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अलङ्कार-धारणा का विकास
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इस बात का प्रमाण मिलता है कि भरत उसे केवल नाट्य के क्षेत्र में सीमित अलङ्कार नहीं मानते थे, वरन् उसे सामान्य रूप से काव्य-मात्र का (श्रव्य तथा दृश्य दोनों काव्य-भेदों का ) अलङ्कार मानते थे। उनके अनुसार काव्यात्मक उक्ति में जहाँ सादृश्य के आधार पर एक वस्तु की उपमा दूसरी वस्तु से दी जाती है वहाँ उपमा नामक अलङ्कार होता है ।' सामान्य रूप से अलङ्कार को काव्यालङ्कार कहने पर भी आचार्य भरत ने यमक के दश भेदों को नाटकाश्रित अलङ्कार कहा है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने काव्य-बन्ध तथा नाट्यबन्ध में स्फुट भेद नहीं किया है। यह सम्भावना भी की गई है कि भरत ने सर्वत्र काव्य शब्द का प्रयोग दृश्य-काव्य के ही सीमित अर्थ में किया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में यह विचारणीय है कि भरत ने किन लक्ष्य-ग्रन्थों को दृष्टि में रखकर अलङ्कारों के लक्षण का निरूपण किया होगा। क्या उनकी अलङ्कार-परिभाषाएं उनसे पूर्ववर्ती कवियों की सभी उक्ति-भङ्गियों को अपने में समाहित करने में सक्षम हैं ? यदि यह मान लिया जाय कि उनके अलङ्कार-लक्षण के लक्ष्य केवल नाट्य-ग्रन्थ थे तब तो लक्ष्य के अभाव में उन लक्षणों की व्याप्ति के परीक्षण का कोई साधन नहीं होने के कारण उन्हें असंदिग्ध रूप से प्रामाणिक मान लेना होगा, किन्तु यह मान लेने का कोई सबल आधार नहीं है कि भरत ने केवल नाटकोक्तियों के ही अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है, काव्योक्तियों के अलङ्कारों का नहीं। यदि काव्य-भणिति की समग्रता की दृष्टि से भरत के अलङ्कार-लक्षण के औचित्य की परीक्षा की जाय तो प्रश्न यह उठता है कि क्या भरत के पूर्व भारतीय साहित्य में उक्त चार ही अलङ्कारों का प्रयोग हुआ है ? वैदिक संहिताओं, 'महाभारत' तथा आदि कवि की 'रामायण' में काव्यात्मक उक्तियों का इतना विशाल वैभव है, उनकी भणिति के इतने प्रकार हैं कि उन्हें अपनी सीमा में समाविष्ट कर लेने के लिए चार ही अलङ्कार पर्याप्त नहीं माने जा सकते । यह मान लेने पर भी कि भरत ने केवल रूपक में प्रयुक्त होने वाले अलङ्कारों का ही स्वरूप-निर्धारण किया है, उन अलङ्कारों की शक्ति के सामने प्रश्न-चिह्न लगा ही रह जाता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, भरत-पूर्व नाटककारों की कृतियाँ उपलब्ध नहीं; १. यत्किञ्चित्काव्यबन्धेषु सादृश्येनोपमीयते । उपमा नाम सा ज्ञेया गुणाकृतिसमाश्रया ॥
-भरत, ना० शा० १६, ४१ २. एतद्दशविधं ज्ञेयं यमकं नाटकाश्रयम् ।-वही, १६, ६२.