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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
क्रोचे आदि ऐसे स्थल में भी प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के मेल से व्यजित एक अखण्ड सुन्दर अर्थ को समग्रता में ही काव्य मानेंगे। कवि की उस व्यञ्जना से अप्रस्तुत और प्रस्तुत को खण्डशः कर देने पर कवि की अभिव्यञ्जना का यथार्थ स्वरूप ही मिट जायगा-खण्ड में विभक्त होकर कोई उक्ति काव्य नहीं बच रहेगी। शुक्ल जी ने अलङ्कार के सम्बन्ध में उक्त स्थापना के समय अतिशय-गर्भ, शृङ्खला-गर्भ आदि अलङ्कारों को दृष्टि में नहीं रखा है, जिनमें प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत; दो अर्थ नहीं रहते, प्रस्तुत अर्थ का ही विशेष भङ्गी से कथन होता है। 'बिनु पग चलइ, सुनइ बिनु काना' इस विभावना में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के भेद का आग्रह अनुचित होगा। ऐसी उक्तियों में अलङ्कार के सौन्दर्य के साथ प्रतिपाद्य अर्थ काव्य बनता है। भेद करना ही चाहें तो कह लें कि प्रतिपादन की चमत्कारपूर्ण भङ्गी से प्रतिपाद्य अर्थ सुन्दर रूप में व्यक्त हुआ है । ऐसी स्थिति में प्रतिपादन की विशेष भङ्गी अर्थात् अलङ्कार को प्रतिपाद्य अर्थ अर्थात् अलङ्कार्य से पृथक् कर काव्यत्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । यहाँ कुन्तक के 'तत्त्वं सालङ्कारस्य काव्यता' के सिद्धान्त तथा क्रोचे के अखण्ड अभिव्यञ्जना के सिद्धान्त के औचित्य में सन्देह नहीं किया जा सकता। जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत अर्थ रहते भी हैं वहाँ भी दोनों की समन्वित योजना से व्यक्त एक सुन्दर अर्थ का ही—अप्रस्तुत से उपस्कृत प्रस्तुत के अखण्ड सौन्दर्य का ही-भावन होता है। मुख को कमल के समान कहने पर कमल का सौन्दर्य-बोध हृदय में उत्पन्न होकर मुख के सौंन्दर्य-बोध को उपस्कृत अवश्य करता है, पर वह अपने अस्तित्व का भी विलयन मुख के सौन्दर्य-बोध में ही कर देता है । अगर प्रिया के मुख की कान्ति की अनुभूति के समय कमल की कमनीयता की पृथक् अनुभूति होती रहे तो मुख के सौन्दर्य की अनुभूति बाधित ही हो जायगी। एक समय दो अनुभूतियाँ हृदय में कैसे रहेंगी? अतः सत्य यही है कि अलङ्कार प्रतिपाद्य से घुल-मिलकर एक अखण्ड काव्यबोध में सहायक होते हैं । काव्यानुभूति में वे बहिरङ्ग साहाय्य देने वाले धर्म नहीं होते ; फिर भी काव्यार्थ के विवेचन-विश्लेषण में, काव्य-समीक्षा में काव्याङ्गों का अलग-अलग विवेचन किया जाता है। कुन्तक की यही मान्यता थी, जिसका पोषण शुक्ल जी के कथन से भी होता है। समीक्षक काव्यार्थ का भावन कर ही विरत नहीं हो जाता। भावन तो समीक्षा का प्रथम चरण-मात्र है। समीक्षक भावित अर्थ का विश्लेषण करता है। इसी क्रम में वह विभिन्न काव्याङ्गों का सापेक्ष मूल्य भी निर्धारित करता है । तभी वह सम्पूर्ण काव्य काः