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३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण यमक को सभी चित्रालङ्कारों का मूल कहा है।' इस विवेचन के निष्कर्ष-रूप में यह कहा जा सकता है कि भरत की यमक-धारणा के आधार पर ही परवर्ती आचार्यों ने अनुप्रास तथा चित्र-बन्धों के विस्तृत प्रपञ्च की कल्पना की है। श्लेष और वक्रोक्ति शब्दालङ्कारों की उद्भावना का श्रेय अवश्य ही परवर्ती आचार्यों को है। शब्द-श्लेष की उद्भावना का श्रेय उद्भट को मिलना चाहिए। यद्यपि उनके पूर्ववर्ती भामह तथा दण्डी ने भी श्लेष का उल्लेख किया था, किन्तु वे श्लेष-धारणा को स्पष्ट नहीं कर पाये थे । सर्वप्रथम उद्भट ने श्लेष-अलङ्कार की धारणा परिष्कृत रूप में प्रस्तुत की, तथा श्लेष को शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार वर्गों में स्फुट-रूप से विभाजित किया । रुद्रट ने प्रथम बार वक्रोक्ति शब्दालङ्कार की कल्पना की और उसके श्लेष-वक्रोक्ति तथा काकु-वक्रोक्ति ; ये दो मुख्य रूप स्वीकार किये। श्लेष-वक्रोक्ति का मूलाधार श्लेष शब्दालङ्कार है तथा काकु-वक्रोक्ति का काकु अर्थात् कण्ठ-ध्वनि-भेद ।
भरत के बाद भामह की रचना 'काव्यालङ्कार' में अर्थालङ्कार की संख्या दशगुनी से भी अधिक हो गयी। 'काव्यालङ्कार' में उल्लिखित अर्थालङ्कार हैं-रूपक (दो प्रकार), दीपक, उपमा, प्रतिवस्तूपमा (उपमा-भेद) आक्षेप (दो प्रकार), अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, यथासंख्य, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, प्रेय, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त (दो प्रकार), श्लिष्ट, अपह्न ति, विशेषोक्ति, विरोध, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुत-प्रशंसा, व्याजस्तुति, निदर्शना, उपमा-रूपक, उपमेयोपमा, सहोक्ति, परिवृत्ति, ससंदेह, अनन्वय, उत्प्रेक्षावयव, संसृष्टि, भाविक तथा कुछ लोगों के अनुसार आशीः । ऊर्जस्वी, प्रेय तथा समाहित का केवल नाम्ना उल्लेख हुआ है। उनके लक्षण नहीं दिये गये हैं। उनके दिये हुए उदाहरण के आधार पर उनके स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है। श्लिष्ट अलङ्कार के तीन भेद स्वीकार किये गये हैं; किन्तु परिभाषा परिष्कृत नहीं है। इन अलङ्कारों को स्वीकार करते हुए भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है। इनमें वक्रोक्ति नहीं रहती, जो अलङ्कार का मूलाधार है। १. अनुप्रास अरु यमक ये, चित्र काव्य के मूल । इनहीं के अनुसार सों, सकल चित्र अनुकूल ॥
-देव, शब्द-रसायन, अष्टम प्रकाश, पृ० १३८ २. सैषा सर्वव वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते। यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना ॥
-भामह, काव्यालं० २,८५