Book Title: Jaypayada Nimmitashastra
Author(s): Purvacharya, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला *************[ TF 83 ]*********** संस्थापक ख० श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी * श्री वि. सं. २०१५] प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि पूर्वाचार्य विरचित प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र श्री डालर की सिघा ( संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ ) संपादनकर्ता आचार्य जिन विजय मुनि [ अधिष्ठाता-सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ] ***********[ प्रकाशनकर्ता ].. सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई. ७ [ मूल्य रू. ६/६ 157 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SP. NETiminimuritiumE hanimantraRTMANSH HARMADARASAILI स्वर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी Cimmatur बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्यश्लोक पिता जन्म-वि. सं. १९२१, मार्ग. वदि ६ स्वर्गवास-वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६ JIRLum i tmanitmail Emmunupamaspur... Lionitiatathiomaritmanmitim s mummit Jamm Education international For Pilate & Personal use only www.tainalitorary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AghanililimwanHITTHILI 72007 LIORAILERurammam HITRImmottimulinit दानशील-साहित्यरसिक -संस्कृतिप्रिय ख० बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंघी अजीमगंज-कलकत्ता जन्म ता. २८-६-१८८५] [मृत्यु ता. ७-७-१९४४ ElimiteARImmuttimun Bimlimilimmaatimantii आ.श्री. कैलासमांगरे सरि काने मदिर श्री महावीर जैन आसाधना करे, कोबो सा.pngavalosporsaharlune Only Jariducation Internet Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला ..................[ ग्रन्थांक ४३] **.... पूर्वाचार्यविरचित प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र (प्रथमावृत्ति-संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ) SRT DALCHAND JT SINGHI RAA.A.A..ALA...AA.Adh..A.A.A... श्री टानाचा जो पिया SINGHI JAIN SERIES •ree . [NUMBER 43]****************** ? JAYAPĀYADA NIMITTASASTRA (A WORK OF THE SCIENCE OF PROGNOSTICS MAKING PROPHESIES ON THE BASIS OF THE LETTERS OF SPEECH) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कलकत्ता नि वा सी साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला [जैन भागमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर,-राजस्थानी आदि नानाभाषानिबद्ध सार्वजनीन पुरातन . वाङमय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रष्ठ जैन ग्रन्थावलि] - प्रतिष्ठाता श्रीमद्-डालचन्दजी-सिंघीसत्पुत्र ख० दानशील - साहित्यरसिक -संस्कृतिप्रिय श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी B9NGRusद PARA वचन DLC2 प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ऑनररी डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर (राजस्थान) निवृत्त ऑनररि डायरेक्टर भारतीय विद्या भवन, बम्बई मॉनररी मेंबर जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी; भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात), विश्वेश्वरानन्द वैदिक - शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर (पाब) संरक्षक श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी. प्रकाशनकर्ताअधिष्ठाता, सिं घी जैन शा स्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्याभवन, बम्बई प्रकाशक-जयन्तकृष्ण ह. दवे, ऑनररी डायरेक्टर, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बम्बई, नं. ७ मुद्रक-लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभांट स्ट्रीट, बम्बई, नं. २ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वाचार्य विरचित प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड निमित्तशास्त्र ( प्रथमावृत्ति - संस्कृतव्याख्योपेत मूल प्राकृत ग्रन्थ ) जेसलमेरुदुर्गस्थ - प्राचीनजैनग्रन्थभाण्डागारोपलब्ध ताडपत्रीय पुस्तकानुसार संपादनकर्ता आचार्य, जिन विजय मुनि अधिष्ठाता, सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ ऑनररी मेंबर - जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी; भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना, (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात); विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध प्रतिष्ठान, होसियारपुर ( पआब ) ऑनररी डायरेक्टर राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर (राजस्थान ) निवृत्त ऑनररि डायरेक्टर- भारतीय विद्याभवन, बम्बई विक्रमाब्द २०१४] ... प्रकाशनकर्ता • अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई प्रथमावृत्ति - ५०० प्रति [ ख्रिस्ताब्द १९५८ सर्वाधिकार सुरक्षित [ मूल्य रू० ६) ६० ग्रन्थांक ४३ ] dut Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... 00000000 SINGHI JAIN SERIES Works in the Series already out. अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि १ मेरुतुङ्गाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि । १९ भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह. मूल संस्कृत ग्रन्थ. २० शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति, २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहविध ऐतिह्यतथ्यपरिपूर्ण २१ कवि धाहिलरचित पउमसिरीचरित.. अनेक निबन्ध संचय. | २२ महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा. (प्रा.) ' ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश. २३ श्रीभद्रबाहुआचार्यकृत भद्रबाहुसंहिता. ४ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प. ... |२४ जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. (प्रा.) ५ मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य. २५ उदयप्रभसूरिकृत धर्माभ्युदयमहाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा. २६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. (प्रा.) ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा. २७ कोऊलविरचित लीलावई कहा. (प्रा.) ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी. २८ जिनदत्ताख्यानद्वय. (प्रा.) ९ प्रबन्धचिन्तामणि-हिन्दी भाषांतर. २९ खयंभूविरचित पउमचरिउ. भाग १ (अप०) १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. ११ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित. ३१ सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन. १२ यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञान बिन्दुप्रकरण. ३२ दामोदरपण्डित कृत उक्तिव्यक्तिप्रकरण. १३ हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश.'' ३३ भिन्नभिन्न विद्वत्कृत कुमारपालचरित्रसंग्रह. १४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग. ३४ जिनपालोपाध्यायरचित खरतरगच्छ बृहद्र्वावलि. १५ हरिभद्रसूरिविरचित धूर्ताख्यान. (प्राकृत) ३५ उध्योतनसूरिकृत कुवलयमाला कहा. (प्रा.) १६ दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. (प्राकृत) | ३६ गुणपालमुनिरचित जंबुचरियं. (प्रा.) १७ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. | ३७ पूर्वाचार्यविरचित जयपायड-निमित्तशास्त्र.(प्रा.) १८ कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक. (अपभ्रंश) | ३८ भोजनृपतिरचित शृङ्गारमअरी. (संस्कृत कथा) .. . Shri Bahadur Singh Singhi Memoirs Dr. G. H. Bühler's Life of Hemachandrächārya. Translated from German by Dr. Manilal Patel, Ph.D. . स्व. बाबू श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ [भारतीयविद्या भाग ३] सन १९४५. 2 Late Babu Shri Bahadur Singhji Singhi Memorial volume. BHARATIYA VIDYA[Volume V1 A. D. 1945. 3 Literary Circle of Mahāmātya Vastupāla" and its Contribution to Sanskrit Literature. By Dr. Bhogilal J. Sandesara, M. A., Ph. D. (S.J.S.33.) 4-5 Studies in Indian Literary History. Two Volumes. By Prof. P. K. Gode, M. A. (S.J.S. No. 37-38.) Works in the Press. संप्रति मुयमाणग्रन्थनामावलि १ विविधगच्छीयपट्टावलिसंग्रह. | ९ गुणप्रभाचार्यकृत विनयसूत्र. (बौद्धशास्त्र) २ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, भाग २. १० धनसारगणीकृत-भर्तृहरशतकत्रयटीका. ३ विज्ञप्तिसंग्रह विज्ञप्ति महालेख-विज्ञप्ति त्रिवेणी ११ रामचन्द्रकविरचित-मल्लिकामकरन्दादिमाटकसंग्रह, आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. १२ तरुणप्राभाचार्यकृत षडावश्यकबालावबोधवृत्ति. ४ कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह. ५ गुणचन्द्रविरचित मंत्रीकर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. १३ प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण-सटीक' ६ नयचन्द्रविरचित हम्मीरमहाकाव्य. १४ हेमचन्द्राचार्यकृत छन्दोऽनुशासन ७ महेन्द्रसूरिकृत नर्मदासुन्दरीकथा. (प्रा.) १५ वयंभुकविरचित पउमचरिउ. भा. ३ ८कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र-सटीक. (कतिपयअंश) | १६ ठकुर फेरूरचित ग्रन्थावलि (प्रा.) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक प्रस्तुत जय पायड नामक निमित्त शास्त्रकी ताडपत्रपर लिखी हुई प्राचीन प्रति हमको जेसलमेरके एक ज्ञान भण्डारमें प्राप्त हुई थी। इससे पूर्व, हमारे दृष्टिगोचर यह ग्रन्थ नहीं हुआ था, इसलिये हमने इसकी प्रतिलिपि करवा ली, और फिर इसका विषयावलोकन करनेसे हमें यह एक महत्त्वकी रचना ज्ञात हुई, अतः इसको इस सिं घी ज न ग्रन्थ मा ला द्वारा प्रकाशित करनेका हमने संकल्प किया। ____ जेसलमेरमें प्राप्त यह ताडपत्रीय पुस्तिका, जैसा कि इसके अन्तमें लिखा हुआ है- विक्रम संवत् १३३६ में लिखी गई थी अर्थात् आजसे कोई ६८० वर्ष पूर्वकी लिखी हुई है। इस पुस्तिकाके कुल मिलाकर २२७ ताडपत्र हैं । अक्षर सुवाच्य हैं; पर कहीं कहीं स्याही घिस जानेसे अक्षर अदृश्यसे हो गये हैं । लिपिकर्ता विषय और भाषासे अनभिज्ञ होनेके कारण प्रतिका पाठ बहुत ही अशुद्ध और भ्रष्टखरूपवाला लिखा गया है। प्रन्यको प्रेसमें छपनेके लिये देना निश्चित हुआ तब इसका कोई दूसरा प्रत्यन्तर कहीं से मिल सके तो पाठसंशोधनमें विशेष सहायक हो सके इस विचारसे, पूना, पाटण, अहमदाबाद, बडोदा आदिके प्रसिद्ध जैन भण्डारोंमें इसकी खोज की गई, पर उसमें सफलता नहीं मिली । पीछेसे भावनगरके भण्डारमें एक कागज पर लिखी प्रति प्राप्त हुई, पर, वह जेसलमेरवाली प्रतिसे भी अधिक भ्रष्ट पाठवाली निकली; अतः संशोधनमें उसका कोई खास उपयोग नहीं हुआ। तब हमने केवल उक्त भ्रष्ट पाठवाली प्रतिके उपरसे ही यथामति पाठ संशोधन आदि करके प्रस्तुत आवृत्तिको, इस स्वरूप में प्रकट कर देनेका प्रयत्न किया है । ___ ग्रन्थके अवलोकन मात्रसे ही विशेषज्ञ विद्वानको ज्ञात हो जायगा कि इसका पाठसंशोधन करनेमें हमको कितना श्रम उठाना पड़ा है। पुस्तिकाकी प्रायः प्रत्येक पंक्ति भ्रष्ट पाठवाली प्रतीत हो रही है । न मालूम मूलप्रति लेखककी अज्ञानताके कारण ऐसा पाठभ्रष्ट हुआ है अथवा किसी भ्रमवश ऐसा अशुद्ध पाठ लिखा गया है । प्रन्थगत विषय बहुत ही गोपनीय माना जाता रहा है। कोई विरल ही व्यक्ति इसका अध्ययन-मनन कर सके-ऐसी रहस्यमयी भावना, इस विषयका ज्ञान प्राप्त करनेके विषयमें प्राचीन कालसे चली आ रही है; अतः इसकी दुर्लभता और अप्रसिद्धि खाभाविक है। ग्रन्थका विषय निमित्तशास्त्रान्तर्गत प्रश्नविद्या विषयक है । अतः इस रचनाका अन्य नाम प्रश्नव्याकरण ऐसा दिया गया है। प्रश्नचूडामणी, प्रश्नप्रकाश आदि नामके इस विषयके कई प्राचीन ग्रन्थोंका उल्लेख अन्यान्य ग्रन्थोंमें मिलते हैं। इसी आवृत्तिके अन्तमें ज्ञानदीपक नामक एक संक्षिप्त चूडामणिसार शास्त्र भी मुद्रित किया गया है जो इसी विषयकी एक संक्षिप्त रचना है। यह रचना भी हमें जेसलमेरके एक भण्डारमें फुटकल पन्नोमें मिली है । जेसलमेरमें जो पुस्तिका प्राप्त हुई उसकी पट्टिकापर 'जयपाहुड' ऐसा नाम लिखा हुआ था इसलिये हमने ग्रन्थके मुद्रणमें मुख्य शिरोलेख इसी नामसे अंकित कर दिया; पर पीछेसे ऊहापोह करने पर 'जयपाहुड' नहीं परंतु 'जयपायड' ऐसा नाम समुचित मालूम दिया। अतः हमने मुखपृष्ठ पर इसी नामका उपयोग करना उचित समझा है। मूल ग्रन्थकी तीसरी गाथामें इसी शब्दका प्रयोग किया गया है Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपायड-किश्चित् प्रास्ताविक __ हमारे पूर्वज मनीषियोंने अज्ञात तत्त्वों और भावोंको जाननेके लिये एवं कई प्रकारकी गूढ विद्याओंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये, नाना प्रकारके चिन्तन, मनन और निदिध्यासन किये हैं। इनके फलखरूप जो ज्ञातव्य उन्हें प्राप्त हुए उनको वे संक्षेपमें एवं सूत्ररूपमें प्रथित करके ग्रन्थ या प्रकरणके रूपमें निबद्ध करते रहै जिससे भावी सन्ततिको उसका ज्ञान प्राप्त होता रहै । प्रस्तुत ग्रन्थ एक ऐसे ही अज्ञात तत्त्व और भावोंका ज्ञान प्राप्त करने करानेका विशेष रहस्यमय शास्त्र है । यह शास्त्र जिस मनीषी या विद्वान्को अच्छी तरह अवगत हो, वह इसके आधारसे, किसी भी प्रश्नकर्ताके लाभ-अलाभ, शुभ-अशुभ, सुख-दुःख एवं जीवन-मरण आदि की बातोंके विषयमें बहुत निश्चित और तथ्यपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है और प्रश्नकर्ता को बता सकता है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि, जो हमारी भारतीय लिपियोंकी माता या मूल प्रकृति मानी जाती है, उसकी वर्णमाला या अक्षरमातृकामें मुख्य रूपसे ४५ अक्षर हैं । इनमें अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ये १२ खर हैं; और क ख ग घ ङ - क वर्ग च छ ज झ ञ-च वर्ग ट ट ड ढ ण - ट वर्ग त थ द ध न प फ ब भ म प वर्ग य र ल व - य वर्ग श स ष ह - श वर्ग इस प्रकार ७ वर्गोंमें विभक्त ३३ व्यंजन हैं। १२ खरोंका १ वर्ग है जिसकी संज्ञा 'अ' है। बाकीके ३३ व्यंजनोंकी 'क. च. ट. त. प. य. श.' इस प्रकार क्रमशः ७ संज्ञाएं हैं। इस प्रकार संपूर्ण वर्णमाला ८ वर्गों में विभक्त की गई है। प्रस्तु शास्त्रमें इन वर्गगत अक्षरोंके अनेक प्रकारके भेद-उपभेद बताये गये हैं। ये अक्षर अनेकानेक गुण और धोंके वाचक और सूचक हैं। प्रत्येक अक्षर विशिष्ट प्रकारके स्वभाव और खरूप का सूचक है और फिर वह जब किसी दूसरे अक्षरके संयोगमें आता है तब, वह उस संयोगके कारण और भी अनेक प्रकारका स्वभाव और खरूप बतलानेवाला बन जाता है । अक्षरोंके खभाव और खरूपका निदर्शन करानेके लिये अभिधूमित, आलिंगित, दग्ध आदि संज्ञाएं बताई गई हैं । इन अक्षरोंमें कुछ अक्षर जीवसंज्ञक हैं, कुछ धातुसंज्ञक हैं और कुछ मूलसंज्ञक हैं। इस प्रकार कई तरहसे अक्षरोंके खभाव, गुण और धर्मोंका प्रतिपादन इस शास्त्रमें किया गया है। यह एक बहुत विलक्षण और अद्भुत रहस्यमय शास्त्र है इसमें कोई शंका नहीं है। प्राचीन जैन ग्रन्थोंमें इस रहस्यमय अतिशयात्मक शास्त्रीय विषयका उल्लेख बहुत जगह मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन कालके जैन आचार्य इस विषयका बहुत ही विशिष्ट ज्ञान रखते थे। इस विषयका निरूपण करनेवाले छोटे-मोटे अनेक ग्रन्थ एवं प्रकरण जैनाचार्यों द्वारा बनाए गये प्रतीत होते हैं जो प्रायः अब विलुप्त-से हो रहे है। Wrb + Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाड-किश्चित् प्रास्ताविक इस विषयके ज्ञाताओं और शास्त्रकारोंका अभिमत है कि जिन अज्ञात और गूढ तत्त्वोंका परिज्ञान, सर्वज्ञ केवलज्ञानी अपने आध्यात्मिक अन्तरज्ञान द्वारा अनुभूत कर सकता है वैसा ही परिज्ञान, इस शास्त्रका विशिष्ट ज्ञाता, इस शास्त्र द्वारा अनुभूत कर सकता है और इस लिये इस विषयके शास्त्रको 'अर्हचूडामणि, 'केवली चूडामणि,' 'केवली परिज्ञान' आदि नामोंसे भी व्यवहृत किया गया है। ... इस विषय पर प्रकाश डालनेवाली बहुत कुछ साहित्यिक सामग्री हमारे पास संग्रहीत हो गई है; पर उसका विस्तृत रूपसे आलेखन करनेका यथेष्ट अवकाश हमें प्राप्त नहीं हो रहा है। अतः अभी तो हमने इस ग्रन्थको, इस प्रकार, केवल मूल रूपमें ही प्रकट कर देनेका यन किया है, जिससे इस विषयके जिज्ञासुओंको इस शास्त्रका कुछ आभास प्राप्त हो सके। ..इसकी पुनरावृत्ति, विशिष्ट रूपसे करनेका हमारा मनोरथ है; जिसके साथ इस प्रकारकी कुछ अन्य रचनाएँ भी संकलित की जायेंगी और इस विषय पर प्रकाश डालनेवाली अनेक तथ्यपूर्ण बातें भी आलेखित की जायेंगी। विजयादशमी, संवत् २०१४ । (२१, अक्टूबर, १९५८) भनेकान्तविहार, अहमदाबाद -मुनि जिन विजय Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपायड निमित्तशास्त्रगत विषयानुक्रम * क्रम. विषय. | क्रम. . विषय. १ सामासिक शिक्षाप्रकरण १-७ २२ वर्गगंडिका ५०-५१ २ संकट-विकट प्रकरण २३ नक्षत्रगंडिका ५१-५२ ३ उत्तराधर प्रकरण ८-१२ २४ व्यंजन विभाग ५२-५७ ४ अभिघात प्रकरण १२-१६ २५ स्ववर्गसंयोगकरण ५७-५८ ५ जीवसमास प्रकरण १६-१८ २६ परवर्गसंयोगकरण ६ मनुष्य प्रकरण १८-२० सिंहावलोकितकरण ५८-५९ ७. पक्षि प्रकरण २०-२१ २८ चतुर्भेद गजविलुलित ५९-६३ ८ चतुष्पद प्रकरण २१-२२ ९ जीवचिन्ता २९ गुणाकार प्रकरण २२ ३० उत्तराधरविभाग प्रकरण धातुप्रकृति २२-२५ ११ धातुयोनि २५-२७ ३१ स्ववर्ग प्रकरण ६५-६७ १२ मूलभेद २७-२९ ३२ व्यंजन-स्वर प्रकरण ६७-६८ १३ मूलयोनि ३३ खभावप्रकृति ६८-६९ १४ मुष्टिविभाग प्रकरण ३०-३१ ३४ उत्तराधरसंपत्करण ६९-७३ १५ वर्ण-रस-गंध-स्पर्श प्रकरण ३१-३३ ३५ वर्गाक्षरसंयोगोत्पादन ७४-८० १६ द्विपदादि द्रव्य दिक् प्रकरण ३३-३४ ३६ सर्वतोभद्र ८०-८१ १७ नष्टिकाचक्र ३४-३८ ३७ संकट-विकट प्रकरण ८१-८२ १८ चिन्ताभेद प्रकरण ३८-३९ ३८ अंग संबंधी अस्त्रविभागप्रकरण ८२-८४ १९ लेखगंडिकाधिकार संख्याप्रमाण ३९ स्वरक्षेत्रभवन ३९-४४ । ४० तिथिनक्षत्रकांड ८४-८५ २० काल प्रकरण ४४-४६ ४१ व्याधि-मृत्युविषयक प्रश्न ८५-८६ २१ लाभगंडिका प्रकरण ४६-५० । ४२ ज्ञानदीपक चूडामणिसारशास्त्र ८७-९६ सोद २९ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । ॥ औं नमः सर्वज्ञाय ॥ करकमलकलितमौक्तिकफलमिव कालत्रयस्य विज्ञानम् ।। यो वेत्ति लीलयैव हि, तं सर्वज्ञं जिनं नमत ॥१॥ प्रन्थकृत्(ता?) प्रश्नाख्यस्य जयपाहुडस्य निमित्तशास्त्रस्यारम्भे अशेषदुरितप्रक्षयार्थ चाभिप्रेतार्थप्रसिद्ध्यर्थमिष्टदेवतानमस्कार(रः)कर्त्तव्यः । तदर्थमाह - सिद्धमरूयमणिदियमक्कि(क)यमणवन(ज)मच्चुयं वीरं । णमिऊण सयलतिहुयणमत्थयचूडामणी(णि) सिरसा ॥१॥ वीरं शिरसा प्रणम्येति । किंविशिष्टमन्तमुच्यते - सिद्धं । तत्र शुभाशुभकर्मविमुक्तः ॥ [प० १,पा० २] सिद्धः । नास्य रूपं विद्यत इत्यरूपः । रूपं सु(शु)क्ल-कृष्णाद्यात्मकम् । श्रोत्रादी- . नीन्द्रियाणि शब्दाद्यर्थविषये न प्रवर्त्तत(न्ते) इत्यनीन्द्रियम् । न कृ(क्रि)यत इत्यकृतकः, द्रव्यरूपेण नित्यत्वात् । नावद्यमनवद्यः । अवद्यं पापम् , अपापं अगर्दा इत्यर्थः । न स्वभावात् प्रच्यवति इत्युच्य(त्यच्युतः । अशेषकर्मविदारणाद् वीरः। वीरो देवताविशेषः । तं शिरसा प्रणम्येति सम्बन्धोऽयम् । अथवा यं न(?) एव सिद्धः अत एवासावरूपी अनिन्द्रिय अकृतक अनवद्य । अच्युतः वीरः इति बभूय(व) स एव सकलतृ(त्रिभुवनमस्तकचूडामणि[:] लोकाग्रे [प० २, पा० १] निवासित्वात् । अतस्तं देवताविशेष महावीराख्यं सि(शि)रसा प्रणम्य प्रश्नव्याकरणं शास्त्रं .. व्याख्यामीति वाक्यशेषाल्लभ्यमिति । आरादुपकारित्वात् ॥ १॥ सुयदेवयं पणमिमो, जस्स पसाएण गहियव(ध)रियस्स । सुत्तस्स अत्थपरिमियसपा(मा?)दरो तीरए काउं ॥ २ ॥ श्रुतं सास्त्र(शास्त्र) ज्ञानमित्यनर्थान्तरम् । तदेतत् श्रुतं देवता श्रुतदेवता। तां श्रुतदेवतां प्रणता(मा)मि । यस्याः प्रसादेन । प्रसाद इत्यनुग्रहोऽभिमुखपरितोष इत्युच्यते । गृहीतस्य वृ(धृ)तस्य च तस्य सूत्रस्यार्थः । सूत्रार्थः प्रात्यादरः शक्यते कर्तुमिति ॥ २॥ .मइमाहाप० २, पा० २]प्पुप्पायं, भुवणभंतरपवंत(वत्त)वावारं ।। __ अइसयपुण्णं णाणं, पण्हं जयपायडं वोच्छं ॥ ३ ॥ मति(तिः) बुद्धि(द्धि:) प्रक्षेति पर्यायाः। बुद्धिप्रभावोत्पत्तिभूतमित्यर्थः। कस्तस्या बुद्धे(द्धेः) प्रभावः । नष्ट-मुष्टिचिन्ता-लाभालाभ-सुख-दुःख-जीवित-मरणाभिव्यञ्जकत्वम् । किश्च भुवनाभ्यम्तरप्रवृत्तव्यापारम् । व्यापारस्तद्गतपदार्थोपलम्भनम् । अतिस(श)यपूर्ण ज्ञानम् । यदन्यसा(शा) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३-९] स्त्रानुपलब्धं सोऽतिस(श)यः । अतिर्य(शय)ज्ञानं निमित्तशास्त्रात्यु(दु)पलभ्यत इत्यतिस(श)यः । अतीतानाग[त] वर्तमाननिमित्ताद्यनेकप्रकारं नष्ट-मुष्टिचिन्ताविकल्पाद्यतिस(श)यपूर्ण प्रश्नज्ञानं जग[प० ३, पा० १ ]त्प्रकटने हेतुभूतं जगत्प्रकटनं व्याख्यामीति ॥ ३॥ . अ क च ट त प य श पुवे, वग्गे लक्खेज पण्हमादीए । उत्तरधरा य तेसिं, जाणे वग्गक्खरसराणं ॥ ४ ॥ इह शास्त्रे द्विधा वर्गक्रमः उक्त(क्तः)। अष्टवर्गी क्रम(मः) पञ्चवर्गी क्रमश्चेति। कृतं एतत् । तथा शास्त्रे व्यवहारदर्शनात् । तत्रायमत्राष्टवर्गक्रमः - 'अक च ट त प य श' इत्येतेऽष्टौ प्रथमा वर्णा वर्गाणां सूचका इति । प्रस्ना(भा)यामादौ प्रस्ना(भ)मातृकायां वा मात्रिकेत्यनेकार्थोपसङ्ग्रहत्वात् । वर्गाणां अक्षराणां स्वराणां च उत्तरत्वमधरत्वं च वक्ष्यमाणं अवगच्छ ॥ ४ ॥ जेत्तियमित्ते सको, [५० ३, पा० २] घेत्तुं पण्हक्खरे परमुहाओ । ते सच्चे ठावेउं, तेसिं पढमक्खरपाहुदिं ॥ ५॥ यावन्मात्रान् प्रश्नाक्षरान् परमुखानु(द) ग्रहीतुं शक्तः नैमित्तिकः । ते सर्वे स्थापयितव्याः प्रथमाक्षरात् प्रभृति तेषामक्षराणाम् ॥ ५॥ संजुत्तमसंजुत्तं, अणभिहयं अभिहयं च जाणित्ता । आलिंगियाभिधूमिय, दड्डाणि य लक्खए तेसिं ॥ ६ ॥ तेषां वाक्याक्षराणां पूर्वस्थापितानां संयुक्तमसंयुक्तं इति। तत्र संयोगोऽनेकधाऽभिधास्यति । खकाय-स्ववर्ग-परवर्ग इति । स्वभावस्थो वर्णोऽसंयुक्तः। तथाभिघातो वक्ष्यमाणकरत(खि)विधः (प०४,पा० १]। आलिङ्गित-अभिधूमित-दग्धलक्षणः । अनभिहतः अभिघातः(त)रहितमे(श्वे)ति ॥ ६ ॥ मोत्तो(त्तुं) पढमालावं, मित्ती अप्पणो य पडिपण्हं । सेसेसु जीवमादीपरिचित्तं वागरे मइमं ॥७॥ पृच्छकस्य सम्भाषणादिकं प्रथमालापं मुक्त्वा प्रस्न(भ)शास्त्रवित् प्रतिप्रस्ना(भा)यात्मीयां (य) च मुक्त्वा अन्यस्मात् प्रस्न(भं) गृहीत्वा बाल-मूर्ख-स्त्रीणां प्रथमवाक्यमेव प्रगृह्य जीव-मूलधात्व[१] राणा(णां) त्रयाणां येऽधिकसंख्यास्तैजी(र्जी)वधातुमूलयोनि निर्देश्यम् ॥ ७ ॥ पढमो य सत्तमसरो, क च ट त प य शा य पढमओ वग्गो । बिदि-अट्ठमसरसहिया, ख छ ठ थाप० ४, पा० २]फ र षा वितीओ य ॥८॥ पंच-वर्गक्रम इदानीं कथ्यते - अकारः प्रथमः स्वरः। एकारः सप्तमः स्वरः । 'क च ट तप यश' सहितौ प्रथमो वर्गः। आकारो द्वितीयः खरः । एकारोऽष्टमः स्वरः । ख छ ठ थ फरष' समेतौ द्वितीयो वर्गः ॥८॥ तइओ णवमेण समं, गजड द ब ल सा य तइयओ वग्गो। चउ-दसमसरेण समं, घ झ ढध भ व हा य चउत्थो उ ॥ ९ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १०-१४] प्रभव्याकरणाख्यं इकारस्तृतीयः । उ(ओ)कार(रो) नवमः । 'गज ड द ब ल स' सहितौ तृतीयो वर्गः। ईकारश्चतुर्थः । औकार(रो) दशमः । 'घ झ ढध भ व हा(ह)' समेतौ चतुर्थो वर्गः ॥ ९॥ अणुणासिया य [५०५, पा० १] पंच वि, पंचम-छट्ठा सरा य बोधवा । दो चरिमसरा य तहा, पण्हक्खरमूलवत्थुस्स ॥ १० ॥ 'बण न माः' पञ्च अनुनासिकाः । 'उ ऊ' पञ्चमषष्ठौ । 'अं अः द्वौ चरिमस(स्व)रौ । भवतः । एते पंच वर्गाः प्रश्नाक्षरमूलवस्तुनि ॥ १० ॥ वर्गरचना समाप्ता॥ इदानी जीव-धातु-मूलाक्षराणां विभागोपदर्शनार्थमाह - आइल्ला तिण्णि सरा, सत्तम णवमो य बारसे जीवं । पंचम-छठ्ठ-सरस्स[य], धाउं सेसेसु तिसि(सु) मूलं ॥ ११ ॥ आद्याः स्वरात्रय 'अआइ'। सप्तम 'ए'कारः। नवम 'ओ'कारः। 'अ' द्वादशमः। एते षट् ॥ स्वराः जीवखराः वि[प०५, पा० २ ज्ञेयाः। 'उ'कार[:] पंचमः। 'ऊ'कारः षष्ठः । 'अं' एकादशमः। त्रय एते धातुखराः। चतुर्थ 'ई'कारः। दशम औ'कारः। 'ऐ'कारोऽष्टमः। एते त्रयोमूलस्वराः॥११॥ क च ट चउके जीयं, अट्ठम-पढमंतिमे यकारे य।। तप[य?] चउक्के धाउं, व से य मूलं तु सेसेसु ॥ १२ ॥ क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ' इत्येते पूर्वनिर्दिष्टा[:] प्रथमवर्गस्य । अष्टमः स(श)का-1 [५०६, पा० १]रः, अस्यान्तो हकारः, यकारश्च । जीवाक्षरा एते । 'त थ द ध, पफ ब भ' इत्येतेऽष्टौ । वकारः सकारश्चेत्येते धात्वक्षराः । ङ अ ण न मा[:] तथा रकारः, लकारः, षकारश्च इत्येते मूलाक्षरा(राः) ॥ १२ ॥ जीवाधक्षराणामुपसंग्रहार्थं स्वराणां गाथामाह - जीवक्खरेकवीसा, तेरह धाउक्खरा मुणेयवा । एयारस मूलगया, पणयाला होति सबे वि ॥ १३ ॥ [५० ६, पा० २] पूर्वनिर्दिष्टाः स्वराः षट् 'अ आ इ ए उ अ., क ख ग घ, च छ ज झ ट ठ ड ढ, य श हा' एते जीवाक्षराः एकविंशतिः२१ । पूर्वोक्ता धातुखरास्त्रयः 'उ ऊ अं' दश चान्ये 'त थ द ध प फ ब भ वसा' एते धात्वक्षरास्त्रयोदश १३ । 'ई ऐ औ, ङबण न मा; र ल षा' एते मूलाक्षराः एकादश ११। जीव-धातु-मूलसमेताः पंचचत्वारिंस(श)दक्षराणि भवन्ति ॥ १३ ॥ [प०७,पा० १] - • पढमस(स्स)रसंजुत्ता, सबे लहुअक्खरा य अणभिहया । इच्छंति जीवचिंता मि(म)त्तासु विवजिया जाव ॥ १४ ॥ उत्सर्गसिद्धानां जीवाद्यक्षराणामपवादः । अकारः प्रथमस्वरः येषामक्षराणामन्तर्भूतः, ते जीवाक्षराः प्रथमखरसंयुक्ताः । अथवा अकारेण युक्ताः क च ट य श ग जडा' एत्ये(त)ऽष्टौ लध्वक्षरा: अनभिहता मात्रारहि[प० ७, पा० २]ताश्च जीवचिन्तां कथयन्ति । अनुक्ता अपि धातू-. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १५-१८ ] (तु)मूलचिन्ताभ्यां गाथाया[म]न्तर्भूतास्ते चेत्युच्यन्ते । तद पवस' इत्येते पंच धात्वक्षराः अनभिहताः लघवो मात्रारहिताश्च जीवधातुचिन्तां कथयन्ति । लकार एक एव मूलाक्षरो लघुः । अनभिहतो मात्राविवर्जितः स स्वजीवमूलचिन्तां कथयति ॥ १४ ॥ मत्तासु जो विअप्पो, जो वि य आलिंगिओ वि अभिघाओ। । तं सवं वण्णेहं, जहक्कम आणुपुबीए ॥ १५ ॥ मात्रासु यो विकल्प इति वक्ष्यमाणोपन्यासार्थगाथा । विकल्पग्रहणेन मात्राभेद उच्यते । स ए[वं] तिर्यग्मात्रा अधोमात्रा इति । [प०८, पा० १ ]आलिंगिताभू(भि)धूमितदग्धलक्षणोपघाता[त्] (त्रि)धा । तदेतत् सप्रपंचं यथाक्रममानुपूर्व्या कथयिष्यामः ॥ १५ ॥ पढमो तइओ य सरो, सत्तम णवमो य तिरियमायाओ। ॥ मूलसर उद्द(ड)मत्ता, पंचम-छट्ठा अहोमत्ता ॥ १६ ॥ ___अकारः प्रथमः स्वरः, इकारः तृतीयस्वरः, एकारः सप्तमस्वरः, ओकारो नवमखरः-एते चत्वारः स्वरास्तिर्यग्मात्राः । एतेषु मूलयोनौ लब्धायां तिर्यग्लतायां वल्यां(हयां) शाखायां वा संबन्धि मुष्टिगृहीतं किमपि कथयन्ति । नष्टप्रश्रेऽप्यन्तरीक्षतिर्यग्भागस्थितद्रव्यमेत एव स्वराः कथयन्ति । ईकारश्चतुर्थः, ऐकारोऽष्टमः, औकारो दशमः । [५० ८, पा० २] एते त्रयः स्वरा ऊर्द्ध15 मात्राः। मूलयोनौ लब्धायां वृक्षस्यो भागसंबन्धि किमपि मुष्टिगृहीतं कथयन्ति । नष्टप्रश्ने ऊर्द्धभागस्थितद्रव्यमेते त्रयः स्वराः कथयन्ति । पंचमः उकारः, षष्ठः औकारः, एतौ द्वौ स्वरौ अधोमात्रौ मूलयोनौ लब्धायां वृक्षस्याधोभागसंबन्धि किमपि मुष्टिम(ग)हीत(तं) कथयत(तः) । नष्टप्रश्रेऽप्यधोभागव्यवस्थित्रा(त)मेतावेव स्वरौ कथयतः ॥ १६ ॥ [१० ९, पा.१] जीवाईसट्ठाणं, णियमा द[रि]संति उट्ट(ड)मत्ताओ। व(वि)वरीय अहोमत्ता, णायबा जीव-धाऊणं ॥ १७ ॥ ऊर्द्धमात्रा यि(येड)भिहतात्रयस्त्रयः स्वराः। ते जीवाक्षराणां पंचदशानामुपरिगता जीवमूलसंस्थानं दर्शयन्ति । काष्ठं मूलमुच्यते । तस्मिन्नुत्कीर्णप्राणिगणस्यान्यतमजीवमूलसंस्थानमुच्यते इति । अधोमात्रो(नौ) द्वौ स्वरावुक्तो(क्तौ) तौ यदा जीवाक्षरसंयुक्तौ दृश्य(श्ये)ते तदा जीवधातुं दर्शयतः । [प० ९, पा० २] को जीवधातुरित्यत्रोच्यते-सुवर्णरूप्यतांबा(ताम्रा)ऽरकांस(स्य)पाषा25 णादिष्वेवंविधेषु धातुषु(पू)त्कीर्णो जीवाकृतिसंस्थानः सकलपाणिगणो जीवधातुरित्युच्यते ॥१७॥ मूलक्खरा उ सबे, धाउं दंसंति जे अहोमत्ता। दंसंति तिरियमत्ता, परपक्खगया उभयपक्खं ॥ १८ ॥ मूलाक्षराः 'हु बण न म र ल षा' श्वाष्टावेते उक्ता व(अ)धोमात्रा(त्राः) स्वरद्वयसमेता यदा दृश्यन्ते तदा धातुद्रव्यं दर्शयन्ति । तिर्यग्मात्राभि[५० १०, पा० १ ]हताश्चत्वारो जीवखराः, ते * मूलाक्षराणामुपरिगता जीवमूलं दर्शयन्ति । जीवमूलस्य आकारः । पूर्वोक्तमेव । धात्वक्षराणामुपरिगताश्चैते यदा जीवस्वराश्चत्वारो दृश्यन्ते तदा जीवधातुं दर्शयन्ति । जीवधातुसंस्थानं चोक्तमेव ॥ १८॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १९-२०] प्रश्नव्याकरणाख्यं सविसग्ग-बिंदुसहिया, जीवाइ णिदि[दि]संति सट्ठाणं ।। अहमत्तलक्खणं पुण, सबेसि सकायगुरुयाणं ॥ १९ ॥ __सविसर्ग-बिन्दुसहिता[:]-विसर्गो द्वादसः(शः) स्वरः, बिन्दुरेकादसः(शः)। [१०१०,पा०२] एतौ द्वौ जीवाक्षरसहितौ जीवयोनि कुरुतः । यदा च द्वावेतौ स्वरौ मूलाक्षरसहितौ दृश्येते, तदा मूलयोनि कुर(रु)तः । धात्वक्षरसहितौ धातुयोनि कुर(रु)तः। अधोमात्रलक्षणग्रहणेन । पंच भण्यन्ते । तद्यथा-स्वकायगुरु[:], स्ववर्गसंयोगः, परवर्गसंयोगः, अर्दाक्रान्तं, यक्षरसंयो. गश्चेति। तत्र तावत् खकायगुरोर्लक्षणमुच्यते-द्वौ ककारौ संयुक्तौ, द्वौ गकारौ, द्वौ डकारौ, एवं सर्ववर्गेषु व्याख्या। स्वकायगुरवो जीवयोनौ लब्धायां प्रष्टुः स्वकायचिन्तां कथयन्ति । धातुयोनौ लब्धायां [५० ११, पा० १] आत्मार्थे धातुचिन्तां कथयन्ति । मूलयोनौ लब्धायां आत्मार्थे मूलचिन्तां कथयन्ति । स्ववर्गसंयोगस्य लक्षणमुच्यते-खकारस्योपरिगतः ककारः, धकारसोपरिगतो गकारः, एवं वर्गे द्वौ द्वौ स्ववर्गसंयोगौ भवतः। जीवयोनौ लब्धायां प्रष्टुः खबन्धुचिन्तां कथयति(न्ति)। एतौ धातुयोनौ लब्धायां स्वबन्धुकृते धातुचिन्तां कथयन्ति । मूलयोनौ लब्धायां स्वबन्धुकृते मूलचिन्तां कथयन्ति । परवर्गसंयोगस्य लक्षणमुच्यते-गकारस्य उपरिगतः चकार(र.), गकारस्य उपरिगतो जकारः, पकारस्योपरिगतो(तः) सकारः इत्येवमादयोऽन्येऽपि परवर्गसंयोगा जीवयोनौ लब्धायां [प०११, पा० २] प्रष्टुः पर[प]क्षचिन्तां दर्शयति(न्ति)। धातुयोनौ लब्धायां परपक्षकृते धातुचिन्तां कथयन्ति । अर्द्धक्रान्तस्य लक्षणमुच्यतेउपरिर्यद्बोधा(उपर्यधोs)क्षराणां तुल्यसंख्यया सोअर्द्धक्रान्तमित्युच्यते। निदर्शनं यथा- 'क्व-ख्वम. इत्येवमादयः । चिन्तायां जीवयोनौ लब्धे स्त्री-पुरुषचिन्तां दर्शयन्ति । [५० १२, पा० १] धातुयोनौ लब्धे स्त्रीसंबन्धेन धातुद्रव्यं लभ्यत इत्यादेश्यम् । मूलयोनौ लब्धे स्त्रीसंबन्धेन मूलद्रव्यं लभ्यत इत्यादेश्यम् । यक्षरसंयोगस्य लक्षणमुच्यते-त्रिभित्रिभिरक्षरैर्योगः सत्यक्षरयोगः । यथा-" 'नि-क्रि-म्वि-स्थि-य-प्य(?)' एवमादयोऽन्येऽपि जीवयोनौ लब्धायां पृष्ठं(प्रष्टुः) [प० १२, पा० २] अपत्यचिन्त्यां कथयति(न्ति)। मूलयोनौ लब्धायां अपत्यार्थे मूलचिन्तां कथयन्ति । धातुयोनौ लब्धायां अपत्यार्थे धातुचिन्तां कथयति(न्ति) ॥ १९॥ अभिहयगुरुअक्खरया, रेफ यकार उ ज(ऊ?)कारसंजुत्ता। , सचे य अहोमत्ता, णायबा अप्पहाणा य ॥२०॥ रेफ व(य?)कार उकार ऊकार' एतेषा[प० १३, पा० १]मन्यतमेनाधोगतेन जीवधातुमूलाक्षराणां अन्यतनो(मो)ऽक्षरः संयुक्तमु(क्त उ)च्यते । तैरेवाधोगतैः अभिहत उच्यते। तैरेवाधोगतैरप्रधानमुच्यते । जीवयोनौ लब्धायां यस्य कस्यचिदक्षरस्य तले यदा रेफो दृस्य(श्य)ते, तदा प्रष्टा यस्यार्थे पृच्छति तस्याधः का[प० १३, पा० २ ]ये स(श)नप्रहार आदेश्यः । जीवयोनौ लब्धायां यस्य कस्यचिद् अक्षरस्य तले यदा यकारो दृस्य(श्य)ते, तदा प्रष्टा यस्यार्थे पृच्छति तस्य स्त्रीनिमित्तं । बन्धनमादेश्यम्।नीवयोनौ लब्धायां कस्यचिदक्षरस्य तले उकारो दृस्य(श्य)ते, तदा प्रष्टा यस्यार्थे पृच्छति तस्य मूलमादेश्यम् । जीवयोनौ लब्धायां यस्य कस्यचिद् अक्षरस्य तले ऊकारो दृस्य (श्य)ते.. तदा प्रष्टा यस्य कृते पृच्छति तस्य [प० १४, पा० १] दीर्घकालं बन्धनमादेश्यम् । एते चार्थी यद्यपि गाथायां नोक्तास्तथाप्येते (द्र)ष्टव्याः ॥ २० ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २१-२५] जाणे सवग्गगरू(गुरु)ए, जोणी जा जस्स अप्पणातणिय । परवग्गक्खरठाए, जो उवरिं तस्स सा जोणी ॥ २१ ॥ जानीहि स्ववर्गाक्षरेणाक्षरो गुरुय(य)त्र यथा-'क्ख ग्घ' आभ्यां जीवो वक्तव्यः । 'त त्थ' आभ्यां धातुवर्व)क्तव्यः । 'हन न्ल ना(?)' एवमादिभिर्मूलम् । परवर्गेणापि योऽक्षरो .5 गुरुर्य उपरिस्थितस्स[प० १४, पा० २ ]स्य सा योनिः । निदर्शनं-ग्व ड्घ श्व(?)' इत्येवमादयो यथासंख्येन जीवधातुमूलानि ॥ २१ ॥ आइल्ला चत्तारि वि, जीवा पयडी हवंति ठाणाई । पंचमछट्ठा धाओ, मूलपयडी य दो चरिमा ॥ २२ ॥ आद्या जीवस्वरा[:] चत्वारः। 'अइ एउ'कारो वर्णागत एवानो(तो) न गृहीतः । एते ॥ जीवाक्षराणामुपरिगता नि(निः)[प० १५, पा० १)संस(श)यं जीवमेव दर्शयन्ति । एता(ते) एव जीवस्वराः जीवप्रकृत्या धात्वक्षराणामुपरिगता जीवधातुं कुर्वन्ति । मूलांक्षराणामुपरिगता जीवमूलं दर्शयन्ति । जीवमूल-जीवधात्वोर्लक्षणं प्रागुक्तमिति । पंचम उकार(रः), षष्ठ ऊकारः, एतौ द्वौ धातुखरौ धात्वक्षराणामधोगतौ धातुमेव दर्शयतः। [प० १५, पा० २] 'अ' धातुस्वरश्चरिमः केवलो धातुमेव कथयति । 'अ' चरिमो जीवस्वरः केवलो जीवमेव कथयति । पूर्वोक्तानां ॥ जीव(वा)क्षराणामुपरिगतो चरिमसंज्ञानुस्वारो जीवमेव कथयति । तत्रस्थस्तदात्मको भवति । धात्वक्षणामुपरिगतोऽनुस्वारो धातुमेव कथयति । मूलाक्षरोपरिगतोऽनुस्वारो मूलं दर्शयति । 'अ' चरिमसंज्ञो विसर्ग[:] जीवाक्षराणामन्यतमस्याग्रस्थित(तो)जीवमुपदर्शयति । धात्वक्षराप्रतो धातुं दर्शयति । मूलाक्षराणामन्यतमस्याग्रतो व्यवस्थितो विसर्गः [मूल]मेव दर्शयति । चरिमसंज्ञत्वं तु(त्रि)ध्वपि सप० १६, पा० १]सं(शं) भवतीति । सामान्ययोनि(निः) समाप्ता ॥ २२ ॥ • सी(शिक्षाक्षरविभागार्थ प्रयोजनत्वाच्च तदुपन्यासः उर-कंठ-जीहमूला तालवा तह य उद्धतालवा । दंता उट्ठा अणुणासिया य सुच्चखा(मुडक्ख)रा चैव ॥ २३ ॥ नव स्थानानि वर्णानां तथोत्पत्तेः । उरः(उरस्याः), कण्ठ्याः , जिह्वामूलीयाः, तालव्याः, .. ऊर्द्धतालव्याः, दन्याः, औष्ट्याः, अनुनासिकाः, मूर्द्धन्याश्चेति नवस्थानान्यक्षराणीति - गाथार्थः ॥ २३ ॥ सविसग्गो य अकारो, उकारो (?उरो) हकारो य जो हवइ हस्सो। हस्सस(स्स)रा य कंठा, जीहामूला क ख ग घा य ॥ २४ ॥ सर्व(वि)सर्गः, अकारः, हकारश्च, द्वावेतौ उ(र)स्यौ ज्ञातव्यौ। हस्वस्वराः [प० १६, पा०२] अ इ ए उ चत्वारोऽप्येते कण्ठ्याः । क ख ग घ' इत्येते चत्वार(रो) जिह्वामूलीयाः ॥ २४ ॥ .... सत्तट्ठआ(मा)ण पढमा, तालवा च छ ज झा य चत्तारि । 5. ट ठ ड ढ बीओ य सरो, हवंति खलु मुद्धतालबा ॥ २५ ॥ प्रथमवर्गस्य सप्तमो यकार(रः), यद्वा सप्तमवर्गस्य प्रथमो यकारः, अष्टमवर्गस्य प्रथमः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २६-२७] प्रश्नव्याकरणाख्यं स(श)कारः । ‘च छ ज झ' इत्येते चत्वारस्तालव्याः । ट ठ ड ढ' इत्येते [प० १७, पा० १] चत्वारः, द्वितीयस्वर आकारः, पञ्च एते मूर्द्धतालव्याः ॥ २५ ॥ त थ द ध सा पु(प)ण दंता, प फ ब भ धातुस्सरा वकारोद्धा(ट्ठा)। वग्गचरिमाणुणासी, मुद्धण्णा सेसया सवे ॥ २६ ॥ 'त थ द ध सा' इत्येते पश्च दन्त्या[:] । 'प फ ब भ' इत्येते चत्वार(र.), धातुस्वरौ च । द्वौ पञ्चमषष्ठौ उ ऊ, 'व' कारश्व, सप्तैते औष्ठ्याः । वर्गचरिमग्रहणेन पञ्चमानुनासिका 'ङब ण न माः' गृह्यन्ते । [प० १७, पा० २]अथवा वर्गग्रहणेनानुनासिकाः, स्वराणां च मध्ये चरिमों ऽनुनासि[को] बिन्दुः, 'अ' इत्येते च षडनुनासिकाः । शेषाः-खराः के ते ? 'ईऐ औ' त्रयः । शेषास्त्र(श्वा)क्षराः 'रल षा' इत्येते त्रयः । एकत्र षड् मूर्धन्याः । सि(शिक्षाप्रकरणं समाप्तम् ॥ २६ ॥ अत्रावसरप्राप्ता अक्षरलब्धिः , [ता] नामप्रकरणेऽभिधास्यति । इह ति(तु) प्राप्तिमात्रमुच्यते । तदर्थं गा[५० १८, पा० १]थामाह ठाणं ठाणं एकेकयं तु आलिंगिधा(या)इ हायति । उरसादी ठाणाणं, तालचे उवरिमो ठाइ ॥ २७ ॥ स्थानं स्थानमेकैकमालिंगिताभिधूमितदग्धास्त्यजन्ति । उरस्या निहतास्तालव्ये[न] इत्येवं ।। क्रम अभिहत इति । अभिहतग्रहणेनालिंगिताभिधूमितदग्धा उच्यते । उत्तरस्यो(उरस्यो)ऽनभिहतो असंयुक्त उरस्य एव लभते [५० १८, पा० २] अक्षरम् । उरस्य आलिंगितकण्ठस्थानं लभते । उरसोऽभिधूमितो जिह्वामूलीयं लभते । उरस्यो दग्धस्तालव्यं लभते । कण्ठ्योऽनभिहतासंयुक्तः कण्ठ्य एव लभते । कण्ठ्य आलिंग्य(गि)तो जिह्वामूलीयं लभते । कण्ठ्योऽभिधूमितस्तालव्यं लभते। कण्ठ्यो दग्धो मूर्द्धतालव्यं लभते । जिह्वामूलीयोऽनभिहतासंयुक्तो जिह्वामूलीयं लभते । स . एवालिंगितसालव्यं [प० १९, पा० १] लभते । स एवाभिधूमित ऊर्द्धतालव्यं लभते । स एवा(व?)दुग्धो दन्त्यं लभते । तालव्यो अनभिहतासंयुक्तस्तालव्यं लभते । स एव दग्धो दन्त्यं लभते । तालव्यो(व्य) आलिंगितः ऊर्द्धतालव्यं लभते । स एवाभिधूमितो दन्त्यं लभते । स एव इन्धो(ग्ध) उ(औ)ष्ठ्यं लभते । मूर्द्धतालव्योऽनभिहतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । स एवालिंगितो दन्यं लभते । स एवाभि[धूमि]त उ(औ)ष्ठ्यं लभते । स एवा(वी)दग्धो अनुनासिकं लभते । 1 इन्यो अनभिहतासंयुक्त(क्तः)स्वस्थानं लभते । स एवालि[प०१९, पा० २]गित औष्ठ्यं लभते । स एवाभिधूमितो अनुनासिकं लभते । स एव दग्धो मूर्धन्यं लभते । औष्ठ्यो अ(s)नभि हतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । स एवालिंगितोऽनुनासिकं लभते । औष्ठ्योऽभिधूमितो मूर्धन्यं लभते। दग्ध उरस्यं लभते । अनुनासिको अनभिहतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । आलिंगितो मूर्द्धन्यं लभते । [१० २०, पा० १] अभिधूमित उरस्यं लभते । दग्धः कण्ठ्यं लभते । मूर्द्धन्यो . अनभिहतासंयुक्तः स्वस्थानं लभते । आलिंगित उरस्यं लभते । अभिधूमितः कण्ठ्यं लभते । स एव दग्धो जिह्वामूलीयं लभते ॥ २७ ॥ ॥ एवं स(सा)माप्ति(सि)कं शिक्षाप्रकरणं समाप्तम् ॥ सामा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २८-३१] पढमो तइओ य सरो, सत्तम णवमो य संकडा हस्सा । वियडा अंतरदी[प० २०, पा० २ हा वि चउत्थो पंचमो चेव ॥२८॥ अकार-इकार-एकार-ओकारः, चत्वारोऽमी संकटसंज्ञाश्च ह्रस्वाश्च । प्रश्नाक्षराणां मध्ये यदा संकटखरबाहुल्यं भवति तदा प्रष्टा यस्यार्थे मोक्षं पृच्छति आत्मनो(नः) परस्य वा बद्धस्य तदा : मोक्षो [न?] भव[ती]त्यादेस्यं(श्यम् ।) नष्टमपि न लभते । दुर्गभङ्गादिकं न प्राप्नोतीत्यादेस्य(श्यम्) । एतद् व्यतिरिक्तमन्यद् यदा [प० २१, पा० १] पृच्छति तदे(दै)षां संकटसंज्ञानां स्वराणां बाहुल्ये सर्वमेव लभ्यत इत्यादेश्यम् । विकटा अन्तरदीर्घाः।के इत्यत्रोच्यते - द्वितीय आकारः, चतुर्थ ईकारः, पंचम उकारः, त्रयो विकटसंज्ञा अन्तरदीर्घाश्च । प्रश्नाक्षराणां मध्ये यदा विकटसंज्ञानां स्वराणां बाहुल्यं भवति तदा प्रष्टा यस्य कस्यचित् परस्यात्मनो वा बद्धस्य मोक्षं [प० २१, पा० २] पृच्छति ॥ तदा मोक्षो भवतीत्यादेश्यम् । नष्टमपि लभते। दुर्गादिभंगश्च सिध्यति, इत्यादेश्यम् । एतद् व्यतिरिक्तं यदन्यनु(तु) लाभादिकं पृच्छति तन्न भवतीत्यादेश्यम् ॥ २८॥ संकडा(ड)विअडा सेसा, सहा[व]दीहा य तिण्णि णि[य मेणं । छट्ठट्ठमा य वेण्णि विसमस्सरो चेय णायबो ॥ २९ ॥ संकट-विकटाः शेषाः स्वभावदीर्घाश्च । षष्ठ ऊकारः, ऐकारोऽष्टमः, औकारो दशमः, • इत्येते त्रयः । शेषग्रहणाद् बिन्दु-विसर्जनीयौ । प्रश्नाक्षराणां मध्ये संकट-विकटसंज्ञानां बाहुल्यं भवति तदा प्रष्टा यदात्मनो यदि वा परस्यार्थ बद्धस्य मोक्षं [प० २२, पा० १] पृच्छति तदा भेदेन मुच्यत इति वक्तव्यम् । नष्टमपि किंचिद्रव्यं भेदेनैव लभ्यते । दुर्गभंगोऽपि भेदेनैव भवतीत्यादेश्यम् । यदन्यदेतद् व्यतिरिक्तं शुभमशुभं वा पृच्छति तन्मध्यमं भवतीत्यादेश्यम् ।। २९ ।। पढमा(म त)इया य वियडा, बीय चउत्था य संकडा वग्गा । सेसा क(सं)कड-वियडी(डा), अड ई दंडस्स भेदतियं ॥ ३० ॥ प्रथमाः- क च ट त प य सा(शा), [तृतीयाः] गज ड द ब ल सा' एतौ विकटसंज्ञौ । प्रागवत् फलम् । द्वितीय(या:)- ‘ख छ ठ थ फर षाः'; चतुर्थ(र्थाः)- ‘घ झ ढ ध भ व हा' एते संकटसंज्ञाः । पूर्ववत् फलम् । शेषग्रहणा[त् ] 'बण न मा' एते उभयस्वभावाः। दण्डं विप्रनष्टं द्रव्यमुच्यते ॥ ३० ॥ [प० २२, पा० २] ॥ एवं संकट-विकटप्रकरणं समाप्तम् ॥ वग्गे गणणादेसे, स(द)वेसु य उत्तराहरो होइ। वग्ग(ग्गु)त्तरा य नियमा, अ च त य वगंत(ग्गुत्त)रा चउरो ॥ ३१ ॥ उत्तराधरं चतुर्विधं-वर्गोत्तरं गणनोत्तरं आदेशोत्तरं द्रव्योत्तरं चेति । अस्य च संबन्धः आह-२२२२ 'वेवेक उत्तर अहरा य तेसिं जाणे वग्गक्खरसराणं' । तदर्थं प्राग् वर्गोत्तरमु" च्यते - [प० २३, पा० १] 'अ च त य एते चत्वारः वर्गाः। उत्तरा प्रधाना इत्यर्थः । ततश्वाल्पे(न्ये) 'कट पश' संज्ञाश्चत्वारः अधरा अप्रधानाश्चेति ॥ ३१ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३२-३६ ] एतदेवाह - सेसा हवंति अहरा, वग्गा चत्तारि क ट प सा जाण । एक्कमि चउक्के, पुणो वि इणमो कमो णेओ ॥ ३२ ॥ अ [ष्टव]र्गक्रम एव चत्वारो वर्गा अधराः । के ते ? 'कटप सा (शा)' शेषग्रहणाद् भण्यते ॥ ३२ ॥ गाथापश्चार्द्धस्यान्य[ ० २३, पा० २ ] गाथया विभाषा क्रियते troute रणाख्यं एक्केकंनि (मि) चउक्के, पुणो पि (वि) इणमो कमो उ विणेओ । दो उत्तरा उ तेसिं, दो चिअ अहराधरा विदिए ॥ ३३ ॥ www निरूपितं उत्तर चतुष्कं अधरचतुष्कं चेति । तत्र चतुष्कद्वये भूय[ : ] प्रधानाप्रधानदर्शनार्थं क्रमोऽयं विज्ञातव्यः । उत्तरचतुष्के द्वौ यथा - अ च वर्गों प्रागुत्पन्नत्वाद् । द्वौ च इति 10 द्वितीयचतुष्कमाह । तत्रान्त्यौ द्वौ वर्गों 'पश' अधराधराविति मन्तव्यौ । अथवा द्वितीयवर्गौ द्वौ [T]धराविति । द्वौ अधरौ 'कट' संज्ञौ । द्वौ अधराधरौ 'पस (श)' संज्ञौ । एवं वा नेयम् ॥३३॥ अनु (मु)मेवार्थं विशेषयन्नाह - दो चेव उ [ १०२४, पा० १]त्तरोत्तर, तेसिं दो उत्तराधर ( रा ) पढमे । अधरुत्तरा य दोणि य दोण्णि य अहराहरा विदिए ॥ ३४ ॥ 1 तत्र उत्तरचतुष्के पूर्वोत्पन्नत्त्वात् प्रधानत्वाच्च 'अ च' एतौ उत्तरोत्तरौ । आभ्यामनन्तरपठ[]त्वात् 'तय' एतौ उत्तराधरौ एव प्रथमचतुष्के । द्वितीये तु 'कट' इत्येतौ अधरोत्तरौ । अधरचतुष्कत्वादधरौ प्रागुत्पन्नत्वादुत्तरौ । द्वौ अधराधरौ । ' प स [श ]' संज्ञौ अधरचतुष्क (त्वा) दधरौ । 'कट' वर्गयोः पञ्चादुत्पन्नत्वाद् अधराधराविति । एवं अष्टवर्गक्रमेण वर्गोत्तरमुक्तम् ॥ ३४ ॥ पंचवर्गीयेत् (यमेतत् ? -) । ९ पढम-तइया उ वग्गा, पण्हस्स य उत्तरक्खरा होंति । बितिय उत्था अहरा, अ[हरा]हर हो[ १० २४, पा० २ ]ति अणुणासी ॥३५॥ प्रथमवर्ग [:] - ' क च ट त प य स (श ) ' इति । तृतीयो - 'गज ड द बलस' । एतौ वर्गों उत्तरोत्तरौ, उत्तरावित्यर्थः । द्वितीय [ : ] - 'खं छ ठ थ फर ष'; चतुर्थ: - 'घ झ ढ ध भ वह ' ; इत्येतौ वर्गों अधरसंज्ञौ । 'ङ न ण न म' इत्येषो (ष) वर्गः अधराधरसंज्ञः । एवं वर्गोत्तरम् ॥ ३५ ॥ 23 साम्प्रतं गणनोत्तरम्, तदर्थं [गाथा ] - गणणा छा [ ५०२५, पा० १] इल्ला, सरुत्तरा छस्सराधरा इयरे । विसमा वि उत्तरा वंजणेसु अहरा समा भणिया ॥ ३६ ॥ गणना- अनुक्रमो भण्यते । तत्र स्वराणामाद्याः षड् उत्तराः, पूर्वोत्पन्नत्वात् । 'अ आ इ ई उ ॐ' । पञ्चादुत्पन्नत्वाद् अधरा 'ए ऐ ओ औ अं अ:' । यद्वाऽन्यथा गणनोत्तर (रं) स्वराणाम् 'अ इ उ ए 30 ओ अं' द्वयोर्द्वयोः प्रागुत्प[ ५०२५, पा० २ ]न्नत्वादेते उत्तराः । पश्चादुत्पन्नत्वादू 'आ ई ऊ ऐ औ अ:' इत्येते अधराः । यत इदमाह - नि० शा ० २ "विसमा वि उत्तरा वंजणेसु अहरा समा भणिया ।" 15 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३७-४१] इहापि गणनमेवाङ्गीकृत्योक्तम् । विषमा[:]- प्रथम-तृतीय-पंचम-वर्गीया वर्णाः । द्वितीयचतुर्थाः समा इति । विषमवर्गीया उत्तराः, समवर्गीया अधरा इति । एवं गणनोत्तरम् ॥३६॥ हस्सा अयारसहिया, सरुत्तरादेसओऽधरा इयरे । क चट त पय सा णुगओ य अकारो उत्तरो पढमो ॥ ३७॥ ___ आदेशोत्तरमेतत् -हस्वाः स्वरा अकारसहिता इति । 'अकार इकार उकार एकार ओकार इत्येते उत्तरत्वेना[प० २६, पा० १]दिष्टाः । एतेषां यद्यपि मध्ये उकारो अप्रधानो दाहात्मकः, तथाप्युत्तर एव द्रष्टव्यः । उकारो यद्यप्युत्तरं दहति स उत्तर एव । यद्यधरं दहति स अधरो दग्धः उत्तरो भवति। शेषाः षड् अधराः पूर्वोक्ता अपि भेदोत्तरेण पुनरादिष्टाः।आई ऊ ऐ औः, अक च ट त पय शेष्वन्तर्भूतोऽप्यकार उत्तर(रो) द्रष्टव्यः पृथगादौ ॥ ३७ ॥ क ग च ज ट ड त द प ब य ल, अट्ठमवग्गस्स पढम तइओ य । एते [य] उत्तरा वंजणेसु सेसा अ(5)धरादेसे ॥ ३८ ॥ 'कगच जंट ड त द पब य ल श सा' एते प्रथम-तृतीयवर्गाक्षराः। प्रथमवर्गस्याष्टमःस(श)कारः । तस्मात् तृतीयः [५० २६, पा० २] 'स'कारः । एते सर्वे उत्तरत्वेनादिष्टाः । शेषा अधरा इति । 'ख घ छ झ ठ ढ थ ध फभ र वष हा' इत्येते द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराः अधरा आदिष्टाः ॥ ३८ ॥ उत्तरसरसंजुत्ता, वग्गे लहु अक्खर(रु)त्तरादेसे । अहरसरेसु य अहरा, हवंति ये उत्तरा लहुया ॥ ३९ ॥ संयोगं प्रति उत्तरस्वरसंयुक्ता[:] । के ते उत्तरस्वराः ? उच्यन्ते-'अ इ उ ए ओ अं' [प० २७, पा० १] एते । प्रथम-तृतीय-वर्गप्रतिबद्धा ये अक्षरास्ते लघवः । के ते ? उच्यन्ते-क ग चज ट ड त द प ब य ल श सा' इत्येते । अनन्तरोक्ता उत्तरस(स्व)रसंयुक्ता उत्तरा एवादिस्य20 (श्य)न्ते । एत एव 'कग च ज ट ड त द प ष ब य ल श सा' उत्तराधरस्वरैः 'आई ऊ ऐ औ अ' इत्येते(तैः) संयुक्ता अधरा इत्यादिस्य (श्य)न्ते । एवमादेशोत्तरम् ॥ ३९॥ दवेसु जे पहा[प० २७, पा० २ ]णा, पुत्वप(चुप्प)न्ना य उत्तरा सके । अधरा य अप्पहाणा, पञ्चुप(पच्छुप्प)ण्णा य जे दवा ॥ ४० ॥ द्रव्याक्षरेषु ये प्रधानतमाः पूर्वोत्पन्नाश्च प्रथम-तृतीयवर्गाक्षरास्ते उत्तराः प्रधाना ज्ञातव्याः। 25 अधराश्च पश्चादुत्पन्नाः। के ते ? द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराः । अप्रधाना ज्ञातव्या अधराश्चेति ॥४०॥ णा(णे)मित्तिएण जे [प० २८, पा० १] वा, उत्तरबुद्धीए अत्तणो गहिया । ते तस्स उत्तराणि उ, सेसा अहरीकया अहरा ॥४१॥ चत्वारो ये विकल्पा उत्तराधरप्रकरणे उक्तास्तास्तिरस्कृत्य, वा क(का)दाचित्कं विधानमुररीकृत्य विकल्पान्तरस्य चोपदर्शनार्थ आहितसंस्कारस्य निमित्तज्ञानवतो द्रागिति बुद्ध्युत्पाद। उत्तरेषु 5 अधरबु(प० २८, पा० २]द्धिः, अधरेषु उत्तरबुद्धिर्वा यत्रोत्पन्ना फलतोऽपि तादृगा(गे)वासौ । यथाब्राह्मणकुलनिवासतुल्यो गोत्रवयोगुणादिपूर्वोत्तरसमाश्रितेषु तद्वद् विश्वासबुद्धिवदिति ॥ ४१ ॥ ॥ एवं चतुर्विधम(मु)त्तराधरं समाप्तम् ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ४२-४५] प्रश्नव्याकरणाख्यं 'अहवा इमं अट्ठविहं उत्तराधरं होइ' सूत्रवचक(न)मेतत् । अथवाऽष्टप्रकारमेतदुत्तराधरं भवतीति वचनस्यार्थः। अक्खरसरसंजोए, बलाबलविसेसओ अणति(हि)घाए । तत्तो य उत्तरोत्तर, अहराअ(s)हर अट्ठमं जाणे ॥ ४२ ॥ . साम्प्रतं गाथार्थमु(र्थ उ)च्यते-स्वरोत्तरं प्रथम, अक्षरोत्तरं द्वितीयं, संयोगोत्तरं, बलाब- 5 लोत्तरं, विभागोत्तरं, अनभि[प० २९,पा० १ हतोत्तरं, [उत्तरं,] उत्तरोत्तरं चेति । एवमधरमपि अष्टप्रकारमेव सप्रतिपक्षत्वाद् वस्तुम(नः)स्वराधरं, अक्षराधरं, संयोगाधरं; [बलाबलाधरं, विभागाधरं] अनभिहताधरं, अधरं, अधराधरं चेति ॥ ४२ ॥ हस्सस(स्स)रुत्तरं अक्खरुत्तरं उत्तराख(रक्ख)रा सके। हस्सस(स्स)रसंजुत्ता, संजोएणुत्तरा लहुया । ४३ ॥ अत्र स्वरोत्तरमुच्यते गाथाया अवयवेनाद्येन । ह्रस्वस्वरोत्तरम् । के हवाः स्वराः ? 'अ इए ओ' इत्येते चत्वारः । अक्खरुत्तरं उत्तरक्खरा सवे । क्वे (के) च ते ? प्रथम-तृतीयवर्गीया गृह्यन्ते । साम्प्रतं संयोगोत्तरमुच्यते - ह्रस्वस्वरसंयुक्ता ला(ल)घवो वर्णाः 'कग च जट ड त द प ब य ल श सा' इत्यते । यथा-[प० २९, पा० २] 'क कि के को, ग गिगेगो, च चिचे चो, ज जि जे जो' इत्यादि संयोगोत्तरम् ॥ ४३ ॥ इदानी विभागोत्तरं क्रममुल्लचयोच्यते, संयोगस्य प्रक्रान्तत्वात् - गरुयक्खरा य सबे, उत्तरसरसंजुआ विभाएणं । सो ठवइ उत्तरो खलु, होति अ से तिणि या(आ)देसा ॥ ४४ ॥ गुर्वा (व)क्षरा उक्ता द्वितीय-चतुर्थवर्गीयाः। ते उत्तरस्वरसंयुक्ताः; । यथा- 'ख खि खे खो घ घि घे घो' । इत्यादिविभागेनोत्तराः । विभागो वदनं अंस(श) इत्यनान्तरम् । यावता 20 ह्रस्वखरसंयोगः । एतावता अंसे(शे)नोत्तरत्वं भजन्तो मुख्यतश्चाधरा एव । तस्मात् स्वर आदेशत्रयविभा[प० ३०, पा० १ ]गेन भवति । लघुस्वराः, ह्रस्वाः, उत्तराश्चेति । शेषा दु(दीर्घाः, गुरु(र)वः, अधराश्चेति । एवं विभागोत्तरम् ॥ ४४ ॥ जो उत्तरेण अहरो, अभिहणंतो ठ(य) उत्तरो होइ । अहरेण उत्तरो वा, बलाबलं उत्तरं एयं ॥ ४५ ॥ य उत्तरेणाधरः अभिहतः । उत्तरस्याबलीयस्त्वात् । तद्यथा- 'ख क' । अत्र खकारः आलिंगितः, कखा(का)रस्यालिंगितत्वात् । एका संख्या इसति । हसी(सि)तैकसंख्या(ख्य)श्च, खकार(रः) कै(क)कारो भवति । प्रतिपन्नश्चोत्तरभावं खकारो(रः,) अबलत्वात् । [त]था अधरेणाभिहन्यमान उत्तरोत्तरो भवति । यथा- 'गघ' । अत्र घकारोऽभिधूमिकः । गकारस्य संख्याद्वप० ३०, पा० २]यमपनयन्ति(ति) । तृ(त्रि)संख्यत्वा[] गकारस्य । ह्रसिते च संख्याद्वये 30 अबलत्वात् । गकारः ककारत्वमापन्न इति । एवमन्यत्रापि बलाबलिनोत्तरं परमम् ॥ ४५ ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । गाथा ४६-५० साम्प्रतमनभिघातोत्तरमुच्यतेपढमस(स्स)रसंजुत्ता, अणभिहया जे तु ते अणभिहया । उत्तरमधरं वेंति य, संजोएणेव दो चरिमा ॥ ४६ ॥ प्रथमस्वरसंयुक्ताः। कः प्रथमस्वरः ? अकारः । तेन अकारेण संयुक्ताः। के ते ? 5 लध्वक्षराः अनभिहता भण्यन्ते । 'क ग च ज ट ड त द प ब य ल श सा' इत्येते अनभिहता(त)संज्ञाः । शेषवर्गास्त्वभिहतसंज्ञा' इति प्रतिपक्षत्वाल(ल)भ्यन्ते । एतदनभिहतोत्तरं उत्त[५० ३१,पा० १]रेण चरिमेण बिन्दुना युक्तोऽक्षर उत्तरत्वं ब्रजति । अधरेण विसर्जनीयेन युक्तोऽक्षरः अधरत्वं व्रजतीत्यर्थः। एवं षष्ठो भेदस्ततोऽयम् । उत्तरा उक्ताः । उत्तरोत्तराश्चोक्ताः। उत्तरप्रतिपक्षेणाधरा [अ]प्युक्ताः । उत्तरोत्तरप्रतिपक्षणाधराधराः प्रोक्ताः । इत्येवं अष्टप्रकारमुत्त1" राधरव्याख्यानम् ॥ ४६॥ एवं सरुत्तरादिसु, बलाबलं सबओ पलोएउं । चिन्तादीए भावे, जीवाइ व(वि?)णिदिसे मइमं ॥ ४७ ॥ ह्रस्वस्वरो ह्रस्वासरं(?) बलाबलं सर्वतो विलोक्य चिन्ता-नष्ट-मुष्टि-जीव-धातु-मूलयोनि वा विलोक्य बलाधिक्येनाक्षरे(राणामादिशेन्मतिमान् ॥ ४७ ॥ जीवं जाणसु दोसुत्तरेसु [५० ३१, पा० २] अहरेसु दोसु भण धाओ(3)। अहरुत्तरेसु मूलं, उत्तरमधरे तहा धाउं ॥ ४८ ॥ जीवं जानीहि । प्रश्नाक्षराणामादौ पतिते उत्तराक्षरद्वये जीवं, प्रभाक्षराणां आदौ पतिते अधराक्षरद्वये धातुं, प्रश्नाक्षराणां आदौ पतिते अधरे द्वितीये चोत्तरेऽनन्तरं पतिते मूलमव गच्छ । [५० ३२, पा० १] प्रश्नाक्षराणा[मा]दौ यदा उत्तरो दृश्यते ततोऽनन्तरं श्वा(चा)धरः । 20 तदाऽपि धातुमेवागच्छ ॥४८॥ ॥ इत्येवं उत्तराधरं प्रकरणं समाप्तम् ॥ दुविहो खलु अभिधाओ, सद्दगओ चेव अक्खरा(र)गओ य । सद्दगओ तिविगप्पो, मंदो मज्झो य तिबो य ॥ ४९ ॥ द्विविधोऽभिघातः शब्दगतोऽक्षरगतश्च । तत्र श[प०३२, पा० २]ब्दगतो अनक्षरात्मको 25 ऽनेकप्रकारः पटह-सं(शं)ख-भेरी-कुड्यपतन-मुद्गर-जालाभिघातादिलक्षणः। स तृ(त्रि)विकल्पः (ख)ल्पो मध्यमो महाचेते(व्हांश्चेति ) । क्रमसः(शः) आलिंगिताभिधूमितदग्धलक्षणः। अक्ष[र]गतमभिघातमुपरिष्टाद् वक्ष्यति ॥ ४९ ॥ एकेको पुण दुविहो, होइ पसत्थो य अप्पसत्थो य। [अ]पसत्थो मंदादी, कुबइ आलिंगियादीणि ॥ ५० ॥ . स शब्दो द्विविधः-प्रशस्ता(स्तोs)प्रशस्तश्च । वीणा-वेणु-सं(शीख-भेरी-पटहादिगतः प्रशस्तः । कुड्यपत[न-भाण्डादिभङ्ग-रासभादिशब्दश्वाप्रशस्तः । यः शब्दोऽल्प आलिङ्गितः प्रश Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ५१-५३] प्रश्रव्याकरणाख्य स्तो वाऽप्रशस्तो वेति । मध्यमो यः शब्दो [५० ३३, पा० १]ऽभिधूमितसंज्ञः प्रशस्तः, अप्रशस्तो वा। एवं प्रशस्तः, अप्रशस्तो वा यः शब्दस्तीत्रः स दग्धसंज्ञः । प्रशस्तो यः शब्दोऽल्पः सोऽल्पफलं ददाति, स्थिरं च करोति । प्रशस्तो यः शब्दो मध्यमः स मध्यमफलं ददाति, मध्यमं स्थैर्य करोति । प्रशस्तो यः शब्दस्तीत्रः स महत् फलं करोति, स्थैर्य च तस्याल्पकालमिति । अप्रशस्तः यः शब्दोऽल्पः सोऽल्पमान्द्यं करोति, स्थैर्य च तस्य मान्धं करोति । अप्रशस्तो यः शब्दो मध्यमः । स मध्यममान्धं करोति, मध्यमं च स्थैर्य मान्द्यस्य करोति । अप्रशस्तो यः शब्दः तीव्रः स महामान्यं करोति, अवस्थानं च त[प० ३३, पा० २]स्य मान्द्यस्याल्पकालमित्येतदपि शुभाशुभमल्पमध्यम-महत्त्वेन द्र[ष्टव्यम् । एवं शब्दाभिघातः ॥ ५० ॥ अक्षराभिघातार्थःबि-चउत्थ-पंचमाणं, वग्गाणं अक्खरा अभिहणंति । एक्कुत्तरिया य सरा, अणभिहया सेसया वम्गा ॥५१॥ द्वितीय-चतुर्थ-पश्चमवगैः प्रथम-तृतीयौ वर्गावभिहन्ये[प० ३४, पा० १ ]ते । एकान्तरिताख(च) स्वरा[:] के भण्यन्ते ? इत्यत्रोच्यते - यद्यप्येकान्तरिता बहवः, तथापि 'आई' कारश्च एते त्रय एकान्तरिता[:] प्रथम-तृतीयौ वर्गा[व] भिन्नन्ति । प्रथम-तृतीयवर्गा हस्वस्वराश्च चत्वार एते परस्परं नाभिनन्ति ॥५१॥ . अणभिहया अनि(ल्याभि)हया वा, पिल्लिज्जंता उ आभिघा[प० ३४, पा० २]तीहि । आलिंगियाभिधूमितदढं () व लहंति ते नामं ॥ ५२ ॥ अनभिहता वर्गा उक्ता अभिहताश्च एते अनभिहता वा के ते प्रभाक्षरा[:] ? तेषां प्रश्नाक्षराणां स्थापितानां किमपि घातोऽस्ति नास्ति च इति चिन्त्यम् । यदा प्रश्नाक्षराणां परस्पराभिघात उच्यते तदा प्रिथमाक्षरद्वितीयाक्षरखि(स्तृ)तीयाक्षरमभिहन्ति । तृतीयाक्षरं चतुर्थाक्षरं । अभिहन्ति । एवं चतुर्थाक्षरं पञ्चमाक्षरं, पञ्चमं षष्ठः, षष्ठं सप्तमः, सप्तमो()ऽभिहन्यभिघाते सति। यो यस्यानन्तरं स तमिति । अभिघातस्यालिङ्गिताभि[धूमि]तदग्धलक्षणमुपरिप० ३५, पा० १]ष्टाद् विस्तरेण व्याख्यास्यति । यदा प्रश्नाक्षराः सर्वे परस्परमभिहताः, तदा अप्रधाना निफ(फ)लाख(श्च) भवन्तीति ॥५२॥ प्राक् तावत् स्वराभिघाता उच्यन्ते - अणवि(मि)ह[य] अभिहया वा, अंतरदीहस(स्स)रेहि संजुत्ता । अभिधूम(मि)यंति लहुया, दहति गरुया वि ते चेव ॥ ५३ ॥ अनभिहता अभिहता था ये प्रभाक्षराः । अथवा प्रथम-तृतीयौ वर्गावनमिहतसंज्ञौ । शेषास्त्वभिहतसंज्ञाः । एते अन्तरदीर्घा(घ)स्वरयुक्ताः। के ते अन्तरदीर्घस्वराः ? आकारः, ईकारः, ऊकारश्चेति एते त्रयः। एतैरन्तरदीर्घखरैः संयुक्ता अभिधूम्यन्ते (५० ३५, पा० २] " अग्रतो वाम(न)न्तरमवस्थितैः । के ते लध्वक्षराः? 'कग च ज ट ड त द प ब य ल श सा' इत्येते चतुर्दश । आकारेण ईकारेण ऊकारेण च संयुक्ता अग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितैर्दशन्ते गुर्वा(4) +-+ एतद्विदण्डान्तर्गतः पाठो भ्रष्टप्रायो दृश्यते । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा ५४-५७ राः । के ते गुर्वा (र्व) क्षराः ? 'ख छ ठ थ फर षा' इत्येते सप्त । आकारेण ईकारेण ऊकारेण च [प०३६,पा० १] संयुक्ता अग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितैर्दह्यते (ते) परेण । गुर्वा (र्व) क्ष) राः के ते ? 'झ भ वहा' इत्येते सप्त ॥ ५३ ॥ आलिंगियन्ति इस्सस (रस) रा हु दीहस्सरा रि (इ) ह दहंति । ॥ ५४ ॥ पक्राउ सबे, संजुत्ता आणुपुवी - आलिंग्यन्ते ह्रस्वस्वराः । के ते ह्रस्वस्वराः ' अ इ उ ए' ते चत्वारः । के ते आलिझ्यते (न्ते) 'ख छ ठ थ [ प०३६, पा०२] फर षाः, घ झ ढ ध भ वहा' श्वेत्येते द्वितीय- चतुर्थवर्गाक्षराः सप्त । 'घ झ ड (ढ)ध भ व हा 'श्चतुर्थवर्गाक्षरा दह्यन्ते चतुर्भिः खरैः । के ते चत्वारः 'ओ औ अं अः' । एवं संयुक्ताः आनुपूर्व्या आलिङ्ग्यन्ते, अभिधूम्यन्ते, दान्ते च ॥ ५४ ॥ 25 अमुमेवार्थं गाथान्तरेण प्रतिपादयन्नाह - अंतरदीहा अभिधूमियंति आलिंग (गि) यंति जे हस्सा । टिट्ट (दिड ) दो चरिमसरा, अ ( स ) हावदीहाणुणासीया ॥ ५५ ॥ अन्तरदीर्घ्य (र्घा) उक्ता 'आ ई ऊ ' एतेऽभिधूभितसंज्ञा[:] । ह्रस्वा उक्ता 'अइए उ' एते आलिङ्गितसंज्ञाः । [ ऐ औ ] द्वौ स्वरौ चरिमसंज्ञौ वा अ ( आ ) मेयौ तौ दहतः । [ १० ३७,पा० १] 15. स्वभावदीर्घाः 'ऊ ऐ औ' अनुनासिका 'ङणन माः' इत्येते ॥ ५५ ॥ स्वरास्ट (स्त्रिधा निरूप्यान्यगाथा (थ) या फलमुच्यते - आलिंगिया य आलिंगियंति अभिधूमिया य धूर्मेति । दट्ठा (डा) यदहंतिसरा, तेसिं जुत्तं च वरिषं (मं) च ॥ ५६ ॥ आलिंगितसंज्ञाः, के ते 'अ इ ए ओ' एतैश्चतुर्भिः स्वरैः ये आलिंग्यन्ते । द्वितीय - चतुर्थ - 20 व[र्गा]क्षराः उक्ता एव । अभिधूमितसंज्ञास्त्रय 'आ ई ऊ ' एतैरभिधूम्यन्ते । प्रथम-तृतीयवर्गाक्षरास्तेऽप्युक्ताः । एवं दुग्धसंज्ञा 'उ ऊ अं अः' एते प्रथम- तृतीयवर्गा दहन्ति । एतदप्युक्तम् । 'ओ औ अं अः' एते चत्वारस्तैः स्वरैः संयुक्तस्वरा: [ १० ३७, पा० २] प्रथम - तृतीय - चतुर्थवर्गाक्षरा दहन्ति । इत्येतदुक्तमपि पुनरुक्तम् । 'ऐ औ' एतौ द्वौ स्वरौ प्रथम- तृतीय - पञ्चमवर्गा दहन्ति । इत्येतदक्तम् । एतैर्दहनात्मकैर्यः संयुक्तोऽक्षरस्तं दहन्ति पूर्वाक्षरं वानन्तरमिति संयोगभावे सति ॥ ५६ ॥ एवं स्वराभिघात उक्तः । इदानीं वर्गाभिघातः - बीओ य पढम- तइयं, पढम-तइया य जायदो (जे य दु?) चउत्थं । आलिंगियंति वग्गं, चउत्थ पुण पंचमं वग्गं ॥ ५७ ॥ [ १०३८, पा० १] द्वितीयो वर्गः प्रथमवर्गं तृतीयं चालिङ्गयति । तथा प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गश्च द्वितीयवर्गमालिङ्गयतः (ति)। तथा प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गश्चतुर्थवर्गमालिङ्गयति । तदुक्तम् - प्रथम - तृतीयौ दोविय 30 द्वितीयद्वयचतुर्थं [इ]ति । चतुर्थवर्गः पञ्चममालिङ्गयति । अत्र प्रथमवर्गः पृथिव्यात्मकः । द्वितीयो वाया (वा) त्मकः । तृतीय उदकात्मकः । चतुर्थ आकासा (शा) त्मकः । पचमः अम्यात्मकः । इत्येवं पचमहा [ ५०३८, पा० २ ] भूतात्मकं जगदि [ति ] ॥ ५७ ॥ P Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं अभिधूमे चउत्थो, आइमवग्गे उ तिण्णि नियमेणं । पंचम-चउत्थवग्गे, दोण्णि य अभिधूमये बितिओ ॥ ५८ ॥ अभिधूमयति चतुर्थो वर्गः प्रथमवर्ग (ग) तृ ( द्वितीयवर्ग व्यतीवर्गं च । द्वितीयवर्गश्चतुवर्ग पञ्चमवर्गचे (र्गं चे ) ति ॥ ५८ ॥ आइल्ला चत्तारि वि, डज्झति पंचमेण वग्गेण । पंचमओ पुण उज्झइ, पढम - तइज्जेसु दोसुं पि ॥ ५९ ॥ [ गाथा ५८- ६३ ] प्रथम- द्वितीय - [तृतीय]- चतुर्थवर्गा दह्यन्ते पञ्चमवर्गेण अभ्यात्मकत्वात् । पञ्चमवर्गस्तु दह्यते विनास्य (श्य) ते प्रथम - तृतीया (यैः) पृथिव्यो (व्यु) दकात्मकैः ॥ ५९ ॥ जे जे समाभिलावा, अण्णो [ १० ३९, पा० १]ण्णं ते उ णं अभिहणंवे (ते ) ति । जह कगचज मादीया, दो दो लहुआ सुआ अण्णा ॥ ६० ॥ जे जे (ये ये) समानसी (शी) ला लघवश्च मात्येवे (?) लघवः अन्योन्याना (ना) भिन्नन्ति । के ते समानसी (शी)लाः, ते उच्यन्ते - 'कग च ज ट ड त द प ब य ल स (श) सा' इत्येते । प्रथमवर्गतृ (स्तृतीयवर्गश्च लघुसंज्ञौ । अनयोरासनौ (नौ) द्वितीय - चतुर्थवर्गों गुरुसंज्ञौ भवतः । परस्पराभिघातकौ चेति ॥ ६० ॥ अभिहणमाणे दिट्ठो (ट्ठे ?), जोणीसंठाणवण्णमाईणि । अभिहणमाणस्स ऊ (?) भवे, ण जो उ अभिहण्णए तस्स ॥ ६१ ॥ १५ अभिहन्यमाने दृष्टे । कोऽभिहण्यन्ते (न्यते) । दो (यो ) भि [ १० ३९, पा० २ ] हन्तीत्युक्तमपि पुनरुयते - पूर्वं (र्व) पूर्वाक्षरोऽमिमेणात्क (क्ष) रेण यादृशेन यादृश इति । पूर्वोक्तं योऽभिहन्ति तस्यार्भियंतु ( हन्तुः) योनि-स्थान- त्रर्णप्रमाणादीनि वक्तव्यानीति । कस्मात्कारणादित्युच्यते - येन सर्वोऽभिहन्ति बलीयानीति ( बलवान् इति ? ) ॥ ६१ ॥ परवग्गेण उवग्गो, जो जेण अभिहण्णए उ तो तस्स । अभिघ (घा) यं जाणेज्जा, राजादिसंथ (घ) वणा (ण्णा ) णं ॥ ६२ ॥ 10 15 परवर्गेण वग्र्गो यो येनाभिहन्यत इति । परवर्गस्य इत्यक्षरस्य संज्ञा । एतत्तु प्र ( पृ ) थक(कू) वसा (शा)त् । पराक्षरेण (?) योक्षरोऽभिहन्यन्ते (ते) तस्याभिहन्य[ १०४०, पा० १ ] मानस्य पराजओ (यो) वक्तव्यः । अभिहर्तु (न्तु) र्जयो वक्तव्यः । एवं ब्राह्मणादिवर्णानां राजन्यस्य वा युद्धे 25 विवादे वा जय (यः) पराजयो वाच्य इति । आलिङ्ग (ङ्गि) ते भागहानिः । अभिधूमित-अभिघाते द्वे हा क्षय वा । दग्धे निशे (श्शे ) पतक्षयो मृत्युर्वा ॥ ६२ ॥ : आलिंगियंमि जीवं, मूलं अभिधूमियंमि पहंमि । दट्ठे (ड)मि भणसु धाउं, एतो उद्धं जहा वोच्छं ॥ ६३ ॥ प्रशस्ताप्रशस्ताश्च ये शब्दा[:] पटहकुड्यपतनादिगतास्ते पूर्वोक्ता [ १०४० पा० २ ] आलिंगिताभिधूमितदग्धलक्षणाः । तत्रालिङ्गिते शब्दे [जीव आदेश्यः । अभिधूमिते शब्दे ] मूलमादेश्यम् । दग्धे शब्दे धातुरादेस्यः (श्यः) । तस्मात् पूर्वे (ऊर्द्ध) 'यथे 'ति वक्ष्यमाणकं प्रश्नम् ॥ ६३ ॥ 20 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ६४-६८ आलिंगियंमि कलहो, मंदं अभिधूमियंमि पण्हंमि। दटुंमि भणसु मरणं, एत्तो उद्धं जहा वोच्छं ॥ ६४ ॥ अस्मिन(न)पि प्रशस्ताप्रशस्तशब्दत एवानक्षररूपो ध्वनिरधिकृत्या(त्यो)पदिष्टम् ॥ ६४ ॥ ॥ अभिघातप्रकरणं समाप्तम् ॥ वग्गाणं जइ पढमा, णिरंतरं वा तिहि पण्हमाइए । तो सुण्णं जाणेजा, [ण]वि किंचि वि चिंतियं तथे(त्थ) ॥ ६५ ॥ वर्गाणां यदि [प० ४१, पा० १] प्रथमा इति प्रथमग्रहणेन स्त(स्व)राणां प्रथमः अकारः, 'क' वर्गस्य च प्रथमः ककारः, 'च' वर्गस्य च प्रथमच(श्च)कारः । एते त्रयो यदा निरन्तरं प्रश्नादौ दृश्यन्ते तदा सू(शू)न्य जानीयात् । न किञ्चिदपि चिन्तितं तत्रेति । तथा मण्डुकिकायाम्॥६५॥ अभिहयबिंदुविसग्गे, चिंता मुट्ठी य सुन्निया होइ । वग्गेक्कबहुलवण्णो, तत्थ ण कजं मुणेयवा(ब) ॥६६॥ अ(य)त्र प्रश्नाक्षरा आरम्भादेव बिन्दुविसर्गाद्यभिहताः। तत्र चिन्तायां मुष्टौ च (शू)न्यम्। तथा एकवर्गीया नैरंतर्येण बहवो वर्णास्तत्रापि न कार्य सू(शू)न्यमित्यर्थः ॥ ६६ ॥ मीसेसु [५० ४१, पा• २] अस्थि चिंता, आधाराधेयमिस्सय[ति]दुविहा । । धम्माधम्मागासा आहारा तिणि विन्नेया ॥६७ ॥ • प्रभाक्षराणां मध्ये 'अकचा' यदाऽन्यवर्गे[ण] सहिता दृस्य(श्य)न्ते तदाऽस्ति चिन्ता। सा च द्विविधा आधारविषया, आधेयविषया वा । उभय[प० ४२, पा० १]विषयाऽपि संभवा तृ(त्रि)विधा भवतीति । आधारा [अक्षराणि, आधि(धे)या मात्रा। अक्षर-मात्राभेदेन द्विविधा चिन्ता धातुयोनौ लब्धायाम् । धातुरतृ(स्त्रि)विधो धाम्यः, अधाम्यः, आकाशमिति-एवं केचिद् व्याख्या२० नयन्ति । तदेतदुपरिगाथया स[प० ४२, पा० २ह विरुध्यते । तस्मादन्यथा व्याख्यायते-आधारस्तृ(स्त्रि)विधः-धर्माधर्माकाशास्त्रयो [s]मूर्ताः। तत्र धर्माधर्मों लोकव्यापिनौ । आकाशस्तु लोकालोकव्यापी । तत्र गतिलक्षणो धर्मास्तिकायो गतिमतां जीवानां पुंग(पुग)लानां च गत्युपग्रहे वर्तते । स्थितिलक्षणाः(गः) अधर्मास्तिकायः स्थितिमतां स्थितिहेतुः। अवग्रा(गा)हलक्षणमाकाशं, अव गाहिनामवगा[ह] हेतुरिति । ऐते त्रयोऽपि अमूर्ती जीव-मूल-धातूनां आधारं, आघेया जीवधातुमूला 25 इति [प०४३, पा० १] ॥ ६ ॥ एतंत(तद्) एवाह - जीवं धाउं मूलं, आधेयं तत्थ पढमओ जीवो। . . न(?)इदीसइ सो दुविहो, जीवावयवो य जीवो वा ॥ ६८ ॥ जीव[:], प्रथम[:], धातुपदार्थो द्वितीय[:], मूलपदार्थस्तृतीयः । एवं तृ(त्रि)भिः " पदार्थेव्या(ा)तं जगदिति । त्रिविधैव योनिर्भवति । तत्र तावत् प्रथमो जीवपदार्थः । स च द्विविधो दृष्टव्यो जीवो [जीवावयवश्चेति ॥ ६८॥ . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ६९-७५ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं जीवे दिट्ठे जीवं, जीवावयवं च तत्थ नायवं । पुणरवि उत्तरसहिए, पण्हे जीवं हवे नियमा ॥ ६९ ॥ जीवाक्षरेष्वनभिहतेषु [ १०४३, पा० २] जीव इत्यादेश्यम् । तेष्वेवाभिहतेषु जीवावयवो वक्तव्यः । पुनरप्युत्तरस्वरैरक्षरैर्वा बहुले प्रश्ने जीवेनैव तिसंस ( निस्संश) यं भवितव्यम् ।। ६९ ।। अहरसहिए उपयो (हे ), जीवं वावयवं नु (? तु) मुणिजासु । जीवे लद्धमि पुणो, दुबय- अपदाहि (इ) पभेदा [य] ॥ ७० ॥ अधराहुतो (अधरसहिते ? ) प्रभे जीवावयव (वं) जानीहि । जीवयोनौ लब्धायां द्विपदचतुष्पदापदपादसंकुला भेदा वक्ष्यमाणाश्चिन्त्याः ॥ ७० ॥ लोमाणि तया रुहिरं, मेदो मंस-ट्ठि मज्ज - सुक्काइ | जीवावयवा [य] पदे, जीवा सिद्धा असिद्धा य ॥ ७१ ॥ रोमाणि त्वग् रुधिरं मांसं मेदोऽस्थि[ प० ४४, पा० १ ] मज्जा शुक्राम्य (य) ष्टावेति जीवावयवाः । जीवाः सिद्धा असिद्धाश्र द्विविधा भण्यन्ते ॥ ७१ ॥ सिद्धा गवियप्पा, [ अ ] सिद्ध संसारिणो चउवियप्पा | दुपया चउप्पयावि य, अपया पयसंकुला चेव ॥ ७२ ॥ [र्विकल्पाः ] | 15 तत्र सिद्धा एकभेदाः संसारविनिर्मुक्ताः । असिद्धाः संसारिणः । ते चतु चतुरो भेदान्ना (ना) ह - देवगतिः, मनुष्यगतिः, तिर्यग्गतिः, नारकगतिश्चेति । द्विपद-चतुष्पदअपदाः [पद] संकुलाचेत्यमरचकमेभेधा (श्वेत्यपरचतुर्भेदाः ) ॥ ७२ ॥ दुपया माणुस ( स ) देवा, पक्खी तह नारया मुणेयबा | मया हु चउवियप्पा, णायचा पण्हइत्तेहि ॥ ७३ ॥ १७ द्विपदा मानुष (षाः) देवा: [ प०४४, पा० २] पक्षिणो नारकाचेति वक्तव्याः । मनुजाश्चतु - 20 र्भेदाः ॥ ७३ ॥ तेषामन्यगाथया चतुरो भेदा[न्] वक्ष्यति - पढमो ह बंभणाणं, बीओ वग्गो य हवइ वेसाणं । तइओ [य] खत्तियाणं, सेसा दो होंति सुद्दाणं ॥ ७४ ॥ प्रथमो वर्गः 'कचटतपय सा (शा)' इति ब्राह्मणाः (नां) ज्ञेयाः (यः) । द्वितीयो वर्ग : 25 'छठथ फरा' इति भवति वेस्या (वैश्या) नाम् । तृतीयवर्गा (र्गः) ग ज ड द बलसा' क्षत्रियाणाम् । चतुर्थो वर्गः 'घझ ढध भ वहा' [ १०४५, पा० १] शूद्राणाम् । 'ङणनमा' पश्चमो वर्ग[:] शं(सं)करजीतीनाम् ॥ ७४ ॥ दुविहा एते णेया, इत्थी पुरिसा पुणो वि ते विव ( ति वि) हा । बाला तरुणा थेरा, उत्तम - मज्झा-धमा तिविहा ॥ ७५ ॥ मि० शा ० ३ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 15 [ गाथा ७६-७९] ये एते चतुर्विधा ब्राह्मणादय उक्ताः 9 1 तेष्वेव पूर्वोक्तवर्गेषु प्रथमो वर्गस्तृतीयवर्गा (र्ग)च पुमान् ज्ञेयः । द्वितीय- चतुर्थवर्गों स्त्रीसंज्ञौ । पञ्चमो वर्गो नपुंसकसंज्ञः । तत्र पुमांस्तु (स्त्रि) विधो बाल- तरुण - स्थविर इति । योषि[ १०४५, पा० २ ]दपि त्रिविधा बाला तरुणी स्थविरा चेति । नपुंसकमिति (मप) त्रिविधमेव बालं तरुणं स्थविरं चेति । स्त्री-पुं- [ नपुं] सकान्येतानि प्रत्येकं त्रिविधान्युत्तम: मध्यमाधमत्वेन द्रष्टव्यानि । विवेकमेषां वक्ष ( क्ष्य) माणलक्षणगाथया दर्शयिष्यति ॥ ७५ ॥ 1 1 20 १८ तथा चैक(बं) कर्मभूमयः । देवाः प्रथमवर्गाक्षराः, अन्तरदीर्घ स्वरैर्युक्ताः । कर्मभूमयो मनुष्या भवन्ति । अन्तरदीर्घस्वराश्च 'आ ई ऊ । [१०४६, पा० १] एतेऽवय [वा ] उक्ता अपि स्फुटाः पुनरुताः । तृतीयवर्णाक्षराः अन्तरदीर्घस्वरैर्युक्ता अकर्मभूमयो भवन्ति देवाः । एषां कर्मभूभिजानां 10 अकर्मभूमिजानां योनि [:] स्वभाव[:] चेष्टा च वर्णाकृतिः प्रमाणमिति वक्तव्यानि । अन्तरदी (द्वी) पानां षट्रपंचास (श) तां एकोरुकादीनां प्रपञ्चो नेषधां (ऽनेकधा ? ) । तेषां च स्वनामनिर्देशा [त् ] परिज्ञानं कर्त्तव्या (व्य) मिति ॥ ७६ ॥ ॥ जीवसमा[स]प्रकरणं समाप्तम् ॥ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । तह चेय कम्मब्भा (भू)मा, अकम्मभूमा य अंतरदी ( ही ) वा । दे कमेण स, सणामणिदे ( है ) सउ (ओ) जाण ॥ ७६ ॥ धातुस्सरा सहस्सा, कगादिवग्गाणुरासिया दुपए । बीओ दसम य सरो, चउप्पए खाइवग्गो य ॥ ७७ ॥ प्रश्ने प्रथम -[ प०४६, पा० २ ] तृतीय- पंचमवर्गाक्षर। णिध ( राधि) के प्रथम - तृतीय- पञ्चमवर्गाणामेवाक्षरा एकस्मिन् उकारेण धातुस्वरेण ह्रस्वेन युक्तो (क्ताः) तेषामेवान्यतमस्य प्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन द्विपदजीवचिन्ता विज्ञेया । प्रभे द्वितीयवर्गाक्षरबहुले द्वितीय आकारो दशम औकारो(र)स्तयोरन्यतरेण द्वितीयवर्णाक्षरेषु युक्तेषु द्वाभ्यां वा चतुष्पदचिन्ता विज्ञातव्या ॥७७॥ अपयाणं घ झढा खलु, पयाकुलयाण (लाणं च ) धभव हा चउरो । चउरट्ठमबारसमा, [१०४७, पा० १] सरा य दोपहंमि सामण्णा ॥ ७८ ॥ झ बहुले प्रश्न ईकारे ऐकारे अकारेण च सविसर्गेण एभिस्तु (खि) भिः स्वरैर्युक्तेषु । एषां चान्यतमाक्षरस्यानन्तराप्रकान्तस्वराणामन्यतमोऽप्रतोऽनन्तरमवस्थिते अपदा ज्ञेयाः । भव हा चत्वारः, एतैरेव स्वरैस्त्रिभिर्युक्ताः पूर्वोक्ता ( स ) न्यायेन पादसंकुलाः प्राणिनो शेया 26 इति ॥ ७८ ॥ जइ पढम-तइय-पञ्चम-वग्गे पण्हक्खराइ दीसंति । तो दुपय-जीवचिंता, चउप्पयाणं पि [ब] उत्थे ॥ ७९ ॥ अन्य[प० ४७, पा० २][६]पि परिपाट्या उक्तमपि किञ्चिद्विशेषमधिकृत्योच्यते- प्रथम वर्गस्य तृतीयवर्गस्य पञ्चमघर्गस्य च सम्बन्धिनो यदा प्रश्नाक्षरा बाहुल्येन दृश्यन्ते तदा द्विपदजीव20 चिन्ता ज्ञातव्या । द्विचतुर्थवर्णाक्षराणां बाहुल्ये प्रभुपदा ज्ञेय[ : ] ॥ ७९ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं भवणवइ - वाणवंतर - जोइस-वेमाणिया तहा देवा । सि दस अट्ठ पंचय, व (बा)रस णव पंच य वियप्पा ॥ ८० ॥ दश प्रकारा भवनवासिनः, तद्यथा - असुर-नाग- विद्युत् - सुवर्णा ऽग्नि-वात- स्तनितो -दधिद्वीप - विकुमाराः । अष्ट प्रकारा व्यन्तराः - किंनर - किंपुरुष - [ १०४८, पा० १ ] महोरगा (ग) - गान्धर्वयक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः । पश्च भेदा ज्योतिष्काः - सूर्य-चन्द्रमसो- ग्रह-नक्षत्र-प्रकीर्णतारकाश्च । s वैमानिका अनेकप्रकाराः - सौधर्मेशान - सनत्कुमार- माहेन्द्र ब्रह्मलोक - लान्तक - महाशुक्र - सहस्रारआणत-प्राणत-आरण-अच्युताद्या द्वादशकल्पोपपन्नकाः । अपरे नवभैवेयकाः- अधोमध्यमोपरिविभागस्थाः । तथाऽनुत्तरविमानवासिनः पञ्चप्रकाराः - विजय - वैजयन्त - जयन्ता - पराजिताः सर्वार्थसिद्धसंज्ञाः । एते स्वभावनिर्देशतो विज्ञातव्याः ॥ ८० ॥ सिद्धाण आदिवग्गो, देवाणं होंति तिण्णि वग्गाओ ( उ ) । दो चेव मानुषा (सा), [ १० ४८, पा० २] सेसा तिरियास (ण) वग्गा हु ॥ ८१ ॥ [ गाथा ८०-८५] लोका व्यवस्थिताः सिद्धा अशेषविमुक्ताश्व अकार बहुले प्रश्ने । [ क च ट बहुले प्रश्ने ? ] वैमानिका देवा ज्ञेयाः । त प बहुले प्रश्ने मनुष्या ज्ञातव्याः । यश बहुले प्रश्ने उत्कृष्टाति (स्ति) र्यगतयो ज्ञेयाः ॥ ८१ ॥ दुपयक्खरे दिट्ठे, सदुपयक्खरा मणुस्साणं । जे पुण चउप्पयाणं, ते नियमा होंति देवाणं ॥ ८२ ॥ द्विपदाक्षराः । के ते ? प्रथम - तृतीय- पञ्चमवर्गाक्षराः । एतद्बहुले प्रभे मनुष्या द्रष्टव्याः । अकर्मभूमिकान्तरद्वीपकाश्च । चतुर्थ[ १०४९, पा० १ ] वर्त्ता ( ? ) याचतुष्पदाक्षराः, ते (तै: ?) उत्तरखरयुक्तैर्भवनपतिथ्यन्तरा ज्ञेया इति ॥ ८२ ॥ अपदानं जो गमओ, सो चेव य होंति नारयाणं पि । बहुपायाणं तइओ, सर (सा) वयवो होइ पक्खीणं ॥ ८३ ॥ १९ अपदाक्षरा घझ ढ पूर्वोक्ताः । द्विपद- योनौ लब्धायां धन व हा नामत्यवसोय (?) त्वाभिव्यञ्जको भवति । तदा पक्षमे (क्षिणो ?) सत्त्वा भवन्ति ॥ ८३ ॥ मणुअक्खरेसु मणुआ, इत्थीए सेसएस नायबा । हस [स]रायणा, सेसा ल (लु ) क्खा सरा सबे ॥ ८४ ॥ मनुष्याक्षराः प्रागुक्ताः । विशेषोप [ १०४९, १० २ ]दर्शनार्थं पुनरुपन्यासः । प्रने मनुजाक्षरबहुले मनुजा' ज्ञेयाः । के ते मनुजाक्षराः ? । प्रथम- तृतीयवर्णप्रतिबद्धाः । द्वितीयवर्गाक्षरबहुले प्रभे स्त्री ज्ञातव्या । ह्रस्वस्वराः, के ते ? अ इ उ ए एते पञ्च (१) स्निग्धाः । एतद्बहुले प्रश्ने पुरुषा [आ] देश्या: । शेषाः दीर्घाः सप्त स्वराः । एतद्बहुले प्रभे स्त्रिया (यो) वक्तव्याः ॥ ८४ ॥ खख्घ (घ१) मादिणो य वग्गा, पंच य अणुणासिया भवे लुक्खा । णि कगादिवग्गा, तत्थ य कज्जं तु सयणगया (१ यं) ॥ ८५ ॥ I 10 15 20 25 20 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ८६-९०] द्वितीय-चतुर्थ-पञ्चम-वर्गा एते त्रयो वर्गा रुक्खा(रूक्षाः)। प्रथम-तृतीयवर्गों[स्निग्धौ] । स्निग्धवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने स्व-जनसम्बन्धे कृते कार्य द्रष्टव्यम् । रूक्षाक्षरबहुले प्रभे पर-जनसंबन्धे कृतं कार्यं द्रष्टव्यम् ॥ ८५ ॥ एतदेवाह - . परजणकयं [प० ५०, पा० १] च कजं, मुणेह सब लुक्खएसं(क्खरेसु) पि(?) । मिस्से पमयासहियं, कजं तह [पुत्तभंडकयं ॥ ८६ ॥ रूक्षाक्षरबहुले प्रश्ने पर-जनकृतं कार्यम् । स्निग्धरूक्षाक्षरबहु[ले] प्रश्ने प्रमदासंयोगार्थे भार्यापुत्रकार्य च ज्ञातव्यम् ॥ ८६ ॥ पढमक्खरेसु बाला, मज्झेसु य जोवणंमि वटुंता । अतिगएसु अ थेरा, जीवा पण्हेसु णायवा ॥ ८७ ॥ प्रथमवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने बाला[:], पुमा(मान्) स्त्री नपुंसकं च भवति । तृतीयवर्गाक्षरेध्वधिकृतेषु दृष्टेषु एतान्येव स्त्री-पुं-नपुंसकानि सयौवनान्यादेस्या(श्या)नि । पञ्चमवर्गाक्षरा(रे)ध्वधिकृतेषु दृष्टेषु ब(कृ)द्धानि द्रष्टव्यानि । द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराधिके दृष्टे एतान्येव मध्यमवयान्यादेश्यानि ।। ८७ ॥ सामा कण्हस्सामा, गोरी णीला य रत्तसामाचेव( मा य ?) । एवं पंच [प० ५०, पा० २] वि वग्गा, कमसो पण्हंमि य विभत्ता ॥ ८८ ॥ प्रथमवर्गः स्या(श्या)मः। द्वितीयो वर्गः कृष्णश्यामः । तृतीयो वर्गो गौरः । चतुर्थो वर्ग(गो) नीलः । पञ्चमो रक्तश्यामः। एवं पञ्चाप्येते वर्गाः क्रमस(शः) प्रविभक्ताः । ए[ते]षां मध्ये येषां [वर्णानां ] बाहुल्यं भवति तैः वर्णः (ण)निर्देश्य(शः) कार्यः ॥ ८८ ॥ जारिसय(य) परपक्खं, संजुत्ता तारिसा तहिं सामा । हीणा समाऽहिया वा, सेसा परपक्खसंजुत्ता ॥ ८९ ॥ यादृशः परपक्षः। कोऽसौ परपक्ष ? इत्यभिहन्ता भण्य[ते] । तस्याभिहन्तुः यादृशा रूकस्या(क्षश्या)माद[प० ५१, पा० १]यो वर्णा येऽभिहता[:] तादृश्या(शा)स्ते ज्ञेयाः । हीना(नाः) समा [अ]धिक्य(का) वा ते वर्णास्त(स्त्रि)विधाः । तत्र हीना आलिङ्गिताः, समा अभिधूमिताः, अधिका दग्धाः । परपक्षग्रहणेन च पूर्वाभिहता आलिंगिता [अ]भिधूमिता दग्धाः ॥ ८९ ॥ ॥ मनुष्यप्रकरणं सप्रपञ्चं समाप्तम् ॥ पक्खी दिढे सत्तमसरे य वग्गे य पढमए जलया । दसमसरे य कवग्गे, थलया पखी(क्खी) हु णायबा ॥ ९ ॥ सप्तमखरः एकारः । प्रथमवर्गो अकार(र.), तस्यामधि(स्याधिक्ये ?)के प्रश्ने जीवयोनौ प्रामधे(लब्धे) जल[प० ५१,पा० २]जः पक्षी ज्ञेयः । दशमस्वर औकारः कवर्गप्रहणेन ककारः • केवल उच्यते । औकारे ककारस्योपरिगतो-ऽग्रतोवाऽनन्तरमवस्थिते जीवयोनौ लब्धायां थलजाः । पक्षिणो ज्ञेयाः ॥ ९ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ [गाथा ९१-९५] प्रश्नव्याकरणाख्यं । नवमसरे वग्गंमि, तइऍ पक्खिणो तहा जलया । थलया बारस अट्टम, सरे चउत्थे टवग्गंमि ॥ ९१ ॥ नवमखर उ(ओ)कारस्तृतीयवर्गचकारस्योपरिगतोऽग्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते जलजाः पक्षिणो ज्ञेयाः। द्वादशमस्वरः अकारः सविसर्गः, अष्टमखरः ऐकारश्चतुर्थवर्गः टकारः। टकारेण च स्थलजाः पक्षिणो ज्ञेयाः पूर्वोक्तन्यायेनेति ।। ९१ ।।। अणुणा[५० ५२, पा० २ सिएसु पंचसु, तीसु य धाउस्सरेसु णायवा । पक्खीओ कुकिआ खलु, वायसगिद्धा य चडया य ॥ ९२ ॥ ङ ब ण न म बहुले प्रश्ने एषामन्यतमे धातुखरामयोऽन्यतमयुक्ते जीवयोनौ लब्धे पक्षिणो ग(हि)ता[:] भा(चा?)सादयश्चटका गृध्रा वायसाश्च ज्ञेयाः। धातुस्वराः के? उऊअंइत्येते त्रयः।।९२॥ ॥ सप्रपञ्चं पक्षिप्रकरणं समाप्तम् ॥ सं(सिं)गी कचाइवग्गे, गजा[इ]वग्गे चउप्पया ख(खु)रिणो । दुस्स[र]सरा हु सबे, सिंगीखुरीण तु सामण्णा ॥ ९३ ॥ ककारस्य चकारस्योपरिमतो(गते)न चतुर्णा हवखराणामन्यतमेन तयोरेव ककार-चकारयोरगतोवाऽवस्थितेन, ना [५० ५३, पा० १] नरा[:] शंगिणश्चतुष्पदा ज्ञेयाः । के ते हस्वस्वराः ? अ इ उ ए । अधरस्वरेण ऐकारेण औकारेण च युक्तस्य ककारस्य चव(च?)कारस्य वा तवो(तो)-15 ऽर्वाक् स्थितयोः एकारौकारयो आरण्याः शृंगिणो ज्ञेयाः। गकारस्य जकारस्योपरिगतो हस्वस्वराणामन्यतमेग(न) तयोरेव गकार-जकारयोरन(प्र)तो वाऽवस्थिते खुरिणच(श्च)तुष्पदा ज्ञेयाः। गकारे जकारे वा अधरस्वरसंयुक्ते खुरिणश्चतुष्पदा ज्ञेयाः । गाथयाऽनुक्तमप्येत[द्] व्याख्यातम् ॥१३॥ बितिउ(ओ) दसमो य सरो, खछादिवग्गंमि चेव दंतीओ। अणुणासिएसु पंचसु, णहिणो धातुस्सरेसुं च ॥ ९४ ॥ . . द्वितीय [प० ५३, पा० २] आकारः, ऊ(औ)कारो दशमः, खकार-ठ(छ)कारस्योपरि गतस्तयोरेव ख-छयोरप्रतो वा व्यवस्थिते आकारे औकारे वा दन्तिनो ज्ञेयाः । ऊ बण न मे सुषु) पञ्चसु धातुस्वरयुक्तेषु ऊ अ ण न मा नां वाऽग्रतोऽनन्तरमवस्थितेषु नखिन्नो(नो) ज्ञेयाः । धातुखराः उ ऊ अं॥ ९४ ॥ घझ ढे.सु होइ दाढी, दंती तह वस(ध न) व हे सु णायबा । . चउरट्ठमबारसमस(स्स)रो य दोण्हं पि सामन्ना ॥ ९५ ॥ घझ ढा नामुपरिगते इ(ई)कारे [प०५४, पा० १] ण(ऐ)कारे सविसर्गे च(अ)कारे घझ ढा ना मप्रस्थितेषु वा ईकारादिषु दंडि(ष्ट्रि)णः सूकरादयो द्रष्टव्याः। धन व हा नामुपरिगते(तै)स्तैरेव समि(म)स्वरैरप्रतो वा व्यवस्थितैर्दन्तिनो द्रष्टव्याः । के त्रयः खराः १ ई ऐ अः ॥ ९५ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। . [गाथा ९६-१०० ] दिढे चउप्पयंमि य, पण्हे जय दीसए उपरि मत्ता। तो सिंगिणो ह भणिया, खुरिणो अह मत्तया होति ॥ ९६ ॥ गोर्विकारः क्षीरदध्यादिकः जीवावयव एव गाथया अनुक्तोऽपि द्रष्टव्यः । [५० ५४, पा. २] शृंगिषु सिद्धेषु अराक्षराभिव्यञ्जको न(त)द्विकारो ज्ञेयः । चतुष्पदयोनौ लब्धे यदोपरिमात्राबाहुल्यं 5 दृश्यते तदा शृंगिणो ज्ञेयाः। तस्मिन्नेव चतुष्पदयोनौ लब्धे यदा अधोमात्राबाहुल्यं दृश्यते तदा खुरिणो ज्ञेयाः । तस्मिन्नेव चतुष्पदयोनौ लब्धे उकारबाहुल्यं खुरिणो ज्ञेयाः । ऊ(औ?)काराकारयोस्तुल्ययोउ(रु)परिगतस्य साअ(सर्प?)योनिः । (औ)कारश्चो(स्यो)परिस्थितस्य नखिन्नो(नो) ज्ञेयाः। [५० ५५, पा० १] तत्रोत्तरेणाधरेण दृष्टेनोत्तमं नखिनं खुरिणं वा लक्षयेत् । अधरेणावसं(धमं ?)नखिनं खुरिणं वा लक्षयेत् ] ॥ ९६ ॥ ॥ चतुष्पदप्रकरणं समाप्तम् ॥ सिंगिससारमा ?) किण्हादी, हत्ति(दन्ति)समा राइला(नायरा?) मुणेयवा । सेसा तिणि वि वग्गा, वण्णंतरियाण सप्पाणं ॥ ९७ ॥ येषु शंगिणोऽभिहतास्तेष्वेवाकृष्णपौरा द्रष्टव्याः । उत्तरस्वरैर्नागराः, अधरस्वरैरारण्याः । येषुदन्तिनोऽभिहतातेष्वेव णियष्ट(?) द्रष्टव्याः। शेषा तोवकारेणा(१)[५० ५५, पा० २]यपि(अव?)॥ शिष्टानां भवहा नां बाहुल्ये वर्णान्तरिको(का.) चित्रकादयः सर्पा द्रष्टव्याः।.........लब्धायां अपदेषु च लब्धेषु, एवंविशिष्टो वाच्य इति ॥ ९७ ॥ ॥जीवचिन्ता समाता ॥ अध तत्थ धाउचिंता, सा दुविहा होइ आणुपुबीए । धम्मा[5]धम्मा [य] तहा, धम्म(म्मा) लोहं अलोहं च ॥ ९८ ॥ ० धातुचिन्ता द्विविधा भवत्यानुपूर्व्या धाम्या [अधाम्या] च । तत्र धाम्या लोहलक्षणा, . अधाम्या मुक्ताप्रवालादिलक्षणा ॥ ९८॥ कंचणरययं तमं, तउ सीसं आर कंस लोहं च । लोहं अट्ठवियप्पं, प्प(प)धाण तह अप(प्प)हाणं च ॥ ९९ ॥ काश्चन, रजताना (रजतं), [५० ५६, पा० १] तानं, अधुः सीसकं-बंग, आर-(प्रोम रीरिका वृत्तं लोहं वा, कसं कृष्णलोहानिसहमित्यष्टभेदम् । उत्तरा[क्षर]बहुले प्रभे लोहमुत्तमं सुवर्णादि ज्ञेयम् । अह(ध)राक्षरबहुले प्रश्ने लोहमधमं त्रपु-सीसक-कृष्णलोहादि ॥ ९९ ॥ इटा य मट्टिया सक्करा य धम्मा इमे य लोहा य । रयणा यः पवस पुडवि मट्टिया चेव जो घम्मा ॥ १० ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १०१-१०५] प्रमव्याकरणाख्यं २३ इष्टका स्थूरकर्परा, [मृत्तिका], स(श)कराश्च धाम्याः । त्रीण्येतान्यपि । लोहामि(नि)। रत्नाति(नि) पाषाणा[:], पृथीवि(वी), मृत्तिका चाधाम्या धातवश्चत्वारः ॥ १० ॥ रयणा य इदंनीला, मरगय तह वेरुलीयजाजी(ती)या । अयकंत-सूरकंता, [प०५६, पा० २] चंदकंता य नायवा ॥ १०१ ॥ इन्द्रनील-महानील-मरक्त-वैडूर्याः, अयस्कन्ताः, सूर्यकान्ताः, चन्द्रकान्ता च(श्च) रत्न- । विशेषा शेयाः ॥ १०१ ॥ मोत्तिय-पवालमाई, भवंति एवं विहा तहा] अन्ने । ते स्सा(सा)रा णिस्सार(रा), य होंति पुण संखमादीया ॥ १०२ ॥ मौक्तिक-प्रवालाः। एवंविधा[:] तथाऽन्ये सङ्खादतियो (पि शंखादयो) विमलकारादय[:] ते सारा असार(ग)श्च । तत्रोत्तराक्षरबहुले प्रश्ने धातुयोनौ लब्धे ससारा मुक्ता-प्रवालादयो । शेयाः । अधराक्षरबहुले प्रभे निःसारा विमल-संख(शङ्ख)-मु(शु)क्ति-कपर्दकप्रभृतयः ॥ १०२॥ सीय-दहाय[स]मुदा(हा),णदी तडागा [५० ५७, पा० १]तहेव पम्मध(स्सव)णा। एकेकं तं दुविहं, थिरं चलं चेय नायवं ॥ १०३ ॥ सीतजला(? शीवहदा नि समुद्रा नदी तटाकानि प्रतिषणमेकैकम् । तेषां द्विविधंस्थिरं चलं चेति । तत्र स्थिरमवहमशोश() चोत्तराक्षरैः द्रष्टव्यम् । यद्वा वहति शुष्यति च तच्चल-15 मधराक्षरैष्टव्यम् । नामाक्षरलावे(प)न वस्तु-विचार-स्थानं सन्निसा(वेशा)दि क्षेयम् ॥ १०३॥ उण्हंगारा तह मोमुणा(मुम्मुरा) य अण्णा य एवमाईया।। उक्का विज्जा(जू) अव(स)णी णिग्घाउ(ओ) सूरकताउ ॥ १०४ ॥ उष्णा[]गाराश्च मुमु(M)रप्रहणेन कुकूलमुच्यते । एतौ च धाम्यधातुसंज्ञौ वाक्याझरैतिप० ५७, पा० २]व्यौ । उल्का विद्युदशति(निः) निर्घातः सूर्यकान्तं पञ्चैते अधाम्यधातु- 20 सम्झाः । वाक्याक्षरो(र)नामतो शेयाः ॥ १०४ ॥ एसा(गा?) पत्थरजी(जाई), से(सा) सवियप्पा पधाण अप्प(पोहाणा। सा परिकमि(म्मि)[य अपरा, णाअधं(बं) जं जहिं कमइ ॥ १०५ ॥ पाषाणजातिचामान्यावेका पाषाणजातिः । सा द्विमेदा भवति । प्रधाना अप्रधानाच (च) । तत्र उचराक्षर(२) परिकर्ममि)ता पाषाणभतिद्र(जाविष्टव्या। अमधानाश्च (च) 3 अभटाक्षः अपरिकर्म(मि?)तपाषाणजाति()ष्टम्या। [२०५८, पा० १] अप्रधाना च । यथायोगं व. स्तु(स्त लंभ कार्य: स्वनामनि। परिकर्मिचा[]कघदिता।देशतश्च विज्ञातव्या अवंत्याद्या भारता[] क्षेत्राः। द्रोणमुखाः, के ? यत्रागम्य यानपात्रान(ण्यवविधते(म्ते) ते देशा द्रोणमुखसंहाकरा: (क)। खेटका, के ? प्रदेशबहुले भूभागे यो निवसते. जनपदः स खेटकसंजा। पुधिया एते भेदा भवन्ति । व्याख्यामि मृत्तिकाभेदमिति वक्ष्यमाणोपन्यासः ॥ १०५॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा १०६ - १११ हरियालमब्भपडलं, [१० ५८, पा० २] मणसि (स्सि ) ला पारयं च बोधवं । तह ( ) पारदो वि य, मदू (ट्टि) यभेदा मुणेया ॥ १०६ ॥ हरितालम्, अभ्रपड (ट) लम्, मनःसि (शि)ला, पारय (दं), चूर्ण पारत (दं) । मृत्तिकाभेदाः पञ्च । तत्र चूर्णपारत (द) इति द्वितीयपार [द] जाति चूर्णाकारं द्रष्टव्यम् ॥ १०६ ॥ पहक्खरेहि एते, णायचा जे जहा समुदि (दि)ट्ठा | अधरोत्तरक (क्क) मेण व, सणामनिद्दो ( है ) सतो यावि ॥ १०७ ॥ प्रभाक्षरैरेतैर्यथोक्ता भेदा विज्ञेयाः । यदा ( था ) एषां प्रधान्य ( नताs) प्रधानता उत्तराधरक्रमेण ज्ञेया । यावत्स्वनामनिर्देश इति ॥ १०७ ॥ छठथ फाघ झ[ढा] वि य, दिट्ठे धाउंमि होइ धम्माओ । अट्ठक्खरा हु एते, सेसमधम्मख ( ख ) रा स ॥ १०८ ॥ 20 २४ छठ थफा (फ) घ झढा नामेषा[मष्टा]नां बाहुल्येन धातुयोनौ लब्धायां धातुद्र (द्र)ष्टव्य (व्यो) धाम्यः । शेषाश्च [५०५९, पा० १] 'रषध भ व हा' इत्येते षड् गृह्यन्ते । ना (ता) न्येव धातुयोनौ लब्धायां एषां षण्णां बाहुल्येन धातुरधाम्य आदेश्य इति ॥ १०८ ॥ पढमेकारवररस ( रसवार) समसरे य कणयं तु क ख ग घे सुं च । पंचट्ठमयसरेसुं, पढमेऽणुणासिए य तउं ॥ १०९ ॥ पंढ(प्रथ)मस्वर अकारः, एकादशस्वर : अकारः सानुस्वारः, अकार: सविसर्ग (र्गो) द्वादसं(श)स्वर: । एतद्बहुले प्रश्ने धातुयोनौ लब्धे कनकं ज्ञेयम् । क ख ग घ (घा) नामन्यतमस्योपरिगतो (ते) नैतेषामन्यतमेन स्वरेण कनकमेव ज्ञेयम् । कखगघा नामन्यतमाक्षरेण ऐकारेण युक्ते धातुयोनौ लब्धायां त्रपु ज्ञेयम् ॥ १०९ ॥ च छ ज झ य र ल व एसु य, रययं बीयस (रस) रसत्तमेसु च । • अणुणासिए य वितीए, छट्ठे य सरे [ १०५९, पा० २ ] हवइ सीसं ॥ ११० ॥ चछजझ [य] लवेषु च प्रने बहुदुष्टे ( ले ? ) ध्वेषामेवान्यतमाक्षरे द्वितीयखरेण सप्तम'स्वरेण च युक्ते धातुयोनौ लब्धायां रजतं ज्ञेयम् । च छ ज झ [य] र ल वे षु च, च, [ए]षामन्यतमाक्षरा(र) बहुले प्रभे अनुनासिके च द्वितीये धातुयोनौ लब्धायां ज (ऊ) कारेण च युक्ते शीशकं 25 ज्ञे [ प ० ६० पा० १ ]यम् ॥ ११० ॥ ट ठ ड ढई कारस्मि (म्मि) य, तंबं कंसं पुण त थ द ध (धे) सुं च । प फ ब भ णवमे यं सरे, चउत्थ अणुणासिए आरं ॥ १११ ॥ ट ठ ड ढ (ढा) नामन्यतमाक्षरबहुले प्रश्ने चतुर्थवरेण युक्ते धातुयोनौ लब्धायां ताव ( ) - मादेश्यम् । तथा इमो (?) त थ द धा नां पञ्चानां बहुले प्रश्ने, तथ दधानां वाऽन्यतमाक्षरे30 [प० ६०, पा० २ ]ण चतुर्थवरेण युक्ते कंसमादेश्यम् । च (१) फ ब भ इत्येषां पञ्चानामन्यतमाक्षर - बहुले प्रश्ने तेषामेवान्यतमाक्षरेण नवमस्वरेण उ (ओ) कारेण युक्ते धातुरादेश्य आरं ब्रह्म रीरिका लोहं वा ॥ १११ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ११२-११७] प्रश्नव्याकरणाख्यं · हत(व)इ मकारे लोहं, दसमसरे अट्ठमंमि वग्गंमि । एते उ धम्मभेया, अधम्मभेया इमे वोच्छा(च्छं) ॥ ११२ ॥ मकारेबहुले प्रश्ने शकारोऽष्टसा(मा)क्षर(र.) तद्बहुले च, औकारः दशमः स्वरः, तेन तु युक्ते मकारे शकारे वा धा............. ................*न पवालं हेममातिण्णो(?मोत्तियं)। कंतमाण(सं मणिं च)कायं सीसट्ठाणं चाय(च?) नीसासं(रं)॥ ११३ ॥ अधाम्यधातुयोनौ लब्धायां रजताक्षरा ये उक्तास्तेषु दृष्टेषु मौक्तिकं द्रष्टव्यम् । सुवर्णाक्षरा ये उतारतेषु दृष्टि(दृष्टेषु?) स्वराश्च येऽभिहिता तेख(ध्व)धाम्यधातुयोनौ लब्धायां प्रवालकं वक्तव्यम्। कंसाक्षरा येऽभिहिता स्वरयुक्तो(क्ता) आ(अ)धाम्यधातुयोनौ लब्धायां तेषु मणयो निसा(स्सा)रा सातव्याः । कायमादिका येव(प्व)क्षरेषु सीसकं द्रष्टव्यम् । तेष्वेव अधाम्यातुयोनौ लब्धायां ॥ निःसा[राम]मणयो वि[म]लकादयो विज्ञातव्याः ॥ ११३ ॥ [प०६१, पा० २] ॥धातुप्रकृतिः समाप्ता॥ धम्ममि दिट्ठपुबे, [घडियम] घडियं च तत्थ णाय । दुविहं च होइ तं पुण, णाणय अण्णाणयं चेव ॥ ११ ॥ धाम्यधातौ दृष्टे तद् घटितमघटितं चेति । यच्च घटितं त[] द्विविधम् - केयूररूपक- । द्रमावि, यत्तक(यञ्च) [नाणकम्] । अनाणकम् - कुंडलनूपुररसनाकेयूरकटकादिकम् ॥ ११४ ॥ दिटुंमि पाणयंमि [५० ६२, पा० १] य, सम्मिस्सं होइ [तह य] उम्मिस्स। इतरं पि होइ दुविहं, आहरणं भायणवि[य]प्पं ॥ ११५ ॥ अक्षरलब्ध्ययातके (लब्ध्यंकिते?) नूपुरादौ नाणके।तद्व(च) नाणकं द्विविधम् - मिश्रम मिश्र चेति । तत्र मिश्रं सुवर्णरजतताप्रैखिते(त्रिभिरिती)रेषां द्वयेन वा यत् क्रियते तन्मिश्रम् । । यत्सुवर्णेनैकेन रजतेन वा क्रियते नाणकं तदमिश्रम् । सुवर्णापि० ६२, पा० २ दिद्विविधं भांडक्ष(क)तमाभरणं चेति ॥ ११५ ॥ आभरणंमि य दिढे, तं दुविहं देवमाणुसाभरणं । हिट्ठमि(टिम)उवरिमकाए, एकेकं तं पुणो दुविहं ॥ ११६ ॥ अक्ष[रलाभेनाभरणं यद् दृष्टं तद् द्वि[वि]धमाभरणं देवामरसीसातुपाहरणावाता (?देवा- 2 भरणं मानुषाभरणं वा ।) तत् पुनर्द्विविधम् - एकैकम् - अधाकाय(यि)कं उपरिकायिकं चेति । तदुपरिष्टाढे(द्वि)शेषत[:] कथयिष्यामः ॥ ११६ ॥ पञ्चुय-पपुवयं(मपञ्चुय) वा, एकेकं तं पुणो दुहा होइ । पच्चोविए वि दिढे, मोत्तिय-माणिक-उम्मिस्सी ॥ ११७ ॥ * अत्र मूलादर्शे एका संपूर्णा पंक्तिरक्षरशून्या स्थिता लभ्यतेऽतोऽस्या गाथायाष्टीकायाः कियान् भागस्तथैवानेतनगाथायाः प्रथमः पादो विनष्टः । • आदर्श मोत्तिवं अमाणिकमम्मिस्सएण' इति बहुविकृतपाठो दृश्यते। नि.शा.४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ११८-१२३] यदाभरणमधःकायिकमौपरिका[प० ६३, पा० १]यिकं च । त[] द्विविधमुक्तम् । प्रत्युष्ट(त)मप्रत्युप्तं च । तदेकैकं पुनः द्विविधम् । प्रत्युप्तमिति संश्लिष्टमणिमौक्तिकं कटकायाभरणमुच्यते । पूर्वोक्तहेममौक्तिकाक्षरबहुले प्रश्ने प्रागुक्तन्यायेनैव प्रत्युप्तं ज्ञेयम् ॥ ११७ ॥ उवरि[य]णवण(ण्ण)सहिया, उट्ठा(दड्डा) मत्ताउ जा य दीसंति । । आभरणं जाणिज्जा, उवरि श(स)रीरंमि देहि(ही)णं ॥ ११८ ॥ प्रश्नाक्षराणां उपरि दुग्धमात्रा दृश्यन्ते तदाऽऽभरणमवगच्छ, उपरि शरीरस्य देहभृतामिति ॥ ११८॥ . . . . . अहराओ अहरेसुं, मत्ताओ जारिसाओं तारिसयं । [५० ६३, पा० २] सं(तं) ठाणं [प]ण्हंमि य, धाउविसेसेण नायबं ॥ ११९ ॥ अधराधिकाक्षरप्रश्ने अध:कायिकमाभरणं ज्ञेयम् । उत्तराक्षरबहुले प्रश्ने उपरिकायिकमाभरणं ज्ञेयम् । अधोमात्राधिकप्रस्त(ने) अधःकायिकमाभरणम् , तिर्यग्मात्राधिकप्रश्ने तिर्यग्भागे. नं (ऽलं)कारो ज्ञेयः । ऊर्द्धमात्राधिके प्रश्ने शरीरस्योर्द्धभागे ज्ञेयं धातुविशेषेणेति ॥ ११९ ॥ दिढे मणिमि पच्चोवियम्मि जीतव(जाती य?) होइ] इतरं वा । जातीए माणिकं, पत्था प० ६४, पा० १]रजाती विजातीए ॥ १२० ॥ 11 दृष्टैर्मणिभिः प्रद्यु(त्यु)प्तैः पूर्वन्यायेनैव यैरक्षरैः सारा उक्ता मुक्तादयो मणयः, तैः सारमणिप्रव्यु(त्यु)प्तमाभरणं ज्ञेयम् । यैश्च नि(निः)सारा विमलकादय उक्तास्तैः प्रश्ने दृष्टे(ट)नि:सारैः] प्रद्यु(त्यु)प्तमाभरणं ज्ञेयम् ॥ १२० ॥ तम्मिख(तं पि य खा)यमखय(खाय), जं तत्थ[ख]यं पुणो वितं दुविहं । . दुवय(ए) चउप्पए वा, दुपए पखी(क्खी) मणुस्सो वा ॥ १२१ ॥ 20 तदाभरणं वि(द्वि)विधं खातमखातं चेति । धाम्यधात्वक्षरबहुले प्रश्ने [प०६४,पा० ३]जीवा क्षररहिते अखातमाभरणं ज्ञेयम् । जीवाक्षर उक्ते च खातमाभरणं ज्ञेयम् । तत्र जीवाक्षरैः पक्षिणो मनुजाश्च ज्ञेया[:] । चतुष्पदजीवाक्षरैती नखी शृङ्गी खुरी वा ज्ञेयः । पूर्वो(वा)क्षरने(भे)देन पूर्वोक्तन्यायेन च ॥ १२१ ॥ दिढे चउप्पये गामवासिणो रण्णवास(सि)णो चेव । । ४ . दंती सिंगी य खुरी, णही य दाढी-य वा होज्जा ॥ १२२ ॥ - दृष्टे चतु[प]दे, के ते चतुष्पदाः ? द्विविधा:-ग्रामवासिनोऽरण्यवासिनश्च । पूर्वोक्तास्ते दन्ती शृङ्गी खुरी नखी दंष्ट्री चेति पञ्चविधाः । पूर्वोक्तन्यायेन स्वैःस्व(स्वै)[५० ६५, पा० १] क्षरैः शेयाः ॥ १२२ ॥ पच्चोविए वि दिटे, जो गमउ(ओ) देवमाणुसाभरणो । ....सो.चेव य सविसेसो, णायचो भायणेसुं पि ॥ १२३. ॥ . प्रत्युप्तेऽपि दृष्टे यैरक्षरैर्देवानां मानुषाणां वा आभरणानि दृष्टानि तैरेवाक्षरैः प्रने दृष्टे भाजनान्यपि शेयानि । हेमाद्यक्षरैश्च हेमानि कृतानि ज्ञेयानि । यैरक्षरैस्तानि बोद्धव्यानि ॥१२३॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १२४ - १३०1 प्रश्नव्याकरणाख्यं धाउस्सराणुणासी, छिद्दा णिढि (च्छि ) द सेसया वण्णा | छिद्देसु जाण छिद्दे, णि(मि ? )स्सेसु य खुम्मियं दी (द) बं ॥ १२४ ॥ धातुखरौ द्वौ उकारो (र-ऊ) कारौ, ङ ञ ण न माः पञ्चानुनासिकाः, छिद्रा [:] । प्रथर्मा[प० ६५, पा०२] वर्ग: तृतीयवर्णैश्चान्या (न्त्या ?) यागाधेया ( यरलवा ?) वक्ता (र्णा ?) नि (छि? ) द्रा ये च द्रष्टव्या [:] । द्वितीय-चतुर्थवर्गों निछिद्रो (द्रौ ) द्रष्टव्यौ । छिद्राक्षरबहुले प्रभे छिद्रे (द्रो) धातुरादेश्यः । घना - : क्षरबहुले घन (नः), छिद्राछिद्रेषु मिश्रेषु दृष्टेषु स्थुमितं धातु द्रव्यमादेश्यम् ॥ १२४ ॥ ॥ धातुयोनिः समाप्तः (सा) ॥ रुखा (क्खा) ग (गुच्छा गुम्मा, लया य वल्ली य पवया चेव । तण[१० ६६, पा० १ ]वलय-हरित - ओसहि - जलरुह - कुहणा भवे मूले ॥ १२५ ॥ वृक्ष - ग (गुच्छ - लता - गुल्म- बल्मी (ल्ली) - पर्वक-तृण- वलय- हरितौ- पधि- जलरुह - कुहणा इति । मूलभेदा द्वादस (श) ॥ १२५ ॥ 10 एगट्टिय बहुबीया, रुक्खाणं चेव होति दो भेदा । सेसा विग (गु)च्छमादी, वण्णाण कमेण णायचा ॥ १२६ ॥ तत्रैकास्थि - बहुबीजाश्च द्विविधा वृक्षा भवन्ति । शेषा अपि [प०६६, पा०२ ] ग ( गु) च्छाद्या वर्णाकारप्रमाणादिभिरनुक्रमेण ज्ञातव्या [ : ] ॥ १२६ ॥ तय-मूल- कंद - साहा-पल्लव-फल- कुस (सु) ममेव णिज्जासो रस-छीर पैसाहाओ, [य] मूलजाईअ (सु) भेयाई (?) ॥ १२७ ॥ त्वग्-मूल-स्कंद (घ)-शाखा - पल्लव - फल - कुसुम - बीज-रस-भेदाश्च मूल-जातिषु विज्ञेयाः । को गुणभेदः ? । सुरभि[:][१०६७, पा० १] दुर्गंधिचेति । को वा रसनेवा (भेदः ?) मधुर-लवणकटुक - कषायादिलक्षणः ॥ १२७ ॥ ग (गु)च्छा बहुप्पयारा, कप्पास करीर - पुप्फग (गु)च्छा य । गुम्मदिया य जाती- कुज्जय-कणवीर-वल्ली य ॥ १२८ ॥ 'ग (गु)च्छा बहुप्रकाराः । के ते ? कप्पा ( प ) स - करीर - पुष्पग (गु) च्छाय (च) । के पुष्पग (गुच्छा भण्यन्ते ? | ये पुष्पं केवलं प्रय[प० ६७, पा० २ ]च्छन्ति न व (च) फलं बंधन्ते । तत्र गुल्म (ल्मा) जाति (ती) कुंब्जका कणवीरं मल्लिका चेति ॥ १२८ ॥ चंपय- असोय-चूया, कुंदलयाओ व होंति विविहाओ । • तंबोल-लवलि-पिप्पलि-मिरिया वि य होंति क (व)लीओ ॥ १२९ ॥ चंपकासो (शो) कचूता लतासंज्ञकाः । कुंदचं लतासंज्ञः । तांबो ( ताम्बू) ल- पिप्पलि-मरीचाद्या वयाः (हृयः) ॥ १२९ ॥ दूर्वा (दुच्चा) कुसतृणवध्वपय (?) यवसालिकंगुगोधूमादीया । जलसंभवा य हरिया, गंधेणुयादि मुणेयबा ॥ १३० ॥ 20 25 30 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १३१-१३०] दूर्वा-कुस(श)-तृण-वथकय(?)-यव-सा(शा)लि-कंगु-गोधूमाद्याः तृणसंज्ञा[:] । जलसंभवा अपि तृणा एव । हरितसंज्ञाश्च गंधेनुकाद्या देसिकाः ॥ १३० ॥ वलया साहा विडवा, दलकंदलसरलधम्मणा(मा)दीया । तिलमुग्गमाषचण[५० ६८, पा० १] या इय ओ]सहिओ मुणेयवा ॥ १३१ ॥ वाला(बल)या साखा म(प)त्तदलं कंदल-सरल-धम्ममाचा तिलमुगमाषचंणकाचा ओषधयः ॥ १३१॥ पउम(मु)प्पलकुमुदाई, मेसे)वालकमे(से)रुया य जलपसुणा । ....मो(नाणा?)विहा य अण्णा, सिंघाड]गरलि(वल्लि)यादीया ॥१३२॥ पद्मोत्पलकुसुमसेवालकसेरुकाः - नमो(नाना)विधाश्चान्ये श्रृंगाटकवल्याचा जलरुह" संज्ञकाः ॥ १३२ ॥ हो(हों)ति कुहणा अबीया, वसुधोर(धाए?) संभवा य जे अण्णे । तत्थ कुहणा च(व) इयरे, भूमीरसकंदली उच्छू ॥ १३३ ॥ अबीजाः प्रावृत्(द)काल आसणे वसुहा जलो(?ले) एवान्त[र]रसं मुंचंति तदसं(स) भवास्छत्रका[:]कुहणा[:],अपरेऽपि तदाकृतयो ये उत्पद्यन्ते क्षर(इक्षु?)संज्ञा[:] कंदल्यश्चेति॥१३३॥ इजण-वेणुय-वेता-सरकंडसयंगपबगे हे(णे)या । [५० ६८, पा०२] बारसविभास(धा य) मूला, कहिया जिणसासणंमि सया ॥ १३४ ।। इजणवेणुयवेन्यसरकंडिभंगाश्च नलसालि(?) भण्यन्ते । एते पवर्ग(वंग?)संज्ञाः । पर्वणि पर्वण्युक्तेभ्योऽप्रते(गे)भ्य उत्पद्यत इति पर्वगामा भण्यन्ते । द्वारस(दश)विधाति(मि) मूलावि(नि) कथितानि जिनसा(शा)खे ॥ १३४ ॥ मूला कंदा य तया, साह य(प)वाला य तह य पत्तफलं। पुप्फाणि य [बीया]णि य, जाणिजा जं जहिं कमइ ॥ १३५ ॥ मूल-कंद-त्व[-]शाखा-प्रवाल-पत्र-फल-पुष्प-बीजा नि] [प०६९, पा० १] संजानीहि । तद्यथा तद्य(दु)[प]रिष्टाय(द्व)क्ष्यति ॥ १३५ ॥ भक्खाऽभक्खा य पुणो, भक्खिा ] तित्तादिया य पंचर]मा(सा)। गामारण्णा जल-थलय पहाणा अप्पहाणा य ॥ १३६ ।। भक्ष्या त्य(अ)भक्षा(क्ष्या) विविधास्ते। तत्र भक्षा(क्ष्या)स्तिक(क)कटुफकषायाम्लमधुरा: पञ्चरसाः । ग्राम्या आरण्याश्च । पुनद्वि(वि)विधा जलजा स्थलजाश्च । प्रधाना [अप्रधानाश्चेति ॥ १३६ ॥ पण्हक्खरेहि एते, णायवा जे जहा समुदि(हि)ठा । . अधरुत्तरक(क)मेण व, सणामणिदेद)सओ आवि॥१३७॥ ४५०६९, पा० १] ये यथा उक्तास्ते तथा उत्तराक्षरा(र)बहुले प्रश्ने प्रचुरमात्रा[:] स्निग्धखवयश्च(1) सुगंधिनः सुरभीविपुला द्रष्टव्याः । अधराधरपहले प्रमेऽपि एवं पूर्वोका अल्पमात्रा वृहदा(लक्षा)दुर्गधाः Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १३८-१४१] प्रभव्याकरणाख्यं नीरसाः हृस्वाश्च भवन्ति । तैरेव प्रश्नाक्षरै[:] ताव[]ज्ञेया याव[द्] नामति (नि) दृष्ट इति [प०७०,पा०१] ॥ १३७॥ ॥ मूलभेदाः समाप्ताः॥ संजुत्ते फलभेदे, खाधण्णे रिक्खं(क्खरं?)मि णिप्पु(फ)ला भणिया । उवरिल्ले उवरिल्ला, अधरा [घरेसु नायवा ॥ १३८ ॥ संयुक्ताक्षरबहुले प्रभे सफला वृक्षा ज्ञातव्याः। के ते संयुक्ताक्षराः ? क्ख च्छ हत्थ । फर ग्घ झडू द्धन्म ल्य इत्येते। [प०७०,पा० २] च्छहसखरैच(च)तुर्भिरिक्षरै(रैः) सफला वृक्षाः । उवरिल्ले उवरिल्लाक्षरैरुत्तराक्षरित्यर्थः । तैरक्षराणामुपरिगतैह(ई)ष्टैव(व)क्षादीनामुपरिभागे फलं इत्यादेश्यः(श्यम्)। अधराक्षरैः उत्तराक्षराणामुपरिगते दृष्टे वृक्षावि(दी)नामधोभागे फलं वक्तव्यम् ।। १३८ ॥ पढमे नवमे य सरे, कं-चादिवग्गंमि चेव रुक्खाओ। बितिय-दसमे य सरे, लताओ ख छठ क्खरेसुं च ॥१३९ ॥ ककार-चकारबहुले प्रश्ने [प०७१, पा. १] ककारस्य चकारस्योपरिगते अकारे उ(ओ?)कारे वा अन्यतरस्याप्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते वृक्षा ज्ञेयाः । ख छ ठ बहुले प्रभे ख छ ठा नामकस्मिन् द्वितीयेन आकारेण दशमेन औकारेण वा युक्तेऽप्रतोवाऽनन्तरमवस्थितानामन्यतरस्य लता[:] प्रत्येतव्याः ॥ १३९ ॥ थ फर स एसुं वल्ली, तणं च धातुस्सराणुणासीया । चउरहमबारसमे, सरंमि ग(गु)च्छा य घ झ ढे सुं॥१४० ।। थ फरस(प?) [प०७१, पा० २] बहुले प्रश्न वल्ली। ङ अ ण न माक्षरबहुले प्रश्न तेषामेवान्यतमे धातुखरान्यतमयुक्ते तेषामेवान्यतमव्या(स्या)प्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते धातुखरे तृणं झेयम् । धातुस्वराः उ ऊ अं । घ झ ढ बहुले प्रश्ने घझ ढा नामेकस्मिंश्चतुर्थ(2)नाष्टमेन द्वादसे(शे)न । वा स्वरेण युक्ते घ झ ढा नामेकस्याग्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन ग(गु)च्छा शेयाः ॥ १४ ॥ गुम्मा य धभव हे सुं, गज डे वलया हु णवम-तइएसुं । सत्तमसरे तह ओ[सहीओ]भणिया दब [ल] से सुं ॥ १४१ ॥ धस (भ) वह बहुले प्रभे गुल्मा भवति(न्ति)। गजड [प०७२,पा० १]बहुले प्रश्ने गजडा नामेकस्मिन्नवमखरेण ओकारेण तृतीयेन उकारेण वा युक्तेन ग ज डा नां त्रयाणामेकस्याप्रतो बाऽनन्तरमवस्थितन वलया आयाः । वलयग्रहणे च ताल-खजू(ज)र-पूगफल-वृक्षादय उच्यन्ते । दबलस बहुले प्रश्न तेषामेवान्यतमेन सप्त[म] वरेण एकारेण युक्ते एतेषामेवान्यतम्य(म)स्वामतो पाऽनन्तरमवस्थितेन सप्त[म] खरेण औषधयः प्रत्येतव्याः ॥ १४१ ॥ ॥ एवं मूलयोनिः समाप्ता ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १४२-१४६ ] जीवाखरेसु मूलं, जीवं मूलक्खरेषु(सु) सु(पु)हेसु । मुट्ठीए नायवं, धातुं [प०७२, पा० २] धाउख(क्ख)रेसुं च ॥ १४२ ॥ अनया गाथया योनिप्राष्टमा(प्रश्नमे?)वमुच्यते । इदानीं प्रत्येकभागखरयुक्तेषु जीवाक्षरायेऽभिहता[:] तेषु संख्याधिकेषु मूलं ज्ञेयम् । [मूला]क्षरा येऽभिहतास्तेष्वपि संख्याधिकेषु मुष्टौ 'जीवो ज्ञेयः । धात्वक्षरा येऽभिहतास्तेष्वप्यधिकसंख्येषु पु(मु)ष्टौ धातु ज्ञेयम् ॥ १४२ ।। जीवक्खरेसु मूलं, उत्तरसरसंजुएसु मुट्ठीए । अधार]सहिए[सु] धाउं, जीवं च सभावदीहेसु ॥ १४३ ॥ शुद्धाः स्वरसहिता[:] । के ते उत्तरस्वराः ? 'अ इ उ ए' एते चत्वारः । त एव जीवाक्षरा(रैः) युक्ता मुष्टौ मूलं कुर्वन्ति । एते स्वरा जीवाक्षरा अधरस्वरसंयुक्ता मुष्टौ धातुं " कुर्वन्ति । कोसौर(कौ तौ अ)धरस्वरो(रौ) ?। 'आ अ' इत्येतौ द्वौ । नान्यौ गृह(ये)ते । त .. एव जीवाक्षराः स्वभाव-दीर्घस्वरैर्युक्ता मुष्टौ जीवं कुर्वन्ति । के ते स्वभावदीर्घाः स्वराः ? 'ईए (ऐ) औ' इत्येते स्वराः ॥ १४३ ॥ [प०७३, पा० १] .... अहरस्सरसंजुत्ता, मूलं धाउख(क्ख)रा उ मुट्ठीए । उत्तरसरसंजुत्ते, धाउं धातुख(क्ख)रेसुं च ॥ १४४ ॥ 1. धातु(त्व)क्षरा अधरस्वरसंयुक्ता मुष्टौ मूलं कुर्वन्ति । अधरस्वराः 'आई [ऐ] औ' इत्येते चत्वारः । धात्वक्षरा उत्तरखरैर्युक्ता मुष्टौ धातुं कुर्वन्ति । के ते उत्तराः ? 'अइ एओ' एते उत्तराः। "अधरस्सरसंजुत्ता, मूल धाउक्खरा उ मुट्ठीए । सेसा उ अधर धाउं, धाउं धातुक्खरे धाउं" ॥ ... पाठान्तरं वा । मात्रा उक्ता एव 'अ इ एउ' ॥ १४४ ॥ ॥ इदानीं मूलाक्षरेषु प्राप्तिमु(रु)च्यते । [५० ७३, पा० २] अहरस(स्स)रसंयु(जुत्ते, धाउं मूलक्खरेसु मुट्ठीए। उत्तरसहिए मूलं, जीवं सहावदीहेसु ॥ १४५ ॥ अधरस्वरौ । के(कौ)तौ ? 'आ अः' इत्येतौ द्वौ............धातु ज्ञेया भवति । उत्तरा 'अइए ओ' धातुमूलाक्षरसहे(हितेषु मूलं शेयम् । मूलाक्षरा मुष्टौ जीवं कुर्वन्ति । के ? स्वभाव- दीर्घाः 'ई ऐ औ' इत्येते त्रयः ॥ १४५ ॥ ..... हिटुंमि म(अ)धोमत्ते, प० ७४, पा० १] धाउं मूलक्खरा उ सुद्धी(मुट्ठी)ए । - सेसासु(उ) सबमनी(त्ता), करन्नि(न्ति) मूलक्खरे जीवं ॥ १४६ । मूलाक्षरा अधोमात्रावियुक्ताः। का अधोमात्राः ? स्वभावदीर्घस्वरयुक्ताः मुष्टौ. जीवं कुर्वन्ति दाहकत्वात् । शेषाः सर्वमात्राः । काश्च ताः सर्वमात्रा उक्ता एव 'ऐ औ(?)' एतास्तिस्र" तान्ये(स्ता ए)व गृह्यते(न्ते) । "सेसवियप्पा जहा पुवं"ति वचनकमेतत् । धातु-प०७४, पा० २] जीव-मूलानामन्यतमेऽस्मिन् दृष्टे द्वाभ्यां तिसृणां वा द्रव्याणां नामाद्यक्षराप्य(ज्य)संखे(ख्ये)या Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १४७-१५१] प्रश्नव्याकरणाख्यं भिघातमुद्धया(?) द्रव्यरूपसंज्ञाज्ञानं ज्ञात्वा शेषे प्रपंचधातु-धाम्यान्यविकल्पादिकः जीवोत(वस्त)दवयवो वा द्विपदान्यतमस्य मूलं वृक्षगुच्छगुल्मलतादिकं एवं सप्रपंचं विज्ञाय मुष्टौ तथाssदेशः कार्य इति ॥ १४६ ॥ ॥ मुष्टिविभागप्रकरणं समासम् ॥ दो दीह वट्टदीहा, वट्टो तसो य वट्टदीहा वि । [अत्र आदर्शे तु 'वट्टो दीहो दि तंसो य' एतदृशो द्वितीयपदस्थो भ्रष्टपाठो दृश्यते ।] चतुरस्सो वि य वट्टो,[प० ७५, पा० १ ]होइ तह यायणादि(तावि?)ण्णि॥१४॥ अकार इकारश्च द्वौ वृत्त(?)दी? । आकारश्च ईकारश्च द्वौ [वृत्त?]दीर्यो । उकारो वृत्तः । औ(ऊ?)कारस्यसः (रख्यत्रः) । एकारश्च ओकारश्च पुनद्वौ वृत्तदीर्यो । ऐकार औकारश्च दीघौं । अंकार अः सविसर्गः दीर्घचतुरस्यै (स्रो)। मतांतरेण धनुरावेवा (चतुरस्रावेव)। एतेषां मध्ये ॥ यस्य बाहुल्यं तेन तज्जानीयम् । पूर्वनिर्दिष्टा दीर्घा विज्ञेयं(याः) ॥ १४७ ॥... दीह(हा) वट्टा तंसा, चतुरंसा आप(य?)दा य संठाणे। क-खमादिणो य वग्गा, मीसामीसेसु [५० ७५, पा० २] नायवा ॥ १४८ ॥ क च ट त प य शाः सप्त दीर्घाः। ख छ ठ थ फरषाः सप्त वृत्ताः । ग ज ड द ब ल साः सप्त त्यमा(व्यस्नाः)। घझ ढ [ध] भ व हाः सप्त चतुरस्राः । ङबण न माः पंच दीर्धचतुरस्राः । 15 प्रश्नाक्षराणां मध्ये यस्याक्षरबाहुल्यं भवति तेन तद्[व]स्तु निर्देशः(श्यम्) । वृत्तदीर्घाक्षरस्तु यदि बाहुल्येन दृश्यते तदा वृत्तदीर्घवस्तु निर्देश्यः(श्यम्) । एवमन्येऽपि मिश्रा ज्ञेयाः ॥ १४८॥ पढम-तइया य छि। प० ७६, पा० १]दा, सीया यघणोसिणा अपि(बि) चउत्था। पंचमओ पुण वग्गो, होतिदोसु (उण्होछिद्दो?) या(य वा?) मीसो॥१४९॥ प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गश्च, एतौ द्वौ छिद्रौ- क-गादिको सी(शी)तौ च । द्वितीय-चतुर्थौ १ ख-धादिको घनौ उष्णौ च । पञ्चमो वर्ग उष्णो घनछिद्रः । प्रश्ने एतेषां येन बाहुल्यं तेन । निर्देश[:]कार्यः ॥ १४९ ॥ दो सेया धूमलओ, रत्तो चित्तो य किण्हवण्णो य। .. ये उ(ए ओ) य पुणो सेओ, दो नीला पीयला [प० ७६, पा० २] चरिमा॥१५॥ अकार इकारश्च द्वौ स्वरौ श्वेतौ । आकारो धूम्रः। ईकारो लोहितः । उकारचित्रलः । 25 ऊकारः कृष्णः । एकार ओकारश्च द्वौ श्वेतौ । ऐकारो नीलः । औकारो(रः)पीत(?नी)लः । एवं अं अः प्रीतौ । प्रो एतेषां मध्ये यदा(द)क्षरबाहुल्यं भवति तेन वर्णनिर्देश[:] कार्यः ॥ १५० ॥ - सेदा किन्हा रत्ता, नीला तध पीयला य वण्णेण । कखमादीओ वग्गा, मीसा मीसेसु णायवां ॥ १५१ ॥ कादिवर्गः श्वेतः । खादिवर्गः कृष्णः । गादिवर्गो रक्तः। घादिवर्गो नीलः। ऊ मः। ण न माः पीतलाः। एतेषां यस्याक्षर बाहुप० ७७, पा० १]ल्यं प्रश्न [तस्य वर्ण] निर्देशः कार्यः॥१५॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १५२-१५४] सुरभी मंदो सुरमि(भी), मंदो सुगं(दुग्ग)धिया तहा दोण्णि । सुरभी मंदो सुरभी, [मंदो] दुग्गंधियो सुरभी ॥ १५२ ॥ अकारः सुरभिः । आकार ईषत्सुरभिः । इकारः सुरभिः। ईकार ईषत्सुरभिः । उऊ द्वौ दुर्गधी । एकारः सुरभिः । ऐकारोऽल्पसुरभिः । ओकारः सुरभिः । औकारोऽल्पसुरभिः । । अं दुर्गधिः । [अः सुरभिः] । प्रश्नाक्षराणां मध्ये सुगंधिखरबाहुल्यं भवति तदा सुगंधफलकुसुमादिकं ज्ञेयम् । दुर्गधारचे(धीवे)वमेव ॥ १५२ ॥ . सुरभी क-गादिवग्गो, गगा(ग-जा)दिवग्गो य तह य नायत्रो । सेसा [५० ७७, पा० २] तिण्णि वि वग्गा, दुग्गंधिव(व)जणा होति ॥१५३ ॥ क-गादि[ग-जादि?]वर्गों द्वौ सुरभी । शेषवर्गत्रयं ख-घादि दुर्गधि । प्रश्ने एतेषां बाहुल्ये " पूर्व[व]त् सुगंधादयो ज्ञेयाः ॥ १५३ ॥ एतस्मिन्नेवार्थे संवादकारिणोण्यः) अन्यग्रन्थस्य गाथा लिख्यन्ते । तयथादो वग्गा(हा) दो दीहा, [दो तंसा दो य होति चर]रेसा । दोणि व होति तिकोणा, दो बहवरति नायग्वा ॥ भवहा, 'भाई' दीहा, 'उ ए' ते(२)सा 'ऊ ऐ चटरंसा। 'उ(ओ)औ'तिकोणा । 'अ' वृत्ति(वह) नायब्वा ॥२॥[५०७८,पा.१] बढे जाण सुवणं, दीहेसु रूपयं वियाणाहि । तंसेण होइ सुब्व(संबं?) चउरसे कंसपं जाण ॥३॥ तिकोणाकोणे)हि य पित्तला(ल), लोहं, वउयं सीसयं च वित्तेहि । [आदर्श 'वित्तहि नायव्वं' इति पाठः।]. पडे(वडे)सु होइ बु(दु)पयं दीहेसु चउप्पयं च णायब्वं ॥ तंसेसु होइ दुपयं, चहु(उ)प्पर्य होइ चउरंसे ॥ तिको(को)णेहि य चम, मंसं वालढियं च वंकेहि । वहेतु होइ गुम्मा, दीहेसु लया मुणेयव्वा ॥. तंसेसु होइ छल्ली, चउरसे लक(क)डं [प० ७८, पा० २] भणियं । उत्तरार्द्धः१] तिकोणेहि य पुष्फफलं, कर्तपट्ट (पतं कई) च होइ केहि ॥ [पूर्वार्द्ध:] जंजं मामइ सरो, वग्गं पण्हं तह अक्खरणिहावं । तं तं पावइ णाम, केवळविमलाए जोण्हाए ॥ भमतेसु मिहत्थं, मत्तासहिएसु उस(अ)रे जाण । बिंदुसहिएसु वारं, विसग्गसहिएसु वाहे(हि)रे जाण ॥ उत्तरस[र] संजुत्ते, उत्तर तह वंजणे सगेहंमि । अहरसरसंजुत्ते, महरख(सोरे जाण सयणगिहे ॥ परवग्गादिहएणं, भसयणगेहे गयं दव्वं । भमत्तेसु अ गामे, मत्तासहिएसु जाण नयरेसु ॥ बिंदु सहिएसु भई, [५०७९, पा. १] विसग्गसहिपसु च्छणमामो ति(1)॥ दो अधा दो कुम्मा, दो खोडा दो बहिरा । दो कुजा दो लियतणू दो काणा मुणेयवा ॥ चोरपहाए भरिया, भरिजाण वह पेय अस्थभरियावि()। भरमाणा जे भट्ट, भरिया णायब्बा चोस्पन्हाए() ॥ भन्यप्रन्थस्य पाठान्तरम् ॥ पढमो णवमो य सरो, क-गादिवग्गो य सीय ल[]ओ [य] । कख(क्ख)ड लुक्खा य घखा(ख-घा?), बिदियदसम वारिससरो य॥१५॥ प्रथमखरः अकारः। ण(न)वम ओकारः। (क-गा)दिवर्गा:-कच ट त पय शाः, गज उद बलसा स्व(च)। सी(शी)ता लघवश्च । ख छ ठ थ फरषाः, घझ ढध भ व हाश्च । द्वितीयखर * आकारः । दाम औकारः। द्वादशो अकारः सविसर्गः । एते कर्कसा(शा) रूक्षाश्च । एषा मुक्कोनां प्रश्ने यदक्षा प० ७९, पा० २ रबाहुल्यं तदीयं सी(शी)तादिकं वाच्यम् ॥ १५४॥ 25. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १५५-१६०] प्रश्नव्याकरणाख्यं .. तइओ [य] सत्तस(म)सरो, कमा(गा)दिवग्गो य मि(नि)द्धनिद्धाओ। लुक्खा उपहा गरुया, खघा सरा य चउरट्ठमा दि(दो)णि ॥ १५५ ॥ तृतीयः स्वर इकारः, सप्तम एकारः, ख(क)गादिवर्गौ च द्वौ । एतेषां बाहुल्ये स्निग्धद्रव्यमादेश्यम् । ख[घा]दिवर्गः, चतुर्थस्वर इकारः, अष्टम ऐकारः । एते रूक्षाः उष्णा [गुरुकाः।] एतदक्षरस्वरबाहुल्येन तद्भवति ॥ १५५ ॥ धातुस्सरा य दोण्णि वि, पंचम(य?) अणुणासिया मउअ सीदा। वामिस्सा पुण सबे, मिस्सामिस्सा मुणेयवा ॥ १५६ ॥ धातुस्वरौ 'उऊ', पञ्चानुनासिकाः, मृदवः सी(शी)तलाश्च । नि[ग्ध]रूक्षाक्षरैः] नास्निग्धो न(ना?)रूक्षो(क्ष) आदेश्यः । मृदु-कर्कसा(शा)क्षरेन(ग?) मृदु-कर्कसो(श) आदेश्यः । [५०८०, पा० १] उष्ण-सी(शी)ताक्षरै[:] न उष्णो न सी(शी)त आदेश्यः । यथोक्ताक्षरबाहु-10 ल्येनैतद् भवति ॥ १५६ ॥ तित्तो कडुय कसाओ, अंधो(बो) महुरो य आणुपुबीए । को(का)दीणं वग्गाणं, सरपरिमाणं(णो) मुणेयवो ॥ १५७ ॥ कादिवर्गो तिक्तः। गादिवर्गो(गः) कटुकः । खादिवर्गः कषायः । घादिरम्लः । कादिवर्गो मधुरः। अनयोरानुपूर्व्या यथोक्तवर्गाऽक्षरबाहुल्ये स(स्वर)परिणामो(माणो) वाच्यः । । एवं वर्गाणां स्वराणां संस्थानं च ॥ १५७ ॥ - ॥ वर्ण-रस-गंध-स्पर्शप्रकरणं समाप्तम् ॥ बितिय चउत्थो य सरो, पढमो अणुणासिओ चषज(क ख ग)घाय । एते व(अ)ग्गेईए, अकगा........पुवदा तिण्णि ॥ १५८ ॥ 'च(क) ख ज(ग) घ ड(क)' इत्येषां पंचानां अन्यतमबाहुल्ये अ(आ)कारेण इ(ई)कारेण ॥ वा युक्ते एते प० ८०, पा० २ ]षामग्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते आकारेण इ(ई)कारेण वा अग्नेयां(य्यां) दिशितद् वस्तु विज्ञेयम् । अकगाक्षरबाहुल्ये अकारेण इकारेण वा युक्ते]प्रश्ने पूर्वस्यां दिसि (शि) तद् वस्तु विज्ञेयम् १५८॥ . ट छ ड(च छ ज)झ तइओ य सरो, बितिओ अणुणासिओ य जम्माए । अट्ठमसरो प(य) ट ठ ड ढ, हवंति गं(ण)कारो य णिरईए ॥ १५९ ॥ ४ ट छ ड(च छ ज) झाश्चत्वारोऽक्षराः, तृतीयखरः इकारः, द्वितीयानुनासिकश्च अं(ब) कारः । एतैः पूर्वोक्तन्यायेन याम्यायां दिशि तद् वस्तु विज्ञेयम् । अष्टमस्वर ऐकारः, त(ट) ठ ड ढा श्चत्वारोऽक्षराः, [प० ८१, पा० १]णकारस्य(श्च)। एमिनैरु(नैर्ऋत्यां दिसि(शि) द्रव्यं स्थे(शे)यं पूर्वोकन्यायेनेति ॥ १५९ ॥ अधरेण सत्तमसरो, चउत्थ अणुणासिओ अप व(तथद)धा य । . दसमसरो सप(म)कारो, अधरुत्तरतो फ भ मा(प फ ब भा) य ॥ १६० ॥ नि. शा. ५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा १६१ - १६५ ] पब व धाय ( त थ द ध न ) बहुले प्रश्ने एतेषामेवान्यतमस्याप्रतो औ (ए) कारेण युक्ते एषामेवान्यतमस्याप्रतो वाऽनन्तरमवस्थितेन एकारेण पश्चिमायां दिसि (शि) द्रव्यं ज्ञेयम् । पफल ( प फ ब भ म ) बहुले प्रश्ने एतेषामेवान्यतमस्यामतो वाऽनन्तरमवस्थिते [न] औकारेण वायव्यां ज्ञेया (यम् ) ॥ १६० ॥ ३४ धातुस्स[ १०८१, पा० २ ] रा य स व है ( हा), णायचा तह य उत्तरद (दि) साए । चरिमो णवम्मे (मो) य सरो, ईसाणीए सर षा (य र ला?) य ॥ १६९ ॥ धातुस्वरौ द्वौ उ ऊ, सव हा च त्रयोऽक्षराः, एभिः पूर्वोक्तन्यायेन उत्तरस्यां दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् । चरिमौ द्वौ अं अः । नवमस्वर ओकारः । च रषा ( य र ला ?) व त्रयोऽक्षराः । एभिः पूर्वोक्तन्यायेन ऐशान्यां दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् । एवं नष्टस्य द्रव्यं ज्ञेयम् ॥ १६९ ॥ ॥ द्विपदादे (दि) द्रव्यस्य दिसि (शि) [ १०८२, पा० १ ] प्रकरणं समाप्तम् ॥ उत्तरसरेसु गामे, जाणे अहरेसुं बाहिरओ [य] । उत्तरसरसंजुत्ते, गेहे अहरक्खरेसुं च ॥ १६२ ॥ उत्तराक्षरेषूत्तरस्वरयुक्तेषु यत्किंचित् पृ ( प्र )ष्टा प्र ( पृ ) च्छति प्रामे तदिति ज्ञेयम् । एषां बाहुल्ये । उत्तराक्षराश्च पूर्वोक्ता एव । अधरस्वरसंयुक्तेषूत्तराक्षरेषु दृष्टेषु यत्किंचित् पृच्छति " तद्व (गृहाद्वाह्यमिति वक्तव्यम् । एतेषां बाहुल्येन । उत्तरस्वरयुक्तेष्वधराक्ष[ १०८२, पा० २ ]रेषु यत्किंचित् पृच्छति कश्चि[त्त]गृहे ज्ञेयं पूर्वोक्तज्ञा (न्या) येन । उत्तरस्वराश्च पूर्वोक्ताः ॥ १६२ ॥ उत्तरसरसंजुत्ते, अहरे तं चेव होइ सयणघरे । परवग्गहए वग्गे, असयणवग्गे हवइ दवं ॥ १६३ ॥ उत्तरस्वरसंयुक्ते अधराक्षरे जानीहि स्वजनगृहे द्रव्यम् । परवर्गहते वर्गे द्रव्यं परगृहे 20 भवतीत्यादेश्यम् । आलिंगितामिधूमितदग्धाञ्चैते त्रयोऽभिन्नन्ति । यथैते वर्गां [१०८३, पा० १] अभिन्नन्ति तथा पूर्वोक्तत्वानो (नो) तमिति ॥ १६३ ॥ जाणे सकारंय ( काय ) गरुए, अप (प ) णगेहंमि ठविययं (ठावियं) दबं । परवग्गाभिहरणं, सयणग (गि) हे हों (हो) ति तं दुबं ॥ १६४ ॥ तत्र स्वकाय गुरुवर्गों [ १० ८३, पा० २ ]त्र यो भवति । 25 इत्यादि । एतद्बहुले प्रश्ने स्वगृहे द्रव्यम् । परवर्गगुरुमिन ( ( ) भितैः पढमे चरमे [य] सरे, दिट्ठे वत्थू य हों (हो ) ति बितियसरे य कवग्गे, अग्गेईए हवइ वत्थू ॥ १६५ ॥ स्वगृहे परगृहेऽरण्ये वा प्रश्नम् । गृहा (?) प्रथमसरो अकारः, अ[:]कारो द्वादशमव[स]विसर्गः। आभ्यां केवलाभ्यां प्रभे यत्किंचित् पृच्छति तद् गृहाभ्यंतरे पूर्वेण ज्ञेयम् । द्वितीयस्वरे " आकारे कवर्गाक्षरस्योपरिगतेऽप्रतो वाऽनन्तरमवस्थिते यत्किंचित् पृच्छति कश्चित्तद् गृहस्थाभ्वन्तरे पूर्व[ १०८४, पा० १ ] दक्षिणदिग्भागेन द्रव्यम् ॥ १६५ ॥ क्क रंग घ्घ च्छ ज्ज टु ड्डु त्थ खजनगृहे द्रव्यम् ॥१६४॥ पुणं । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १६६ - १७०] व्याकरणाख्यं तवमे य सरे, तइए वग्गे हवइ जम्माए । ईकारेकारंमि य, चउत्थवग्गे य निरई ॥ १६६ ॥ तृतीय वर्गश्वकार (रः), तस्योपरिगतेन तृतीयस्वरेण इकारेण णवमस [ रेण] ओकारेण वा चकारस्य वाऽग्रतोऽनंतरमवस्थितेन द्वयोरन्यतरेण दृष्टेन यत्किंचित् पृच्छति तद्गृहस्याभ्यन्तरे दक्षिणस्यां दिसि (शि) ज्ञेयम् । चतुर्थवर्गटकारस्योपरिगते [न] ईकारेण ए (ऐ) कारेण वा टकार- : स्यामतो वाऽनन्तरमवस्थितेन स्वरद्वयस्याभ्यन्तरेण दृष्टेन यत्किंचित् पृच्छति तद्गृहस्याभ्यन्तरे नैरइस्या (नैर्ऋत्यां दिसि (शि) [ १०८४, पा० २ ] ज्ञेयम् ॥ १६६ ॥ एकार सत्तस (म) सरे, पंचमवग्गे य वारुणीए उ । छट्ठे दसमसरे [वा], वायवाए उ णायां ॥ १६७ ॥ एकादश स्वरः अं, सप्तम एकारः, ताभ्यां तकारयुक्तस्याप्रतों वाऽनन्तरमवस्थितेन 10 उभयतः स्थिताभ्यां वा वारुण्यां द्रव्यं ज्ञेयम् । तथा षष्ठे वर्गे पकारे दशमस्वरेण युक्तेऽप्रतो वानन्तरमवस्थिते वायव्यां [१०८५, पा० १] दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् ॥ १६७ ॥ पंचमरसे (सरे) य वग्गे, सत्तमए हवंति सत्तमदिसाए । अट्ठमवग्गे छट्ठ[हे], सरे य ईसाणिए जाण ॥ १६८ ॥ सप्तमवर्गस्या (स्य) यकारस्याधोगते उकारे यकारस्योपरिगते वाऽनन्तरमवस्थिते यत्किंचित् 15 पृच्छति तद् गृहस्याभ्यन्तरे सौम्यां (सौम्यायां) दिशि द्रव्यं ज्ञेयम् । अष्टमवर्ग [स्य ] सकारस्याधो गतौ (ते) षष्ठस्वर ऊकार : ( रे ) [ १० ८५, पा० २] सकारस्यानन्तरमवस्थिते पृच्छकस्य तगृहाभ्यन्तरे ऐशान्यां दिसि (शि) द्रव्यं ज्ञेयम् ॥ १६८ ॥ असरा आइल्ला, अट्ठ य वग्गा य आणुपुबीए । इंदाणीण दिसाणं, कमसो वग्गेसु पविभत्ता ॥ १६९ ॥ ३५ उक्तार्थे (र्थे) व गाथाऽनन्तरप्रपश्चेन ॥ १६९ ॥ सबै सङ्काणाओ, सप(प) डिहता हवंति चउत्थाओ । उत्तर अह (हो) सवण्णा, हसंति पुवावरं वग्गं ॥ १७० ॥ प्रभायां पूर्थ (र्व) दिगृ (ग) क्षरसन्मित्रैः पश्चिमदिगक्षरैस्तुल्यैर्द्वयोरपि दिशोन्म (र्म ) ध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदि पूर्वदिगा (ग) क्ष[ १०८६, पा० १ ]राणां बाहुल्यं तदा पूर्वस्या (स्यां) दिति (शि) । 25 पश्चिमदिगा (ग) क्षणां बाहुल्यं तदा पश्चिमादिसमीपे द्रव्यमादेश्यम् । दक्षिणदिगा ( ग )क्षरैरुत्तरदिगा(ग)क्षरसन्मिश्रैस्तुल्येवृ ( ल्यैर्द्व ) योरपि विशोरनयोम (र्म ) ध्ये द्रव्यं ज्ञेयम् । दक्षिणदिगक्षराणां बाहुल्ये दक्षिणदिक्समीपे द्रव्यमवतिष्ठति । पूर्वदिगक्षरैरामेयादिगक्षरैः सन्मित्रैम (म) मे द्वयोरपि दिग्विद (दि)शोरन्तराले द्रव्यं तिष्ठतीति वक्तव्यम् । पूर्वदिगक्षराणां बाहुल्ये पूर्वस्यां दिसि (शि) समी १०८६, पा० २ ]पे द्रव्यं तिष्ठतीति आदेश्यम् । आग्नेयाक्षरबाहुल्ये आभेयायां दिशि " समीपे द्रव्यं तिष्ठतीति विज्ञेयम् । दक्षिणदिगा (ग)क्षरैरामे या दिगा (ग) क्षरमित्रैस्तुल्यैर्वक्षिणस्यां 20 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा १७१-१७२ ] दिसि(शि) द्रव्यम् । आग्नेयायां च मध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदा द्वयोरनयोदिग्विदिशोय(य)दक्षराधिक्ये बलं तदा तस्य (स्याः) समीपे द्रव्यमादेश्यम् । दक्षिणदिगक्षरैनैरु(न)त्यक्षरमित्रैस्तुल्ययोद्व(ई)योरनयोदि(दि)विदिशोरन्तसले द्रव्यमवतिष्ठत इत्या प० ८७, पा० १ देश्यम् । द्वयोरनयोर्दिग्विदिशोर्यस्य यदक्षराधिक्या[] बलमधिका(कं) तस्याः समीपे द्रव्यं शेयम् । । पश्चिमदिगक्षरैनैरु(३)त्यक्षरमित्रैस्तुल्यैद्व()योरेनयोदि(दि)विदिशोर्मध्ये द्रव्यं वक्तव्यम् । यदा द्वयोरनयोर्दिग्विदिशोर्यस्या [अक्षराधिक्याद् बलमधिकं तदा तस्य[स्याः] समीपे द्रव्यं ज्ञेयम् । पश्चिमदिगारैमि(मि)श्रेस्तुल्ये(ल्यै)रनयोर्दिग्विदिशोर्मध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोदि(दि)ग्विदिसो(शो)र्यस्या दिशो विदिशो वाऽक्ष[ प० ८७,पा० २]राधिक्याद् बलमधिकं तदा तस्याः समीपे द्रव्यमादेश्यम् । उत्तरदिगक्षरैवा(वी)यव्यादिगक्षरमित्रैस्तुल्यैरनयोदिग्विदिशोमध्ये अव" तिष्ठते द्रव्यमित्यादेश्यम् । यदा द्वयोरनयोदि(दि)ग्विदिसो(शो) वाक्षराधिक्याद् [प०८८,पा० १] बलमधिकं तदा तस्याः समीपे द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । उत्तरदिगक्षरैदीसा(रीशा)न्याक्षरमिः समैरनयोर्दिग्विदिशोर्मध्ये द्रव्यमवतिष्ठतीत्यादेश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोदि(दि)ग्विदिसो(शो)[यस्य दिशो विदिशो]वाऽक्षराधिक्याद् बलाप० ८८, पा० २]मधिकं तदा . तस्य (स्याः) समीपे द्रव्यमादेश्यम् । पूर्व दिगक्षरैरैसा(शा)न्याक्षरमित्रैस्तुल्यैरनयोर्दिग्विदिशोर्मध्ये द्रव्यमवतिष्ठत इत्या। देश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोदि(दि)ग्विदिशोर्यस्यां दिशो विदिशो वाऽक्षराधिक्याद् बलमधिकं तदा तस्या निकटे द्रव्यं वक्तव्यम् । [५०८९, पा० १] पूर्व दिगक्षरैद(द)क्षिणाक्षरमिझैस्तुल्यैरनययोदिविदिशोर्मध्ये द्रव्यमादेश्यम् । यदा द्वयोरप्यनयोर्दिशोर्यस्या अक्षराधिक्याद् बलमधिकं तदा सस्था निकटे द्रव्यमादेश्यम् । प्रश्नाक्षराणां मध्ये उक्तदिविविद्विधा(विदिग)क्षरबाहुल्येनैवोवि(?)त्यादेश्य(शः) र्तव्यः ॥ १७० ॥ [५०८९, पा० २] बितिय चउत्थे वग्गे, समि(भि)तर-बाहिरं भवे गेहं। अधरसरेषु(सु) य प(ब)हिया, अधरस(स्स)रसंतु(जु)तेसुं च ॥ १७१ ॥ द्वितीयवर्ग:- ‘ख छ ठ थ फरषाः', बाह्या [एते] । एतबहुले प्रश्ने बहिगृ()हा[] द्रव्य शेयम् । चतुर्थवर्गी(र्गः)- 'घ झढ ध भ व हा' इत्येते अभ्यन्तराः । एतद्बहुले प्रश्रे गृहाभ्यन्तरे द्रव्यं ज्ञेयमिति । द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षरबहुले गृहाद् बहिगृ()हाभ्यन्तरे द्रव्यं ज्ञेयम् । अधरॐ स्वरसंयुक्तश्चि(वि)त्ययमेवार्थः ॥ १७१ ॥ सगिहम्मि य जं दवं, तं पच्चा प०९०, पा० १]क्खं भवे परोक्खं वा । दिट्ठ(ह)मि परोख(क्ख)मि ओ(उ), उट्ठ(ड)महो तिरियभागे वा ॥१७२ ॥ स्वगृहे यं (यद्)द्रव्यं स्थापितं नष्टं च तच्च प्रत्यक्षं च परोक्षं चेति अप्रत्यक्षमित्यर्थः । स्वकायगुर्वक्षरबहुले प्रश्ने स्वयं त्वया स्थापितमिति प्रष्टा वाच्यम् । स्ववर्गसंयोगाक्षरैदृष्टौ(दृष्टैः) 30 प्रताचात्रा(पित्रा भ्रात्रा)पितृव्येनेत्येवमादिभिः स्थापितं द्रव्यमिति वाच्यम् । अर्द्धक्रान्त(न्ता)क्षरैह(ह)ष्टैः स्त्रिया स्थापितमितिवाच्यम् । एवा(व)मादिभिर्यत्र स्थापितं द्रव्यं तस्यो प० ९०, पा० २] पलब्धिः क्रियते । ऊर्द्धभागेऽधोना(भा)गे तिर्यग्भागे वा द्रव्यस्यावस्थितस्य उपरितनया गाथया निर्नय(र्णय) वक्षय(क्ष्य)ति ॥ १७२ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १७३ - १७७ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं मूलस (स्स) रेसु उडं (ड), अहो [य] धातुस्सरेय (सु) सबेसु । सेसेसु तिरि[य]भागे, गेहे दत्थं (बं) तु[ह] परोक्खं ॥ १७३ ॥ मूलस्वराः 'ई ऐ औ' एतेषु दृष्टेषु प्रश्ने ऊर्द्धभागे द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । धाम्यधातुस्वरौ द्वौ 'उऊ' आभ्यां दृष्टाभ्यां अधोभागे द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । शेषेषु - 'अ आ इ ए ओ' एषां पञ्चानां अन्यतमाधिक्ये तिर्यग्भागे द्रव्यमवतिष्ठत इत्यादेश्यम् । स्वगृहे संचयं द्रव्यं नष्टं तदेभिः खरै[ १०९१, पा० १ ] ज्ञा ( झ ) तव्यमिति ॥ १७३ ॥ जल देवय अग्गिख (घ) रं, दिट्ठे वत्युंमि ति [न्नि ? ] नि (ति) ट्ठाणं । लक्खेज्ज जीव धाउं, मूलाण य तिनि (नि) वाणइ (ठाणा) ई ॥ १७४ कचटतपयसा (शा) [नाम ] न्यतमाधिके प्रश्ने जलगृहे द्रव्यमादेश्यम् । खछठथ फरषाणां चतुर्थवर्गसंज्ञकानां चान्यतमाधिके प्रश्ने गोशालायां द्रव्यमिति ज्ञेयम् । गजड ॥ दल सानामन्यतमाधिके प्रभे देवगृहे द्रव्यमादेश्यम् । ङन ण न माधिके प्रश्ने अभिगृहे द्रव्यमवतिष्ठत इत्यादेश्यम् । मिश्रेषु यत्संबंधिनोऽक्षरा बहव [ : ] तस्मिन् द्रव्यमिति ज्ञेयम् । जीवयोनौ लब्धायां जीवो नष्टमि (ट इत्यादेश्यः । मूलयोनौ लब्धे मूलम्, धातुयोनौ लब्धे धा[प० ९१, पा० २ ] तुद्रव्यम (व्यं न )ष्टमित्या देश्यम् । तच्च त्रिस्वे ( ष्वे) व स्थानेष्विति नष्टिकास्वगृहकाण्डम् ॥ १७४ ॥ छिदे तत्थंरिपं ( रत्थंतरियं ? ), परवक्कु (त्थु )मणंतरं घणे दिट्ठे । जो चि वत्थु निवेसे, गमओ सो चेव रत्थासु ॥ १७५ ॥ ३७ क - गादीनां प्रथम- तृतीयवर्गीयानां छिद्रसंज्ञकानां अन्यतमाक्षराधिके प्रश्ने रथ्यान्तरितं द्रव्यमादेश्यम् । ख-घादीनां वर्गाक्षराणां घनसंज्ञ [ १०९२, पा० १]कानां अन्यतमाधिकानां प्रश्ने स्वगृहस्यानन्तरं यत्परगृहं [तस्मिन् ] द्रव्यमित्यादेश्यम् । एवं [व] खनिवेशविधिरुक्तः । पूर्वाssयी दक्षिणे(णा) नैर्ऋत्यपरा वायव्योत्तरेशानी चेति [ दिक् ] । चैरक्षरैगृ (गृहाभ्यन्तरे एतासु दिक्षु द्रव्यमभिहतं तैरेवाक्षरैस्तेनैव प्रकारेण रथ्यास्वपि द्रष्टव्यम् ॥ १७५ ॥ हस्सेसु समं ठाणं, सहावदी १० ९२, पा० २ ]सु उण्णयं जाणे । पंचम छट्ठे य सरे, दोसु वि ण्णि (णि) ण्णं मुणेयां ॥ १७६ ॥ ततियसरो वि रत्थं, कवे ( थे ) ति जइ वंज[ १० ९३, पा० १]णे य संजुत्तो । उत्तर- वंजणसहिते, बितिए उच्चं हवइ ठाणं ॥ १७७॥ हवानां 'अइ एओ' एतेषामन्यतमाधिके प्रश्ने समस्थाने द्रव्यं तिष्ठतीत्यादेश्यम् । स्वभाव- 24 दीर्घाणां '[ऊ ऐ] नौ' एषामन्यतमाधिके प्रश्ने उन्नते भूभागे द्रव्यमवतिष्ठत इति वाच्यम् । - पचमस्वर [उकारः ], षष्ठस्वर ऊकारः, अनयोर्डष्टयोनि (निं) नोन्नतभूभागे द्रव्यं तिष्ठतीत्यावेश्यम् ॥ १७६ ॥ 15 20 30 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १७८-१८२] तृतीयस्वर इकारः, स उक्तान्यतमाक्षरोपरिगतो रध्यायां द्रव्यमाचष्टे । द्वितीयस्वर आकारः, सोऽभिहतोत्तराक्षर(रा)न्यतमसंयुक्तो रथ्यायामेव द्रव्यं कथयति ॥ १७७ ॥ सविसग्गेसु चउक्कं, साणुस्सारेसु अधरखरठाणं । लोइय-लोउत्तरियं, घणक्खरे देउलं लक्खे ॥ १७८ ॥ सविसर्गः 'अ'कारः, स यदा प्रश्ने अन्यतमाक्षरपार्श्वस्थि[प० ९३, पा० २ ]तो दृश्यते केवलो वा तदा चतुष्पथे द्रव्यमादेश्यम् । एकादशमोऽनुस्वारः 'अ' यदाऽन्यतमाक्षरोपरिगतो दृश्यते केवलो वा सदा तस्य चतुष्पवस्य पश्चिमदिग्भागे द्रव्यमवतिष्ठत इत्यादेश्यम् । घनाक्षराणां 'ख छ ठ थ फरषाणां, घ झ ढ ध भ व हा नां' चान्यतमबहुले प्रश्ने लौकिकदेवकुले द्रव्यमादेश्यम् । [प० ९४,पा० १] लौकिकं देवकुलं शंकरायतनादिकम् । एतेष्वेव घनाक्षरेपूत्तरस्वरसंयुक्तेषु लोको" त्तरदेवकुले द्रव्यमादेश्यम् । लौकोत्तरिकदेवकुले(ल)मित्यर्हतायनं वक्तव्यम् ॥ १७८ ॥ सवत्थ [य] जीव-धातु-मूलाणं लक्खए तउठा(ओ ठाणा । एसो य गामदंडो, एसो वि य बाहिरो दंडो ॥ १७९ ॥ सर्वत्र जीव-धातु-मूलानां यदेतत्स्था[प०९४, पा० २]नं नष्टस्योक्तं तच्च जीव(व) धातु(तुं) मूलं चेति त्रयम (मे)वावधार्यादेशः कार्य इति । तत्र तत्र स्थाने एष दंडो पहिरभ्यन्तरे च प्राम।। स्योक्तः । दंडशब्देन च नष्टं व(ध)नमुच्यते ॥ १७९ ॥ ॥ नष्टिको(का)चक्रं समासम् ॥ एतो(त्तो) चिंतविभागो, मुट्ठिविसेसेण अक्खरुप्पत्ती । गेहिरिखा(गहरिक्खा)णं सूया,सवेसिं उवगयविसेसो ॥ १८ ॥ अतः परं चिन्तावि[५० ९५, पा० १]भागस्य मुष्टिविशेषस्य प्रहाणां नक्षत्राणां च सूचनं लेसो॥ (शो)देशेन यथावसरमुत्पत्तिप्रदर्शनं तथाक्षरोत्पादनं च मुष्ट्या ग्रहरि(ऋक्षाणां च वर्णया__ (नाता)मुपगतविशेषमिति वक्ष(क्ष्य)माणोपन्यासार्थना(ता?)। उपगतः शब्दप्राप्तपर्यायः ॥१८॥ तह सहणिण्णओ वि[य], सवे भावा य सबदवाणं । णंदाबत्ते जोए, सत्त वियप्पा [प०९५, पा० २] हवंति इमे ॥ १८१ ॥ पटहास्फोटित-कुट्यपतनादिशब्दो भावशब्देन निन(ण)यवर्णाकृतिप्रमाणादीनि भण्यन्ते । " सर्वभन्या अक्षरप्रतिबद्धाः 'लाभालाभ-सुखदुःख-जीवितमरण' इत्याद्यक्षरप्रतिबद्धाः । सकलद्रव्याण नन्दिकावर्ताक्ये (ख्ये) करणे सप्त भेदा भवन्तीति वक्ष्यमाणोपन्यासः॥ १८१॥ तथा चैतत्पढमो चिंताभेदो, तस्स य भेदा हवंति अट्ठ इमे । जीवादीगं जोणी, सिविहो पढमो हवति भेदो ॥ १८२ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १८४-१८७] प्रश्रव्याकरणाख्यं ३१ तेषां सप्तानां भेवानां [प० ९६, पा० १] मध्ये प्रथमचि(श्चि)न्ताभेदः। तस्य भेदा भवन्त्यष्टौ वक्ष्यमाणाः । जीव-धातु-मूलानां योनिस्त्रिविधा या सा प्रथमचिन्ताभेदे पतति ॥१८२॥ गुरु-लहुय अक्खराणं, संजोओ बितियओ हवंते(वति) भेदो। तितीओ पीडासद्धि(हि)ओ, ततो(तो) अभिघातिता तिन्नि ।।.१८३ ॥ गुरु-लघ्वक्षराणां संयोगो द्वितीयो भेदः। पीडाभेदस्तृतीयकः । क(क:) पुनरसौ ? अधा- . (धो)मात्रा अप्रधाना येऽभिहताः रेफ-यकार-उकार-ऊकार-सहिताः । आलिंगितश्चतुर्थः । अभिधूमितः पंचमः । दग्धः षष्ठो भेद [प० ९६, पा० २] इति ॥ १८३ ॥ एको पयडिविसेसो, सत्तमओ संकडाइ अट्ठमओ। एत्तो चिंताभेदा, पणयालीअक्खरुप(प्प)ण्णा ॥ १८४ ॥ . एकः प्र[क]तिविशेषकः । कु(क:)पुनरसौ ? जीवप्रकृति-धातुप्रकृति-मूलप्रकृति रूपः ।। सप्तमो भेदः । संकट-विकटभेदा(दो)ऽष्टम उक्त एव । एते चिन्ताभेदाः पंचचत्वारिंशदक्षरप्रतिबद्धा इति ॥ १८४ ॥ ॥ चिन्ताभेदप्रकरणं समाप्तम् ॥ [प०९७, पा० १] दुग दुग तिग तिग य चतू, चतुक्क पण पण छ सत्त वसु णवया । णामक्खराण य सरा, हवंहों)ति आ(अ)कारादिणं कमसो॥ १८५ ॥ ॥ अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः अकारो द्विसंख्यः । आकारोऽप्य(पि) द्विसंख्य एव । २ २ ३ ३ ४ ४ ५५ ६ ७ ८ ९] [५० ९७, पा० २] इकारस्तृ(खि)संख्यः । ईकारोऽपि त(त्रि)संख्या(ख्य) एव । उकारच(श्रतुः)संख्या(ख्यः)। ऊकारश्चतुःसंख्या(ख्य) एव । एकार[:] पञ्चसंख्या(ख्यः।) ऐकारोऽपि पश्चसंख्या(ख्य) एव । ओकार[:] षट्संख्याख्यः ) । औकार[:] सप्तसंख्या(ख्यः) । अंकारः स्वा(सा)नुस्वरोऽष्टसंख्यो(ख्यः)। अकारः सविसर्गो नवसंख्याख्यः) । अकारादय[:] खरा द्वादश अक्षरैर्युक्ता [प० ९८, पा० १] यथोक्तसंख्या द्रष्टव्या इति ॥ १८५ ॥ द्वितीयप्रकार:चउ ति ति चउक्क चउत्थ, चउ सत्त वयुहण(दृढ णवय)वग्गं च । संखापरिमाणे तस(स्स)राणऽगाराइणं कमसो ॥ १८६ ॥ एगादीगा पंच उ, कमादी(दि) अणुणासियावसाणाणं । कमसो णाम ए(प)माणं, पंचइ(चाण) वि आणुपुबीए ॥ १८७ ॥ ककार एकसंख्या(ख्यः)। खकार[रो] द्विसंख्या(ख्यः) । गकारस्तृ(खि)संख्या(ख्यः) । घकारचतु(श्चतुः)संख्य[:] । कार[:] पञ्चसंख्य इति । एवं क-गादि-कारपर्यवासानां क्रमसः (शः) [प० ९८, पा० २ ] संख्याऽभिहतेति ॥ १८७ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा १८८-१९३ ] जो दे(य)व कवग्गकमो, चादीणं सेसयाण सो चेव । - वग्गाण होइ गमओ, जाव ण केण(णा)वि संजुत्तो ॥ १८८ ॥ - य एव संख्यां प्रति [क]वर्गस्य क्रम[:], स एव चादीनां वर्गाणां क्रमो शेयः । स्वरेणाक्षरेण वा असंयुक्तानां अनभिहतानां चेति ॥ १८८ ॥ जावतिया संजुत्ता, पत्ते पत्तेसि(वि?) मेलिया संखा । आलिंगियाइ तत्तो, विसुद्धसेसा हवइ संखा ॥ १८९ ॥ स्वरेणाक्षरेण वा युक्ते(क्तो) वर्णेन वा अग्रतो वाऽनंतरमवस्थितेन यः पूर्वाक्षरा:] स संयुक्त इत्युच्यते । स संयोगो येन कृतः स आ[प० ९९, पा० १]लिंग्यमालिंगयति, अभिधूमयं(यि)तव्यमभिधूम[य]ति, दग्धव्यं दह्तीति । आलिंगिताभिधूमितदग्धप्रकाराश्च पूर्वोक्ताः । " आलिंगिताभिधूमितदग्धानां मध्ये यो(या) विद्यते संख्या तां सो(शोधयित्वा विशुद्ध(द्धाऽ)वसि(शि)टा संख्या भवति तथा देस(शः) कार्यः प्रष्टु[:] सा भ[प० ९९, पा० २ ]ण्यते ॥ १८९॥ एक्क[क] तिय तिय दुय दुय, चतु चतु पण छक्क सत्त वस(सुहं च। कमसो अक्सरमाणं, अवग्गजोए ककारस्स ॥ १९० ॥ एवं सर्ववर्गेषु ज्ञेयम् । एकः [एकः] तृ(त्रि)कः [त्रिकः द्विकः द्विकः] चतुष्कः चतुष्कश्च । पंचा(च) षट् सप्ताष्टौ अकारादिभिः स्खरैः सविसर्गाकारपर्यन्तेद्वा(न्तैा)दशभिरन्वितानां ककारादीनां अक्षराणां ज्ञेया संख्या क्रमेण यावद् द्वादश इति ॥ १९० ॥ ___ एमेव(वं) [५० १०६, पा० २] सेसाणं, खाएही(दी)णणुणासिय(या)वसाणाणं । णामपमाण(ण) कमसो, उत्तरवट्ठी(ड्डी)ए नायबो(ब) ॥ १९१ ॥ एवमेव शेषाणामपि यथा ककारस्य अकाराविद्वादशस्वरयोगेन संख्या विहिता तथा ७ खादीनामपि अनुनासिकपर्यन्तानि(नां) नामप्रमाणं क्रमसः(शः) । तच्चो(थो?)त्तरवृद्धा(ख्या) ज्ञातव्यमिति पूर्वगाथायामेष प्रसंगेनोक्तमिति ।। १९१ ॥ बो (जो) चेव [५० १०२, पा० १] कवग्गकमो, होति उ सो चेव सेसवग्गाणं । णामपमाण(ण) गमओ, अवग्गजोएण निप्पन्नो ॥ १९२ ॥ य एव कवर्गस्य क्रमो भवति स एवावसि(शि)ष्टानां चादिवर्गाणां सवर्गपर्यन्तानां नामप्रमाणे गमयतां अवर्गयोगेन निष्पन्न इति । अकारादीनां स्वराणां हकारांतानां संयुक्तानां या संख्या सा पूर्वगाथायाः प्रसंगेन व्याख्याता ॥ १९२ ॥ [प० १०२, पा० २] . जह उ अवग्गेण समं, कवग्गमादीण सब(त्त)वग्गाणं । . एवं चिय संजोओ, परोप(प्पोरं सेसयाणं पि ॥ १९३ ॥ उक्ताथैव गाथा। यथा अवर्गेण सह कवर्गादीनां सप्तादिनां(सप्तानां) वर्गाणां संयोगो(गः) " एव[मेव परस्परा (२) कादीनां हकारपर्यंतानां अक्षराणामपि संयोगो ज्ञेयः ॥ १९३ ॥ For Private & Personal use only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ माला ] [ जयपायड निमित्तशास्त्र RAMIN SOutoCARTS मासवज्ञायाकरकम हममानिनम्न ELEASोतमयाथवा माय मालमियकालजयचाबकानामावलि डायस्थडायपाइडशनाममावस्या gutierdalahonnagdirigy एवारागामासयलासदयणमञ्जयझडा समसउद्यानिसहरसासुसकमावमुकता Phhh माध्यातायतको यायभायायधरावास्ययावास Nurlanaka ? लहायातायावादमाया धरूपानासानानावद्यभनवद्यात्रिय मातस्यराधाशयक्षमावदारागाहामाता बामगाशयानण्वसिहाअसण्यासाररूपीटाति शाहलचनमश्चयाबखामणिलानाये। जेसलमेर में प्राप्त प्रतिके आद्य पत्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंधी जैन ग्रन्थ माला ] वयादि सामाद कारण यसक्षयणात रामय हादस दिनादिताका विलसतहमा वाढता क मदद्यविद्या [ जयपायड निमित्तशास्त्र सदगुणा नातिनीकार कवकण्यास कायद्यास विसाभायजीएव मासायू शमसाद सारास सिद्ध कवियाप दास परमगरिया साल सहक जेसलमेर में प्राप्त ताडपत्रीय प्रतिके अन्तिम पत्र मैलाल Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १९४-१९५] प्रश्नव्याकरणाख्यं 2. 6 کم क का कि की कु कू के कै को कौ । के कः | ददा दिदी दु खौ खं खः । धं धी धिधी धु धू धे धै धो धौ धंधा गो गौ गं गः | न ना नि नी नु नौ नं नः १० ११ १२ |घं घः १० ११ प पा पि पी पु. पै पो पौ पं one 4 2020 . 0 ہلو .. م 291305a yr by stri awan 94.424874r w9.42 v ris w १.१ १२ | फ.फा फि फी फु फू फे . चं. चःब बा बिबी बु.:बू बे बंब: مه | छ छः । भं भः 9AR- जं जः | म کو مه غه م मो मौ। मं मः h t m Heremoriaurarms N to 20 too o has w o rtiv on 15 its 49 M4245159 m4041494EME 5 5 w 0000000001595 vrttoo 9500, ur hooo hoo my how to to 5 5 w to or hom 1930 झौ झं झः | ७८.९ १० ११. य o * * _46464 * MANANAL . ore as 0. 4m ANA. 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For aa.landA564 Anand m mPERas यो यौ- ax960SRC - 0940 IRed.064* و به او س noteamPGDB . लौ . م ه يقو مه - Asce oman on .. 04.09.04.08. 06.3. benerala Nawaran ل rterts 9300rn when ar340494TA wite 15 20 ढं ढः ष षा ه كم س ه ه .. 04. त ता ति ه ی तो तौ तं तः SET . थ था थि थी थे थे थो थौ थं थः . . s तत्र संयोगो(गे) आलिंगिताभिधूमितदग्धसंख्या कथ्यते- विशेषसंख्या कथ्यते । विशेषसंख्यमानामा(संख्यानाम) प्रमाणमादेश्यम् । - पढमक्खरसंखाए, जाणसु णामक्खराण परिमाणं । आलिंगि[५० १०३, पा० १]याइ तत्तो, एक्कोत्तरिया हवइ हाणी ॥ १९४ ॥ प्रश्नाक्षराणां प्रथमाक्षरस्य या संख्या हस्स(स)ति । अभिधूमिता द्वे, दग्धास्तिश्रा (स्रः). संख्या इसति ॥ १९४ ॥ सेसं उ णामसंखा, णिस्सेसमणंतरस्स संखाए। तत्तो नामपमाणं, पढमिल(ल्ल)कमेण णेयवं ॥ १९५ ॥ नि० शा०६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा १९६-१९९] तस्माद्य(द)क्षराद्य(द)भिघातशुद्धाद्याः (द् या) शेषा समानाक्षरसंख्या निर्दिशा(टा) यदा पूर्वाक्षरो(रा)भिघात(ते)न सकल(ला?) शुद्ध्यति तदा तस्या[:] पूर्वस्यानन्तरादभिधातशुद्धाद्यः (द्यः) शेष[:] ते[न?] नामसंख्या ज्ञेया । तस्मान्नामाक्षरस्य [प० १०३, पा० २] प्रमाणं क्रमेण ज्ञातव्यमित्युक्तम् ॥ १९५ ॥ पढमो(मा) तइया संपत्कराओ थोवं च संखमिच्छंति । बितिय-चउत्था तेसिं, विपत्करा ते य बहुसंखा ॥ १९६ ॥ प्रथमाः- क च ट त प य शाः। तृतीयाः-गज ड द ब ल साः । तेषां संपत्कृर्वन्ति लो(ला)भकरा[:]शुभैस्व(श्व)र्यचिंतायाः प्रष्टुः । कालतस्तु स्वल्पकालं भवति । तद्बहुले प्रश्नेऽल्पनामाक्षर संख्या ज्ञेया । द्वितीयो वर्ग:-ख छ ठ थ फरषाः । चतुर्थो वर्ग:-घ झ ढ ध भ व हाः । एते 10 विपक्ष(क)रा अशुभकरा न लाभकरा इत्यर्थः । अल्पफलं बहुकालिकं च कुर्वन्ति । तद्वहुले प्रश्ने महती नामाक्षरसंख्या ज्ञातव्या ॥ १९६ ॥ एस सराणं गमओ, वग्गाणं सत्तमट्ठा(ट्ठमा)णं च । विसमक्खरम(व)ग्गाणं, चरिमाणं थोविआ संखा ॥ १९७ ॥ एष स्वराणां विधिरिति यद्व(दु)क्तं ह्रस्वस्वराः संपत्करास्ते महति(ती) विभूतिं कुर्वन्ति । 15 लाभकराश्च । नामसंख्याकरास्व(क्षराश्च ?) स्वल्पां कुर्वन्ति । शेषस्वरा विपत्करा अलाभकराः । नामाक्षरसंख्यां महतीं कुर्वन्ति । अमुमेवार्थ पूर्वोक्तं निर्दिशति । एवं स्वरवर्ग उक्तः । कादयस्तु पंच चान्ये वर्गा उक्ताः । सप्तमवर्गस्याष्टमवर्गस्य च वर्गसंख्या इह(है)वोक्ताऽष्टवर्गक्रमे । विषमाक्षरवर्गा ये, के ? क च ट त प य शाः, ग ज ड द ब ल सा स्व(श्च) । चरिमास्व(श्च ।)पंचवर्गेण 'अ ण न मा' स्व(श्च)। चरिमौ च 'अं अः' अनयोरप्यल्पसंख्या ज्ञेया ॥१९७॥ जे जे जहा सपक्खा, तेसिं दोण्हं पि मेलिया संखा । अभिहयसुद्धा दुगुणा, काऊणं निदि(दि)से संखा ॥ १९८ ॥ प्रश्नादौ योऽक्षरस्तस्य ये स्वपक्षा उच्यन्ते । यैरभिघातपि० १०४, पा० २]स्याक्षरस्य तत् कृ(कि)यते । स चानभिघातकः । व्यवहितोऽव्यवहितस्तु न दोषः । तयोर्द्वयोर्मिलितयोर्या संख्या तथा(या ?)नामनिर्देश[:]कार्यः । इत्याद्यार्द्धकारिकाया व्याख्यानम् । एतत्तु विरुद्धम् । यत आदाधु॥ तम्-"पहमक्खरसंखाए जाणे नामक्खराण परिमाणं । आलिंगियाउ तत्तो, एकंतरिया हवह हाणी ॥" इत्यनेन । उच्यते-अत्र उत्सर्गविहितो यो(ऽयं) विधिः । इह त्वपरपवादा(त्वपवादः) । उत्सर्गापवादाच्च सूत्रोपदेश [प० १०५, पा० १] इति । प्रागर्द्धनाभिहि(ह)तस्य पक्षे द्वयसंख्यायोगे संख्या नामाक्षराणामभिहता । यदा स्वपक्षौ अभिहतौ भवतस्तदा सत्यभिघाते अभिघातोक्तसंख्या(ख्यां) विशोध्य शेषा(षां) द्विगुणीकृत्य तदा प्रमाणे (तत्प्रमाणो) नामनिर्देशः कार्यः ॥१९८॥ परपक्खाणं संखं, अभिहयसुद्धं परोप्परं गुणए।। सुण्णेण(ण) विहिऊणं, दवाणं निदिसे संखं ॥ १९९ ॥ यदा धातु-मूल-जीव-संख्या विज्ञातव्या । कियत्परिमाणमिति । तदा स्वपक्षसंख्या नांही(गी)कृ(क्रि)यते । परपक्षसंख्यैवार्गी(ङ्गी)कर्तव्या । अत्राप्युक्ता(क्त) एव विधिः । प्रश्नादौ योऽक्षरः, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 [गाथा २००-२०२] प्रश्नव्याकरणाख्यं योऽभिघातकः । तस्य यो व्यवहितोऽव्यवहितान्यः। अवव्यहितोकता(तोक्ता)भ्यामभिघातसु(शु)द्धाभ्यां परस्परं गुणिने(ते)ति संख्यारूपमिवोच्यते । परस्परं संख्या [याः?] एकपिंडमापाद्य दस(श)भिर्गुणय(यि)त्वा प्रष्टुद्र()व्यसंख्यानिर्देशः कार्यः ॥ १९९ ॥ बहुसंख-अप्पसंखा, वट्ठ(ड)इ हाइति य अप्पसंखाओ। सोहे [ ५० १०६, पा० १] तु अप्पसंखं, दवाणं निद(दि)से संखं ॥ २०० ॥ । अथ द्रव्य अल्प[बहु] संख्याया आनयनोप(पा)यः प्रकारान्तरेण कथ्यते-सकलां प्रश्नां गृह्य । बहुसंख्या द्वि-चतुर्थ-वर्गाक्षराः, अल्पसंख्या प्रथम-तृतीयवर्गाक्षराः । तेषां विद्यमानाभिघातशुद्ध(द्धा)नामवसि(शि)ष्टसंख्यापिंडं स्थापयेत् । बहुसंख्यानामपि विद्यमानाभिघातशुद्धानां संख्यापिंडमवस्थापयेत् । द्वयोरनयोः संख्यापिंडयोर्या यत्र सुद्ध्यति तां [प० १०६, पा० २] तत्र सोव(शोध)यित्वा या परिशिष्टा ना(ता) शून्येन विश्वा द्रव्यसंख्या ज्ञेया ॥ २० ॥ जह चेव दत्वसंखा, भणिया तह चेव कालपरिमाणं । एक्कमणसो करेजा, पुवाइतिउ(रिओ)वएसेणं ॥ २०१॥ यथैव द्रव्यसंख्याऽभिहिता तथा तेनैव प्रकारेण तस्या द्रव्यसंख्याया[:] कालपरिमाणं कुर्यात् । अनन्यमहानैमित्तिः(त्तिक)पूर्वाचार्योपदेशेनेति । तच्च कालपरिणाम(माणं) कालप्रकरणे यथा वक्ष(क्ष्य)तीति नोक्तमिहेति । ___ अन्ये पठन्ति तहेव कालपरिमायणं' यथा द्रव्यस्य कालपरिमाणं उपचयापचयं वा प्रति । यथा पृष्टः(ष्ठः) [प० १०७, पा० १] आयु[:]प्रमाणमपि वक्तव्यम् । तदुच्यते-देवकी(दैविकी) प्रश्नां परिगृह्य मानसिं(नुषीं) वा सैवाकाशप्रश्नोच्यते । प्रष्टुज(ज)न्मकर्मनक्षत्रसंख्यामभिघातशुद्धामेकत्र संपिंड्य विसो(विंशो)त्तरस(श)तमध्यात्सो(च्छो)ध्यः । शेषं मध्यः । परमायुरेकांते स्थाप्य .त[:] प्रत्येकं गर्भरि(ऋ)क्षसंख्या मेलयित्वा। स च एकोनविंशत्तमो ग्राह्यः । प्रश्नाञ्च प्रत्येकं यो(या) यत्र " शुद्ध्यति तां विशोध्य यत्से(च्छे)षं तत्पूर्व लब्धपरमायुम(म)ध्याच्छोध्यम् । प्रष्टना(टुर्ना)माक्षरां स्वकालरूपां गणयित्वा छो(शो)धयेत् । शेषः स्फुटः परमायुःपिंडक इति । [प० १०७, पा० २] गतकालपरिज्ञानार्थ उदयनक्षत्रसंख्याभिघातशुद्धां संपिंड्यैकत्र द्विगुणं कुर्यादेकान्ते अवस्थाप्य ततः जन्मकर्मगर्भरी(ऋक्षाद्यक्षरसंख्यामभिघातरहितां संपिड्य(ड्या)नन्तरं द्विगुणीकृत्य संख्या विशोध्य (?) भूयः सकलां नामाक्षरां सो(शो)धयित्वा शेषेण अतीतकाल इति । परमायुःपिंडाद्वि- 20 शोध्य शेषमागा[प० १०८,पा० १]मिनी भवतीति । एवं नैमित्तिकपूर्वाचार्योपदेशेनानत्यमानां (१ नायुष्यमान) कुर्यादिति ॥ २०१॥ तथा लेखाक्षरसंख्यापरिज्ञानार्थम् - अक्खरमीसं दुग(गु)णं, वग्गेयवं सदा पयत्तेणं । पणपण्णभागसेसं, तंमि गुणा म(अ)क्खरं जाणे ॥ २०२ ॥ प्रभाक्षराणां या यस्य स्वरसंख्याऽभिहिता ता संख्यां सकलामेकीकृतां द्विगुणं कृत्वा ततो 30 वर्गयित्वा(प० १०८, पा० २]पृच्छा(प्रस्था)पयेत् । तस्य च पृ(प्र)स्थापितस्य द्वे क्रिये भवतः । तत्रैका लेखाक्षरसंख्यापरिज्ञानक्रिया, द्वितीया च वर्गानयनक्रिया। तत्र तावले (ल्ले)खाख(क्ष)रस्य संख्याक्रिया भण्यते-वर्गेये(गयि)त्वाऽऽद्यं स्थापितं प्राकृतप्रतिरास्य(श्या?) पंचपंचास(श)ता भागमपहात्य Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २०३-२०६ ] यल(ल)ब्धं तत्पृथक् स्थापयेत् । तस्मिंश्च पृथक् स्थापिते पूर्वपिंडीकृत्य(ता)क्षरसंख्यां शोधयित्वा पंचपंचाशतभागावसि(शि)ष्टाश्च तत्रैव क्षिप्ता लेखाक्षरसंख्या भण्यन्ते । सो(सा)म्प्रतं कवर्गादिवर्गानयनक्रियोच्यते-तत्र पूर्ववर्गित[ प० १०९, पा० १]मवस्थापितं, तस्य पंचपंचाशता भागमपह(हा?)त्य यल(ल)ब्धं तत्पृथक् स्थापयित्वाऽवशिष्टस्य चाष्टभि5 भा(र्भा)गेऽपहृते यल(ल्ल)भ्यते तद्वर्गककारादिपदमपरमवशिष्टं, तदपि ककारादिरेव वर्गः । यदा सर्व शुद्ध्यति तदा स्वरो लभ्यते । अकारपृथक्स्थापितं यत्तत्सप्ताधिकं यदि भवति तत् स[प्त]भिरेव भाजितव्यम् । त(य)दा न सप्ताधिकं तद्भवति तदा तस्यापि ककारादिरेव वर्गः । एवं नामसंख्याप्रमाणेन अवर्गानू(नु)त्पादेय(दये)त् मतिमानिति ॥ २०२ ॥ ॥ इति लेखगंडिकाधिकारः(रे) संख्याप्रमाणं [प० १०९, पा० २] समाप्तम् ॥ .. दिणपक्खमाससंवस्स(च्छ)रक्खरा जे हवंति बहुसंखा । तथ(प्प)इ सं[खा] गुणए, तस्स सनामा हवइ संखा ॥ २०३ ॥ क च ट त प य शाः- दिवसाः । ख छ ठ थ फर षाः - पक्षाः।ग ज ड द ब ल साः-मासाः। घझ ढ ध भ व हाः-संवत्सराः । ङञ ण न माः- मासाः । दिनपक्षमाससंवत्सरान्यतमाक्षरबा हुल्ये प्रश्रेऽभिघातं शोधयित्वा घे(ये)षा[५० ११०, पा० १]मधिका संख्या दृश्यते तां गणयेत् । 15 दिवससंज्ञा(ज्ञ)कवर्गस्याधिकसंख्यस्य दिवसैरेवावक्ति(धिः) भवतीति शुभाशुभफलादेशः कार्यः । एवं पक्षाक्षराणां, मासाक्षराणां, संवत्सराक्षराणां चाधिक्य(क्ये) संख्या वक्तव्येति ॥ २०३ ॥ सत्तम-णवमे य सरे, सुक्कदिणे पढम-ततियवग्गे य । बितिययवग्गे दसमे, सरे य पक्खो हवइ बहुले(लो) ॥ २०४ ॥ सप्तमस्वरेण एकारेण, नवमस्वरे[ण] तु उ(ओ)कारेण, क च ट त प य शा नां, गज ड द बल • सा नां उपरिगतेन केवलेन वा स्थापितेन शुक्लपक्षो भवति । द्वितीयो वर्गः-ख छ ठ थ फर षाः, स्ते (तेन) उ(औ)कारेण च कृष्णपक्ष आदेश्यः ॥ २०४ ॥ अट्ठमसरंमि संवत्स(च्छ)रा ह वगे(ग्गे) य तह य चउत्थंमि । चरिमे धातुस्ख(स)रेसु य, मासा अणुणासिये य तहा ॥ २०५ ॥ घझ ढ ध भ व हा नामन्यतमाधिके प्रश्ने अष्टमप० १११, पा० १]स्वरेण ऐकारेण युक्ते, एका25 वा(एतेषा)मन्यतमाक्षरे केवले चैकारे यत्र यत्रावस्थिते यत्किंचित् पृच्छति तत् 'संवत्सरेण प्राप्यत'इति वक्तव्यम् । बहुभिर्वा इति । चरिमाभ्यां सबिन्दु-विसर्गाभ्यां, च उज (उ ऊ अं ?), अनुनासिका ङ अ ण न माः, एभिरष्टैर्मास्या(सा) आदेश्याः । पूर्वोक्तन्यायेनेति ॥ २०५॥ पढमे य सत्तमसरे, पाडिवओ होइ सुद्धपक्खस्स । कायक्खरेसु सत्तसु, बितियादी अट्ठमी जाव ॥ २०६॥ [१० १११, पा० २] प्रथमस्वर अकारः। सप्तमस्वर एकारः । एतद्बहुले प्रश्ने शुक्लपक्षस्य प्रतिपद्भवति । ककारबहुले प्रश्ने द्वितीया, चकारबहुले तृतीया, टकारबहुले चतुर्थी, तकारबहुले पंचमी, पकाराधिके षष्ठी, यकाराधिके सप्तमी, [शकाराधिके अष्टमी ।] एवं शुक्लपक्षस्य ॥ २०६ ॥ 39 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ roat करणाख्यं જે तइए नवमे य सरे, पाडिवओ [१० ११२, पा० १ ] होई सुक्कपक्वस्स । गायक्खरे सत्तसु णवमादी पुण्णिमा जाव ॥ २०७ ॥ " [ गाथा २०७-२१२] S तृतीयस्वर इकारः, नत्रमस्वर ओकारः । एतद्बहुले शुक्लपक्षस्य प्रतिपदा भवति । गकारबहुले प्रश् नवमी । जकारबहुले दशमी । डकार बहुले एकादसी (शी ) । दकाराधिक्ये द्वादशी । धकाराधि त्रयोदशी । लकाराधिके [१०११२, पां० २] चतुर्दशी । सफारबहुले पूर्णमासी ॥ २०७ ॥ अट्टम - बितिय सरे, पाडिवओ होइ किण्हपक्खरस । खादक्खरेसु सत्तसु, बितियादी अट्ठमी जाव ॥ २०८ ॥ द्वितीयस्वर आकारः । अष्टमस्वर ऐकारः । एतद्बहुले प्रश्ने कृष्णपक्षस्य प्रतिपद् भवति । खकाराधिके द्वितीया । छकाराधिके तृतीया । ठकाराधिके चतुर्थी । थकाराधिके पंचमी । फकाराधिके षष्ठी । रकाराधिके सप्तमी । षकाराधिके अष्टमी । तस्यैव कृष्णपक्षस्य || २०८ ।। 10 दसम - उत्थे य सरे, निदि (हि) ट्ठे त य कण्हपाडिवओ । घादवखरे सत्तसु, णवमादी [१० ११२, पा० १] सोलसी जाव ॥ २०९ ॥ दशमस्वर औकारः । चतुर्थः स्वर ईकारः । एतदधिके प्रश्ने कृष्णपक्षप्रतिपद् भवति । घारबहुले नवमी | झकार बहुले दशमी । ढकार बहुले एकादशी । धकाराधिके द्वादशी । भकाराधिके त्रयोदशी | वकाराधिके चतुर्दशी । हकाराधिके अमावास्या । एतास्तस्यैव कृष्णपक्षस्य ॥ २०९ ॥ 15 पंचमवग्गे पंचम-सरे [य] एकादसी तहा होइ । 1 अणुणासिए दो वि, सेसा तिहिणो य चत्तारि ॥ २१० ॥ पंचमो द्विस्वभावः । अत: उभयपक्षस्यापि शुकु- कृष्णाख्यस्य ग्राहको भवतीति । पंचमवर्गप्रतिबद्ध उकारस्त[प० ११३, पा० २ ] दुबहुले प्रश्न उभयपक्षस्यापि पंचमी | औकाराधिके षष्ठीं । saraधिके प्तमी । नकाराधिके अष्टमी । णकाराधिके नवमी । नकाराधिके दशमी | 20 मकार बहुले एकादशी । अकारः सानुस्वारः, तदधिके प्रश्ने द्वादशी च त्रयोदशी । अकारः सविसर्गः, तद्बहुले प्रश्ने चतुर्दशी पंचदशी चेति । एतास्त्रिवर्गाद्विस्वभावत्ता ( त्वा) दक्षराणां क्ष द्वयस्य विज्ञेयाः ।। २१० ॥ बितिया अणुणासाई, एवं तिहिणो कमेण चत्तारि । दिट्ठमि कण्हपक्खे, एवं तिहिणो य ( प ) विभागो य ॥ २११ ॥ उक्तार्थे वा अतिदेशार्थकारिका । पूर्वार्द्धदृष्टे च कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे च । एवमुक्तन्यायेन तिथीनां प्रविभागः कर्त्तव्यः ॥ २१९ ॥ संवत्स (च्छ)रंमि दिट्ठे, बितिए वग्गंमि [१०११४, पा० २ ] जाण हेमंत (तं) । तइयंमि गिम्हकालं, चडले ( चउत्थए) पाउसं जाण ॥ २१२ ॥ संवत्सराक्षरे प्रश्नाक्षराणामादौ दृष्टे द्वितीयवर्णाक्षरे च तस्यानन्तरं अग्रतो दृष्टे हेमंत कालो द्रष्टव्यः । संवत्सराक्षराः - घ झ ढ ध भ वहाः, द्वितीयवर्गाक्षराश्च - खछ ठ थ फर षाः । तस्य 30 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा २१३-२१६ ] संवत्सराक्षरस्य प्रभाक्षराणामादौ स्थितस्य यदा ग ज ड द बल सा नामन्यतमाक्षरोऽनन्तरमेवाग्रतो दृश्यते तदा प्रीष्मकाल आदेश्यः । तस्य संवत्सराक्षरस्य आदौ स्थितस्य यदा घ झ ढ ध भ व हा नामन्यतमाक्षरो दृश्यते तदा प्रावृट्कालो वाच्यः ॥ २१२ ॥ पंचमयंमि य वरिसा, वसंतकालं च पढमकादीसु । आयक्खरेसु पंचसु, सरओ सेसेसु चड(उ)थं पि ॥ २१३ ॥ तस्यैव संवत्सराक्षरस्य, प्रश्नाक्षराणामाद्यस्य [प० ११५, पा० २] ङ अ ण न मा ना]मन्यतमाक्षरो यदाऽनन्तरमेवाग्रतो दृश्यते तदा वर्षाकालो(ल:) । तस्यैव संवत्सराक्षरस्य प्रश्नाक्षराणामाद्यस्य अएक च ट इत्येतेषां पश्चाना[मनन्तरमेवाग्रतो दृश्यते तदा वसन्तकालो(ल) आदेश्यः । तस्यैव संवत्सराक्षरस्य प्रश्नाद्यक्षराणामाद्यस्य त प य भा(शा?) इत्येतेषां चतुर्णा केचिन् " मन्यते न द्वाभ्यां यकार-स(श)काराभ्यां तदा प्रथमपंचके 'अ-ए' स्वरद्वयं न गण्यते। क च ट तप इत्येते सद् गण्यन्ते । एषां यदाऽनं[प० ११६, पा० १]तरमेवान्यतमाक्षरो दृश्यते तदा शरत्काल आदेश्यः । पौष-माघौ हेमन्तः । फाल्गुन-चैत्रौ वसन्तः । वैशाख-ज्येष्ठौ प्रीष्मः । आषाढ-श्रावणी प्रावृट्कालः । भाद्रपद-अश्वयुजौ वर्षाकालः । कार्तिक-मार्गशीर्षों शरत् । एवं क्रमः । गाथाबंधानुलोमतया यथा तथोक्तः ।। २१३ ।। पढमस्स पढमतइए, फग्गू चित्तो य दोसु चाईसु । दोस(सु) य कत्तियमासो, मग्गसिरो दोसु चरिमेसु ॥ २१४ ॥ प्रथमवर्गस्य प्रथम-द्वितीय-तृतीये च [प० ११६, पा० २] अ-ए-क फाल्गुनः। प्रश्नादौ व्यवस्थितैरि(ऋत्वक्षरैरनन्तरोक्तानां त्रयाणां मासाक्षराणामन्यतमो यदा दृश्यते तदा फाल्गुनो मासः । एवं क्रमेण चकार-टकारौ चैत्रः । तकार-पकारी कार्तिकः । य-स(श) मार्गशीर्षः ॥ २१४ ॥ एमेव सेसयाणं, उदुवग्गाणं पंच चउरो(स्था) य । मासक्खरा उ कमसो, पोसादी जाव अस्सजुज्जो(जो) ॥ २१५ ॥ आऐ ख छ ठ पौषः । थ फरष माघः । इ ओ ग ज ड वैशाखः। द ब ल स ज्येष्ठः। ई औघ झ ढ आषाढः । धभव ह श्रावणः । [प० ११७, पा० १] उङमण भाद्रपदः । नम अं अः अश्वयुजः। एवं पौषादिरश्वयुजपर्यवसा[न]मिति । तत्र चतुर्थवर्गाक्षरा ये च वत्सर25 अ(रा)क्षराः । पंचमवर्गाक्षराः अबण न मा मासाक्षराः । ते मासाक्षराः संवत्सराक्षराणामुपरि गता अग्रतो वा व्यवस्थितानां दहति । दग्धेषु तेषु वर्णाक्षरा मासाक्षरा भवन्ति । तैर्मासादेशः कार्यः । अश्वयुजमासादारभ्य वर्षप्रवृत्तिः, समाप्तिश्च तस्य भाद्रपदमासे । एवं मासक्रमः उक्तः । अनेन लाभालाभ[प० ११७, पा० २-सुखदुःख-गमनागमन-जीवितमरण-नष्टजातकादिषु संख्यया लब्धया प्रश्नाक्षरैः काल आदेश्यः सुसमाहितेन निमित्ते(त्त)ज्ञानवं(व)तेति ॥ २१५ ॥ ॥कालप्रकरणं समाप्तम् ॥ लाभडि(ट्ठि)यस्स लाभ, वदिज जइ उत्तरा हु अणभिहया । अहरेसु णत्थि लाहो, जे वि[य] अहराहा चउरो ॥ २१६ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २१७ - २२१ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं [प० ११८, पा० १] अनभिहतोत्तराक्षरबहुले प्रश्ने प्रटुला (र्ला) भ आदेश्यः । अधराक्षराधिके नास्ति लाभ: । येऽपि चाधराधरा [:] चत्वारः स्वराः प्रागुक्ता [:] तेऽप्यलाभकराः । 'आ ई ऐ औ' धिषु लाभो नास्तीति ॥ २१६ ॥ लब्भइ लहं(हुं) सजोणुत्तरेसु [प] रजोणि उत्तरे लाभं । लब्भइ विलंबियकाले, सपरिके (के) सं [ प ० ११८, पा० २] अहएसु ॥ २१७॥ • उत्तरजीवाक्षरबहुले प्रश्ने अभिप्रेतमर्थ (र्थं ) क्षिप्रं लभते खजना[ त्], तैरेव जीवाक्षरैरधिकेषु प्रभे उत्तरधात्वक्षारमिश्रेषु उत्तरमूलाक्षर मिश्रेषु वा परश ( स ) काशाल्लाभो वाच्यं (च्यः) । एषामेव जीवधातु - मूलाक्षरा [णा]मुत्तराणामधिकानां आलिंगिताभिधूमितानां चिरात् परिवेशेन वाऽभिप्रेतार्थमर्थं प्राप्नोति । यतः कृ (कु) तश्चिद (६) ग्वेनैवास्ति लाभ इति ॥ २१७ ॥ जह चैव य अभिघाते, तह चेव य उत्तराहरेसुं पि । ४७ धातुस्सरा य चरिमा, [ १० ११९, पा० १] सभावदीहा य अहरहरा || २१८॥ शुभाशुभं पृच्छतः अभिघातरा (ता) लिंगिता भिधूमितद्ग्धलक्षण उत्तराक्षरेणाधरेण आलंगितो (ते) उत्कृष्टात् सकाशादल्पक्लेशो भवति । प्रष्टुः उत्तराक्षरेणाधरो (रा) क्षरेणाभिधूमिते सत्युत्कृष्टात् सकाशान्मध्यमक्लेशो भवति । प्रष्टुः उत्तराक्ष रेणाधरो (रा) क्षरे दग्धे सत्युत्कृष्टात् सकाशान्महाक्लेशो भवति । अधराक्षरेणोत्तराक्षरे आलिंगिते धर्मादल्पदुःखमवाप्नोति । अधराक्षरेणोत्तराक्षरे 15 अभिधूमिते धर्मं (र्मात् ?) मध्यमं दुःखमवा[ प ० ११९, पा० २ ]प्नोति । अधराक्षरेण उत्तराक्षरे दग्वे धर्मान्मह[द]दुःखमवाप्नोति । एवं शुभाशुभं पृच्छतो वाच्यम् । धातुखरौ द्वौ 'उऊ', चरिमौ 'अं अः', ङनणन माः । स्वभावदीर्घास्त्रयः स्वराः 'ई ऐ औ' । इत्येतेषां मध्ये 'ई औ' अधराधरो (रौ) चतुर्थवर्गप्रतिबद्धत्वात् । एते दाह्या दहन्ति, न लाभं कुर्वन्त्यधिकाः प्रभे । दाह्य (या) व पूर्वोक्ता एव ॥ २९८ ॥ I अहरेसु अत्थि लाहो, जइ उत्तरवंजणेण अणुवलिओ । अहरबलाणुबलेणं, पुणो (?) भणिज्ज लाभं तु णत्थि ति ॥ २९९ ॥ अह(ध)रेषु लाभः प्रतिबद्धः अपि वादार्थ भवत्यधरेषु लाभो यद्यु [ १० १२०, पा० १]त्तरेवलिता भवन्ति । यदा त्वधराः अधरानुबलास्ता (स्त) दा नास्त्येव लाभ इति ॥ २१९ ॥ जइ अक्खर अणभिहया, पण्हे दंसीति उत्तरा लहुआ । तो भणसु रायलाभ, अहराहरसंजुए णत्थि ॥ २२० ॥ प्रभायां उत्तराः लघवः जीवाक्षराः अनभिहता शुद्धा यदा बहवः, तदा क्षत्रियस्य राज्यार्थिनो राज्यलाभः । शेषवर्णानां यथास्वमर्थलाभो वाच्यः । योनिधि (वि) शेषाचाक्षराणां तथा देश्यम् । 'अधराधर' इति अधरैः अधरस्वरयुक्तैर्नास्ति लाभ इति प्रागुक्तमेवेति ॥ २२० ॥ लाभंमि पढमदिट्ठे, [१० १२० पा० २] तिविहं कालं तु निद्दिसे तस्स । अतिगत मेस्सं वट्टन्त पंचवग्गाणुमाणेणं ॥ २२१ ॥ लाभाधिकार एवायम् - लाभे प्रथमं दृष्टे तृ (त्रि ) विधे कालमतीतमनागतं वर्त्तमानं च । वर्गाणां परिणामेन निर्द्दिशेदित्येतत्सूत्रमुपरि गाथा (थ) या व्याख्यास्यति ॥ २२१ ॥ 10 29 25 20 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २२२-२२६ ] पढमतइया हु बग्गा, वहते वितईअ(बियई)ओ अईअंमि । सेसा दोन्नि वि वग्गा, कालंमि अगामिय(य आगमि)स्संमि ॥२२२ ॥ प्रथमवर्गाक्षरा[प० १२१, पा० १]णां क च ट त प य शा नाम्, तृतीयवर्गाक्षराणां गज व द बल सा नाम , अन्यतमाधिके प्रश्ने वर्तमानकालमवगच्छ । द्वितीयवर्गाक्षराणां ख छ ठ थ फर षाणामन्य5 तमाधिके अतीतकालवमगच्छ। शेषवर्गाक्षराणां घ झ ढ ध भ व हा नाम, ङबण न मा नां चान्यतमाधिके भविष्यत्कालमवगच्छ । यदुक्तं वर्तमानकालाधिके प्रश्ने प्रष्टुव(वर्तमानकालो(ले) लाभः । अतीताक्षर प० १२१, पा० २]बहुले प्रश्ने आसीला( ? अतीताल्ला)भः । भविष्यत्कालाधिके प्रश्ने भविष्यति लाभः ॥ २२२ ॥ जा जस्स पुवभणिया, जोणी तस्सक्खराइ लक्खेज्जा। तस्सेव वदे लाभ, वा पाविय णिदिसे तेणं ॥ २२३ ॥ या यस्य जीव-धातुमूलानां योनिरुक्ता तस्यास्त्रिविधाया यौ (योनेः) प्रश्नाक्षराणां मध्ये यदा जीवाक्षरा अधिका भवंति तदा जीवं लभ्यत इति [प० १२२, पा० १]प्रष्टावा(छुर्वा)च्यम् । द्विपद-चतुष्पदस्य वा अक्षरानुमानेन पूर्वोक्तक्रमेणैव ज्ञेयम् । एवं धा(तु)त्वक्षरा यदा बहव[:] तदा धातुं प्राप्स(प्स्य)तीति प्रष्टुवा(वा)च्यः । यदा मूलाधिकः, तदा मूलद्रव्य। मवाप्नोतीति वक्तव्यम् ॥ २२३ ॥ तदा वक्तव्य इति गाथान्तरेणाहपण्हक्खरेसु पढमो, जारिसओ उद्दिसिज्ज जीवाई। तारिसयस य लाभो, दायाति य [१० १२२, पा० २] णिदिसे तेणं ॥२२॥ उक्ताथैव गाथा ॥ २२४ ॥ . पढमाइ बंभणाणं, बीओ वग्गो हवइ वेसाणं ।। तइओ य खत्तियाणं, सुदाणं सेसया दोण्णि ॥ २२५ ॥ प्रथमवर्गाक्षराणां क च ट त प य शा नां अन्यतमाधिके प्रश्ने ब्राह्मणसकाशालाभो(ल्लाभ) आदेश्यः। द्वितीयवर्गाक्षराणां ख छ ठ थ फर षाणां अन्यतमाधिके प्रश्ने वैश्याला(ला)भो वक्तव्यः। तृतीयवर्गाक्षरा[णां] गज ड द ब ल सा नामन्यतमाधिके प्रश्ने क्षत्रियाला(ला)भो वक्तव्यः । शेष25 वर्गाणां घ झ ढ ध भ व हानां बाहुल्ये तदा शूद्रोत्] लाभो वक्तव्य [प० १२३, पा० १] इति । ङब ण न मा [नां] अन्यतमबहुले संकरजातीयाला(ला)भ इति । अस्यैव जातीयका उक्ता उक्तं च द्रष्टव्यम् ॥ २२५ ॥ अथे(प्पे)वि यणभिहया, वण्णिया (ग्गिय ?) वग्गा(ण्णा ?)सवग्गसंजुत्ता। अभिहयपरसंजुत्ता, णीया (णय) हीणाहियसमा भणिया ॥ २२६ ॥ 330 । अनभिहताः सर्ववर्णाक्षराः तावलिं(ल्लिं)गो भवति। तैः प्रश्नाधिके लाभो भवति । ये पर__ पा(स्प)रमभिन्नन्ति । क च ट त प यशा[स्तै]रुपरिगतैः, घ झ द ध भ व हा नां च ग ज ड द ब ल सै Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २२७-२३०] प्रश्नव्याकरणाख्य ४९ रुपरिगतैभ(भ)वति । स्ववर्गसंयोगः । तद्वहुले प्रश्ने लाभो भवति । ये परस्परमभिन्नति । स चाभिाप० १२३, पा० २]घातत्रिविधः । आलिंगितादिकः पूर्वोक्तः । योऽसौ घ्नता तदभिघातेन वम्मा(र्गाः ?) कदाचित्संख्यया हीना[:] कदाचिर(द)धिका[:] कदाचित्समा भवति (न्ति) । एकै(ते ?)न अभिम(ह)न्यते(?) । हीने(?) फललाभ[:] प्रश्ने समे ईषत्फलं भवति । दृष्टैरधिकैख(श्च) फलाभावः । एवमेति भिः) शुद्धशेषैः शुभाशुभमध्यमादेश्यम् ।। २२६ ॥ पढम तइज्ज(जे) वग्गे, होइ [५० १२४, पा० १] सुही दुक्खिओं बी[य]-चउत्थे। पंचमए पुण वग्गे, सुह-दुक्खे(क्ख) मज्झिमं तस्स ॥ २२७ ॥ प्रथमवर्ग:-क च ट त प य शाः । तृतीयो वर्ग:-गज ड द ब ल साः । एषामक्षराणां बाहुल्ये सुखविवक्षायां प्रष्टु[:] सुखलाभो भविष्यति सुखावान्ति(प्ति)रित्यर्थः । द्वितीयवर्ग:-ख छ ठ थ फर षाः। चतुर्थो-घ झ ढ ध भ व हाः।रे(ए)तेषां अक्षराणां बाहुल्ये प्रष्टादु(ष्टुरु)त्पातो [५० १२४, पा० २] ॥ ज्ञेयः । दु(उ)त्पा[ता]गमो वा भविष्यतीति । पंचमवर्गो- अ ण न माः । तेषु च [सुखदुःखं मध्यममवाप्नोति । एवमसौ सुख-दुःखी (खानि ?) वा तत्राप्ये (नो)ति येवं(एवं) वाच्यम् ॥२२७॥ बीय-चउत्था वग्गा, दिहा इच्छंति सुबहु आउं [च । पंचमओ पुण वग्गो, मभि(ज्झि)मआउं सया इच्छे ॥ २२८ ॥ द्वितीयवर्ग:-ख छ ठ थ फरषाः । चतुर्थः-घ झ ढ ध[प० १२५, पा० १]भ व हाः । एतेषाम- ।। क्षराणां बाहुल्ये आयु[:] पृच्छतः, आयु[:] प्रच्छु(भूतं वक्तव्यम् । फलं लाभादिकं पृच्छति(तः) अल्पं वक्तव्यम्। पंचमवर्गाक्षरा[णां] - अ ण न मा नां बाहुल्ये मध्यमायुः पृच्छकस्य, लाभप्रश्ने मध्यमो लाभो वाच्यः ॥ २२८ ॥ उत्तरसरसंयु(जुत्ता, सन्चे अप्पाउआ फलमुवेति । [प० १२५, पा० २] अहरस्सरसंजुत्ता, तुह (सुबहुं) इ(य)च्छंति ते आउं ॥ २२९॥ . उत्तरस्वराः पूर्वोक्तास्तैः संयुक्ता उत्तराक्षराः प्रथम-तृतीयवर्गीयाः । तद्बहुले प्रश्ने यदि लाभादिकं फलं पृच्छति तेषां प्रभूतं फलं भवति । येऽप्यायुः पृच्छंति तेषामल्पमायुर्भवति(ती)त्यादेश्यम् । त एवाधिका उत्तराक्षरा अधरस्वरयुक्ता आयुःप्रश्ने प्रभूतमायुः प्रयच्छंति । फलप्रश्ने फलं चाल्पं लाभादिकमिति ॥ २२९ ॥ अहव विसण्णो आयुमि होइ सुद्धेसु काइमाईसु । सत्तण्ह मेसममा(वसा?)दि सरसंजुत्तेसु विवज्जासो ॥ २३० ॥ पंचवर्गन्यायेन स(सा)मान्यतः फलं पृच्छकस्यायु प० १२६, पा० १ श्वोक्त[म्] । अष्टवर्गन्यायेन लममुत्पाद्य आयुर्विभागो नष्टविभागो नष्टजातकमिति वक्तव्यमिति । काद्यादिसप्तवर्गेषु शुद्धेषु मेषादिराशयः । सप्त कथं ? । प्रश्नाक्षरं गृह्य आद्यक्षरं त्यक्त्वा द्वितीये 'कच ट त प य शा' द्या(दि)वर्गाक्षराणां वर्गान्यतमं शुद्धमात्रारहितं यद् वर्गमध्यं याति दृष्टं स रासि(शि)-. रुदयादिः। तत्र च वर्गे यदि (यत?)मो वर्ण[:] तति लिप्ता(कला?) शोध्या। षडंस(श)को वर्णः। वर्णे षटूला सो(शो)ध्याः। भुज्यमानस्य वर्णप्रमाणेन पटूलाः शोध्याः। षड्(ष्ठव?)र्गस्य पंचमो रेफः, स निशा०७ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। [गाथा २३१-२३३ ] [प्तम]वर्गस्य क्षकारः, य ए त ट च [प० १२६, पा० २]वर्गाश्च वृश्चिकादिकाः । एते स्वराः संतस्तथैव कुर्वन्ति । एवं स्वरयुक्ता आद्यतत्यागेन [वि?] पर्ययो द्रष्टव्यः । एवं वर्ग(त?)मानं लग्नं प्रभाक्षेरैरुत्पाद्यते । ततः सिद्धाक्ष[र] राशिरुत्पद्य (त्पाद्यः ?) । कथं द्वादश स्वरा द्विगुणीकृत्यास्थाप्याकाश प्रश्नया दशकसंख्यया निव्यया गुण्य जातं शतद्वयं चत्वारिंश[प० १२७, पा०१]त्यधिकं सिद्धरासि(शिं) । स्थाप्य प्रश्नागतलग्नांशा[न्] विशोध्य शेषभागं ककारगर्भेण कादिवर्गाष्टकगुणेन लब्धं एकान्ते स्थाप्य, रूपमेकं शेषवर्णांकानां यथादृष्टी(ष्टं) स्थाप्य, षष्टिच्छेदं वाऽवस्थाप्य, उपरिवर्णराशिसवये(?) षष्टिपंचभिगु(गुं)ण्यं तेन भागोपरि राशे[:] लब्धानि वर्षाणि । शेष स्वरगुणं लब्धा मासा[:] चाक्षरद्वयगर्भगुणे दिनानि । 'क च ट त' चतुरक्षरवर्गगुणे [प० १२७, पा० २] घटिकाः । एतद्वर्षादिक्रमेण स्थाप्य ककारगर्भषड्वर्गगुणाद्विशोध्य पृच्छकस्य प्रथम-मध्यम-तृतीयावस्था ॥ विजा(ज्ञा)य धात्वादिव्यंबं देयम् । विसो वा अष्टवर्गा ये आद्यन्तपाते षड्वर्गक्षेपोपवतो वा तृतीयदसा(शा)यां 'अ ए क च ट त प य श' वर्ग शोध्यं वाऽव(प)नीयं वा । एवमावृत्त्या यावत्ति(नि)श्चित्तकाल इति । यावंतस्व(श्च) पर्याया धात्वादि[प० १२८, पा० १]तृ(त्रि)कस्य बलाद्यवस्थासु शुध्यति(न्ति) प्रक्षिप्यन्ते वा तावद्वर्णक्षेपादयोऽप्यसाधाद्योवण्ण(?)सावपि बुद्ध्या पात्यो देयो वा । एवं पृच्छकस्यातीतः कालः स्फुटः । आगामिकालपरिज्ञानार्थ य एषः अति(ती)तकाला, Is एषः चतुष्टयगुणाकारः, गर्भाद्विसो(शो)ध्य वर्षादि । इदानीं तस्माद्याव(ती) दसा(शा) विभागां सा(शा) प[त]ति तावति(ती) इह क्षेत्राक्षिप्तेषु पात्या । [प० १२८, पा० २] इह शेषमार्गादिवर्गादिस(ग)ण उभययोगे सर्वे(व) वर्णाग्रमिति (?) ॥ २३० ॥ आउंमि जो वियप्पो, काले देसे य होइ सो चेव । अणुणासिया य सबे, चरिमा सेसा समा भणिया ॥ २३१ ॥ आयुषि यः क्रमोऽभिहितः स एव कालो(ले) वक्तव्यः। उत्तराक्षरैरधिकैः क्षिप्रं ल[प्स्य]तीति वक्तव्यम् । अधराक्षरैरुत्तराक्षरान(नुव?)लितैः, दृष्टि(टै)रधिकैः स्व(चि?)रेण प्राप्स्यतीति प्रष्टा वाच्यः । देसो(शो) प्राम-विषयादिलक्षणः । प्रामादिकस्य लाभो भवतीति प्रश्ने उत्तराक्षरैरधिकैर्लब्धैः [क्षिप्रं] अधराक्षरैश्चोत्तरानुवलितैः [५० १२९, पा० १] स्व[चि?]रेण लाभः । अधराक्षरैश्वाधिकैर्नास्ति लाभः । अनुनासिकाश्चरिमसंज्ञास्तैः समो लाभः स्वयोनिगुणतुल्य इति ॥२३१॥ ॥ लाभगंडिकाप्रकरणं समाप्तम् ॥ इत(तइ)य-पढमेसु य जलं, बीय-चउत्थेसु अप्पपाणीयं । पंचमए पुण वग्गे, णत्थि जलं चेव णायचं ॥ २३२ ॥ प्रथमवर्ग-तृतीयवर्गाक्षराधिके प्रश्ने नास्ति जलमादेश्यम् । या मात्रा [ : १] स्ववर्गप्रतिबद्धाः ताभिरप्येवमेवेति ॥ २३२ ॥ पढम-तइएसु [पर]मा, बितिए मज्झा उ सस्ससंपत्ती । चउ-पंचमए आयरिए (?) णत्थि सस्सं ते(ति) जाणेज्जा ॥ २३३ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २३४-२३९] प्रभव्याकरणाख्यं प्रथम-तृतीय[प० १२९, पा० २]वर्गाक्षराधिके सस्यनिष्पत्तिः उत्कृष्टा । द्वितीयवर्गाक्षराधिके मध्यमा सस्यनिष्पत्तिः । चतुर्थवर्गाक्षराधिके स्तोकं निष्पद्यते । पंचमवर्गाक्षराधिके स्तोकमपि नास्ति सस्यम् ॥ २३३ ॥ पढम-तइयंमि वग्गे, सइत्तणं तह य बीयए असई ।। चउत्थ-पंचमए वग्गंमि(ग्गे) णत्थि सइ चिय णायबा ॥ २३४ ॥ । प्रथम-तृतीयवर्गाक्षराधिके प्रश्ने महती सती ज्ञेया । द्वितीयवर्गाक्षराधिके प्रश्ने मध्यमा सती ज्ञेया। चतुर्थ-पंचमवर्गाक्षराधिके प्रश्ने सतीरेव नास्तीति निष्पत्त्यभावात् ॥ २३४ ॥ ॥ वर्गस्य [प० १३०, पा० १] गंडिका समाप्ता॥ आदा पुस्सो [य] महा, हत्थो चित्ता तहेव [साई य] । जिट्ठा [मू]लो एए, इ(दु)अक्खरा अट्ठ नक्खत्ता ॥ २३५ ॥ आर्द्रा-पुष्य-मघा-हस्त-चित्रा-स्वाति-ज्येष्ठा-मूला अष्टौ रे(व्य)क्षराणि नक्षत्राणि ज्ञातव्यानि॥ अस्सिणि भरणि तह(य) कित्तिय, रोहिणि फणिदेवया विसाहा य । रेवय सवण धणिट्ठा, तिअक(क्ख)रा णव उ नक्खत्ता ॥ २३६ ॥ अश्विनी-भरणि-कृत्तिका-रोहिणी-अश्लेषा-[विशाखा]-श्रवण-धरि(नि)ष्ठा-रेवत्य इति नवनक्षत्राणि अ(व्य)क्षराणीति ।। २३६ ॥[प० १३०, पा० २] मिगसिर पुणव(ब)सु बिन्नि, पुवासाढाणुराधजलदेवा । एए पंच वि (रि)क्खा, चउरक्खरनामया भणिया ॥ २३७ ॥ मृगसि(शि)रः पुनर्वसुः पूर्वाषाढा अनुराधा शतभिषा एतानि पंच नक्षत्राणि [चतुरक्षरनामकानि भणितानी]ति ॥ २३७ ॥ भृगदेवा दगदेवा, रिक्खा पंचक्खरा दुवे एते । अष्ट(ज)म-विस्सा छकं, सत्तक्खवि(रि)याहिबुद्धी(बन्धु?)या ॥ २३८ ॥ पूर्वाफाल्गुनी उत्तराषाढा द्वे एते उभाव(भेड)पि पंचाक्षरौ(रे)। अर्यमदेवता-उत्तराफाल्गुनी, विश्वदेवता-पूर्वाभाद्रपदौ एतौ षडक्षरौ । अहिबन्धुः उत्तराभाद्रपदा सप्ताक्षरा ॥ २३८ ॥ . दो अक्खरमादीणं, णक्खत्तग(त्ता?)णं [कमेण ?] ठावेउं । पण्हाइमसंखाए, [५० १३१, पा० १] णक्खत्तगणं वियाणाहि ॥ २३९ ॥ । व्यक्षरादीनां नक्षत्राणां सरा(ता)क्षरपर्यन्तानां क्रमेण स्थापयित्वा प्रश्नाक्षराणां आद्यक्षरसंख्ययाऽभिघातशुद्धा नक्षत्रगणमध्या नक्षत्रगणं जानीहि । व्यक्षरं व्यक्षरं चतुरक्षरं पंचाक्षरं षडक्षरं सप्ताक्षरं चेति ॥ २३९ ॥ १ "गण ठाये वेउवे' इति आदर्श भ्रष्टपाठः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ 15 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । अधरुत्तरक्कमेणं, पच्छा अहरुत्तरेण सट्टाणं । णादुण (दूर्ण ?) तवणामं, जाणेज्जा णामकरणाणं ॥ २४० ॥ अधरा उक्ताः, उत्तरा अप्युक्ता एव । प्रश्नाक्षराणामाद्यवस्थितो (तेन ?) उत्तराक्षरणर (रेणा ) ल्पसंख्या(ख्यं) नक्षत्रं ज्ञेयम् । प्रश्नाक्षराणागा (मा) दिस्थितेन अधराक्षरेण बहुसंख्यं नक्षत्रं ज्ञेयम् । # [प० १३१, पा० २] प्रश्नाक्ष रैना (न) माक्षरैर्वा पूर्वोक्ते[न] क्रमेण वर्गमानीय तेषामुत्तराक्षरैरुत्तराक्षरा लभ्यन्ते । अधराक्षरैरधराक्षरा लब्धवर्गा[:] प्रतिलब्धा [:] प्राप्यन्ते । तैर्नक्षत्रं योजयेदिति । अत एव अधररासि (शि) रपि ज्ञेया ॥ २४० ॥ ॥ नक्षत्रगंडिका समाप्ता ॥ [ गाथा २४०-२४२ ] तिहि उत्तरेहि वग्गं, उत्तरवग्गेसु [१०१३२, पा० १] पढमयं लहइ । तिहि अधरेहिं अधरं, अधरेसु (सुं) य तिजयं लहइ || २४१ ॥ प्राक्षराणामादौ यदा त्रयोऽक्षरा उत्तरा मात्राभिरंभिहता ( मात्रारहिता: ?) असंयुक्ता अनभिहताश्च भवंति तदा तेषां य आ [ दि] स्वर (र: ) स आत्मीयं वर्ग लभते । प्रश्नाक्षराणामादौ यदा त्रयोऽक्षरा अधरा मात्रारहिता [ १० १३२, पा०२] असंयुक्ता अनभिहताश्च भवंति तदा तेषां यस्तृतीयोऽक्षरः [स] आत्मीयं वर्गं लभते ॥ २४१ ॥ उभसुं दो दोणि वि एक्केकं चउक्कयं लहइ । वामिस्सेसु वि एकं, पुरिमेसु अनंतरं लहइ ॥ २४२ ॥ 1 प्रश्नाक्षराणामादौ यदा द्वौ उत्तराक्षरौ भवतः मात्रारहितौ असंयुक्तौ अनभिहतौ च तदौ (दा) तौ द्वावपि प्रत्येकं आत्मीयं' वर्ग [ प० १३३, पा० १] लभते । प्रश्नाक्षराणामादौ यदा अक्षरौ मात्रारहितौ असंयुक्तौ अनभिहतौ च प्रत्येकं आत्मीयं वर्गं लभते । यदा अधरा20 (र आ)दौ पतितोऽनन्तरश्च त्य (त) स्योत्तरः पतितः । य ( त ? ) दाऽऽलिंगिताभिधूमि तदग्ध-लक्षणं अभिघातं सो(शोधयेद (द्) । निदर्शनम् - खकारस्य गकारेणालिंगितस्यैका संख्या ह्रसति । हसितैकसंख्या[क]श्च ककारो [१०१३३, पा० २ ] भवति । तस्मिन् ककाराच (रश्च) तुर्थवर्गस्तद्वर्गं लभते । उत्तरानुवलितत्वात्तमर्थं उत्तरं लभते । स एव खकार (रो) घकारेणाप्रतोऽवस्थितेनाभिधूम्यन्ते (ते) । अभिधूमितस्य चकारस्य द्वे संख्ये निवर्त्तेते । एका खकारसंख्या द्वितीया ककारसंख्या । तत्रैका 25 स्थाने (न) त्यागेन खकार - चकारादारभ्य चतुर्थपवर्गमाप्नोति । स चा (च) धकारानुवलितत्वात् पवर्ग अधराक्षरं प्राप्नोति । यदा अध[र] आदौ पतितोऽनंतरश्च तस्योत्तर: पति [तः ], तदाऽऽलिंगिताभिधूमितदग्धलक्षणं अभिघातं शोधये [दि ]ति । [ १० १३४, पा० १] निदशैनम् - खकारस्य द्वे ककारस्य डकारे[ण ] चोत्तरेण दग्धस्य तिस्रः संख्या निवर्तन्ते । कास्तास्तिस्रः संख्याः १ खकारस्य संख्या द्वे वेति । स्थानद्वयहसस्य डकारादारभ्य चतुर्थवर्गं प्राप्नोति । कः पुन [र] सौ " चतुर्थस्तत्रोत्तरानुवलितत्वात् पवर्गरुत्तराक्ष रा ( रं?) प्राप्नोति । एवं एको (के ? ) न चतुर्थस्य उक्तः । १ 'आत्मायं पवर्गभं' इति प्रतिगतः पाठः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २४३ - २४६ ] व्याकरणाख्यं ५३ अन्येषामप्यक्षराणां एवमेव क्रमो ज्ञेयः । व्यामिश्रास्तु संयुक्ताक्षराणां यत्र यत्र पतिता आत्मवर्गं लभते (न्ते) । तेषां संयुक्ताक्षराणां क आत्मवर्गं लभते ? किं योऽधस्तात् आहोश्विदुपरिह(ष्ठः ?) । [१० १३४, पा० २ ] उच्यते - योऽसायु (बु) पया (र्य ) क्षरः । प्रश्ने पूर्वाक्षरौ यदा द्वावुतरौ भवतः, मात्रारहितौ असंयुक्तौ चेति । तदा द्वितीयोऽक्षर आत्मीयं वर्गं लभते ॥ २४२ ॥ अच तय वग्गा उत्तर - करणं च हवदि [ जइ ?] च व[ग्ग]स्स | होदि कमेण कट पशा, चदुरा णीपं (यं) च णादहं ॥ २४३ ॥ 'अ च तया'नां चतुर्णामक्षराणां बाहुल्ये (ल्यं) यदा प्रश्ने भवि (व) त्यभिहि (ह) तानां तदा चितायां उत्तमकार्यं पृच्छतीत्यादेश्यम् । लाभप्रभे उत्तमो भवतीति वाच्यम् (? च्यः) अ ( प्र ? ) ष्टा । 'कटप शा'नां चतुर्णामक्षरा [ १० १३५, पा० १]णां प्राचुर्यं यदा प्रश्नाक्षरेषु दृश्यते अनभिहतानां तदा चिंतायां नीचकार्यं पृच्छतीति वक्तव्यम् प्रष्टा । लाभप्रश्नेऽल्पलाभस्ते भविष्यतीति 10 वक्तव्यम् । 'अ च तया' उत्तरकरणसंज्ञकम् । 'कटप शा' अधरकरणसंज्ञम् ॥ २४३ ॥ संजुत्तमसंजुत्तं, आलिंगियमादियं अक चटा दी । उच्चारिज्जदि कमसो, अणुपुवीए करणमेदं ॥ २४४ ॥ प्रमेयेऽक्षरास्ते संयुक्ता [असंयुक्ता ] वा आलिंगिता [ अ ] मिघूमिता दग्धा वा, अकच ट [ [[ ] शायेऽक्षरा पंचचत्वारिंशत् [ १० १३५, पा० २] तेषां क्रमोच्चारणं आनुपूर्वीति भण्यन्ते (ते) । 15 आनुपूर्वीक्रम उच्यते । 'अ क च टा' दीनामष्टानां वर्गाणां क्रमोच्चारणं आनुपूर्वीक्रम उच्यते । विपसोचारणं अनानुपूर्वीकरणमिति । एतावानेव नात्र कश्चिद् विशेषः । प्राप्तिस्तु वर्गाणां अन्यतःका (०न्यका०?) रिकयोच्यते ॥ २४४ ॥ [पढ] अं (मं ? ) तिल उक्के तप यश वग्गे वि पावए जेण । एवं अना [] पुवीकरणं छट्ठ मुणेयवं ॥ २४५ ॥ 5 उत्तरा अनभिहता येऽक्षराः प्रश्नादौ अन्यतमेऽग्रतो वा त एवासंयुक्तौ (क्ता) यदा दृश्यन्ते तदा ते प्रथमवर्गास (स्व) वर्गं प्राप्नुवंति । यदा त्वालिंगिता असंयुक्ताश्च तदा एकस्थानह्रासेन हसे प्रथमवर्गस्य 'अ क [ १० १३६, पा० १] च ट त प य शाख्यस्य अन्य (त्या) क्षराश्चत्वारः 'तप यशा' एते यथा प्राप्नुवंति वर्गाणां तथा वर्णइ ( यि ) ध्याम्युपरिष्ठा [त् ] । यच्च तद्वर्ग: (गः) विलोम्येन अनानुपूर्व्या प्राप्नुवंति । वर्ग : - कवर्गः चवर्गः टवर्गः शवर्ग मि (इ)ति । अनानुपूर्व्यं षष्ठं करणं ज्ञेयमिति । अकचटतपयशा इत्यत्र पूर्वा: - 'तपय शा' इत्येवानुपूर्वीक्रम इत्यर्थः । एषामेव विपर्ययोश्चारणं अन्योन्य ( नानु) पूर्वी [क्रमः ] | प्राप्ति ( पश्चात् ? ) क्रम इत्यर्थः । 25 [१० १३६, पा० २] पंच करारण्य ( करणानि प्र ? ) तीतानि । तृ (त्रि ) षूत्तरेषु वर्गः प्रथमकरणम् । एवं तृ (त्रिष्वधरेषु द्वितीयम् । उभयत उत्तरौ द्वौ तृतीयम् । ध (ए) केन चतुर्थ लभ्यते चतुर्थकरणम् । व्यामिश्रैयु (यु) कैरेको वर्गः लभ्यत इति पंचमं करणम् । यद्वा व्यामिश्र एकेन चतुर्थमस्यांतर्गतं चतुर्थोऽयं भेदः । आनुपूर्वी उच्चारणकरणं पंचमम् । अनानुपूर्वी षष्ठं करणमिति ।। २४५ ॥ अणभिहदा संजुत्ता, पढमं पावंति अप्पणी [१० १३७, पा० १] वग्गं । आलिंगिया य तत्तो, हसंति एक्केक्कयं ठाणं ॥ २४६ ॥ 20 30 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २४७-२४९] (ह्रासं ?) प्राप्नुवंति । निदर्शनम्-[ककारः] खकारेणालिंगितश्चकारं प्राप्नुवं(मो)ति । एवं चकारः ह(छ?)कारेणालिंगितः ढ(ट)कारं प्राप्नुवं(मो)ति । तथा गकारो [प० १३७, पा० २] घकारेणाभिधूमितः जकारं प्राप्नुवं(नो)ति । जकारः झकारेणाभिधूमितः डकारं प्राप्नोति । एवं धकारो ड(?) कारेण दग्धः ककारं प्राप्नोति । एवमन्येऽपि [वर्गा]क्षराः संयुक्ता द्वितीयादिवर्गान प्राप्नुवंति । 5 द्वितीयवर्गग्रहणेन द्वितीयोऽक्षर उच्यते । त एव संयुक्ता आलिंगिताः स्थानद्वयहसि[तत्वात् ते तदा तृतीयं स्थानं टवर्ग प्राप्नो(मुवं)ति । एवं गकारोऽपि संयुक्तो यदाऽऽलिंग्यते तदा [प० १३८, पा०१] तृतीयं वर्ग प्राप्नोति । एवं संयुक्ताभिधूमिताश्चतुर्थो(र्थम् ?) दग्धाः पंचममिति ॥ २४६ ॥ · सट्ठाणमुवेंति दढा, बत्तीसं एत्थ होंति संयो(जो)गा । हस्सा य संति कमसो, चउवग्गकमेण एक्ककं ॥ २४७ ॥ स्वस्था[न]मुच(मुपय ?)न्ति दग्धाः । तत्र सरा(प्ता?)क्षरसंयोगेमा(ना)लिंगिताभिधूमितदग्धसंयोगेन च द्वात्रिंस(शन)संयोगा भवन्ति । तानुपरि निर्वर्णयिष्यति । अष्टौ वर्गाः संयुक्तालिंगितदग्धाभिधूमिता इत्येते चतुर्भिर्विक[प० १३८, पा० २]ल्पैर्गुणिता द्वार्टस(त्रिंश)द् भवति(न्ति)। ह्रिस्ता(ह्रसिता)येऽक्षरास्ते आलिंगितास्ते द्वितीय स्थान प्राप्नुवंति । अभिधूमिता[:] तृतीयम् ,दग्धा[:] चतुर्थं स्थानं प्राप्नुवंति । एतच्च निदर्शनेन पूर्वशेषा(पं?) वर्णितमितो(त उ?)क्तम् । अनंतरगा15 थानुसारेणास्यायमर्थः-'हस्सा लहंति कमसो' चतुर्थवर्गक्रमेणेति एकेकं वर्गं प्राप्नुवन्ति । संयोगस्य [५० १३९, पा० १] च प्रक्रांतत्वात् 'अ इ ए ओ' एते चत्वारः ह्रस्वग्रहणेन स्वरा गृह्यन्ते । तत्र अकारः प्रश्नादौ अन्यत्र वा निरुपहतः अवर्गमेव प्राप्नोति । ककारोपरिगत इकारः कवर्ग प्राप्नोति । चकारोपरिगत एकार[:] चवर्ग प्राप्नोति । टकारोपरिगत: ओकारः टवर्ग प्राप्नोति ॥ २४७ ॥ बितिय-चउत्थो पंचम-छट्ठो अण्णेसुलहदि [प० १३९, पा० २ ] आदेसा। लभदि अ चरिम चउक्को, तकारमादीस(सु?) एकेकं ॥ २४८ ॥ द्वितीय आकारः, चतुर्थ ईकारः, पंचम [उकारः, षष्ठ] ऊकारः । एते चत्वारः खरा अन्यवर्गाक्षराणामुपरि प्राप्नुवंति । के ते अन्यवर्गाक्षराः ? 'तपय शाः' । तत्र तकारस्योपरिगत आकार[:] तवर्ग लभते । पकारस्योपरिगत ईकारः पवर्ग लभते ।[प० १४०, पा० १]यु(य)कार उकारेण युक्तः प(य?)वर्ग लभते। शकार ऊकारेण युक्तः शवगं प्राप्नोति । शकारश्चरिमस्तनास्तीति 23 'त प य शाः' चतु(त्वा)रोऽपि चरिमसंज्ञाः । अत एवानि(वास्मिन्) चतुके(के) ह्रस्वाणां स्वराणां संयोगेन तत्प्राप्नोति(प्राप्ति)रुक्ता ॥ २४८ ॥ अणुवलिया तिहदा वा, जुत्ता पुवावरेण एकेकं । एस सराण णिवेदो(सो), ककारमादी[सु] त(व)ण्णेसु ॥ २४९ ॥ अनुवलितशब्द आलिंगितवापि(ची) । अनुवलिता द्विविधाः-उत्तरान(नु)वलिता अधरा30 नुवलिताश्च । तत्र अधराक्षर उत्तरस्वरसंयुक्त उत्तरान(नु)वलितज्ञ(सञ्ज्ञः ?) । यद्वर्गसंबंधितेन खरेणाक्षरो युक्तस्तस्मिन्नेव च वर्गे [प० १४०, पा० २]उत्तरान(नु)वलितत्वादुत्तराक्षरं लभते । खरा[णा]मपि मध्ये त्व(त)मेव स्वरमुत्तरं प्राप्नोति । उत्तराक्षरोऽप्यधरस्वरयुक्तो अधरानुवलितसंज्ञः । यद्वर्गसंबंधी(धि ?)तेन स्वरेणाक्षरो युक्तस्तस्मिन्नेव वर्गे अधरानुवलितत्वादधराक्षरं लभते । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २५०-२५३] प्रश्नव्याकरणाख्यं स्वराणामपि मध्ये तमेव स्वरमुत्तरं(मधरं) प्राप्नोति । उत्तराक्षरोऽप्यधरस्वरयुक्तोधर............ ...............: भिधूम्यते स द्वितीयवर्गमवाप्नोति । निदर्शनम् - ककारोऽभिधूमितः खकारेण [च]वर्ग प्राप्नोति । खकारोऽभिधूमितो घकारेण छवर्गं प्राप्नोति । गकारोऽभिधूमितो घकारेण जवर्ग प्राप्नोति । ककारो दग्धः डकारेण टवर्ग प्राप्नोति । एवमन्येऽप्यक्षरा[:] पूर्वाभिहि[प० १४१, पा० २]तविस्तरक्रमेण द्रष्टव्या[:] । ये । संयुक्ताक्षरास्तेषामुपरि योऽक्षरः स स(स्व)वर्गाक्षरं लभते । उत्तरः उत्तराक्षरमधरोऽप्यधराक्षरमवाप्नोति । एष स्वरनिवेशक(शः) सकारादिषु हकारान्तेष्वक्षरे[९] आलिंगिताभिधूमितदग्धलक्षण उक्तः । हस्वा लभंते । आदिचतुष्कम् - अकारप्रभृतयः । [प० १४२, पा० १]अन्त्यचतुष्कं प्राप्नो(नुवं?)ति साभ्यां (? सान्त्यं) वर्ग लभन्त इति ॥२४९॥ अस्यैवार्थस्यातिदेशार्थ कारिकान्तरमाह - जह चेव सरवसेसो (विभागो ?), ककारमादीसु धं(व)जणेसुं पि। एमेव [वि] रई(इ)यबो, पिरंतरं जाव [उ] हकारो ॥ २५० ॥ एवमेव कर्तव्यो निरंतरं ककारादारभ्य यावत् हकार इत्येष वर्गलब्ध्यर्थं स्वरविभागो विज्ञातव्यो व्यंजनेषु । अयमर्थः पूर्वगाथयाऽभिहित इति नोक्तः ॥ २५० ॥ [प० १४२, पा० २] एवं अनानुपूर्वो(र्वी)प्रपंचेन षष्ठं प्र(?)करणम् ॥ जो य सराण विभागं, देसेदि य सत्तमो य सो करणो । एमेव वंजणाणं, विभावणो अट्ठमो होति ॥ २५१ ॥ उक्तार्थातिदेशार्थ गाथेयं पठिता। षष्ठमुक्तमनानुपूर्वीकरणम् । अनन्तरं स्वरयोगाद्वर्गलब्धिरुक्ता । असौ स्वरविभागो नाम सप्तमं करणम् । संयुक्तासंयुक्तविकल्पेन वर्गप्राप्तिरित्यष्टमं व्यंजनविभागो नाम प्र(?)करणम् ॥ २५१ ॥ दंसेति सव[ग्ग]क्खर-संजोगं [५० १४३, पा० १] जो य सो हवे णवमो। । परवग्गक्खरसंजोयं, दंसेदि य दसमॉ करणे ॥ २५२ ॥ स्ववर्गाक्षरसंयोगेन नवमं करणम् । इदं यथा भवति तथा पूर्वमुक्तम् । परवर्गाक्षरसंयोगा[त्] दशमं करणम् । परवर्गाक्षरसंयोगोऽपि पूर्वाभिह(हि)त एव । अनयोः करणयोयथाक्षरलाभ[:] तथोपरि वर्णयिष्यामः ॥ २५२ ।। अह उत्तराणुवलिया, ह्रस्सा उ लहंति हस्समन(न्न)यरं । अहरेणऽवि हम्मंता,[प० १४३, पा० २] तेसिं चिय वग्गमण्णयरं ॥ २५३ ॥ अधराक्षरा उत्तराक्षरैरालिंगिता ह्रस्ववर्ग अन्यं लभन्ते । निदर्शनं यथा- खकारः ककारेणालिंगितो दग्धः कवर्ग प्राप्नोति, तस्मिंश्चोत्तराक्षरम् । एवमन्ये(न्य)वर्गेभ्योऽक्षराः प्राप्नुवन्ति । उत्तराक्षरा अधराक्षरे[ण अभिहन्यमाना लब्धवर्गेऽधराक्षरं प्राप्नुवन्ति । यथा ककारः खकारेणालिंगित[:] चवर्गे अधराक्षरं प्राप्नोति, अधरानुवलितत्वात् । अथवा चास्या गाथाया अन्यथा 30 [प० १४४, पा० १]व्याख्यानम् - अधरस्वरा उत्तरैर्हस्वैः स्वरैरनुवलिता ह्रस्वस्वरमेवान्यतमं लभन्ते। भित्रादर्श ३-४ पंक्तयो विनष्टाक्षरा लभ्यन्ते । 25 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २५४-२५५ अनुवलितमेव लभ्य(भ)न्ते (?) उत्तरा ह्रस्वाः(?) 'अइ एउ' इत्येते अधरेण स्वरेणाभिहन्यमान अधरमेव स्वरं अनुवलितमभिलभत(न्त) इति ॥ २५३ ॥ एवं अहर चउक्के, आइल्लो पच्छिमो व एमेव । चउ तिय एकं कमसो, हस्सेसु हवंति आदेसा ॥ २५४ ॥ अनानुपूर्वीमंग(गी)कृत्य अधरचतुष्कं 'कट प शाः चत्वार आद्या भण्यन्ते ।[प० १४४, पा०२ अथवा पश्चाद्भवन्तीति पश्चिमाः ‘क ट प शाः' । ककारः अकारवर्गश्च(स्य १) पश्चिमो भवति । एवं ने(ज्ञे)यम् । एतदन्यतमाधिके प्रश्ने मध्यमलाभ आदेश्यः । 'अ च त या' आद्याः। उत्तराः तदन्यतमाधिके प्रश्ने उत्कृष्टलाभ आदेश्यः । एषां 'अ च त या'नां मध्ये अकार चकारधिके प्रश्ने उत्कृष्टो लाभ आदेश्यः । एषा(वं) 'कट प शा'नां मध्ये पकार-शकाराधिके 10 प्रश्ने अधमलाभ आदेश्यः ॥ २५४ ॥ जह चेव सरनिवेसो, भणिओ तह चेव वंजणेसुं पि । एमेव [वि]रइयबो, णिरंतरं जाव उ हकारो ॥ २५५ ॥ अथवाऽस्य (स्या)गाथाया विस्तरेण स्वरव्यंजनवि[प० १४५, पा० १]भागेनाक्षरोत्पादनं प्रस्तारचतुष्टयं पंचवर्गीये तत्र प्रथमतरं यथा- तिर्यक् चतुर्दशगृहकाणि ऊर्ध्वं [न]व च । 15 एवं विरच्याक्षरन्यासः-अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः। अ। एवमेषा प्रथमा पंक्तिः। इ क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः । उ। प्रथमाया अधः द्वितीया । उ । च चा चि ची चु चू चे चै चो चौ चं चः। तृतीया। ऊ । ट टा टि टी टु टूटे टै टो टौटं टः । ट य ऐ । चतुर्थी । ए। ती तु तू ते ते तो तौ तं तः । त ता ति । उ । पंचमी। ऐ। पु पूपे पै पो पौ पंपः । पपा पि पी । । षष्ठी। ओ । यु यू ये यै यो यौ यं यः। य या यि यी । ए । सप्तमी । औ । [प० १४५, पा.२] 20 शे शै शो शौ शं शः । शशा शि शी शुशू । अष्टमी । अं अः ओ औ ऐए ऊ उई इ आ अ । इ। नवमी। एवमेता नव पंक्तयः अधोऽधः स्थाप्याः । एवं यथा पंचवर्गेषु दर्शितस्तद्वदन्येऽपि'ख छ ठ थ फर ष । ग ज ड द ब ल स । घ झ ढ ध भ व ह । इत्येते क्रमेणालिख्य पंचवर्गी[याः?] पंचप्रस्तारा दर्शनीयाः। एकैकस्मिन्प्रस्तारा(रे आ?)