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सम्पादकीय
भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्षपर्यन्त श्रुत की परम्परा अविच्छिन्नरूप में प्रवहमान रही । कालान्तर में स्मृतिदौर्बल्य, परावर्तन की न्यूनता, धृति का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति आदि कारणों से उसमें कमी आने लगी । श्रुतका अधिकांश भाग नष्ट होने लगा । जैनाचार्यों ने अवशिष्ट श्रुत को अक्षुण्ण और सुरक्षित रखने के लिए कुछ प्रयास किए। जो भी श्रुत न्यून या अधिक, त्रुटित या अत्रुटित स्मृति में था उसको व्यवस्थित संकलित किया गया । इसके लिए वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी (९८० या ९९३) में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी में एक प्रयास हुआ । देवर्द्धिगणी ने अपनी बुद्धि से उस सारे आगम की संयोजना कर उसे पुस्तकारूढ़ कर दिया ।
वर्तमान में उपलब्ध आगम देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की वाचना के हैं। उसके पश्चात् कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई ।
देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के पश्चात् आगम- सम्पादन का गुरुतर और दुरूह दायित्व आचार्य तुलसी ने अपने ऊपर लिया, किसी की प्रेरणा से नहीं, अन्तःकरण की प्रेरणा से इस दायित्व को दायित्व समझा और अधिकांश धर्मसंघ को इस कार्य में नियोजित किया । इस महान् कार्य में बीस-तीस साधु-साध्वियां आचार्यश्री की प्रेरणा पाकर संलग्न बने । मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) आगम-कार्य के दिशा-निर्देशक थे । उनके सान्निध्य में साधु-साध्वियों की पूरी टीम मनोयोगपूर्वक कार्य करती रही । प्रत्येक को अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अथवा योग्यता के अनुसार कार्य सौंपा हुआ था और उसका सम्पूर्ण निरीक्षण कर रहे थे आचार्य तुलसी ।
आगममनीषी मुनिश्री दुलहराजजी स्वामी आगम-कार्य में प्रारम्भ से लेकर आज तक सहयोगी - सहभागी रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन में श्रुत की महान् उपासना की है। इसलिए आगममनीषी औपचारिक अलंकरण नहीं है । यह उनकी श्रम