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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
है कि अधिकांश अलङ्कार उपमा से उत्पन्न हैं । केवल सादृश्य- मूलक अलङ्कारों के सम्बन्ध में यह बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है । अतः उक्त मान्यता कुछ परिष्कार के साथ ही स्वीकार की जा सकती है । भरत के चार अलङ्कारों तथा उनके छत्तीस लक्षणों को कितने अलङ्कारों के सृजन का श्रेय प्राप्त है, इसका अध्ययन अलङ्कार-धारणा के विकास क्रम को समझने के लिए न केवल वाञ्छनीय है, अपितु आवश्यक भी है।
भरत के अलङ्कारों की संख्या - परिमिति में ही कई अलङ्कारों के विकास की सम्भावना बीज-रूप में निहित थी । उदाहरण के लिए-कल्पितोपमा में, जहाँ उपमान असिद्ध या कल्पित रहते हैं, उत्प्र ेक्षा के आविर्भाव की सम्भावना निहित थी । यमक के दश भेदों में अनुप्रास के विकास के लिए भी अवकाश था । अतः अलङ्कार की संख्या - विस्तृति को दृष्टि में रखते हुए, अलङ्कार-धारणा में भरत के महत्त्व का अध्ययन तीन दृष्टियों से अपेक्षित होगा - ( १ ) किन नवीन अलङ्कारों की उत्पत्ति की सम्भावना भरत के मूल चार अलङ्कारों में निहित थी, (२) उनके अलङ्कारों में लक्षण के योग से किन-किन अलङ्कारों का जन्म हुआ तथा (३) लक्षणों ने पारस्परिक योग से किन-किन अलङ्कारों का सृजन किया । इस अध्ययन से अलङ्कार-धारणा में परवर्ती आचार्यों के मौलिक योगदान का भी निर्धारण सम्भव होगा ।
भरत के चार अलङ्कारों में से उपमा, रूपक और दीपक; इन तीन का सम्बन्ध अर्थ से है तथा यमक का शब्द से । यद्यपि भरत ने अलङ्कारों का शब्दगत एवं अर्थगत भेद करने का प्रयास नहीं किया है तथापि यमक की परिभाषा से उसका शब्दगत होना स्पष्ट है । यमक को शब्दों का अभ्यास या आवृत्ति कहा गया है।' इसी आधार पर अभिनवगुप्त ने यह माना है कि भरत ने यमक को शब्दालङ्कार तथा उपमा आदि को अर्थालङ्कार स्वीकार किया था । २ शब्दावृत्ति के स्वरूप भेद के आधार पर यमक के निम्नलिखित दश प्रकार माने गये हैं- ( १ ) पादान्त - यमक, (२) काञ्ची - यमक,. (३) समुद्ग - यमक, (४) विक्रान्त-यमक, (५) चक्रबाल - यमक, (६) सन्दष्ट - यमक, (७) पादादि-यम्रक, (5) आम्रेडित-यमक, ( 8 ) चतुर्व्यवसित - यमक तथा
१. शब्दाभ्यासस्तु (शब्दाभ्यासं तु) यमकं । - भरत, ना०शा० १६, ५६. २. चिरन्तनैर्हि भरतमुनिप्रभृतिभिर्यमकोपमे शब्दर्थालङ्कारत्वेनेष्टे ।
- अभिनव, लोचन पृ० ५.