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निष्कर्षतः भामह की उपमा धारणा भरत
अलङ्कार-धारणा का विकास
सन्दर्भ को समाप्त कर दिया है । " की उपमा धारणा से मिलती-जुलती ही है ।
रूपक
'काव्यालङ्कार' की रूपक - धारणा 'नाट्यशास्त्र' की रूपक धारणा से अभिन्न है । भरत की तरह भामह भी गुण-सादृश्य के आधार पर उपमेय पर उपमान के आरोप में रूपक अलङ्कार मानते हैं । भरत ने रूपक के दो भेद स्वीकार किये हैं- (१) तुल्यावयवलक्षण रूपक तथा (२) किञ्चित्सादृश्यसम्पन्न रूपक । भामह ने इन्हें क्रमशः समस्तवस्तुविषय रूपक तथा एकदेशविवर्त्तिरूपक कहा है ।
दीपक
भामह के दीपक अलङ्कार का स्वरूप भरत के दीपक के ही समान है । अवस्था-भेद से इसके आदि, मध्य तथा अन्त; ये तीन भेद भामह ने स्वीकार किये हैं । 3 अर्थ के दीपन या प्रकाशन करने के कारण यह अलङ्कार दीपक संज्ञा से अभिहित किया जाता है । यह इसकी अन्वर्था संज्ञा है ।
आक्षेप
भामह का आक्षेप अलङ्कार भरत के प्रतिषेध तथा मनोरथ लक्षणों के योग से आविभूत है । भरत के अनुसार विपरीत कार्य में किसी के प्रवृत्त होने पर कार्य-विज्ञ के द्वारा उसका निवारण प्रतिषेध लक्षण है । जहाँ अन्य वस्तु का वर्णन करते हुए कवि श्लिष्ट रूप में अपने हृदय के भाव को प्रकट करता है वहाँ भरत मनोरथ लक्षण मानते हैं । " आक्षेप अलङ्कार में, भामह
१. मालोपमादिः सर्वोऽपि न ज्यायान् विस्तरो मुधा ॥ भामह २, ३८ २. तुलनीय - भरत, ना० शा० १६, ५६-५७ तथा भामह, काव्यालं० २, २१-२२
३. तुलनीय — भरत, ना० शा० १६, ५३ तथा भामह, काव्यालं ०
२, २५-२६
४. “ कार्येषु विपरीतेषु यदि किञ्चित्प्रवर्तते ।
निवार्यते च कार्यज्ञः प्रतिषेधः प्रकीर्तितः ॥ भरत, ना०, शा० १६,२३
५. हृदयस्थस्य भावस्य सुश्लिष्टार्थप्रदर्शनम् ।
अन्यापदेशकथनैर्मनोरथ इति स्मृतः ॥ वही, १६, २०