Book Title: Abhinav Vikruti Vigyan
Author(s): Raghuveerprasad Trivedi
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ४ ] भ्रश्यति तु कृतयुगे केषाश्चिदत्यादानात् साम्पत्रिकानां शरीरगौरवमासीत् । सत्वानां गौरवात् श्रमः श्रमादालस्यम, आलस्यात् सञ्चयः, सञ्चयात्परिग्रहः, परिग्रहाल्लोभः, प्रादुरासीत् कृते । ततस्त्रेतायान्तु लोभादपिद्रोहोऽभिद्रोहादनृतवचनम्, अनृतवचनात् कामक्रोधमानद्वेषपारुष्याभिघातभयतापशोकचिन्तोद्वेगादयः प्रवृत्ताः।। ततस्त्रेतायां धर्मपादोन्तर्धानमगमत्। तस्यान्तर्धानात् युगवर्षप्रमाणस्य पादहासः पृथिव्यादेर्गुणपादप्रणाशोऽभूत् । तत्प्रणाशकृतश्च शस्यानां स्नेहवैमल्यरसवीर्यविपाकप्रभावगुणपादभ्रंशः। ततस्तानि प्रजाशरीराणि हीनगुणपादेहीयमानगुणेश्वाहारविकाररयथ. पूर्वमुपष्टभ्यमानानिमारुतपरीतानि । प्राग व्याधिवरादिभिः आक्रान्तान्यतःप्राणिनो हासमवापुरायुषः क्रमश इति । (च. वि. स्था. अ.३) कृतयुग के बीत जाने पर किन्हीं सम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा अत्यधिक आदान से शरीर में गौरव उत्पन्न हो गया। शरीर भारी होने से थकावट आने लगी, थकावट से आलस्य पैदा हुआ, आलस्य से सञ्चय की प्रवृत्ति हुई, सञ्चय ने परिग्रह बढ़ाया, परिग्रह ने लोभ उत्पन्न कर दिया। आगे चलकर त्रेतायुग में ही लोभ से अभिद्रोह उत्पन्न हुआ, अभिद्रोह से झूठ बोलना बना, झूठ बोलने (अनृतवचन) से काम-क्रोध-मान-द्वेष, पारुष्य-अभिघात, भय, ताप, शोक, चिन्ता और उद्वेगों की प्रवृत्तियां पनपीं। इन सब कुप्रवृत्तियों के कारण धर्म का एक चरण टूट गया उसके अन्तर्धान हो जाने के कारण युग तथा वर्ष के प्रमाणों में भी एक चतुर्थांश का हास हो गया अर्थात् ४८०० दिव्य वर्षों का जो सतयुग रहा उसमें से १२०० दिव्यवर्षे घटकर त्रेता ३६०० दिव्यवर्षों का रह गया । पृथ्वी आदि महाभूतों के गुणों में भी चतुर्थाश का हास हो गया। इस कमी से पदार्थों का स्नेह विमलता रस-वीर्य-विपाक-प्रभाव तथा गुणों में भी उसी अनुपात में कमी आगई । उनका उपयोग प्राणियों को करना पड़ा इसलिए प्रजावर्ग के शरीर में भी चतुर्थांश गुण कम हो गये। अग्निमारुतादिक की हीनगुणता के कारण ज्वरादि रोगों से वे पीडित होने लगे और क्रमशः आयु घट गई। विकार या दुःख का हेतु धीभ्रंश, धृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंश, काल तथा कर्म की सम्प्राप्ति, असात्म्य इन्द्रियार्थों का संयोग आयुर्वेद मानता है धीरतिस्मृतिविभ्रंशः सम्प्राप्तिः कालकर्मणाम् । असाल्यार्थगमश्चेति ज्ञातव्या दुःखहेतवः॥ (च. शा. अ १) उपरोक्त तीनों प्रकार के भ्रंश का ही सामूहिक नाम यद्यपि प्रशापराध दिया गया है और उसका विवेचन भी स्पष्ट किया गया है कि वह दोषों का प्रकोप करने में कारणभूत होता है धीधतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत्कुरुतेऽशुभम् । _प्रज्ञापराधं तं विद्यात्सर्वदोषप्रकोपणम् ॥ नित्यानित्य और हिताहित में विषम ज्ञान-बुद्धिभ्रंश, अहितकर विषयों की ओर चित्त की प्रवृत्ति को रोकने की प्रवृत्ति का अभाव-धृतिभ्रंश तथा तत्वज्ञान का स्मरण रजोमोहावरण से नष्ट हो जाना स्मृतिभ्रंश के अन्तर्गत आता है। यह मनःस्थिति जिस भयंकर पतन का निर्देश करती है उसका शब्द-चित्र स्वयं भगवान् चरक ने अधोलिखित शब्दों में प्रकट किया है उदीरणं गतिमतामुदीर्णानां च निग्रहः । सेवनं साहसानाश्च नारीणां चाति सेवनम् ॥ कमेकालातिपातश्च मिथ्यारम्भश्च कर्मणाम् । विनयाचारलोपश्च पूज्यानां चाभिधर्षणम् ॥ ज्ञातानां स्वयमर्थानामहितानां निषेवणम् । परमोन्मादिकानां च प्रत्ययानां निषेवणम् ॥ अकालादेशसञ्चारौ मैत्री संक्लिष्टकर्मभिः । इन्द्रियोपक्रमोक्तस्य सवृत्तस्य च वर्जनम् ॥ For Private and Personal Use Only

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