Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति डॉ. मोहनलाल मेहता ने एक प्रश्न उठाया है कि जैन आगम ग्रंथों में आचारांग सर्वप्रथम माना जाता है किन्तु यहां आचार्य भद्रबाहु सामायिक को सम्पूर्ण श्रुत के आदि में रखते हैं, ऐसा क्यों? इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि श्रमण के लिए सामायिक का अध्ययन सर्वप्रथम अनिवार्य है। सामायिक का अध्ययन करने के बाद ही वह दूसरे ग्रंथों का अध्ययन करता है क्योंकि चारित्र का प्रारम्भ भी सामायिक से होता है। चारित्र की पांच भूमिकाओं में प्रथम भूमिका सामायिक चारित्र की है। आगमग्रंथों में भी जहां भगवान महावीर के श्रमणों के श्रुताध्ययन की चर्चा है, वहां अनेक जगह अंग ग्रंथों के आदि में सामायिक का निर्देश
इसके पश्चात् सामायिक के अधिकारी का निरूपण है, जिसमें बताया गया है कि किस कर्म के क्षय, उपशम और क्षयोपशम से क्या उपलब्धि होती है? जीव केवलज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति कैसे करता है? इसका भी उपशम और क्षपक-इन दो श्रेणियों के द्वारा सर्वांगीण तात्त्विक विवेचन किया गया है। आचार्य के इस विस्तृत विवेचन का अभिप्राय यही है कि श्रुतसामायिक का अधिकारी ही मोक्षगमन के योग्य बनता है। इस प्रसंग में सामायिक-प्राप्ति के नौ दृष्टान्त भी बहुत रोचक और प्रेरक हैं। प्रत्येक तीर्थंकर सर्वप्रथम श्रुत का उपदेश देते हैं, उसी से गणधर सूत्र का प्रवर्तन करते हैं। इस प्रकार जिन-प्रवचन की उत्पत्ति के संदर्भ में प्रवचन, सूत्र, तीर्थ एवं अनुयोग के पर्यायों का कथन किया गया है। अनुयोग का निक्षेप करते हुए अनुयोग और अननुयोग को दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है। सातों दृष्टान्त लौकिक एवं व्यावहारिक हैं। तत्पश्चात् नियुक्तिकार भाषक, विभाषक आदि में भेद स्पष्ट करते हुए शिष्य के गुण-दोषों की चर्चा करते हैं। व्याख्यान-विधि के २६ उपोद्घात द्वारों का उल्लेख भी आज की अध्यापन-विधि को नया दिशाबोध देने वाला है तथा किसी भी पुस्तक की प्रस्तावना में जिन बातों की चर्चा आवश्यक है, उसकी सुंदर चर्चा प्रस्तुत करता है।
उद्देश एवं निर्देश के निक्षेपों के बाद निर्गम की विस्तृत चर्चा की गयी है। निर्गम के प्रसंग में भगवान् महवीर का मिथ्यात्व आदि से निकलना किस प्रकार हुआ, इस बहाने से उनके पूर्वभवों का वर्णन किया गया है। भगवान् ऋषभ के पूर्वभव, इक्ष्वाकु वंश की स्थापना तथा कुलकरों की उत्पत्ति का भी रोचक वर्णन प्राप्त होता है। कुलकरों से संबंधित नाम, संहनन, प्रमाण आदि अनेक बातों का वर्णन करने के पश्चात् ऋषभ के जीवन का सर्वांगीण वर्णन मिलता है। ऋषभ के साथ-साथ अन्य तीर्थंकरों से संबंधित वर्ण, प्रमाण, संहनन, संबोधन आदि २१ द्वारों का वर्णन किया गया है।
इन सब बातों का सामायिक नियुक्ति में वर्णन क्यों किया गया, इसका स्पष्टीकरण करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि निर्गम द्वार की चर्चा में भगवान् महावीर के पूर्वभव की चर्चा का प्रसंग आया। पूर्वजन्म के प्रसंग में मरीचि का वर्णन महत्त्वपूर्ण है। मरीचि का संबंध सीधा ऋषभ से जुड़ता है क्योंकि वह ऋषभ का पौत्र था। ऋषभ के जीवन के विविध प्रसंग तथा भरत-बाहुबलि के युद्ध का भी वर्णन है। इसके पश्चात् मरीचि के द्वारा त्रिदंडी सम्प्रदाय के प्रवर्तन का भी रोचक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। प्रागऐतिहासिक और ऐतिहासिक अनेक तथ्यों की क्रमबद्ध सुरक्षा का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य भद्रबाहु को है। सामायिक
१. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३ पृ. ६७। २. ज्ञाता। ३. आवनि. १२०-१२४।
४. आवनि. १२५, १२६ । ५. आवनि. १३१।
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