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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३३ (१०) माला-यमक । काव्यशास्त्रीय चिन्तन के विकास-काल में अनुप्रास, यमक, श्लेष (शब्द-श्लेष), वक्रोक्ति एवं चित्र (शब्द-चित्र) अलङ्कारों का उल्लेख शब्दालङ्कार के प्रसङ्ग में हुआ है । भामह ने अनुप्रास (दो भेद) एवं यमक शब्दालङ्कार स्वीकार किये हैं। दण्डी ने केवल यमक को स्वीकृति दी है। अनुप्रास का विवेचन उन्होंने शब्दमाधुर्य गुण के अङ्ग के रूप में किया है। उद्भट ने प्राचीनों के द्वारा स्वीकृत यमक अलङ्कार को अस्वीकार कर दिया तथा अनुप्रास के तीन भेदों की कल्पना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने लाटानुप्रास के पाँच रूप भी स्वीकार किये हैं। वामन ने यमक और अनुप्रास का लक्षण-निरूपण किया है। रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में शब्दालङ्कारों का विस्तृत विवेचन है। उन्होंने वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष और चित्र के अनेक भेदोपभेदों का वर्णन किया है। राजानक रुय्यक ने अनुप्रास, यमक एवं चित्र शब्दालङ्कारों को परिभाषित किया है। मम्मट, विश्वनाथ, विद्यानाथ, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने भी शब्दालङ्कार के इन स्वरूपों का यत्किञ्चित् भेद से उल्लेख किया है। रीतिकालीन आचार्यों ने भी इन अलङ्कारों को स्वीकार किया है। मतिराम के 'रसराज' में शब्दालङ्कारों का विवेचन नहीं है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वे शब्दालङ्कार को हेय या उपेक्षणीय मानते थे। उनके काव्य में अनुप्रास, यमक आदि अलङ्कारों की छटा दर्शनीय है। आचार्य देव ने अनुप्रास, यमक और चित्रालङ्कारों का उल्लेख किया है। भिखारीदास ने 'काव्य-निर्णय' में अनुप्रास, यमक तथा वक्रोक्ति अलङ्कारों के स्वरूप की मीमांसा कर चित्र-काव्य के अनेक भेदों का; बन्धों के विविध रूपों का वर्णन किया है।
काव्य-शास्त्र में वर्णित उक्त सभी शब्दालङ्कारों का सम्बन्ध वर्गों के ग्रथन की विलक्षणता एवं उनकी आवृत्ति की विभिन्न प्रक्रियाओं से है। यमक और अनुप्रास में कोई तात्त्विक भेद नहीं। यमक में सम्पूर्ण पद की या वर्ण-समूह की उसी रूप में अर्थभेद से आवृत्ति होती है, किन्तु अनुप्रास में कुछ वर्षों की आवृत्ति होती है। भरत ने पदावृत्ति-रूप यमक तथा वर्णावृत्ति-रूप अनुप्रास का पृथक्-पृथक् उल्लेख नहीं कर एक ही साथ शब्दाभ्यास का उल्लेख किया है और उसे वमक की संज्ञा दी है। स्पष्ट है कि परवर्ती आचार्यों की अनुप्रास-धारणा का मूल भरत की यमक-धारणा में ही निहित था। चित्रालङ्कार-गत तत्तद्बन्धों की कल्पना वर्णगुम्फ तथा वर्णावृत्ति की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के आधार पर की गयी है। आचार्य देव ने स्पष्टतः अनुप्रास और