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ईर्ष्यामानभयक्रोध लोभमोहमदुभ्रमाः । तज्जं वा कर्म यत्क्लिष्टं यद्वा तद्देह कर्म च ॥ यच्चान्यदीदृशं कर्म रजोमोहसमुत्थितम् । प्रज्ञापराधं तं शिष्टा ब्रुवते व्याधिकारणम् ॥
आचार्यों ने विकारों का वर्गीकरण विविध प्रकार से किया है । साध्यरोग असाध्यरोग, मृदुरोगदारुणरोग, मनोऽधिष्ठानभूत रोग शरीराधिष्ठानभूतरोग, स्वधातुवैषम्य निमित्त रोग-आगन्तु निमित्तरोग, आमाशय समुत्थरोग - पक्काशय समुत्थरोग इसी प्रकार विविध अन्य भी वर्गीकरण किए गये हैं। मानवीय रोग अनेक होते हैं तथा उनके कर्त्ता दोष निश्चित हैं इसीलिए आयुर्वेद में व्याधि को उतना महत्त्व नहीं दिया गया जितना कि उसके उत्पादक दोषों का विवेचन किया गया है । दोष भी आचार्यों ने दो प्रकार के माने हैं । १. मानसदोष सत्व, रज तथा तम और २. शरीरदोष वात, पित्त तथा कफ । मानसदोषों के काम-क्रोध-लोभ-मोह - ईर्ष्या-मान-मद-शोक- चित्तोद्वेग-भय-हर्ष आदि विकारों की उत्पत्ति मानी जाती है। शारीर दोषों से ज्वर - अतीसार कुष्ठ-श्वास- शोषप्रमेह - उदररोगादि विविध विकार होते हैं । इन दोनों प्रकार के दोषों का तीन प्रकार से प्रकोपण होता है
१ - असात्म्येन्द्रियार्थ संयोगजन्य,
२ -- प्रज्ञापराधजन्य, तथा ३ - परिणामजन्य ।
इन सबके सम्बन्ध में आयुर्वेदीय उपलब्ध संहिताओं में बड़ा तर्क सम्मत वर्णन मिलता है । प्रकृति और विकृति ये दो शब्द आयुर्वेदीय हैं । निदानात्मक विचारणा के लिए उनकी आवश्यकता पड़ती है। शास्त्रकारों ने १ - जातिप्रसक्ता, २ - कुलप्रसक्ता, ३-देशानुपातिनी, ४- कालानुपातिनी, ५ - वयोऽनुपातिनी तथा ६ - प्रत्यात्मनियता ६ प्रकार की प्रकृति मानी है । उन्होंने किसी जातिविशेष में जन्म होने के कारण स्वाभाविक रूप से जो गुण व्यक्ति में प्राप्त होते हैं उन्हें जातिप्रसक्ता के अन्तर्गत समझाया है । जैसे क्षत्रिय स्वभाव से ही वीर, लड़ाकू और शासनकर्त्ता होता है । जाति का बोध होने से क्षात्र प्रकृति का तुरत बोध हो जाता है । कुलप्रसक्ता प्रकृति द्वारा कुल का बोध होता है । जैसे रघुवंशियों की आन कि प्राण जाने की चिन्ता नहीं वचन की रक्षा होनी चाहिए । देशानुपातिनी प्रकृति व्यक्ति की जन्मभूमि के गुणों की प्रकाशिका होती है । बंगदेशीय व्यक्ति अधिक बुद्धिमान्, मगधदेशीय युद्धप्रिय, महाराष्ट्रिय कट्टर, पञ्जाबी फैशन पसन्द, मदरासी सरल जीवन प्रिय आदि । कालानुपातिनी प्रकृति विविध कालखण्डों का बोध कराती है। त्रेतायुगीन व्यक्ति, कलियुगीन व्यक्ति । इसी प्रकार वसन्तादि ऋतु प्रभाव का भी बोध इससे होता है । वयोऽनुपातिनी प्रकृति व्यक्ति की आयु का विचार प्रकट करती है । बालक, सुकुमार और नवयुवक का उद्दण्डताप्रिय होना एक स्वभाव है । प्रत्यात्मनियता प्रकृति व्यक्ति विशेष की अपनी प्रवृत्तियों के अनुकूल बने स्वभाव की ओर इङ्गित करती है ।
विकृति तीन प्रकार की कही गई है - १ -लक्षणनिमित्ता, २- लक्ष्यनिमित्ता तथा ३- निमित्तानुरूपा । लक्षगनिमित्ता विकृति देव के कारण व्यक्ति में उत्पन्न लक्षण - सामुद्रिक लक्षण अथवा अन्य विकृतियाँ जो जन्म के साथ उसमें आती हैं। लक्ष्यनिमित्ता विकृति का लक्षण स्वयं चरक में इस प्रकार आया है
चयनिमित्ता तु सा यस्या उपलभ्यते निमित्तं यथोक्तनिदानेषु । जिसका कारण निदानादिक से ज्ञात हो जाता है । विकार जिनका वर्णन आयुर्वेदीय या मैडीसिन के ग्रन्थों में हुआ है जिनका निमित्त भूतादिक या दोषादिक किसी न किसी प्रकार ज्ञात किया जा सकता है इस विकृति के अन्तर्गत लिए जाते हैं इसी का वर्णन इस ग्रन्थ में हुआ है । निमित्तानुरूपा विकृति वह विकृति है जो बिना किसी निमित्त के ही लक्षणनिमित्ता तथा लक्ष्यनिमित्ता विकृति को उपस्थित कर दे जैसा कि गतायुष मुमर्षुओं में देखने में आता है। जब
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