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२] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के सभी अलङ्कारों को स्वीकार कर लेने के उपरान्त ही आचार्यों ने द्वितीय वर्ग के नवीन अलङ्कारों की कल्पना की होगी। तृतीय वर्ग के अलङ्कारों की कल्पना में प्रथम दो वर्गों के अलङ्कारों की स्वीकृति का सङ्कत है तथा चतुर्थं वर्ग के अलङ्कारों की उद्भावना करनेवाले आचार्यों के द्वारा पूर्ववर्ती अलङ्कारों को स्वीकार किया जाना स्पष्ट है। उदाहरणार्थ-उपमा, रूपक, दीपक आदि अलङ्कारों की सत्ता सभी आचार्यों ने स्वीकार की है; किन्तु प्रथम वर्ग में उनका उल्लेख हो जाने के कारण अगले किसी भी वर्ग में उनका उल्लेख नहीं हुआ है। प्रथम वर्ग को स्वीकार कर लेने के कारण ही उसमें उल्लिखित अलङ्कारों का पुनरुल्लेख उत्तरवर्ती आचार्यों ने आवश्यक नहीं माना। हेतु, सूक्ष्म, लेश आदि अलङ्कारों का खण्डन भी इस बात का प्रमाण है कि पूर्व-प्रतिपादित अलङ्कारों में से जिन्हें स्वीकार नहीं करना था उनका आचार्यों ने खण्डन किया। जिनका खण्डन नहीं किया गया वे स्वीकृत मान लिये गये । अलङ्कारों के उक्त वर्ग भरत से लेकर भामह के काल तक के दीर्घ अन्तराल में होनेवाले अलङ्कार-धारणा के विकास-क्रम के सूचक माने जा सकते हैं। भामह के प्रत्येक अर्थालङ्कार के मूल का अन्वेषण प्रस्तुत प्रसङ्ग में वाञ्छनीय है। __ प्रथम वर्ग के तीन अर्थालङ्कार-उपमा, रूपक तथा दीपक भरत के 'नाट्यशास्त्र' में विवेचित मूल अलङ्कार हैं । उपमा का स्वरूप भरत की उपमा के स्वरूप से अभिन्न है।' भरत की उपमा के निन्दोपमा, प्रशंसोपमा आदि भेदों का भी भामह ने उल्लेख किया है। भामह की प्रतिवस्तुपमा-धारणा, की भी सम्भावना भरत की उपमा-धारणा में निहित थी। इसीलिए उन्होंने प्रतिवस्तूपमा को उपमा का ही एक भेद माना है। भामह ने उपमा के 'यथा' 'इव' तथा 'वत्' ( क्रिया-साम्यवाचक ) आदि वाचक शब्दों का भी उल्लेख किया है। 'यथा' तथा 'इव' के अभाव में समासाभिहित उपमा होती है।' समास होने पर वाचक शब्दों का लोप हो जाता है। ऐसे स्थल में होने वाली उपमा समासाभिहित कही गई है। इस प्रकार भामह ने प्रकारान्तर से उपमा के पूर्णा तथा लुप्ता भेदों का उल्लेख किया है। उपमा का मालोपमा भेद भी निर्दिष्ट है; किन्तु भेदोपभेद को अनावश्यक विस्तार मानकर भामह ने उस
१. तुलनीय--भरत ना० शा० १६, ४१ तथा भामह, काव्यालं० २, ३० २. ... निन्दाप्रशंसाचि ख्यासाभेदादत्राभिधीयते ।
–भामह, काव्यालं० २, ३७ ३. विना यथेवशब्दाभ्यां समासाभिहिता परा। वही २, ३२