Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति (२००० से ९०००) बार तक आकर्ष उपलब्ध हो सकता है। सर्वविरतिसामायिक का आकर्ष एक भव में शतपृथक्त्व (२०० से ९००) बार तक हो सकता है। यह उत्कृष्ट आकर्ष का
उल्लेख है। न्यूनतम आकर्ष एक भव में एक बार होता है। • सम्यक्त्वसामायिक और देशविरतिसामायिक का नाना भवों में उत्कृष्टतः असंख्येय हजार बार
आकर्ष होता है। चारित्रसामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्टत: नाना भवों में २ से ९ हजार तक आकर्ष करता है तथा जघन्यतः एक भव करता है। श्रुतसामायिक का प्रतिपत्ता उत्कृष्टतः
अनंत भवों में अनंत आकर्ष करता है तथा जघन्यतः एक भव करता है। २५. स्पर्श-सामायिक का कर्ता कितने क्षेत्र का स्पर्श करता है?
सम्यक्त्वसामायिक और सर्वविरतिसामायिक से सम्पन्न जीव केवली-समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करता है। श्रुतसामायिक और सर्वविरतिसामायिक से सम्पन्न जीव इलिका गति से अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है, तब वह लोक के सप्त चतुर्दश (७/१४) भाग का स्पर्श करता है। सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक से सम्पन्न जीव छट्ठी नारकी में इलिका गति से उत्पन्न होता है तब वह लोक के पंच चतुर्दश (५/१४) भाग का स्पर्श करता है। देशविरतिसामायिक से सम्पन्न जीव यदि इलिका गति से अच्युत देवलोक में उत्पन्न होता है तो वह पंच चतुर्दश (५/१४) भाग का स्पर्श करता है। इसका दूसरा विकल्प यह है कि यदि अन्य देवलोकों में उत्पन्न होता है तो वह द्वि चतुर्दश (२/१४) आदि भागों का
स्पर्श करता है।
भावस्पर्शना की दृष्टि से श्रुतसामायिक संव्यवहार राशि के सब जीवों द्वारा स्पृष्ट है। सम्यक्त्व सामायिक और सर्वविरतिसामायिक सब सिद्धों द्वारा स्पृष्ट है। देशविरतिसामायिक असंख्येय भाग न्यून सिद्धों के द्वारा स्पृष्ट है। सब सिद्धों को बुद्धि से कल्पित असंख्येय भागों में विभक्त करने पर यह जाना जा सकता है। कोई-कोई जीव देशविरतिसामायिक का स्पर्श किए बिना भी मुक्त हो जाते हैं। २६. निरुक्त-सामायिक के निरुक्त कितने होते हैं? ।
_ . सम्यक्त्वसामायिक के सात, श्रुतसामायिक के चौदह, देशविरतिसामायिक के छह तथा सर्वविरतिसामायिक के आठ निरुक्त हैं। विस्तार हेतु देखें सामायिक के निरुक्त भूमिका पृ.२४ ।
तीसरी सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति में अस्खलित, अन्य वर्गों से अमिश्रित, अन्य ग्रंथों के वाक्यों से अमिश्रित, प्रतिपूर्ण, घोषयुक्त, कंठ और होठ से निकला हुआ, गुरु की वाचना से प्राप्त सूत्र का उच्चारण करना होता है। इससे स्वसमयपद, परसमयपद, बंधपद, मोक्षपद, सामायिकपद और नोसामायिकपद-ये सब जाने जाते हैं। १. विभा २७८०, महेटी पृ. ५५३;
३. आवनि. ५५९, हाटी. १ पृ. २४२ । तिण्ह सहस्सपुहत्तं, सयपहत्तं च होइ विरईए। ४. आवनि. ५६०।
एगभवे आगरिसा, एवइया हंति नायव्वा॥ ५. आवनि. ५६१-५६४। २. विभा २७८१, महेटी पृ. ५५३;
६. अनुद्वा. ७१४। तिण्ह पुहत्तमसंखा, सहस्सपुहत्तं च होइ विरईए। नाणभवे आगरिसा, सुए अणंता उ नायव्वा ॥
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