________________ प्रादि गुणों से सम्पन्न, सामायिक श्रु तादि के ग्रहण से अथवा परम्परा से विकास की भूमिका पर क्रमशः ग्रारोहणपूर्वक वाचकपद को प्राप्त प्रोधश्र तसमाचारी में कुशल प्राचार्य नागार्जुन को मैं प्रणाम करता हूँ।६६ दोनों वाचनाओं का समय लगभग समान है। इसलिये सहज ही यह प्रश्न उद्बुद्ध होता है कि एक ही समय में दो-भिन्न-भिन्न स्थलों पर वाचनाएं क्यों प्रायोजित की गई ? जो श्रमग वल्लभी में एकत्र हुए थे वे मथरा भी जा सकते थे। फिर क्यों नहीं गये ? उत्तर में कहा जा सकता है-उत्तर भारत और पश्चिम भारत के श्रमण संघ में किन्हीं कारणों से मतभेद रहा हो, उनका मथरा की वाचना को समर्थन न रहा हो / उस वाचना की गतिविधि और कार्यक्रम की पद्धति व नेतत्व में पश्चिम का श्रमणसंघ सहमत न हो! यह भी संभव है कि माथुरी वाचना पूर्ण होने के बाद इस वाचना का प्रारम्भ हुआ हो। उनके अन्तर्मानस में यह विचार-लहरियाँ तरंगित हो रही हों कि मथुरा में प्रागम-संकलन का जो कार्य हा है, उस से हम अधिक श्रेष्ठतम कार्य करेंगे। संभव है इसी भावना से उत्प्रेरित होकर कालिक श्रत के अतिरिक्त भी अंगबाह्य व प्रकरणग्रन्थों का संकलन और आकलन किया गया हो / या सविस्तृत पाठ बाले स्थल अर्थ की दृष्टि से सुव्यवस्थित किये गये हों। इस प्रकार अन्य भी अनेक संभावनाएं की जा सकती हैं। पर उन का निश्चित प्राधार नहीं है। यही कारण है कि माथरी और बल्लभी बाचनाओं में कई स्थानों पर मतभेद हो गये। यदि दोनों श्रतधर प्राचार्य परस्पर मिल कर विचार-विमर्श करते तो संभवत: वाचनाभेद मिटता। किन्तु परिताप है कि न वे वाचना के पूर्व मिले और न बाद में ही मिले। बाचनाभेद उनके स्वर्गस्थ होने बाद भी बना रहा, जिससे वत्तिकारों को 'नागार्जुनीया पुनः एवं पठन्ति' आदि वाक्यों का निर्देश करना पड़ा। पञ्चम वाचना वीर-निर्माण की दशवीं शताब्दी (980 या 993 ई., सन् 454-466) में देवद्धि गणि क्षमा-श्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमण-संघ एकत्रित हुना। स्कन्दिल और नागार्जुन के पश्चात् दुष्काल ने हृदय को कम्पा देने वाले नाखूनी पंजे फैलाये ! अनेक श्रुतधर श्रमण काल-कवलित हो गये / श्रत की महान् क्षति हुयी / दुष्काल परिसमाप्ति के बाद वल्लभी में पुन: जैन संघ सम्मिलित हुया / देवद्धि गणि ग्यारह अंग और एक पूर्व से भी अधिक श्रु त के ज्ञाता थे। श्रमण-सम्मेलन में त्रुटित और अटित सभी पागमपाठों का स्मृति-सहयोग से संकलन हुना / श्रत को स्थायी रूप प्रदान करने के लिए उसे पुस्तकारूढ किया गया। प्रागम-लेखन का कार्य प्रार्य रक्षित के युग में अंश रूप से प्रारम्भ हो गया था। अनुयोगद्वार में द्रव्यश्रुत और भाबश्रुत का उल्लेख है। पुस्तक लिखित श्रुत को द्रव्यश्रुत माना गया है। आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के समय में भी प्रागमों को लिपिबद्ध किया गया था। ऐसा उल्लेख मिलता है। किन्तु देवद्धिगणि के कुशल नेतृत्व में आगमों का व्यवस्थित संकलन और लिपिकरण हुया है, इसलिये 69. (क) मिउमद्दवसंपण्णे अणुपुब्वि वायगत्तणं पत्त / ओहसुयसमायारे णागज्जुणवायए बंदे / / नन्दीसूत्र-गाथा 35 (ख) लाइफ इन ऐन्श्येट इंडिया एज डेपिक्टेड इन दी जैन कैनन्स ! पृष्ठ-३२-३३ -(ला० इन ए० इ०) डा० जगदीशचन्द्र जैन बम्बई, 1947 (ग) योगशास्त्र प्र. 3, पृ. 207 70. से कि तं....."दब्बसुअं? पत्तयपोत्थर्यालहिअं - अनुयोगद्वार सूत्र 71. जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तके न्यस्तम्। -योगशास्त्र, प्रकाश 3, पत्र 207 [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org