________________ के जो श्रमण बचे थे, उन्हें जितना स्मृति में था, उतना ही देवद्धिगणि ने संकलन किया था, सम्भव है वे श्रमण बहुत सारे पालापक भूल हो गये हों, जिससे भी विसंवाद हुये है / 75 ज्योतिषकरण्ड को बत्ति 8 में यह प्रतिपादित किया गया है कि इस समय जो अनुयोगद्वार सूत्र उपलब्ध है, वह माथुरी वाचना का है। ज्योतिषकरण्ड ग्रन्थ के लेखक प्राचार्य वल्लभी वाचना की परम्परा के थे। यही कारण है कि अयोगद्वार और ज्योतिषकरण्ड के संख्यास्थानों में अन्तर है। अनुयोगद्वार में शीर्षप्रहेलिका की संख्या एक सौ छानवे (196) अंकों की है और ज्योतिषकरण्ड में शीर्षप्रहेलिका की संख्या 250 अंकों की है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि ग्रागमों को व्यवस्थित करने के लिये समय-समय पर प्रयास किया गया है। व्याख्याक्रम और विषयगत वर्गीकरण की दृष्टि से प्रार्य रक्षित ने आगमों को चार भागों में विभक्त किया है(१) चरणकरणानुयोग-कालिकश्रत, (2) धर्मकथानुयोग-ऋषिभाषित उत्तराध्ययन आदि, (3) गणितानुयोगसूर्यप्रज्ञप्ति प्रादि / (4) द्रव्यानुयोग-दष्टिवाद या सूत्रकृत ग्रादि। प्रस्तुत वर्गीकरण विषय-सादृश्य को दृष्टि से है। व्याख्याक्रम की दृष्टि से पागमों के दो रूप हैं-(१) अपृथक्त्वानुयोग, (2) पृथक्त्वानुयोग / आर्य रक्षित से पहले अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था / उसमें प्रत्येक सूत्र का चरण-करण, धर्मकथा, गणित और द्रव्य दृष्टि से विश्लेषण किया जाता था। यह व्याख्या अत्यन्त ही जटिल थी। इस व्याख्या के लिये प्रकृष्ट प्रतिभा की अावश्यकता होती थी। प्रार्य रक्षित ने देखा—महामेधावी दबंलिका पुष्यमित्र जैसे--प्रतिभासम्पन्न शिष्य भी उसे स्मरण नहीं रख पा रहे हैं, तो मन्दबुद्धि वाले श्रमण उसे कैसे स्मरण रख सकेंगे ! उन्होंने पृथक्त्वानयोग का प्रवर्तन किया जिससे चरण-करण प्रभृति विषयों की दृष्टि से आगमों का विभाजन हुआ / 6 जिनदासगणि महत्तर ने लिखा है कि अपृथक्त्वानुयोग के काल में प्रत्येक सूत्र का विवेचन चरण-करण आदि चार अनुयोगों तथा 700 नयों से किया जाता था। पृथक्त्वानुयोग के काल में चारों अनुयोगों की व्याख्या पृथक्-पृथक की जाने लगी। नन्दीसूत्र में आगम साहित्य को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो भागों में विभक्त किया है।८१ अंगबाह्य के प्रावश्यक, अावश्यकव्यतिरिक्त, कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद-प्रभेद किये हैं। दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र की श्र तसागरीय वृत्ति में भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो अागम के भेद किये हैं। 82 अंगबाह्य आगमों की सूची में श्वेताम्बर और दिगम्बर में मतभेद हैं। किन्तु दोनों ही परम्परामों में अंगप्रविष्ट के नाम एक सदृश मिलते हैं, जो प्रचलित हैं। श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी अंगसाहित्य को मूलभूत अागमग्रन्थ मानते हैं, और मभी की दृष्टि से दृष्टिवाद का सर्वप्रथम विच्छेद हुना है / यह पूर्ण सत्य है कि जैन पागम माहित्य चिन्तन की 77. सामाचारीशतक, अागम स्थापनाधिकार-३८ 78. (क) सामाचारीशतक आगम स्थापनाधिकार-३८ (ख) गच्छाचार-पत्र-३ से 4 / 79. अपहत्त अणुयोगो चत्तारि दुवार भासई एगो। पहत्ताणमोगकरणे ते प्रत्था तो उ वुच्छिन्ना // देविंदवंदिएहि महाणुभावेहिं रविखन अज्जेहिं / जुगमासज्ज विहत्तो अणुप्रोगो ता को चउहा / / ...अावश्यकनियक्ति गाथा 773-774 80. जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहस्पिहं वक्खाणिज्जंति पहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एक्केक्कं सुत्त एतेहि चउहि वि अणुयोगेहि सतहि णयसतेहिं वक्खाणिज्जति // ----सूत्रकृताङ्गचूणि पत्र-४ 81. तं समासो दुविहं पण्णत्त तं जहा--अंगपविट्ठ अंगबाहिरं च / / -नन्दीसूत्र सूत्र–७७॥ 82. तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति 1 / 20 .[28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org