभावना |
समासातिशयोक्ती च षडलङ कृतयोऽपराः ॥ - वही २, ६६ ४. यथासंख्यमथोत्प्र ेक्षामलङ्कारद्वयं विदुः । - वही २, ५. वही, २, ६३ तथा ३, ५५ ।
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