Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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___ जीवाभिगमसूत्रे पन्नत्ता' अथवा सर्वे जीवाश्चतुर्धा विभक्ताः संसारिणोऽसंसारिणश्च । 'तं जहाचक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी, अवधिदंसणी, केवलदसणी' तघथा-चक्षुदर्शनिनोऽचक्षुदर्शनिनो ऽवधिदर्शनिन:-केवलदर्शनिनश्च । 'चक्खुदंसणी णं भंते !०' चक्षुर्दर्शनी खलु भदन्त ! कियच्चिरं चक्षुर्दर्शनिति कालतो भवति ? भगवानाह-गौतम ! 'जहन्नेणं-अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं' चक्षुर्दर्शनी जघन्ये. नान्तर्मुहूर्तम् अचक्षुर्दर्शनिभ्य उद्धृत्य चक्षुर्दर्शनिषु उत्पध तावन्तं कालं स्थित्वा पुनस्तेषु अचक्षु दर्शनिषु कस्याऽपि गमनात् । उत्कर्षेण सातिरेक सागरोपमसहक्योंकि वनस्पतिकायिक जीव नपुंसक होते हैं और ये सिद्धों की अपेक्षा भी अनन्तगुणें कहे गये हैं 'अहवा०' इस रीति से भी समस्त जीव चार प्रकार के होते हैं-'तं जहा' जैसे-'चक्खुदंसणी, अचक्खु. दंसणी, अवधिदसणी, केवलदसणी' चक्षुर्दशनी, अचक्षुर्दर्शनी अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी,
इनकी कायस्थिति का विचार-'चक्खुदंसणी णं भंते !' हे भदन्त ! चक्षुर्दर्शनी कितने काल तक चक्षुर्दर्शनी के रूप में रहता है ? उत्तर में प्रभु कहते है । 'जह० अंतोमु० उक्को० सागरोवमसहस्सं सातिरेगं' हे गौतम ! चक्षुर्दर्शनी चक्षुर्दर्शनी के रूप में जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक एक हजार सागरोपम तक रहता है अचक्षुर्दर्शनी से मरण कर वह चक्षुर्दर्शन वालों में उत्पन्न होकर कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक वहां रहता है और फिर छ. मन तसा सिद्धोना ४२di ५५५ मानतमा ४ामा मावेश छ. 'अहवा०' मथवा रीते ५५४ सा वो या२ ५४।२ना डाय छे. 'तं जहा' भ3'चक्खुदंसणी, अचक्खुदसणी; अवधिदसणी, केवलदसणी' यक्षुशनी मयाशिनी, અવધિદર્શની, અને કેવલદેશની
यस्थितिनु ४थन'चक्खुदसणीणं भंते !' हे सगवन् ! यक्षुशनी साज पन्त यक्षशनी पाथी २४ छ ? २मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'जहण्णे णं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेग' गौतम ! यक्षुशनी ચક્ષદર્શની પણુથી એક અંતર્મુહૂર્ત પર્યન્ત રહે છે અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક વધારે એક હજાર સાગરેપમ પર્યન્ત રહે છે. એચક્ષુદર્શની પણાથી મરીને તે ચક્ષુદર્શની વાળાઓમાં ઉત્પન્ન થઈને ઓછામાં ઓછા એક અંતર્મુહૂર્ત પર્યન્ત ત્યાં રહે છે. અને તે પછી ત્યાંથી પણ મરીને તે અચક્ષુદર્શનવાળા
જીવાભિગમસૂત્ર