________________ प्रोगम-लेखन का श्रेय देवद्धिगणि को प्राप्त है। इस सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध गाथा है कि वल्लभी नगरी में देवद्धिगणि प्रमुख श्रमण संघ ने वीर-निर्वाण 980 में प्रागामों को पस्तकारूढ किया था। देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के समक्ष स्कन्दिली और नागार्जुनीय ये दोनों वाचनाएं थी, नागार्जुनीय वाचना के प्रतिनिधि प्राचार्यकालक (चतुर्थ) थे। स्कन्दिली वाचना के प्रतिनिधि स्वयं देवद्धि गणि थे / हम पूर्व लिख चके पायं स्कन्दिल और आर्य नागार्जुन दोनों का मिलन न होने से दोनों वाचनाओं में कुछ भेद था।७३ देवद्धि गणि ने शु तसंकलन का कार्य बहुत ही तटस्थ नीति से किया। प्राचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुखता देकर नागार्जुनीय वाचना को पाठान्तर के रूप में स्वीकार कर अपने उदात्त मानस का परिचय दिया, जिससे जैनशासन विभक्त होने से बच गया। उनके भव्य प्रयत्न के कारण ही श्र तनिधि अाज तक सुरक्षित रह सकी। प्राचार्य देवद्धि गणि ने प्रागमों को पुस्तकारूढ़ किया। यह बात बहुत ही स्पष्ट है। किन्तु उन्होंने किन-किन अागामों को पुस्तकारूढ़ किया? इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता। नन्दीसूत्र में श्र तसाहित्य की लम्बी सूची है। किन्तु नन्दीसूत्र देवद्धि गणी की रचना नहीं है। उसके रचनाकार प्राचार्य देव वाचक हैं / यह बात नन्दीणि और टीका से स्पष्ट है / 74 इस दृष्टि से नन्दी सूची में जो नाम आये हैं, वे सभी देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के द्वारा लिपिबद्ध किये गये हों, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता / पण्डित दलसुख मालवणिया७५ का यह अभिमत है कि अंगसूत्रों को तो पुस्तकारूढ़ किया ही गया था और जितने अंगबाह्य ग्रन्थ, जो नन्दी से पूर्व हैं, वे पहले से ही पुस्तकारूढ़ होंगे। नन्दी की प्रागमसूची में ऐसे कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थ हैं, जिनके रचयिता देवद्धिगणि के बाद के प्राचार्य हैं / सम्भव है उन ग्रन्थों को बाद में पागम की कोटि में रखा गया हो। कितने ही विज्ञों का यह अभिमत है कि वल्लभी में सारे प्रागमों को व्यवस्थित रूप दिया गया। भगवान महावीर के पश्चात् एक सहस्र वर्ष में जितनी भी मुख्य-मुख्य घटनाएँ घटित हुई, उन सभी प्रमुख घटनाओं का समावेश यत्र-तत्र अागामों में किया गया। जहाँ-जहाँ पर समान पालापकों का बार-बार पुनरावर्तन होता था, उन पालापकों को संक्षिप्त कर एक दूसरे का पूर्तिसंकेत एक-दूसरे प्रागम में किया गया। जो वर्तमान में प्रागम उपलब्ध हैं, वे देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की वाचना के हैं। उसके पश्चात् उसमें परिवर्तन और परिवर्धन नहीं हया।७६ यह सहज ही जिज्ञासा उद्बुद्ध हो सकती है कि ग्रागम-संकलना यदि एक ही प्राचार्य की है तो अनेक स्थानों पर विसंवाद क्यों है ? उत्तर में निवेदन है कि सम्भव है उसके दो कारण हों। जो श्रमण उस समय विद्यमान थे उन्हें जो-जो प्रागम कण्ठस्थ थे उन्हीं का संकलन किया गया था। संकलनकर्ता को देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने एक ही बात दो भिन्न आगामों में भिन्न प्रकार से कही है, यह जानकर के भी उसमें हस्तक्षेप करना अपनी अनधिकार चेष्टा समझी हो! वे समझते थे कि सर्वज्ञ की वाणी में परिवर्तन करने से अनन्त संसार बढ़ सकता है। दूसरी बात यह भी हो सकती है-नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी और वल्लभी वाचना की परम्परा 72. वलहीपुरम्म नयरे, देवढिपमुहेण समणसंघेण / पुत्थइ पागम लिहियो नवसय असीग्रामो विराम्रो / 73. परोप्परमसंपण्णमेलाबा य तस्समयाग्रो खंदिल्लनागज्जुणायरिया कालं काउं देवलोन गया। तेण तुल्लयाए वि तद्द धरियसिद्धताणं जो संजायो कथम (कहमवि) वायणा भेग्रो सो य न चालियो पच्छिमेहि। -~-कहावली-२९८ 74. नन्दीसूत्र चणि पृ. 13 / 75. जैनदर्शन का आदिकाल, पृ. 7 76. दसवेग्रालियं, भूमिका, पृ. 27, प्राचार्य तुलसी [ 27 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org