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अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान
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मूल्याङ्कन कर पाता है । क्रोचे के सिद्धान्त में काव्य-समीक्षा की इस पद्धति के लिए स्थान नहीं । सम्भव है कि काव्य को सहजानुभूति या अखण्ड अभिव्यञ्जना मान लेने पर क्रोचे को उस अखण्ड की खण्ड- कल्पना असम्भव जान पड़ी हो; पर भारतीय विचारकों के लिए यह कठिन समस्या नहीं थी । यहाँ तो केवल की तात्त्विक सत्ता तथा सम्पूर्ण विश्व को उसका विवर्त — उस एक की अविभाज्य अभिव्यक्ति मानकर भी उनमें व्यावहारिक भेद-निरूपण सम्भव माना गया है । दार्शनिकों की इस प्रशस्त विचार-सरणि पर चलकर साहित्यशास्त्र के आचार्यों ने भी अखण्ड काव्यानुभूति के सहायक अङ्गों की खण्डशः कल्पना को व्यावहारिक दृष्टि से उपादेय माना है । इसीमें अभिव्यञ्जनावाद के प्रतिष्ठाता क्रोचे आदि से कुन्तक आदि भारतीय आचार्यों का श्रेय है ।
निष्कर्ष यह कि काव्य की अनुभूति तत्त्वतः समग्र और अवयव - रहित ही होती है । सभी काव्य-तत्त्व एक अखण्ड काव्य-सौन्दर्य के अन्तरङ्ग सहायक होते हैं । अलङ्कार भी काव्य-सौन्दर्य का अन्तरङ्ग सहायक ही है । वह काव्यानन्द की अनुभूति में बाहर से सहायक नहीं होता । काव्य की समीक्षा के लिए जब वाक्यपदन्याय से उस पूर्ण काव्य-सौन्दर्य के अलग-अलग अङ्गों का विश्लेषण कर अलङ्कार का अन्य अङ्गों से सापेक्ष मूल्याङ्कन होता है, तब रस, गुण आदि की तुलना में अलङ्कार को गौण महत्त्व दिया जाता है । कारण ये हैं
(क) अलङ्कार के अभाव में भी रस, भाव आदि की समृद्धि से सरल उक्ति काव्य हो जाती है ।
(ख) रस, भाव आदि न रहें तो केवल अलङ्कार से उक्ति में काव्यत्व नहीं आता ।
(ग) अलङ्कार काव्य का अङ्गी नहीं बन सकता, अङ्ग ही होता है; क्योंकि उक्ति को अलङ कृत-मात्र करना कवि का मुख्य उद्देश्य नहीं होता । वह किसी विशेष उद्देश्य से ही अलङ्कार की योजना करता है ।
(घ) कहीं-कहीं अलङ्कार का भार भाव - सौन्दर्य का बाधक भी बन सकता है ।
काव्य-समीक्षा की सुविधा के लिए अङ्गों का विभाजन करने पर काव्य के शब्द तथा वाच्य-अर्थं मुख्य रूप से तथा रस, भाव आदि परम्परया अलङ्कार्य माने जाते हैं और उन्हें अलङ्कृत करने वाले अनुप्रास, उपमा आदि अलङ्कार । भावोत्कर्ष में सहायक अलङ्कार का काव्य में अनुपेक्षणीय महत्त्व है ।
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