Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयद्योतिका टीका प्र. १० सू. १४९ जीवानां षइविधत्वनिरूपणम्
नन्तगुणाः सिद्धानामनन्तगुणत्वात् । ' अन्नाणी अनंतगुणा' केवलज्ञानिभ्योऽज्ञानिनोऽनन्तगुणाधिकाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽपि अनन्तत्वात् । ' अहवा - छव्विहा सव्वजीवा पन्नता तं जहा - एगिंदिया - बेइंदिया- तेइंदिया - चउरिंदिया- पंचिदिया अणिदिया' पक्षान्तरेऽपि सर्वजीवाः षड्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - एकेन्द्रियाः द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः अनिन्द्रियाः ६ । 'संचिद्वणांतरा जहा ट्ठा' संसिद्वान्तरे यथाऽधस्तात् एकेन्द्रियादीनां कायस्थितिरन्तरं च व्याख्यात पूर्व केन्द्रियादिप्रकरणतः 'अप्पाबहु०' अल्पबहुत्वविचारे - एषाम् 'सव्वत्थोवा पंचिदिया' सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियाः 'चउरिंदिया विसेसा
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सिद्ध जीव अनन्त कहे गये हैं । इनकी अपेक्षा जो अज्ञानी जीव हैं वे अनन्तगुणें अधिक हैं क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों की अपेक्षा अनन्तगुणें अधिक कहे गये हैं। 'अहवा छव्विहा सव्वजीवा पन्नत्ता' अथवा - इस रीति से भी समस्त जीव छह प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा' जैसे - 'एगिंदिया बेइंदिया, तेइंदिया चउरिंदिया, पंचिदिया, अनिंदिया' एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अनिन्द्रिय इस प्रकार के इन भेदों में संसारी और असंसारी समस्त जीव अन्तर्हित हो जाते हैं । 'संचिट्टणांतरा जहा हेट्ठा' जिस प्रकार से पहिले एकेन्द्रियादिक जीवों की कायस्थिति और अन्तर इनके सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा चुका है उसी प्रकार से इस प्रकरण में भी इनकी कायस्थिति और अन्तर के सम्बन्ध में प्रकाश डाल लेना चाहिये 'अप्पा बहुय' इनके अल्पबहुत्व का विचार - इस प्रकार से है 'सव्वत्थोवा पंचिदिया' पञ्चेन्द्रिय जो जीव हैं वे सब से कम हैं
હાવાનુ કહેવામાં આવેલ છે. તેના કરતાં જે અજ્ઞાની જીવ છે તે અન તગણા વધારે કહેવામાં આવેલ છે. કેમ કે વનસ્પતિકાય વાળા જીવા સિદ્ધોના કરતાં यशु अनंतगण वधारे अहेवामां आवे छे. 'अहवा छव्विहा सव्व जीवा વળત્તા' અથવા આ રીતે પણ સઘળા જીવા છ પ્રકારના કહેવામાં આવેલા छे. 'तं जहां' प्रेम - एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पचिंदिया, अणिंदिया' मेेन्द्रिय, मेहा न्द्रि, तेथेन्द्रिय, यौध न्द्रिय, यथेन्द्रिय मने अनीન્દ્રિય, આ પ્રકારના આ ભેદમાં સંસારી અને અસંસારી સઘળા જીવાના सभावेश था लय छे. 'संचिट्टणान्तरा जहा हेट्ठा' ? प्रमाणे पडेलां मेडेन्द्रिय વિગેરે જીવાની કાયસ્થિતિ અને અંતરના સંબંધમાં કથન કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે આ પ્રકરણમાં પણ તેમની કાયસ્થિતિ અને અંતરના સંબં - ધમાં થન કરીલેવુ.
જીવાભિગમસૂત્ર