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द्वितीय अध्याय
अलङ्कार-धारणा का विकास
भारत में काव्यशास्त्रीय चिन्तन-परम्परा का मूलभूत ग्रन्थ आचार्य भरत का 'नाट्यशास्त्र' है। यद्यपि भरत का मुख्य उद्देश्य दृश्य-काव्य के उपादानों का साङ्गोपाङ्ग निरूपण करना था, तथापि उनके व्यापक विवेचन में काव्य-शास्त्र के प्रमुख विवेच्य तत्त्वों का भी समावेश हो गया था। ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं था। दृश्य-काव्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। वाचिक अभिनय में श्रव्य- काव्य के सभी अवयव समाविष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि 'नाट्य शास्त्र' के प्रतिपाद्य मुण, दोष, रस, अलङ्कार आदि काव्यशास्त्र के भी प्रतिपाद्य विषय बन गये । नाट्यशास्त्र से पृथक् काव्यशास्त्रीय विवेचना का स्वरूप भामह के 'काव्यालङ्कार' से स्पष्ट हो जाता है, जिसमें नाटक के अङ्गों को छोड़, काव्य के अङ्गों का सुव्यवस्थित विवेचन किया गया है । इस रचना में काव्य के अलङ्कार की विवेचना का प्रमुख स्थान है । यहाँ आकर अलङ्कार की संख्या में भी बहुत वृद्धि हो गई। भरत के चार अलङ्कारों के स्थान पर भामह के 'काव्यालङ्कार' में परिभाषित एवं सूचित अलङ्कारों की संख्या उनचालीस हो गई। धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ती गई और अप्पयदीक्षित के 'कुवलयानन्द' में शताधिक हो गई। हिन्दी-साहित्य के रीतिकालीन आचार्यों ने बहुलांशतः 'कुवलयानन्द' की पद्धति का अनुसरण किया और अलङ्कारों के कुछ नवीन भेदोपभेदों की भी उद्भावना की। प्रस्तुत अध्याय में हम अलङ्कारों की स्फीति के हेतु एवं औचित्य पर विचार करेंगे।
भरत ने उपमा, रूपक, दीपक और यमक; इन चार अलङ्कारों का उल्लेख किया है और उन्हें काव्य के अलङ्कार कहा है।' उपमा की परिभाषा में भी १. उपमा दीपकं चैव रूपकं यमकं तथा । काव्यस्यते ह्यलङ्काराश्चत्वारः परिकीर्तिताः ॥
-भरत, ना० शा० १६, ४०,