Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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जीवाभिगमसूत्रे अथ देवानां कामभोगं प्रस्तौति- 'सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति' सौधर्मेशाकल्पयोः खलु भदन्त ! देवाः कीदृशान् कामभोगान् शब्दादिविषयान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? भगवानाह-'गोयमा ! इटा सदा इट्टा रूवा जाव फासा' इष्टान् शब्द-रूप-गन्ध-रस-स्पर्शान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति । एवं जाव गेवेज्जा' सोधर्मेशानवद् ग्रैवेयकान्ताः सनत्कुमारात् ज्ञेयाः। 'अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सदा जाव अणुत्तरा फासा' अनुत्तरोपपातिकदेवानामनुत्तराः शब्दाः यावदनुत्तराः स्पर्शाः अनुत्तरान् सर्वतो विशिष्टान् शब्दादि विषयान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति बोध्यम् । शरीर की विभूषा अन्य आभरणादिकों द्वारा नहीं करते हैं किन्तु इनके शरीर की शोभा स्वाभाविक होती है। यहां पर भी देवियां नहीं हैं। 'सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुम्भवमाणा वि हरंति' हे भदन्त ! सौधर्म और ईशान कल्प में देव कैसे कामभोगों का शब्दादि विषयों का अनुभव करते रहते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! इट्टा सद्दा, इट्टा रूवा जाव फासा' हे गौतम ! सौधर्म और ईशान कल्प के देव इष्ट शब्द, इष्टरूप, इष्टगंध, इष्टरस और इष्ट स्पर्शों का अनुभव करते रहते हैं 'एवं जाव गेवेन्जा' ऐसा यह काम भोग सम्बन्धी कथन अवेयकवासी देवों तक जानना चाहिये 'अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सद्दा जाव अणुत्तरा फासा.' अनुत्तरोपपातिक जो देव हैं वे अनुत्तर शब्दों का यावत् अनुत्तर स्पर्शो का-सर्वतो विशिष्ट शब्दादि विषयों का-अनुभव करते रहते हैं । 'ठिई सव्वेसिं भाणियव्वा' समस्त देवों की શરીરની શોભા આભૂષણ વિગેરે દ્વારા કરતા નથી. પરંતુ તેમને એ શરીરની शामा स्वालावि४ ४ डाय छे. मी ५ हेविया हाती नथी. 'सोहम्मीसा णेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुभवमाणा वि०' है भगवन् सीधम भने ઇશાન કપમાં કેવા પ્રકારના કામનો અર્થાત્ શબ્દાદિ વિષને અનુભવ पडता छ. ॥ प्रशन उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा ! इटूठा, सदा इट्ठा रूवा जाव फासा' गौतम ! सौधर्म भने ४४८५न । ४ ५४, राष्ट ३५, ध; Uष्ट २स, अनेट २५शेनि। अनुभव ४२०i २९ छे. 'एवं जाव गेवेज्जा' से शतमा मिलेर समधी ४थन अवय पासी ढेवोना ४थन पन्त सभ७ से. 'अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तररा सदा जाव अणुत्तरा फासा०' अनुत्त५५ति हे। छ त। अनुत्तर शहाना यावत् मनुत्तरસ્પર્શેના–સર્વથી વિશેષ પ્રકારના શબ્દાદિ વિષયને અનુભવ કરતા રહે છે.
જીવાભિગમસૂત્ર