दौ अक्षरं दृष्ट्वा प्रस्तारे तदा(द)वलोक्याक्षरत्रयप्राप्तिः विज्ञा(ञ)या, इति । कथं ?[प० १४६, पा० १] प्रश्नादौ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्मात्रा(त्री)मक्षरमवलोक्य 2 ऊर्द्धमात्रे ऊर्द्धगण्याक्षरं गृह्यते । यथा गौरित्यस्मिन् दृष्टे उपरिष्टात् स्वरसंख्यया एते त्रयाणां त्रयाणां दशमस्य दशमस्य [अ]धरत्वादौ ककारस्य गजविलुलितक्रमो यथा-तौ दौ, के, ए ऐ ओ औ अं अः इत्यादि । एवं सिंहेन विपर्ययः । अय(त्र?) मात्रयाधस्ताल्लाभः । तिर्यक्करणद्वयप्रयोगतो लाभो वक्तव्य इति । "जो उ सराण[प० १४६, पा० २]विभागं दंसेदी" तीता(तो?) गाथास्वरविभागो दर्शनो(र्शितः)। पूर्वस्य प्रस्तारस्य किंचिद्विशेषेण लिख्यते-तिर्यय(ग) द्वादश-गृहाणि ऊर्द्रमास्तो 30 (मष्टौ) द्रष्टव्यानीति।न्यासः-अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः। प्रथमा पंक्तिः । अस्याधस्तात् क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः[प० १४७, पा० १] । क । एषा द्वितीया । अस्याधस्तात्-चि ची चुचू चे चै चो चौ चं चः। च चा । अस्याधस्तात्-टी टु टूटे टै टो टौ टं टः।[ट टा टि] । अस्याधःतु तू ते ते तो तौ तं तः । तता ति ती। अस्याधस्तात्-पूपे पै पो पौ पंपः । पपा पि पी पु। अस्याधस्तात्-ये यै यो यौ यं यः, य या यि यी यु यू । अस्याधस्तात्-शै शो शौ शं शः । [५० १४७, पा० २] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २५६-२५९] प्रश्रव्याकरणाख्यं [श शा शि शी शुशू शे] एवं विरच्य(च्या)क्षरग्रहणं सिंधा(हा)वलोकित-गजविलु(लि)तकरणद्वयन्यासेन ऊर्ध्वाधस्तियङ्मात्राकल्पनयाऽक्षरत्रयस्य पूर्ववत् । एवं पंच प्रस्तारान्या(ण्या)लिख्य(ख)नीयानि 'क ख ग घा' इत्यादिभिरपि वगैरिति ॥ एवं स्वरविभागो दर्शितः ॥ २५५॥ ___ "एमेव वंजणाणं, विभावणो अट्रमो करणो" ॥ [प० १४८,पा० १]स च प्रथमस्वरपंक्तिरहितो लिख्यते - अत्रापि पंचवर्गीये पंचैव शेषक्रमः समानाक्षरग्रहणं चेति "दंसेति सवग्गक्खर-संजो। गाथा । स्ववर्गाक्षरं संयोगकरणमुपरिष्टाद् ग्रन्थेनैवाभिधास्यति । लभते ककारो गुरुः। कोऽसौ ? स(स्व)वर्गमित्यादिना इति । "परवग्गक्खर" इति । तत्र संयोगोऽनेकधा [प० १४८, पा० २] स्ववर्गसंयोगः, परवर्गसंयोगः, अद्धाक्रान्तसंयोगमि(गइ)ति । अत्रैव ककारो लभत इति दर्शयिष्यति । एगादीया कमसो, एक्कोत्तरवडिया मुणेयवा । अधरेसु य आदेसा, एस समत्तो सरविभागो ॥ २५६ ॥ इदानीं प्रागुपन्यस्तसप्तमस्वरविभागकरणचक्रव्यतिरिक्तविशेषाक्षरोपलब्ध्यर्थमाह-'एक्का(गा)दीया' इति । य एते द्वादश स्वराः । एते एकादिका एकोत्तरवृद्ध्याश्च(च)। स्थापना अत्र । [५० १४९, पा० १] अपरे श्चा(चा)देशाः । अक्षरलब्धिरादेशः । वर्गलब्धिर्वा । न केवलमधरस्वरेषूत्तरस्वरेषु च । कथं ? अकारः प्रश्नादौ अनभिहतासंयुक्त अकारवच(श्च') नवसंख्यो(ख्या)काकारं भित्त्वा अकार अष्टापगमे ककारमेव लभते । तन्मध्ये उकारः पंचसंख्यः तवर्ग " लभते । एवं आकार(रो) द्विसंख्यचकारं लभते । अधस्तादशमं भित्वा अष्टाय(प)गमे च ककारमेव । मध्ये तु ऊकारी(रः) षट्(ष्ठ)पवर्ग लभते । एवं त्रयाणां [प० १४९, पा० २] त्रयाणां प्राप्तिर्द्रष्टव्या । एवं स्वरविभागः । उक्तः सप्तमप्रस्तारः प्रपंचेनेति ॥ २५६ ॥ उत्तरसु(स)राणुवलिओ, लहइ ककारो ककारमेवन्नं । अहरभिहओ खकारं, सेसा पुवावरेणेकं ॥ २५७ ॥ यदुक्तमादौ व्यंजनविभागाष्टमः करणमिति । तस्मादयं लघुतरः प्रयोगः । उत्तरखराः, के ? 'अइ एउ' एषामन्यतमानां ककारो युक्तः कवर्गे उत्तराक्षरं प्राप्नोति उत्तरानुवलितत्वात् । एवमन्येऽप्युत्तराक्षरा अनभिहि(ह)ता उत्तरस्वरयुक्ता उत्तराक्षरं खवर्गे लभंते । अधरखराः, के 'आ ई ऐ ओ' इत्ये[प० १५०, पा० १] तेषामन्यतमेन ककारो युक्तः चवर्गे अधराक्षरं प्राप्नोति । शेषाः पूर्वाक्षरेणैकं लभन्ति । उत्तरानुवलितो(तः) अधरानुवलित इति पूर्वापरमुच्यते । एवम- 8 न्येऽप्यक्षरा द्रष्टव्याः ॥ २५७ ॥ ॥व्यंजनविभागोऽष्टमः समाप्तः॥ बीओ पढमेण सम, गुरुओ चत्तारिमो तइजेण । सेसा सकायगरुया, वग्गे वग्गे भवे तिण्णि ॥ २५८ ॥ द्वितीयोऽक्षरः प्रथमेन [प० १५०, पा० २] युक्तो गुरुर्भवति । यथा 'क(क्ख)। चतुर्थोऽक्षर- 30 स्तृतीयाक्षरेण युक्तो गुरुको यथा 'ग्घ' इति । शेषाः स्वकायगुरुणा(काः) 'वग्गे वग्गे हवई' तिण्णि वर्गे वगै त्रयस्त्रयो(यः) 'कग्गडु' इत्येष क्रमः प्रतिवर्गे द्रष्टव्यः ।। २५८ ॥ अणुणासिया य जुजइ, आदिल्लचउक्कए सवग्गस्स । सत्तट्ठमो य कमसो, सक्का(का)यगरुआ मुणेयवा ॥ २५९ ॥ नि. शा०८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २६०-२६२] अनुनासिका ङ अ ण न माः, ते युज्यन्ते आद्यचतुष्केण वर्ग (स्ववर्गेण?) यथा-कल ग। चन्छ अझ। ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ढ । न्तन्थन्द न्ध । म्प म्फम्बम्भ । सप्तमो यकारः। अष्टमो(मः) शकारः । इत्येतौ स्व-स्वकायगुरु(रू) ज्ञेयौ । [प० १५१, पा० १] यथा 'य्य इश' इति ॥ २५९॥ पढमो तदियं वग्गं, विदिओ य चउत्थयं चउत्थो य । पंचमओ पुण णिचं, चउत्थया यादए वग्गं ॥२६०॥ [५० १५१, पा० २] | अ आ इ ई प्रथमवर्गस्तृतीयवर्गी(ग) तृतीयवर्ग(गों) द्वितीयवर्ग च प्राप्ततः । ३ ४ (प्राप्नोति) । द्वितीयो वर्गश्चतुर्थवर्ग लभते । चतुर्थः पंचमं प्राप्नोति । ए ऐ पंचमो वर्गश्चतुर्थं प्राप्नोति । किमत्र कारणमित्यत्रोच्यते-च(ख)कार18 | ५ ६ ७ ८ स्याग्रतो यदा ककारो दृश्यते तदा तेन ककारेण खकारो(र) आलिंगित । अं अः इत्येका(कां) संख्या(ख्या) त्यक्त्वा खकार[:] ककारो [प० १५२, पा० १] | ९ | १० | ११ | १२ न भवति । गकारस्याप्रतो यदा खकारो दृश्यते तदा तेन खकारेणालिंगित इत्येकसंख्या(ख्यां) त्यक्त्वा स गकारः] खकारो भवति । घकारस्याग्रतो यदा खकारो दृश्यते तदा तेन खकारेणाभिधूमित इति द्वे संख्ये ह्रसित्वा घकार[:] खकारो भवति । कारो 15 घकारेणाप्रतः स्थितेन यदा आलिंग्यते तदा एका(कां) संख्यां त्यक्त्वा डकारो घकारमापद्यते । एवमन्ये[७] वर्गेष्वपि ये आलिंग्यन्ते अभिधूम्यन्ते वा आकारास्तेनैवाभिहितक्रमेण द्रष्टव्याः॥२६॥ ॥ खवर्गसंयोगकरणं समाप्तम् ॥ [प० १५२, पा० २] ओ परवग्गक्खरगरुआ, पढमं पावंति अप्पणो वग्गं । अणुवलिता[?या]भिहता, लभंति पुवावरेणेकं ॥ २६१ ॥ परवर्गा[क्ष]रगुरवः प्रथमं प्राप्नुवन्त्यात्मनो वर्ग इ(मि)ति । यः उपर्यक्षरः स आत्मवर्गा(ग)प्रतिबद्धाक्षरं लभते। के ते प[र]वर्गाक्षराः ? ते उच्यते । 'स्त आद्य ह' इत्येवमाद्या ज्ञेयाः । अनुवलितशब्दः आलिंगितपर्यायः । [प० १५३, पा० १] खकारेण यदा ककार आलिंग्यते तदा आलिंगितत्वात् एका संख्या हति(ह्रसित)त्वात् ककारः चकारत्वं प्राप्नोति । चवर्गप्रतिबद्धाक्षरं च लभते । घकारः खकारेण?अभिधूमयि(य)त्यभिधूमितत्वात् द्वे संख्ये 25 ह्रसि[त]त्वात् ] स प्य(घ)कारः खकारमापद्यते । खकारप्रतिबद्धाक्षरं च प्राप्नोत्येवमन्येऽपि । ड(ङ)कारो जकारेणाप्रतो[व]स्थितेन [प० १५३, पा० २] दह्यते । दग्धे सति संख्यात्(...?)षष्ठखकार लभते । खकारप्रतिबद्धाक्षरं च प्राप्नोत्येवमन्येऽपि आलिंगिताऽभिधूमितदग्धाः स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं प्रामुवंति पूर्वा(र्ष)पर्यायेणेति । आलिंगिताभिधूमितदग्धं च दर्शयन्ति ॥ २६१ ॥ ॥ परवर्गसंयोगकरणं समाप्तम् ॥ सीहाविलोविउ(वलोइओ) पुणो, दुआदि कमसो बहुविया(हा?)देसो । संयो(जोगवियप्पणं, पावंति [य] लोयणेणं वा ॥ २६२ ॥ 'अ इ ए ओ' इत्येतेह(तैर्ह)स्वस्वरे(३)श्चतुर्भिर्युक्ताः 'क च ट त प य शा'द्याः पंच वर्गाः सिंहावलोकितन्यायेन आत्मनो [प० १५४, पा० १] यः उपर्यक्षरोऽनन्तरं स(तं) प्राप्नुवन्ति । 'आई ए Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २६३-२६६] प्रश्नव्याकरणाख्यं ५९ औ' इत्येतेदी(तैर्दी)घस्वरैश्चतुर्भिर्युक्ताः क च ट त प य शा' द्याः पंच वर्गा गजविलुलितन्यायेन आत्मनोव(ऽध)स्ताद्यः अक्षरोऽनन्तरः तं प्राप्नुवन्ति । निदर्शनं च-ककारो हस्वस्वरयुक्तः अकार प्राप्नोति । चकारोऽपि ककारं प्राप्नोति । एवं सर्वत्र सिंहावलोकितन्यायेन द्रष्टव्यम् । दीर्घखरयुक्तः ककारश्चकारं प्राप्नोति । चकारो दीर्घस्वरयुक्तः टकारं प्राप्नोति । टकारोऽपि [तकारं प्राप्नोति ।] तकारोप्य(ऽपि)[पकारं] प्राप्नोत्येवं पंचवर्गप्रतिबद्धाक्षरा [प० १५४, पा० २] गजविलुलितन्यायेन । द्रष्टव्य(व्या) इति ॥ २६२ ॥ पत्तो वि परं ठाणं, आइल्लं यं पुणो पलोएइ । सिंहावलोइकरणं, एयारसमं मुणेयवं ॥ २६३ ॥ प्राप्नोति(प्तोऽपि) परं स्थानं तस्मात्परस्थानात् पूर्व यस्मादालोकयति तथाभिहितं सिंहावलोकितकरणं एकादशमं भवति । सिंहश्वातिक्रान्तं पश्यतीति ॥ २६३ ॥ ॥सिंहावलोकितकरणं समाप्तम् ॥ [प० १५५, पा० १] लोएइ पुत्वभणियं, करणो गयविलुलिओ महा भणिओ। सूरकरविपर(पवि?)ट्ठो, गउ व सरपाणियं सरए ॥ २६४ ॥ लोलयति पूर्वोक्तं गजविलुलितमहाकरणोऽग्रिमं अक्षरं पश्यति स्व(सू)रकराहतो गज इव सरसिकालं(शरत्काल?) इव अग्रिममक्षरं पश्यति । लोलयत्यन्विषतीति वाक्यार्थः ॥ २६४ ॥ ॥ चत्तारि मूलवत्थुणि, वहं(हवं)ति म(ग)यविलुलियस्स करणस्स । सरवंजणेण [५० १५५, पा० २] कमसो, सवग्ग-परवग्गजोए य ॥ २६५ ॥ चत्वारि मूलवस्तूनि भवन्ति गजविलुलितस्य करण[स्य] । स्वरवस्तु, व्यञ्जनवस्तु । व्यञ्जनान्यक्षराणि । स्ववर्गसंयोगवस्तु, परवर्गसंयोग[व]स्त्विति ॥ २६५ ॥ तत्थ सरवत्थु तिविहो, संकड-वियडा य मीसया चेव । पढमाण विवि(ति)य तहि(इ?)या, चरिमाणं आदिमा पक्खा ॥ २६६॥ तत्र स्वरवस्तु त्रिविधः । संकटं, [५० १५६, पा० १] विकटं, संकटविकटं चेति । प्रथमाः 'क च ट त प य शास्तै (ढेि)तीयानां 'ख छ ठ थ फर षा'णामुपरिगतैः संयोगः । 'ग जड द ब ल सा' 'घ झ ढ ध भ व हानामुपरिगतेख(तैश्च)संयोगः । चरिमा 'अ ण न मा'स्तैः सर्वेषामेवाक्षराणां उपरिगतैः संयोगश्चेति सूत्रम् ॥ अथवाऽस्या गाथाया अन्यथा व्याख्या कृ(क्रि)यते- 25 "तत्थ सरवत्थु प०.१५६, पा० २] तिविहो" इति । संकटाः 'अइए उ अं'। विकटाः 'आई ऊ अ'। संकट-विकटाः 'ओऐ औ' । पंचवर्गीयो(या) वर्गा अपि । प्रथम-तृतीयौ संकटौ। द्वितीयचतुर्थो विकटौ। पंचमः संकट-विकट इति ॥ 'पढमा बिदियाण चरिमा' इत्यत्र स्वरेषु प्रथमद्वितीयौ 'अ आ', चरिमौ 'अं अः । एषां तुल्यता। कथं ? अकारस्य अनुस्वारः सपक्षत्वात् संकट एव भवति । अकार-विसर्जनीयौ द्वादशमः स्वपक्षः, अतो विकटोऽयम् । सपक्षता परस्परं मैत्री- 30 भाव इति ॥ २६६ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २६७-२७० ] आइल्लाणं दोण्हं, सबे वि सरा हवंति सरिपक्खा । [५० १५७, पा. १] पंचम-चउत्थ-णवमा, होइं(हों)ति इकारस्स सरपक्खा ॥ २६७ ॥ आद्यौ द्वौ स्वरौ 'अ आ' तयोः सर्वे स्वराः भवंति मित्राणि । पंचम उकारः, चतुर्थ ईकारः, नवम ओकारः । इत्येते त्रय इकारस्य मित्राणि ॥ २६७ ॥ अट्ठम-दसमा दोण्णि वि, एते सत्तमसरस्स सरिपक्खा । एकारस-बारसमा, छट्ठो हवंति उकारसरिपक्खो(क्खा) ॥ २६८ ॥ अष्टम ऐकारः, दशम औकारः । इत्येते द्वौ सप्तमस्वरस्य एकारस्य मित्राणि । एकादशमस्वर[ 'अ', द्वादशमस्वर] 'अ' षष्ठस्वर ओ(ऊ)कारः । एते त्रय(श्च) उकारस्य मित्राणि । ऐकारौकाराणं, दुविहा [५० १५७, पा० २] दिट्ठी उ होइ नायबा । __ जइ उत्तराणुवलिया, लहंति तो संकडा एदे ॥ २६९ ॥ ऐकारस्य औकारस्य च द्विविधा संज्ञा संकट(टा) विकटा चेति । प्रयोजनमुपरिष्टादक्ष्यति । 'अ इ एउ' इत्येते स्वराश्चत्वारः संकटसंज्ञाः । एतैरुप[रि]गतैः 'क च ट त प य शा'द्याः पंचवर्गाक्षराः संकटसंज्ञा भवंति । एतैरेव संकटस्वरै प० १५८, पा० १]र्युक्तानां अक्षराणां विद्यमानाभिघाते शोधिते सति योऽक्षर उत्पद्यति संकटविधिना लभ्यत इति संकटसंज्ञा ॥ २६९ ॥ अधरबलेण य वियडा, उत्तरअहरेण मिस्सया होति । अहरुत्तरेण वि(?)सेसं, लक्खेज बलाबलविसेसं ॥ २७० ॥ 'आई औ' इत्येते त्रयो विकटसंज्ञाः । एतैर्युक्ताः क च ट त प य शा'याः पंच [प० १५८, पा० २]वर्ग:(र्गाः?) संकटसंज्ञा भवन्ति । एतैरेव विकटस्वरैर्युक्तानां अक्षराणां विद्यमानाभिपाते 0 शोधिते सति योऽक्षरः प्रश्न आकारयुक्तः स आलिंगितत्वात्स्वरसंख्यया द्वितीयवर्ग प्राप्नोति । यथा ककार आकारेणालिंगितो द्वितीयवर्गं प्राप्नोति । (यथा ककार आकारेणालिंगितो द्वितीयवर्ग प्राप्नोतीति।) [प०१५९, पा० १] तस्मिनप्यधराक्षरो(रा)नुवलितत्वाधराक्षरम् । स एव ककार इकारेणाभिधूमितो टवर्गमिश्रांतस्वरसंख्यया पवर्ग प्राप्नोति । तस्मिन्नप्यधरानुवलितत्वादधराक्षरम् । स एव ककार उकारयुक्तेन दह्यते । दग्धः स वर्गे मिश्रांतवरसंख्यया तवर्ग प्राप्नोति । तवर्ग 25 उत्तरानुवलितत्वादुत्तराक्षरम् । एभिः स्वरैस्तृ(खि)भिरन्येऽप्य[प० १५९, पा० २]क्षराः पूर्वोक्तन्यायेन द्रष्टव्याः। 'ऊ ऐ औ' इत्येते त्रयः संकट-विकटसंज्ञाः । एतैर्युक्ताः पूर्ववर्गी[याः] पंच संकटविकटसंज्ञा भवन्ति । एतैः संकटविकटैयु(यु)क्तानां अक्षराणां अभिघाते शोधिते सति संकट-विकटप्रकारेण योऽन्योऽक्षरो लभ्यते स संकट-विकटसंज्ञः। आलिंगिताभिधूमितदग्ध-लक्षणवर्गप्राप्तिश्च पूर्वाभिह(हि?)ता । लक्षयेत् बलाबलविशेषमिति । येऽक्षरा आलिंग्यन्तेऽभिधूम्यन्ते दह्यन्ते वा " तेषामा ५० १६०, पा० १]भिघातशुद्धानां या(यः) संख्याधिको भवति स बलीयान् तेनादेशः कार्यः ॥ २७०॥ + लेखकप्रमादात् आदर्श द्विरुक्तः पाठोऽयम् । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २७१-२७३ (१-८)] प्रश्नव्याकरणाख्यं जो य इकारो(रे) गमओ, इ(ई)कारम्मि वि वियाण सो चेव । जो ए(य उ?)कारे गमओ, क(ऊ)कारे हवइ सो चेव ॥ २७१ ॥ इकारस्य ईकारस्य च द्वयोरस्ति प्रीतिस्तबहुले प्रश्ने 'प्रीति, भविष्यतीति ?' पृच्छन्तो(तोऽस्ति प्रीतिरित्यादेश्यम् । ए(उ)कारस्य [ऊकारस्य] च द्वयोरस्ति प्रीतिस्तद्बहुले प्रश्ने 'प्रीतिरनेन सह मे भविष्यतीति ? चिन्ता(न्त)यतोऽस्ति प्रीतिरित्यादेश्यम् ॥२७१॥ [प० १६०, पा० २] : ऊकारे जं वुत्तं, छठे एयारसे य बारसमे । होइ सरे तं सबं, सवत्थ बलाबलविसेसो ॥ २७२ ॥ उकारस्य ऊकारेण अकारेण च सानुस्वारेण सविसर्गेण च सह प्रीतिः । उकाराधिके प्रश्ने एषां स्वराणामन्यतमे दृष्टे प्रीतिं पृच्छतोऽस्ति प्रीतिरिति वाच्यम् । बलाबलविशेषश्च द्रष्टव्यः। . अनभिहतो अलियां (बलीयान्) अभिहतो दुर्बलः । प्रथमो भेदः स्वरवस्तु ॥ २७२॥ ॥ इदानीं [प० १६१, पा० १] व्यंजनविभागकरणस्यादेशं कुर्वन्नाह जो चेव पुत्वभणिओ, संजोओ वंजणाण परि(य वि?)भाओ। सो चेव इहं सबो, गयविलुलियवत्थुए बीए ॥ २७३ ॥ य एव पूर्वोक्तव्यंजनानां स्वराणां च संयोगविभागस्तस्याक्षरोत्पत्तौ उपरिष्टाद् वर्णयस्य(यिष्य)ति गजविलुलितन्यायेन । एवं द्वितीयो भेद(दो) व्यंजनविभाग उक्तः ॥ २७३ ॥ ॥ लहति ककारो गरुओ, सवग्गय(ग्गिय?) खकारसंजुओ च-वग्गं ।। अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ ट-तवग्गं(ग्गे) ॥ (१) लभति गकारो गरुओ, सवग्गय(ग्गिय?) घकारसंजुओ प-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ य-स-वग्गं(ग्गे) ॥ लल(भ)ति चकारो गरुओ, [प० १६१, पा० २] सवग्गयंछकारसंजुओ ट-वग्गं।। अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ त-प-बग्गे ॥ लहइ जकारो गरुओ, ज(स)वग्गयं झकारसंजुओ [य] वग्गं ।। अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ स-क-वग्गे ॥ लहइ ट्रकारो गरुओ, सवग्गयं ठकारसंजुओ त-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ प-य-वग्गे ॥ लहइ डकारो गरुओ, सवग्गय प० १६२, पा० १] ढकारसंजुओ स-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ क-च-वग्गे ॥ लहइ चकारो गरुओ, सवग्गयं थकारसंजुओ प-वग्गं । अणुणांसियसंजुत्तो, कमसो पावेइ य-स-बग्गे ॥ लहइ दकारो गरुओ, सवग्गयं धयारसंजुओ क-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ च-ट-वग्गे ॥ (८) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) (११) जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २७३-(९-१४)] लहइ पकारो गरुओ, सवग्गय [प० १६२, पा० २] फकारसंजुओ य-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ स-क-वग्गे ॥ लभइ य(ब)कारो गरुओ, सवग्गयं ह(भ)यारसंजुओ स(च) वग्गं ।। अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ ट-त-वग्गे ॥ (१०) लहइ ष(य)कारो गरुओ, सवग्गयं रयारसंजुओ स-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ क-च-बग्गे ॥ लहइ लकारो गरुओ, सवग्गयं वयारसंजुओ ट-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ त-प-वग्गे ॥ लभइ स(श)कारो गरुओ, सवग्गयं स(ष)कारसंजुओ क-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ च-ट-वग्गे ॥ लहइ सका[प० १६३, पा० १]रो गरुओ, सवग्गयं हकारसंजुओ त-वग्गं । अणुणासियसंजुत्तो, कमसो पावेइ प-स(य)-वग्गे ॥ (१४) चतुर्दशानामपि गाथानां स्ववर्गसंयोगवस्तुप्रदर्शकं प्रस्तारमुपदर्शयन्नाह -तिर्यक्चतुर्दशगृहाणि, ऊर्दू सप्त कृत्वा प्रथमा पंक्तिः । क, क, क्ख, च, क, ट, त, ग्ग, ग, ग्घ, प, ग, य, Is स(श) ॥१॥ अस्याधस्तात् -च, च, च्छ, ट, श्व, त, प, ज, ज, ज्झ, य, ख, स(श) क ॥२॥ अस्याधः-ह, ट, ह, त, ण्ट, प, य, डु, ड, ड्, स(श), ण्ड, क, च ॥ ३ ॥ [प० १६३, पा० २] अस्याधस्तात्-त्त, त, स्थ, प, न्त, य, स(श), ६, द, दु, क, न्द, च, ट ॥ ४ ॥ अस्याधः-प्य, प, एफ, य, म्प, स(श), क, ब्ब, ब, ब्भ, च, श्व(म्ब), ट, त ॥१॥ अस्याधः-य्य, य, र्य, स(श), य, क, च, ल्ल, ल, ल्व, ट, लँ, त, प॥६॥ अस्याधः-इश, श, ष, क, स(श), 20 च, ट, स्स, स, स्ह, त, सँ, प, य ॥ ७ ॥ यथा श्रुतिरेवाक्षरलब्धिरिति ॥ [गाथाचतुर्दशकानुसारेण कोष्टकमिदं स्थापितम्-] च्छ ण्ट श 25त्त | त स्थ पन्त पफ य प श कब ब | ब्भ श्श इष क स्स य Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं एवं तु सभावस्था, लहंति अह अणुवलाभिघाएणं । दिट्ठा पुवावरओ, लहंति तो णंतरं वग्गं ॥ २७४ ॥ [ गाथा २७४ -२७९] एवं तु स्वभावत एव प्रस्तारेण लब्धिरुक्ता । प्रश्नाक्षराणामधरधातु (रानु ?) वलितत्वाच्चाक्षरं लक्षयेत् । उत्त[१० १६४, पा० १ ]रान (नु ) वलितत्वाच्च आलिंगिताभिधूमितदग्धाच्च तमेवाक्षरं यथोक्तं यथा लक्षयेत्। पूर्व्या(र्च्च ? ) क्रमेण पूर्वोक्ताभिघातसु (शु) द्धेन आलिंगितत्वादनन्तरं वर्ग लभते । । अभिधूमितत्वात् द्वितीयवर्गम्, दग्धत्वात् तृतीयं वर्गं यथा प्राप्नुवंति तथा पूर्वोक्तम् । स्वरवर्गाक्षरसंयोगवस्तु तृतीयम् ॥ २७४ ॥ इदानीं चतुर्थो भेदः - [प० १६४, पा० २ ] परवग्गक्खरगरुया, अ(ज) त्तियमित्तेहि पण्ह आइल्ला । ते सधे पत्तेयं, पढमं पावंति संठाणं ॥ २७५ ॥ प्राक्षराणां मध्ये यावन्मात्राः परवर्गाक्षरगुरवो दृश्यन्ते तेषामुपरि अक्षरो यः स 10 प्रत्येकं प्राप्नोत्यात्मनो वर्गम् । उत्तरानुवलितत्वात् उत्तरं, अधरानुवलितत्वादधरमिति ॥ २७५ ॥ सेसा सकायगरुया, सबे वि लहंति अप्पणी वगं । साण विएस कमो, सव (ब)त्थ बलाबलविसेसो ॥ २७६ ॥ स्वकाय गुरुव (रवः) सर्वे [ १० १६५, पा० १] यथा प्राप्नुवन्त्यात्मनो वर्ग तथा उक्तमेव । शेषाणामेष क्रमः । शेषमहणेना लिंगिताभिधूमित दुग्ध (ग्धा ) भण्यन्ते । ते यथा स्व[व] प्रामु- 1s वन्ति तथा पूर्वमेवोक्तम् । सर्वत्र बलाबलविशेषो द्रष्टव्यः । इत्यभिहन्ता बलीयानी (नि)ति ॥२७६॥ ॥ चतुर्भेदं गजविलुलितं समाप्तम् ॥ पहाइमसंखाए, जाणिज्जा तंमि वग्ग एक्केकं । नामक्खरं तु लब्भइ, एवं से[ से] सुवि कमेणं ॥ २७७ ॥ प्रश्नादिमस्याक्षरस्य वाऽनवि ( भि) हतस्य या संख्या तया नामा १० १६५, पा० २ ]क्षरसंख्या 20 ज्ञेया । स एवानभिहतः स्ववर्गाक्षरं लभते । एवं येऽपि तत्राबलिष्ठा अभिहतास्तेऽपि स्ववर्गाक्षरं लभन्त एव ॥ २७७ ॥ I जत्थऽट्टगाइरित्ता, हवंति तत्थऽद्वयं विसोहेत्ता । जं तत्थ हवाइ सेसं, तं मिंद्रा (?) णामक्खरवग्गे ॥ २७८ ॥ ६३ प्रश्नाक्षराणां निपतितानां यदा एभ्यो अक्षरेभ्योऽभि (ति) रिक्ता [अ]क्षरा भवन्ति तदा तेषां या संख्या सौssद्याक्षराष्ट्रकमध्ये शोधयित्वा अष्टभिभा (र्भा) गमपहृत्य लब्धावसि (शि)ष्टाच 25 द्वौ वर्गों लभ्येते । [ ५० १६६, पा० १ ] कवर्गादिगणनया च तौ गण [ यि]तव्यौ । उत्तराक्षरबहुले प्रश्ने उत्तराक्षरो लभ्यते । अधराक्षराधिके प्रश्ने अधराक्षर इति ॥ २७८ ॥ एवं तु सभावत्थे, कीरइ णामक्खराण उत्पत्ती । अणुवलिहा (या) भिया वि य, पुवावरवग्ग एक्केकं ॥ २७९ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा २८०-२८३ ] प्रश्नाक्षराणां मध्ये ये अक्षरा अनभिहताः स्वभावस्था उच्यन्ते तैः स्वभावस्थैरात्मीयवर्गाणाम(र्गनामा)क्षराणामुत्पत्तिज्ञेया । कथं ? उत्तरा(रः) सन् उत्तराक्षरं प्राप्नोति, अधराक्षरोऽपि अधराक्षरम् । [प० १६६, पा० २]अभिहतग्रहणेन आलिंगिताभिधूमितदग्धा मु(उ)च्यन्ते । तेष्वभिहतेषु अभिघातसंख्या शुद्धशुद्धशेषेषु यस्मिन् यस्मिन् वर्गे ते शुद्धशेषाः, तस्मिन् तस्मिन् वर्गाक्षराः प्राप्नुवन्ति । पूर्वापर्य चालिंगिताभिधूमितदग्धलक्षणमेव संख्याकरणं नाम ॥ २७९ ॥ अट्ठयवग्गस्स भवे, गुणयारो सेसयाण एकेकं ।। परिहायंतं कमसो, [प० १६७, पा० १] चरिमो एकेकओ सरिसो ॥२८०॥ स्वराणामष्टभिर्गुणाकारः । ‘क ख ग घ ङा' सप्तभिर्गुणाकारः । 'च छ ज झा(झ) यां' षनिर्गुणाकारः । 'ट ठ ड ढा (ढ)णां' पंचभिर्गुणकारः । 'त थ द[ध] नां' चतुर्भिर्गुणकारः । " प फ ब भा(भ) मां' तृ(त्रि)भिर्गुणकारः । य र ल वां' द्वाभ्यां गुणकारः । श ष स हा'नां एकै (के नै)व गुणाकारः । प्रश्नाक्षरस्वरसंख्यापिंडमेकीकृत्य प्रश्ना[प० १६७, पा० २]क्षराणामादौ अक्षरो यस्तदुक्तवर्गसंख्यया ९ संगुण्याष्टाभिर्भागे कृते लब्धशेषा च कवर्गादिवर्गो शेयः । निदर्शनं यथा- तावत्प्रश्नाद्यक्षरः ककारवर्गप्रतिबद्धः । तत्प्रतिबद्धस्व (श्च) सप्तसंख्यागुणाकारः । तस्मात् प्रभाक्षरपिंडं सप्तभिर्गुणयेत् । [प० १६८, पा० १] यदा प्रश्नादौ स्वरो दृश्यते ततो(दो)क्तस्वराष्टगुणकारेण प्रश्नाक्षरसंख्यापिंडं गुणयेत् । यदा प्रश्नाक्षरो हकारः तदा तद्वर्गप्रतिबद्धैकसंख्यया प्रश्नाक्षरसंख्यापिंडं गुणयेत् । एवमन्येषामपि प्रभाक्षराणामुक्तगुणकारेण प्रभाक्षरसंख्यापिंडं गुणयित्वा [त]द्भागमाहरेत् । प्रसंगेनोक्तमनु(मु)[प० १६८, पा० २]मेवार्थमुपरि गाथया पुनर्वर्णयिष्यति ॥२८॥ पण्हख(क्ख)रा उ सबे, आइम-गुणकारसंगुणा काउं । " वग्गट्ठएण विभाए, सेसाण(णा)मक्खरुप(प्प)त्ती ॥ २८१ ॥ प्रश्नाक्षराणां निपतितानां यदादौ उक्तस्वराष्टगुणकारेण गुणयेत् । सर्व-प्रभाक्षरसंख्यापिंडं(डे) यदा आदौ स्वरा(रो) नास्ति तदा आद्यक्षरस्य संबंधी ओ(यो) वर्गः तस्य गुणकारः तेन गुणयेत् । अष्टभिः भागेऽपहृते ल(ब्धा)वसि(शि)ष्टा(ष्टः) च-वर्गो ज्ञेयः। ये वर्गा लब्धास्तेषामुत्तराधरक्रमेण अक्षरोत्पत्तिईया ॥ २८१ ॥ [प० १६९, पा० १] पत्तेयं पत्तेयं, एवं पण्हक्खरेसु सन्वेसु । णियगुणकार(रे?) गुणिए, अट्ठविहि(ह)त्ते हवइ वग्गो ॥ २८२ ॥ प्रश्नाक्षरपिंडसंख्यामुक्तनिजगुणाकारगुणितं(ता) भाजयित्वा अष्टाभिर्यल्लब्धं तस्य शेषाञ्च पूर्वं तद्वर्गो शेयः । पूर्वगाथाया(यां?) नितरामेतद्[वि?]वृत्तं न पुनः विस्तरेणाख्यातम् ॥ २८२ ॥ चिंताए मुट्ठीए, णामे णक्खत्त सुमुणि(मिण)संखाए । . अट्ठविभाए छेत्ते, काले लेहक्खरेसुं च ॥ २८३ ॥ चिंतायां मुष्टौ नाम्नि नक्षत्रे स्वप्ने चाद्यक्षरसंख्यया नामाक्षरसंख्या ज्ञेया। [प० १६९, पा० २] अष्टाभिर्भागे । 'अष्टविभागे क्षेत्रे' इत्येतदुच्यते-पूर्वाऽऽग्नेयी याम्या नैर्ऋती वारुणी वायव्या कौबेरी ऐशानी - इत्यष्टविभागं क्षेत्रम् । तत्पूर्वविहितप्रक्रमेणा(ग) कालप्रमाणं वक्तव्यम् । लेखाक्षराश्च प्रश्नाक्षरैः पूर्वाभिह(हि)तक्रमेणैव विज्ञेयाः ॥ २८३ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं अण्णेसु एवमाइसु, कज्जेसु जहट्टि (च्छि ?) एसु ससु । गुणकारं काऊणं, अट्ठा प० १७०, पा० १] विहत्ते हवइ इच्छा ॥ २८४ ॥ अन्येष्वेवमादिषु कार्येषु यथेप्सितेषु प्रभाक्षरसंख्यापिंड माद्यक्षरवर्गाक्षरसंख्यया गुणयित्वा अष्टविभक्ते वर्गो लभ्यते । तमेव पूर्वोक्तमर्थ वर्णितवान् ॥ २८४ ॥ ॥ गुणाकारप्रकरणं समाप्तम् ॥ [ गाथा २८४ - २८९] पंचण्ह वि वग्गाणं, जस्स य वग्गस्स पण्हमादीए । वग्गक्खरं पईसइ, तंमि हु णामक्खरं [ १० १७०, पा० २] वग्गे ॥ २८५ ॥ पंचानामपि वर्गाणां 'कच ट त प य शा' यानां यस्य वर्गस्य प्रभादो अक्षरोऽनभिहतो दृश्यते तस्मिन् वर्गे एको नामाक्षरो लभ्यते ॥ २८५ ॥ : एवं तु सहावत्थे, बलाबल - विसेसओ जहा पुवं । एवं विपक्ख (क) राणं, गमओ संपक्ख (क) राणं च ॥ २८६ ॥ स्वभावस्थाः प्रश्नाक्षरा अनभिहतास्तेषु बलाबलविशेषेण यस्मिन् [ १० १७१, पा० १] वर्गे ते अक्षराः प्रतिबद्धास्तान् वर्गान् प्रति लभन्ते । विपक्ख (क) राः, के ? अधराक्षराः । संपत्कराचोत्तराक्षराः । उत्तरैरुत्तराक्षरा लभ्यन्ते । अधराक्षरैरधराक्षरा इति ॥ २८६ ॥ 1 वग्गक्खरंमि दिट्ठे, तत्तो वग्गक्खर (रा) पवत (त) न्ति । पढमं तइयं छट्ठ, नवमं च तहक्खरं जाणे ॥ २८७ ॥ वर्गाक्षरा इति । त एव प्रश्नाक्षरा उच्यन्ते । तेभ्यः प्रश्नाक्षरेभ्यः वर्गा[प० १७१, पा० २] - क्षराणामुत्पत्तिर्ज्ञेया । ये वा प्रथम- तृतीय - षष्ठ- नवम प्रश्नाक्षरा अनभिहता भवन्ति तदा ते स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं प्राप्नुवन्ति ॥ २८७ ॥ ॥ उत्तराधरानी (णी ) ति विभागप्रकरणं समाप्तम् ॥ णामक्खराण एसा, पयडी णामाण चेव य पहाणा । तह करणमाइयावि य, पंच य नामा भवे इत्थ ॥ २८८ ॥ ६५ T नामाक्षराणामेष सभावो वर्णितप्रधानः । तथा करणमातृकागृ (प्र) हणेन पंचचत्वारिंशदक्षरा भण्यन्ते । तेषामपि पंचभिः प्रकारैः अक्षरा लभ्यन्ते आलिंगिताभिधूमितदग्धोत्तराधरैः ॥२८८॥ णवमा ५० १७२, पा० १ १ मेसु एक्केकयं तु एक्कं उरेसु (रस्स ?) संठाणं । एमेव य कंठाणं, सत्तट्ठमएहि सह यो ( जो ) गो ॥ २८९ ॥ _उरस्य (स्याः), कंठ्याः, जिह्वामूलीयाः, तालव्याः, [मूर्द्धतालव्या: ? ], दंत्याः, उ (ओ)ष्ठ्याः, अनुनासिकाः, मूर्द्धन्या इति नव स्थानानि वर्णानाम् । तत्र नामान्या (?) मूर्द्धन्याः, तेषामन्यतम आलिंगितः यदा तदा अनुनासिकानां मध्ये अक्षरं लभति । अनुनासिकानामन्यतम आलिंगित नि० शा० ९ 10 15 20 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 25 ६६ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा २९०-२९४ ] ओष्ठा (या) नां मध्येऽक्षरं लभते । ओष्ठा (या) नामन्यतम आलिंगित:, [दन्त्यानां मध्येऽक्षरं लभते ? ] दन्त्यानामन्यतम आलिंगितः मूर्द्धतालव्यानां मध्येऽक्षरं लभते । मूर्खतालव्यानामन्यतम आलिंगितः तालव्यानां मध्ये[ प० १७२, पा० २]क्षरं लभते । उरस्यानामन्यतम आलिंगितः मूर्धन्यानां मध्येऽक्षरं लभते ॥ २८९ ॥ 30 पंचम- चउत्थयाणं, जीहामूलेहि होइ सह जोओ । तालबाणं जोगो, पढम - तइज्जेसु दोसुं पि ॥ २९० ॥ पंचम - चउत्थएणं, जोगो वग्गाण दन्तेहिं ॥ २९१ ॥ मूर्द्धन्यानामन्यतमो दुग्धो दन्त्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति । अनुनासिकानामन्यतमः [ १० १७४, पा० १] दुग्धो मूर्द्धन्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति । ओष्ठ्यानामन्यतमो दुग्धः तालव्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति । दन्त्यानामन्यतमो दग्धः जिह्वामूलीयानां मध्येऽक्षरं लभते । मूर्द्धतालव्या20 नामन्यतमो दग्धः कंठ्यानां मध्येऽक्षरं लभते । तालव्यानामन्यतमो दग्ध उरस्यानां मध्येऽक्षरं लभते । जिह्वामूलीयानामन्यतमो दुग्धः [ १० १७४, पा० २ ] मूर्द्धन्यानां मध्येऽक्षरं लभते । कंठ्यानामन्यतमो दग्धः अनुनासिकानां मध्येऽक्षरं लभते । उरस्थानामन्यतमो दग्धः ओष्ठ्यानां मध्येऽक्षरं लभते । उत्तराक्षरैरुत्तराणि लभ्यन्ते । अधराक्षरैश्वा [धरा ]क्षराणि[इति ] क्रममंगीकृत्योतम् । न गा[ था]नुरूपम् ॥ २९९ ॥ उट्ठाणं पुण यो (जो ) गो, पंचम छट्ठेहि होइ वग्गेहिं । मूर्द्धन्यानामन्यतम अभिघूमितः मूर्द्धतालव्यानां मध्येऽक्षरं लभते । अनुनासिकानामन्यतम अभिधूमितः दन्त्यानां मध्येऽक्षरं लभते । ओष्ठ्यानामन्यतम अभिधूमितः मूर्खतालव्यानां मध्ये [प० १७३, पा० १]ऽक्षरं लभते । दंत्यानामन्यतम अभिधूमितः तालव्यानां मध्येऽक्षरं लभते । मूर्द्धतालव्यानामन्यतमः अभिहतः जिह्वामूलीयानां मध्येऽक्षरं लभते । तालव्या अभिधूमिताः कंठ्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नुवन्ति । जिह्वामूलीया [ अ ]भिधूमिता उरस्यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नुवन्ति । कंठ्यानामन्यतम अभिघूमित (तो) मूर्द्धन्यानां मध्येऽक्षरं लभते । उरस्यानामन्यतम अभिधूमित [१० १७३, पा० २ ]आनुनासिकानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोति । उत्तरा उत्तरमेव, अधरा त्व (स्त्व) धरमे(d) ति क्रममंगीकृत्य स्या (अस्मा ?) भिरुक्ता नु ( न ? ) गाथानुरूपमिति ॥ २९० ॥ ब-तिय उत्थेहि समं, संजोगो होइ मुद्धतालाणं । छट्ठेण सत्तमेणं, जोगो अणुणासियाणं च ॥ २९२ ॥ क्रममंगीकृत्य यदभिह(हि) तं तथैव व्याख्यानं अर्थतो गाथेयमिति न वृत्ता ( विवृता ) ॥ २९२ ॥ सत्तट्ठमेहि दोसु वि, मूढणा (मुद्धण्णा ?) णं १० १७५, पा० १] तहेव सो यो(जो ) गो । वग्गे वग्गे एवं तिण्णि हु णामक्खरा पढमे ॥ २९३ ॥ " आलिंगितत्वादेकमक्षरं लभते । अभिधूमितत्वाद् द्वितीयं, दग्धत्वात्तृतीयमक्षरमिति । एषायाम (एषोs ? ) पि गाथार्थः व्याख्यातः । अतो न विवृत इति ॥ २९३ ॥ सो (सा) हाविहाय एवं, पयडीए पढमओ हवइ णामं । उत्तरमहरचउक्के, बलाबलविसेसओ बिइए ॥ २९४ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा २९५-२९७] प्रश्नव्याकरणाख्यं प्रभाक्षराणां मध्ये येऽक्षरा अनभिहतास्ते स्वभावतः प्राप्नुवन्ति आत्मवर्गस्तै (गै तै)र्नामनिर्देशः कार्यः । उत्तर प० १७५, पा० २]तुष्क इति 'अ च त या' निर्दिश्यन्ते । अधरचतुष्क इति *क च ट त प य शा (क ट प शा?)नां' निर्देशः । 'अ च त या'नामन्यतमस्य 'कट पशा'नामन्यतमोऽप्रतो यदा भवति तदा स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं प्राप्नोति । यदा 'कट पशा'नामन्यतमस्य 'अचत या'नामन्यतम(मा)क्षरोऽप्रतो भवति तदा स्ववर्गप्रतिबद्धाक्षरं लभते ॥ २९४ ॥ ॥ स्ववर्गप्रकरणं समाप्तम् ॥ मूलस्सरा सवग्गे, एकं जुत्ता लभंति सट्ठाणो(णे)। [५० १७६, पा. १] परवग्गक्खरगरुजुत्ता, बितियं च अणंतरं अहरं ॥ २९५ ॥ मूलस्वराः ? । के ते? त्रयः । तैर्युक्ताः प्रश्ने 'डमण न मा' र ल षाः एषामेव मध्येऽन्यतमाक्षरं लभते । मूलवर्गप्रतिबद्धत्वात् । पंचमवर्गः स्ववर्गो मूलस्वराणाम्, शेषाः परवर्गाश्चत्वारः, . तैर्युक्तास्त एव मूलखराः। येनाक्षरेण युक्तस्तस्याक्षरस्यानंतरो यो वर्गोऽधस्तद्वर्गप्रतिबद्धमेवाक्षर प्रामुवंति ॥ २९५ ॥ उत्तरे(र)वग्गे एकं, बीयं पुण होइ जत्थ संजुत्ता । अहरंमि लभे तइयं, दुविहा दिट्ठी उ आकारे ॥२९६॥ [५० १७६, पा० २] दृष्टिप्रयोगसंयुक्तेन असंयुक्तेन च आकारेण एवमुपरिप्रयोगेष्वपि अक्षरलब्धि[:] द्विधा । भवतीति । उत्तरैर्वगैः 'क च ट त प य शाः, गज ड द बल सा' श्च । एषामन्यतमाक्षरस्योपरिगते मूलखर अनंतरमधोवर्ग प्राप्नोति । उदाहरणम् - ककारस्योपरिगतो मूलस्वरः चवर्ग प्राप्नोति । चकारस्योपरिगतः मूलस्वरः [प० १७७, पा० १] च(ट ?)वर्ग प्राप्नोति । टवर्गस्योपरिगतो मूलस्वरः तवर्ग प्राप्नोति । एवमन्येष्वपि द्रष्टव्याः। एषामेव प्रथम-तृतीय-वर्गाक्षराणां प्रभायां यदप्रतो मूलस्वरोऽसंयुक्तो यस्याग्रतो व्यवस्थितस्तस्यैवाक्षरस्य पूर्वस्य संबंधिवर्ग प्राप्नोति । एवं " द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराणां अग्रतो(तः) स्थिता मूलस्वरा असंयुक्तास्तृतीय[प० १७७, पा० २]र्गमतः प्रागुवंति । यथा खकारस्यापतो प्य(व्य)वस्थितो मूलस्वर[:] टवर्ग प्राप्नोति । छकारस्याप्रतो व्यवस्थितो मूलस्वर द्वितीयवर्ग प्राप्नोति । एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः। आकाराव(रः क)कारस्वोपरिगत आकारः तस्याधोऽनंतरं द्वितीयवर्ग प्राप्नोति । तस्य द्वितीयस्य वर्गस्याधराक्षरमनंतरं लभते । यथा ककारस्योप [५० १७८, पा० १] रिगतः अकारश्चवर्ग प्राप्नोति । चवर्गेऽप्यधराक्षरं । प्रामोति । एवं चकारस्योपरिगतः आकारः टवर्ग लभते । अत्राप्यधराक्षरम् । एवमन्यत्रापि । एवं ककारस्योपरिगतः स्थितः अकारः चकारमेव लभ्य(भ)ते । तथा अधराक्षरोपरिगत स च वा(आ?)कारोम(ड)नंतर द्वितीयवर्ग प्रानोति । तस्या(स्य) द्वितीयवर्गानंतरमेवाधराक्षर [प० १७८, पा० २]प्रानोति । एवमनंतरोऽप्यसंयुक्तः । उदाहरणं यथा-पकारस्योपरिगत आकारः ककारवर्गेऽप्यधराक्षरं प्राप्नोति । एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः ॥ २९६ ॥ एवत्तु(न्तु) अहरवग्गे, एकं बितियं तु जत्थ संजुत्ता । धातुस्सराण एवं, दुविहा दिट्ठी उ पयडीए ॥ २९७ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा २९८-३०१ ] द्वितीय- चतुर्थवर्गयोरधरयोर्ये: अक्षरा धातुखरयुक्तास्ते अधोवर्ग द्वितीयानंतरं द्वितीयवर्ग प्राप्नुवन्ति । यथा खकार उकारेण जकारेण वा युक्तः जकारं प्राप्नोत्येवमन्येऽपि द्रष्टव्याः । तयोरेव धातुस्वरयोरन्यतरो यदाऽधराक्षराणां अप्रतो[प० १७९, पा० १ ] भवत्यसंयुक्तः, तदा तमेवाक्षरं प्राप्नोति । यथा खकारस्याग्रतो जकारदृष्टः खकारं लभते । द्विविधा दृष्टिरिति प्रयोग .' [उ]च्यते ॥ २९७ ॥ ह्रस्सस ( स ) रा य भवे (सवग्गे ?), एकं (कं) तु लभंति जत्थ संजुत्ता । बितीयवग्गे तब (सब) गं, लभति अहरेण पढमित्ते (?) ॥ २९८ ॥ हस्व स्वराश्चत्वारः 'अ इ एउ' । ' क च ट त प य शा'नां 'ग ज ड द व ल सा'नां चान्यतमाक्षरे[ण] युक्ताः स्ववर्ग फलं प्राप्नुवंति । यथा ककार एकारेण युक्तः ककारं प्राप्नोत्येवमन्येऽप्यक्षरा स्ववर्ग 10 प्राप्नुवन्ति । संयुक्तासंयुक्तैस्तुल्या प्राप्तिः । द्वितीयवर्गाक्षराणां 'ख छ ठ थ फर षाणां अन्यतमा[१० १७९, पा० २]क्षरो यथा ( दा ? )न्यतमहस्वस्वरयुक्तः तदाधस्तृतीयवर्गं प्राप्नोति । यथा खकारः चतुर्थं 'अइ एउ' अन्यतमेन युक्तः तृतीयवर्गं प्राप्नोति । एवं वद (?) प्युत्तरानुवलितत्वादुत्तराक्षरं प्रावन्ति । 'क' वर्गे च तृतीयम् । एवमन्यत्रापि ॥ २९८ ॥ ॥ व्यंजनखरप्रकरणं समाप्तम् ॥ 15 ६८ 25 'अइए उ' इत्येते चत्वारः कंठ्याः । 'क ख ग घा' जिह्वामूलीयाश्चत्वारः । एषामन्यतमाक्षरो अन्यतरं कंठ्यस्वरयुक्तजिह्वामूली[ १० १८०, पा० १ ]यानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोत्युत्तराणां (नु) वलि - तत्बात् । उत्तरं उत्तरप्रकृतिचतुष्कग्रहणेन 'अ च त या' उच्यन्ते । तेषां चतुर्णा अन्यतमोऽक्षरः, 20 'अं अः' एतौ चरिमौ अनयोरन्यतरेण युक्तस्तमेव युक्ताक्षरं लभते । यथा 'अं' अनेन युक्ते चकारे सति चकार एव लभ्यते । 'अ' अनेन युक्ते चकारो लभ्यते । एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः । 'लब्भइ तिण्णि उ हकारो' तृतीये वर्गे लभतीत्यर्थः जिह्वामूलीयैरिति ॥ २९९ ॥ 30 जीया (हा) मूलियकंठाइ संजुओ लहइ तिष्णि उ हकारो । उत्तरप[य] डिचउक्के, एक्कं दो दोसु चरिमेसु ॥ २९९ ॥ एमेव सेसयासु वि, दोसु (सुं) दोसं (सुं) तु जासु संज्जोज्जो ( जोगो) । पयडीसु तासु एसो, हवइ हकारस्स [ १० १८० पा० २ ]अहिलासो ॥ ३००॥ एवं 'कटप शा'श्चत्वारः ककार-टकारावुत्तरौ द्वौ पकार - शकाराव धरौ तेषामन्यतमाक्षरोso[a]मेन चरिमेण खरेण युक्तो येन युक्तः स चिर ( चरि) मः तमेव (वा) क्षरं लभते । सविसर्गो हकारः सानुस्वारो वा आत्मानमेव लभते स्वभावात् ॥ ३०० ॥ उत्तरपयडीसु एक्कं(गं), लहंति जामुं(सुं) च संजुया तासु । एक्केकमेव कंठा, उट्ठाणं उवरिमि (मे) जाव ॥ ३०१ ॥ 1 विर्पयेन (पर्येण) तु यो(यौ) वर्गश्च (च) रिमौ 'अं अ:' । ओष्ठ्यानां दंत्यानां मूर्खतालव्यानां वाऽन्यतमोऽक्षर उत्तरखराणां चतुर्णामन्यतमेन युक्तस्तमेवाक्षरं लभते । उत्तरस्वराः 'अ इ एओ' । [१०] १८१, पा० १] ॥ ३०१ ॥ C Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ [गाथा ३०२-३०६] प्रश्नव्याकरणाख्यं . अहरासु लभे एकं, एकेकं चेव जासु जं जुज्जो। ....... अहरपयडीसु चउसु वि, दंतादी जाव सुद्धाण्हा (मुद्दण्णा ?)॥ ३०२॥ दत्यानामोष्टयानामनुनासिकानां मूर्द्धन्यानां मध्येऽधराक्षरो वाऽधरस्वराः 'आई ऐ औ एषां चतुर्णामन्यतमेन युक्तोऽधराक्षरोऽधराक्षरमेव लभते । उत्तरोऽप्येषां दंत्यादीनां मध्ये एतैरेवाधराधरखरैर्यदा युक्तो(क्त)स्तदा अधराक्षरमेव लभन्ते(ते) ॥ ३०२ ॥ . ॥खभावप्रकृतिस्समाप्ता॥ पढमसरा आइल्ला, तिण्णि वि उट्ठा य हो(हों)ति पयडीओ। दोसुत्तरपयडीसुं, दोन्नि य सो अक्खरे लहइ ॥ ३०३ ॥ प्रथा ५० १८१, पा० २]मखरा आद्यास्त्रयः 'अआइ' ओष्ठ्याक्षरैः सार्द्धमेषां स्वराणां मध्ये अकार इकारश्च द्वावुत्तरौ अ(आ)कारोऽधरः । ओष्ठ्याक्षराणां उत्तरयोरन्यतरो यदा भवत्य- ॥ प्रतः, तदा उत्तराक्षरं प्रामोति । एषां मध्ये ओष्ठ्याक्षराणामन्यतमस्याग्रतो दृष्ट आकारोऽधरस्तेषां मध्येऽधराक्षरमेव प्राप्नोति ॥ ३०३ ॥ [१० १८२, पा० १] अका(उत्त?)रसर(रा ?)उ कंठा, दोण्णि वि चरिमा हवंति पयडीए । एवं एस विसग्गो, तिण्णि हु नामक्खरे लहइ ॥ ३०४ ॥ कंठ्या उत्तरस्वराः- 'अ इ ए ओ' चत्वारः । तेषामनुस्खारेण अकारेण सविसर्गेण च सह । प्रीतिः। एवमेष तृ(त्रि)संख्यः अकारः तृ(त्रि)नामाक्षरं प्राप्नोत्येतथो(चो)परिगाथया व्याख्यास्यति ॥ ३०४ ॥ अवस(धरु ?)त्तरासु एकेक्कयं तु एकं च ख(ल ?)भइ मिस्सासु।। पंचम-छट्ठा [५० १८२, पा० २] तह सत्तमा य मो तइउ(?)पयडी ॥३०५॥ प्रश्ने यदा अधरवर्गों द्वौ अधरौ द्वितीयवर्णाक्षराणां यदा प्रश्ने 'ख छ ठ थ फरषाः' स्ववर्गा- 20 क्षराणां चांतरद्वौ दृश्येते तदा तयोरन्तरोऽक्षरो लभ्यते । यथा खकारस्याग्रतः चकारोऽवस्थितः। एवमन्यत्रापि । तथा उत्तरेषु प्रथमवर्गाक्षराणां 'क च ट त प य शा'नां तृतीयवर्गाक्षराणां च 'गजइद पल सा'नां यदा प्रभे द्वावक्षरावनंतरा वा द्वौ दृश्येते तदाऽनयोरेको लभ्यते । यथा कका. रस्यापतो गकारः । एवमन्यत्रापि । एवं च अधरोत्तरं लभत इति । उक्ता एव मिश्रा स्थितिः। यदा प्रश्ने एक उत्तरः आद्यः तस्याप्रतोऽधरोऽथवाऽधर आद्यः (तस्यापतोऽधरोऽथवाधर आद्यः) तस्याप्रत उत्तरस्तदाभिघाते [प० १८३, पा० १] शुद्ध सति द्वयोरक्षरयोर्यों बलवान् [स] लभ्यते एक एव : पंचम उकारः, षष्ठ कारः, सप्तम एकारः, इत्येतेषां त्रयाणां इकारेण सह प्रीतिकृति(प्रकृति)रिति प्रीतिरुच्यते ॥ ३०५॥ . कंठाअ(s)गुणासि उव्य(? हा), तिण्णि वि तइयरस सो लहइ (2)। दोसुत्तर]पयडीसुं, एकं अहरासु तह जाण ॥ ३०६ ॥ १ मूलाद; द्विवारं लिखितोऽयं पाठः । २ आदर्श 'सत्तमाय मीयमा तइउ' इति पाठः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३०५-३११] अकारस्य एकारस्य उकारस्य वा कंठ(व्य)स्य यदाऽप्रतोऽनंतरं इकारो दृश्यते, तदा तमेव पूर्वस्वरमवाप्नोति । अनुनासिकानां 'ङ अ ण न मा'नां ओष्ठ्यानां ‘फ य फवना (ऐफ ब भा)'नां च एषामन्यतमस्योपरिगत इकारस्तमेवाक्षरं लभते । प्रश्नोत्तरप्रकृतिरुक्ता । प्रकृतिशब्दो मैत्रीपर्यायः । 'एकं अधरासु जानीह(हि)' इत्येतदुपरिष्टा[त् ] व्याख्यास्यति ॥ ३०६ ॥ ईका[प० १८३, पा० २ रस्स चउत्था, मुद्दहा(डण्णा ?) सेसया जहा तइए। अक्खरलंभो जो उत्तरासु सो चेव अहरासु ॥ ३०७ ॥ एकारस्य मूर्धन्या(न्य)स्यामतः स्थित ईकारे(र) ऐकार लभते । औकारो(रस्य?)मूर्धन्यस्यामतोऽवस्थित ईकार औकारमेव प्राप्नोति । 'रल षा'ना(णां) मूर्द्धन्यानामन्यतमस्योपरिगतः ईकारस्तमेवाक्षर प्राप्नोति। ईकारस्य यथाऽक्षरलाभ उक्तः,[प० १८४, पा० १]एवं इकारस्याप्यधरप्रकृतेरक्तः ॥३०७॥ " जा ईकारे पयडी, चउरो सा चेव होइ उ(य?) उकारे । अक्खरलंभो जो पंचमस्स सो चेव एयरस ॥ ३०८ ॥ चतुर्थस्य ईकारस्य उकारेण सह प्रीतिः। प्रीतिशब्दः स्वभावपर्यायः । ईऐ औ' इत्येतेषां व(त्र)याणां अन्यतमस्याग्रतोऽनंतरस्थित उकारस्तमेव पूर्वस्वरं लभते । 'र[ल?]षा' णामन्यतमस्या(स्य) यस्याधोपि० १८४, पा० २]युक्त उकारस्तमेव लभते । पंचम उकारो यथाक्षरं लभते इकारोऽपि । तथैव प्राप्नोति ॥ ३०८॥ जीहामूलियकंठा, तालवाणुणासिया य एकारे । अक्खरलंभो तइए, जो वि य सो चेव इहयं पि ॥ ३०९ ॥ जिह्वामूलीयानां कंठ्यानां तालव्यानामनुनासिकानां चान्यतमाक्षर एकारेण युक्तः उपरिगतेन तमेवाक्षरं एकारः प्राप्नोति । कंठा(व्या)नामपि खराणां अन्यतमस्यानंतरममतोऽवस्थित ० एकारस्तमेव पूर्वखरं लभते । एकारेण योऽक्षरलाभः स उक्तः । ऐकारेण वक्ष्यति ॥ ३०९ ॥ अधर(उर)कंठोठा दंता, मुद्ध(डण्ण)णुणासिया[५० १८५, पा० १]य अट्ठमए। अक्खरलंभं इकं, तं पि य अहराहरे लहइ ॥ ३१० ॥ उरस्यानां कंठ्यानां ओष्ठ्यानां दंत्यानां मूर्धन्यानां अनुनासिकानां चान्यतमाधर(राक्षर ऐकारेण युक्तोऽधराक्षरं प्राप्नोति । उत्तराक्षरोऽप्येषां मध्ये ऐकारेण युक्तोऽधराक्षरमेव प्राप्नोति । ॐ एषां मध्ये ये स्वराते(स्ते)षामन्यतमस्याप्रता(तः) स्थित ऐकारस्तमेव स्वरमाप्नोति ॥ ३१० ॥ जीहामूलियकंठा, उट्ठा अणुणासिया य ऐकारे । अक्खरलंभं एसो, लहइ तइज्जस्स गमणेणं ॥ ३११ ॥ जिह्वामूलीयाः 'च छ ज झाः' । कंठ्या 'अ इ उ ए । औष्ठया [प० १८५, पाठ २ ] ऐ फ ब भा। अनुनासिका ' अ ण न माः' । एषामन्यतमस्य यस्योपरिगत ऐकारस्तमेवाक्षरं लभते । स्वराणामपि यस्यानतोऽनंतरमवस्थिस्तमेव पूर्वस्वरं लभते । यथा तृतीय इकारो ऊकारमवाप्नोति । उकारोऽपि तथैवेति ॥ ३११ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ३१२-३१६] प्रभव्याकरणाख्यं मुडणुणासियकंठा, तालबा मुद्धतालदंतोट्ठा । दस[म]सरे पयडीओ,[प० १८६, पा० १] अक्खरलंभं जहम्मा(ठुम?)ए॥३१२॥ मूर्धन्यानुनासिककंठ(व्य)तालव्य-दंतोष्ठाः(त्यौष्ट्याः) । तेषामन्यतमोऽधराक्षरस्योपरिगतः दशमस्वरस्तमेवाक्षरं लभते । उत्तराक्षरोपरिगतः उकारोऽधराक्षरमेव लभते । एतत्प्रतिबद्धस्वराणां 'आ ई ऐ' अन्यतमस्याग्रतो तंच(ऽनन्त)रमवस्थित औकार[:] पूर्वस्वरं लभते । यथाष्टमी प० १८६, पा० २] । ऐकारोऽक्षरं लभते । एवमौकारोऽपीति ॥ ३१२ ॥ मोत्तुं पंचमपयडी, एकारसमस सेसया अट्ठ। एकेकं दंतोहे, मुद्धण्णे अक्खरे एकं ॥ ३१३ ॥ उरस्याः कव्याः जिह्वामूलीयाः तालव्या मूर्द्धतालव्या दंत्या औष्ट्या मूर्द्धन्याः । एषां अष्टानां अन्यतमोऽक्षर एकादशमः(श?)स्वरेण युक्तः तमेवाक्षरं लभते । (एषामष्टानां यः ।। [प० १८७, पा० १] एकादशखरेण युक्तः तमेवाक्षरं लभते ।) एषामष्टानां य एकादशखरेण युक्त स एव लभ्यत इति ॥ ३१३ ॥ जो हका(का)रे म(ग)मओ, पुह(बु)त्तो सो इहं विसग्गंमि । एयस्स णविर(वरि ?)पयडी, संखा वि य तत्तिया चेव ॥ ३१४ ॥ अकारः सानुस्वारः यथा हर(?)कारं प्राप्नुवन्ति(प्राप्नोति)। एवं हकार[:] सविसर्ग-15 हकारमेव प्राप्नोति । द्वादशानां [प० १८५, पा० २] खराणां यस्तु (वस्तु)भावः स वर्णितः । प्रकृतिशब्दः स्वभावपर्याय इति ॥ ३१४ ॥ समात ॥ अणभिनगगव(हते य अ ?)यारे, अज खाट च तथा वाय(?) एकारे। . अभिघाइ ...................... अट्रमे पंचमंमि ॥ ३१५ ॥ अकारेण असा म हा त ट(१)ककारस्यत्य(स्याग्र)तो व्यवस्थितेन ककार एव लभ्यते । अकारे ॥ अनभिहते व(च)कारस्याप्रतः स्थिते चकार एव लभ्यते । आकारे अनभिहतं(ते) तकारस्याप्रतः स्थिते टकार एव लभ्यते । अकारे अनभिहते तकारस्याप्रतः स्थिते तकार एव लभ्यते । अकारे अनभिहते यकारस्याप्रतः स्थिते [प० १८८, पा० १] यकार एव लभ्यते । एकारेण युक्ते खकारो(रे) ककारो लभ्यते । एकारेण युक्ते छकारे व(च)कारो लभ्यते । एकारयुक्ते ठकारे टकारो लभ्यते। एकारेण युक्त थकारे तकारो लभ्यते । एकारेण युक्ते रेफे यकारो लभ्यते । अष्टमस्य ऐकार[स्य । एकार] स्येव संयोगफलमुक्तम् ॥ ३१५ ॥ अणभिहते आकारे, ख छ ज झ तह अभिहयंति दो चरिमा । ठथ ट त ईकारंमि, उ फर प य चउरो [अ]आरंमि ॥ ३१६ ॥ खकारस्याप्रसः स्थितेन अनभिहतेन अ(आ)कारेण खकारो लभ्यते । छकारस्याप्रतः स्थितेन अनभिहतेना[प. १८८,पा० २]कारेण छकारो लभ्यते । जकारः सानुस्वारः जकारमेव लभ्य(भ)ते । ॥ (छिकारस्याप्रतः स्थितेन अनभिहतेनाकारेण छकारो लभ्यते । जकारः सानुस्वारः जकारमेव । विलिखितः पाठ एष लेखकप्रमादात् । । आदर्शेऽत्र ५-६ अक्षरपरिमिता पंक्तिः शून्याक्षरा विद्यते । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३१७-३१९] लभ्यते) झकारः सविसर्गो झकार एव लभ्यते । ट(ठ ?)कार इकारयुक्तो टकार लभते । तकार इकारयुक्तः थकारमेव प्राप्नोति । फकार उकारयुक्तः पकारं लभते । रेफ उकारेण युक्तः यकारं लभते ॥ ३१६ ॥ [प० १८९, पा० १] जह पढम-सत्तमाणं, तइज(य)णवमाण तह य सहाणे । पढम-तइयाणुणासिय, घ झा य छ;मि अणभिहते ॥ ३१७॥ __गकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थितः अनभिहत इकारो गकारमेव लभते । जकारस्यापतोऽनंतरमवस्थितः अनभिहत इकारो जकारमेव लभते । डकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थित अनभिहत इकारो डकारमेव लभते । दकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थितः [५० १८९, पा० २] अनभिहत इकारो दफारमेव प्राप्नोति । प(ब?)कारस्याग्रतोऽनंतरमवस्थितो(तः) इकारो(र.) प(ब?)कारमेव लभते। लकारस्याप्र" तोऽनंतरमवस्थितेन अनभिहत इकारो लकार]मेव लभते । सकारस्याप्रतो वाऽनंतरमवस्थितेन [अनभिहतः १] इकारः सकारमवाप्नोति । खकार उ(ओ)कारसंयुक्तः कोकारं लभते । छकारः ओकारसंयुक्ताप० १९०, पा० १]चोकारं लभते । ठकार ओकारसंयुक्तः टोकारं लभते । थकार ओकारसंयुक्तोः [तो]कार लभते । फकार ओकारसंयुक्तः पोकारं लभते । रेफ ओकारसंयुक्तः योकार लभते । षकार ओकारसंयुक्तः स(सो)कारं लभते । षष्ठ औकारेना(णा)भिहतः धकारस्याप्रतोऽनं। तरमवस्थिते धकारमेव लभते । उकारो [प० १९०, पा० २ ]ऽनमिहतो झकारस्याप्रतोऽनंतरमवस्थितः सकारमेव लभते । झकारोऽनभिहत अकारस्याप्रतः स्थितः अकारं लभते । औकारोऽनभिहत इकारस्थानतः स्थितः इकारं लभते । उकारोऽनभिहतः सानुस्वारस्याकारो(र)स्याप्रतोऽनंतरमवस्थितः अनुखारमेव अंकारं लभते । यथा पूर्वगाथया प्रथमस्य अकारस्य, सप्तमस्य च एकारण प्रयोग उक्तः, तथा तृतीयस्य इकारस्य, नवमस्य ओकारस्य प्रयोगो वर्णितः पश्चार्द्धस्यापि "गाथान्तरेणार्थः ॥ ३१७ ॥ अभिघाइएसु छठे, हवइ हयारो हु अट्ठमो णवमो । [प० १९१, पा० १] ड ढ चतु तइयऽणुणासा, दसमसरे तिण्णि ऊ भवमा ॥ ३१८ ॥ उकारोऽप्रतोऽनंतरमवस्थितेन ओकारो(रेणा)भिहतो हकारं प्राप्नोति । मकारस्याप्रतो ऽनंतरमवस्थितो णकारः चतुर्थवकारं प्राप्नोति । टकारो दशमस्वरेण युक्तस्तृतीयं व(ल)कार ४ प्राप्नोति । 'भवमा'शब्द एकान्तपर्याय [:] ॥ ३१८ ॥ पढम-तइयाणुणासा, घ झा य दोहं पि अंतिमसराणं । वावा(बावी)सइमो करणो, णामेण य(?) हयमोहिओ एस ॥ ३१९ ॥ प्रथमो टकारः अनुस्वारेण अकारेण युक्तो डकार प्राप्नोति । डकारः सविसर्गः डकारं लभते । तृतीयो णकारः सानुस्वारो प० १९१, पा० २] णकारं लभते । णकारः सविसर्गः णकारमेव • लभते । धकारः सानुस्वारः धकार प्राप्नोति । उ(झ)कारः सविसर्गः झकारमेव लभते । झकारः सानुस्वारः झकार प्राप्नोति ॥ ३१९ ॥ ॥ द्वाविंशतिकरणं समाप्तं । अश्वमोहितं नाम समाप्तम् ॥ ... + एतदन्तर्गतः पाठो द्विलिखितोऽतः पुनरुक्तः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं उत्तरसरसंजुत्तो, जइ उत्तरवंजणो य दीसेज्जा । पावइ य पढमवग्गं, अहरस्सरसंजुओ तइयं ॥ ३२० ॥ उत्तराः के ? 'अइ एउ' इत्येतेषां चतुर्णामन्यतमेन युक्त[:] प्रथम तृतीय वर्गाक्षराणां कचटतपयशानां, ग ज ड द ब ल सानां अन्य [ प० १९२, पा० १ ] तमोऽक्षर आत्मीयं वर्गं लभते । यथा 'कि' कखगघानां मध्येऽक्षरं प्राप्नोत्युत्तरानुवलितत्वात् उत्तराक्षरम् । एवं सर्वत्र । अधर- 5 स्वराः के ? 'आई ऐ औ' । एषां चतुर्णामन्यतमेन स्वरेण युक्तः तेषां प्रथम- तृतीयवर्णाक्षराणां अन्यतमाक्षरं तृतीयं वर्गं प्राप्नुवन्ति (नोति ) । यथा 'की' ट ठ ड ढानां तृतीयवर्णाक्षराणां मध्ये ढकाराक्षरं प्राप्नोति ॥ ३२० ॥ उत्तरसरसंजुत्तो, पंचमवग्गं तु पावए अहरो । अहरस्सरसंजुत्तो, सत्तमं पावए अहरो || ३२१ ॥ [ गाथा ३२० - ३२३] उत्तरखराः के ? 'अइ एउ' । एतेषां [ १०१९२, पा० २ ] चतुर्णामन्यतमेन युक्तोऽधराणां छठ फरषाणां, घझ ढ ध भ व हा नां चान्यतमाक्षरः पंचमवर्गं लभते । यथा खकारस्योपरिगतोऽकारः पंचमवर्गाक्षरं प्राप्नोति । उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् । एवमन्येऽपि । तथा घकारोऽप्युत्तरस्वरसंयुक्तः पंचमवर्गाक्षरं [१० १९३, पा० १ ] लभते । एवं सर्वेऽधरा उत्तरस्वरसंयुक्ताः पंचम वर्ग प्राप्नुवन्ति । अधरस्वरा 'आ ई ऐ औ' एतेषां चतुर्णामन्यतमेन युक्तः द्वितीय - चतुर्थवर्गाक्षराणामधराक्षराणामन्यतमः सप्तमवर्गं प्राप्नुवन्ति (नोति । यथा खकारो अधरखरसंयुक्त[ : ] [म] वर्ग प्राप्नोति । अधरानुवलितत्वादधरः । एवं छका [प० १९३, पा० २] रोऽघरखरसंयुक्त[ : ] सप्त[म]वर्गं प्राप्नोति । तत्राप्यधरम् । तथाऽधरोऽप्यधरस्वरसंयुक्त[:] सप्त[म]वर्गं प्राप्नोति । तत्राप्यधराक्षरम् (?) । एवं फरषा इति । तथा घकारः सप्तमवर्गं प्राप्नोत्यधरानुवलितत्वादधराक्षरम् || ३२१ ॥ उत्तर- अहराणुवला, लभंति तइ (ई) यसरं तत्तो ॥ ३२३ ॥ उत्तरखरा(र) इकारः, अधरखर ईकार [:] उत्तराक्षरै [र]धरो (?) विलन उत्तराक्षरैः उत्तरो विलन [:] तस्मात्तृतीयस्वरं प्राप्नोति । इकार [: ? ] तृतीयस्वरं प्राप्नोति ॥ ३२३ ॥ ॥ उत्तराधरसंपत्करणं समाप्तम् ॥ १ ' उत्तराक्षरैरुत्तरो विलग्नः, अधराक्षरैरधरो विलग्नः' इति भव्यं मूलानुसारेण । नि० शा० १० एवं लभंति पढमं (मे), वग्गे सरवंजणेहि संजुत्तो (त्ता) । उत्तर- अहराणुवला, लभंति पुवावरं वग्गं ॥ ३२२ ॥ यथा प्रथमवर्गे सु (स्व) राक्ष [र] संयुक्ता लभंति अक्षरान् तथाभिहितं पूर्वमेव । ते च स्वरा उत्तरानुवलितत्वादुत्तराक्षरं प्राप्नुवंति । [ १० १९४, पा० १] अधरानुवलितत्वात् अधराक्षरं प्राप्नुवंतीत्येतदपि पूर्वोक्तं पुनरनेन स्थिरतामापादयता वर्णितम् । पूर्व इत्युत्तराक्षर उच्यते । अपर 25 इति चाधरो भण्यते ॥ ३२२ ॥ उत्तर - अहरसरो वा, लग्गो जो जंमि वंजणे होज्ज । 10 15 20 30 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा ३२४-३२६] पढमो तइओ य सरो, पण्हाईए समं ककारेण । [ १० १९४, पा० २ ] जइ दीसइ सो लस (भ) ए, कवग्गए अक्खरं एकं ॥ ३२४ ॥ प्रभाक्षराणामादौ ककारस्यावस्थितस्याग्रतोऽनंतरं यदा प्रथमः स्वरः अकारो दृश्यते तदा अकार [:] ककारं प्राप्नोति । तृतीयखरेण युक्त [:] सकार आदिस्थितप्रश्नाक्षराणां ककारवर्गादेकमक्षरं ' लभते । उत्तरानुवलितत्वात् उत्तरम् । एवमन्येऽपि प्रथम - तृतीय वर्गाक्षरा [:] प्रभाक्षराणामादिस्थिता अकारे (रा) प्रतोऽनंतरमवस्थिता इकारेण वा युक्तः (क्ताः) स्ववर्गाक्षरं लभन्ते ॥ ३२४ ॥ एएहि चेव सहिओ, लहइ खकारो चवग्ग एकेकं । - तइय चरिमा [ १० १९५, पा० १]सवग्गे, लहइ धकारो टवग्गंमि ॥ ३२५ ॥ प्रथमस्वरेण अकारेणाप्रतोऽनंतरमवस्थितेन इकारेण वा युक्तः खकार [:] चवर्गादेकमक्षरं " लभते । उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् । तृतीयवर्गाक्षराणां ग ज ड द ब ल सानां चरिमाणां ङनणन मान अन्यतमोऽक्षरो अकारेऽप्रतोऽनंतरमवस्थिते इकारेण युक्त[:] स्ववर्गादेकमक्षरं लभते । उत्तरानुवलितत्वादुत्तरस्य घकारे (र) स्य अकारेऽग्रतोनंतरमवस्थिते इकारेण वा युक्ते घकार (रः) टवर्गादेकमक्षरं प्राप्नोति उत्तरानुवलितत्वादुत्तरमेवेति । [ १० १९५, पा० २ ] गाथाद्वयस्यापि अर्थ व्याख्याय प्रस्तारेण दर्शने (ते) रचना • क का (च) किग एता एव खरौ (?) खकारयुक्तो यदा तदा प्रथम" स्वरेण चकारं लभते । तृतीयेन य (ज) कारम् । खकारोऽधरत्वाद् द्वितीय वर्गा (गर्ग) प्राही खरानुवलितत्वादक्षरलब्धिः । रचनापूर्वकवर्गा अधस्तात् ख छ खिज । तथा घकारः प्रथमस्वर : (१) युक्तः टकारं लभते, तृतीययुक्तः डकारं । रचना - घट घिट (ड) । एवं चवर्गादीनां शेषवर्गादीनां च शेषवर्गाक्षराणां लब्धि [ : ? ] रचनामात्रं दर्शते ( दर्श्यते - ) चवर्गस्य अइ युक्तस्य च चा चिज । अस्याधः - ज जा जि ज । अस्याधः - न चानिज । अस्याधः - झत झिट ( द ) । एवं चवर्ग20 टवर्ग - रचना | टट टि ड । अस्याधः - ठत ठिद । अस्याधः - ड ड डिड [प० १९६, पा० १] अस्याधः - ण टणिट । अस्याधः टपटिव । तवर्गस्य रचना - ततति द् । अस्याधः - थप थप । अस्याधः - - द त दिद । अस्याधः - न त निद । अस्याधः - व य विल । पवर्गस्य - पपपप । फय फिल । वषविव । म यमिव । भशभिश । यवर्गस्य रचना - य य यिल । अस्याधः - रसरिस । लल लिल । अस्याधः - व क विग । शबर्गस्य प्रस्तारः - शशशिश । 25 कषि । अस्याधः - सससिस । अस्याधः - ड (ह) क डि ड (हि ह ) । एवं विरध्याक्षरलब्धि उक्तवद्र (इ) ष्टव्या ॥ ३२५ ॥ सत्तम - णवमेहि समं, लहइ ककारो चवग्ग एक्केकं । तइय चरिमा वि एवं खटवग्गे घ तवग्गे य ॥ ३२६ ॥ प्रश्नादौ ककारः सप्तमेन एकारेण युक्तः नवमेन उ (ओ) कारेण युक्तः चवर्गा[ १० १९६, पा०२]30 देकमक्षरं लभते । तथा तृतीयो गकारः, चरिमो ङकारः, सप्तम नवम-स्वरयुक्तः चवर्गादेवाक्षरम् । एवमुक्त इति । तथा खकारः सप्तमेन नवमेन वा स्वरेण युक्तः टवर्गादेकमक्षरं उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् । तथा घकारः सप्तमेन नवमेन वा स्वरे [ण] युक्तः तवर्गादेकमक्षरं लभते उत्तरानुवलितत्वादुत्तरमिति ॥ ३२६ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाकरणrai सेसाण बि एस कमो, चादीणं अट्ठमा[प० १९७, पा० १]वसाणाणं । अहरुवि (व) रि एक्केकं, परिहा [य] इ वट्ट (ड) इ अहरो ॥ ३२७ ॥ प्रखारेणास्यार्थो दर्शयितव्यः । शेषाणामध्येष क्रम इति । प्रश्नाक्षराणामादिस्थितस्य ककारस्य चकारस्य वा चकारेण वा ककारस्य युक्तस्य यथावस्थवर्गाक्षरलाभ उक्तः । चादयोऽपि इकारान्ताः सप्त सप्त प्रस्त (स्ता) रेणयुक्ता उकारयुक्ता [:] पूर्ववत्स्वर्गादेकमक्षरं लभन्ते । उत्तराक्षरो - S sधरस्वरयुक्तः परिहीयन्ते (ते) [१० १९७, पा० २] अल्पसंख्यो भवतीत्यर्थः । अधराक्षरोऽधरस्वरयुक्तो वर्द्धते बहुसंख्यो भवतीत्यर्थः । एतच्च विस्तरेण वर्णितमिति नोक्तम् ।। ३२७ ॥ आकारीकारेहिं, लभइ समेओ ककारो [य] चवग्गे । तइय- चरिमादि एवं लभइ खकारो य-ट-तवग्गे ॥ ३२८ ॥ ककारः आकारेण युक्तः चवर्गादेकमक्षरमधरानुवलितत्वाद[१०] १९८, पा० १ ]धरं प्राप्नोति । 10 ककार ईकारेण युक्त[:] टवर्गे अधराक्षरं अधरानुवलितत्वात् । एवं तृतीयगकारः, पंचम(?) कारः क्रमेणाकारयुक्तः चवर्गाक्षरं, ईकारेण युक्तः टवर्गाक्षरं अधर अधरानुवलितत्वात् । खकार आकारेण [ युक्तः ] टवर्गे अधराक्षरं प्राप्नोति । ष ( ख ) कार इ (ई) कारेण युक्त [:] बर्गादेकमक्षरं [१०] १९८, पा० २] लभते अधरानुवलितत्वाधरम् । एवं द्वितीयवर्गाक्षराः शेषाः लकारेण क्रमेणाकारयुक्तास्तृतीय वर्गाक्षराणि लभन्ते । इ (ई) कारयुक्ताश्चतुर्थवर्गाक्षरं प्राप्नोति 15 (बन्ति) अधरानुषलितत्वादधरम् । अन्यगाथया अमुमेवार्थं प्रस्तार्यते - ककार आकारयुक्तः ईकारयुक्तश्च क्रमसः (शः) चवर्ग- टबगौं लभते । यथा - का च की ट । अस्याधः [ १० १९९, पा० १ ] खकार-थकाररचना - खाट खीथ । अस्याधः - गा च गी ठ । अस्याधः पकारः आ ( आई ? ) कारयुक्तश्च । त-पवर्गों प्रामुवन्तः ( प्राप्नोति ॥ ३२८ ॥ तदर्थगाथामाह - [ गाथा ३२७-३३०] ७५ त-पवग्गेसु घकारो, दोसु वि एक्केकयं लभे कमसो । सेसाण वि एस कमो, चादीणं सबवग्गाणं ॥ ३२९ ॥ 25 1 घकार आकारयुक्तः तवर्गादधराक्षरमवाप्नोति । घकार इ (ई) कारेण युक्तः पवर्गादेकमवाप्नोति । क ( ? ) कारादयश्चतुर्थवर्गाक्षराः शेषाः षट् आकारेण युक्ताश्चतुर्थवर्गाक्षरं प्राप्नुवंति । इ(ई) कारयुक्ताः पंचमवर्गाक्षरानधराक्षरा[न] लभन्ते अधरानुवलितत्वात् । यतौ क्तं (थोक्त) क्र[१०] १९९, पा० २ ]मेण । एवं च चकारादयो हकारान्ताक्षरा आकारेण ईकारेण वा युक्ता यथा प्रामुवन्ति वर्णाक्षर (रा) स्तथाभिहत (हि ताः । ) प्रस्तारोऽत्र लिख्यते - अनन्तरस्याधस्तात् - पाथपी भ एवं डाकारः चकार 1 डी टकारम् । स्थापनादनन्तरस्याधस्तात् - डच डी डा। एवमेतौ द्वितीयचतुर्थमात्रौ शेषवर्गानुस्वारे (सार) तोऽपि वक्तव्याद्या (व्यौ या ) वत् स्ववर्ग [ प० २००,पा० १]इति पूर्वत्या गाथया चवर्गं आर्द्धाकान्तक्रमेणेति ॥ ३२९॥ क-च-टादीनां पढमा, चरिमो (मा) य समं लहसु ('हं तु) कारेण । भइ वग्गे एवं सानुरसारे य सविसग्गे ॥ ३३० ॥ ककार (?) कचट वर्ग-त्रयस्य ग्रहणम् । आदिशब्दाच्छेषवर्गाणामपि कवर्ग - चवर्गटवर्गस्य च प्रथमाः । ककार- चकार-टकारोचे ( रा ) वम् । एते प्रश्नादौ उकारेण सह दृश्यमानाः ' ' असावेवार्थः प्रस्तार्यते' अथवा 'अमुमेवार्थ प्रस्तारयति' इति भव्यम् । 1 20 30 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३३०] [प० २००, पा० २] किं लभंत इत्यत आह -प यस ककारा उकारयुक्ताः पकारं लभते । चकार उकारेण युक्तः यकारम्। टकारः शकारम् । मात्रासंख्यानियमेन शेषवर्गाणामपि चरमः । एषामेव क्रमेण-ङब ण एते उकारयुक्ता एत एव लभते(न्ते)। यथा डुकार पकार(रे) बुकार यकारं णुकार सकारं [प० २०१, पा० १]रचना-कुपवु य दुरा(स) । अस्याधस्तात्-खुप छु र वुष । अस्याधस्तात् -गु ज । यु ल । दुस । ततः पंचमः-कुप । युय । णुस । अस्याधः चतुर्थ:थु भ । झु व । दुह । एवं लब्धिकं(?)ककारवर्गस्य तथा रचना ककारस्यापि टकारस्य च । 'कच टा दीनां पढमा चरिमा य समं उकारेणे ति गाथार्थः [प० २०१, पा० २] व्याख्यातः॥ 'लभर तवग्गे' इत्येतत्पदं व्याख्यायते- 'तपय म(स)' चतुर्णामेषां वर्णानां लब्धिरर्द्धक्रान्तिन्यायेन यथा तकारपकार-यकार-शकाराणां उकारसहितानां क्रमेणैव लब्धिः । केषां ? अकार-ककार-चकार-टकाराणां "स्थापनात् । अपुक । युक । शुट । अस्या० थुआ। कुख रु ठषु । ठ । अस्याधः-दुइ । युग लु । जमु न । अस्याधस्तात्-तु अ । मुडा। यु ञ् । गुण । अस्याधः-वुई । भुघ । वुक । हु ढ । एवं यथा त प य स वर्गाद्यक्षराणां लब्धिक(?) ककारेण सह तथा शेषाणामपि । यथा- उकारेण सह लब्धि[:]वक्तव्या इति । व्याख्यातमेतत्पदं [५० २०२, पा० १] 'लभति तवर्गे एव'मिति । 'साणुस्सारे य सविसग्गे' इत्यस्य गाथापश्चार्द्धस्य व्याख्या कृ(क्रि)यते-कवर्ग-चवर्गIs टवर्गाक्षराः ककार-चकार-टकाराः सानुस्वारा:- कं चंटं एते पूर्ववद् यथा उकारसहिता लभन्ते । तद् बिंदुविसर्गाभ्यां अपि । विन्दोर्युक्तस्योदाहरणम् - ककार[:] बिन्दुसहितः पकारं लभते, 'चं' इत्येषा(ष) प(य)कारम् , 'टं' इत्येष शकारम् । स्थापना-कंप । चं य । टंश । अस्याधः-खं फ। छंर । ठंष । अस्याधः-मव(गं ब)। जंल । डंस । अस्याधः-घंभ । झं व । ढंह । अस्याधः-डाम बुट घ(डं म । बंय।) णं श। उत्तरं समासादयति । अधर वु(स्तु) अधरमेव । सविसर्गोघे(प्ये)वं यथा-कःप। चः य । टःश। [प० २०२,पा० २] . अस्याधः-खः फ। छःर। ध(ठ):ष । अस्याधः-गःब । जाल। डः स । अस्याधः ङः म । माय । णःश । अस्याधः-घः भै। झःव । ढह । यथा एषां सानुस्वारस्य (स)विसर्गक्रमेण लब्धिरुक्ता तथा 'तपय स' इत्येतेषामपि प्रस्तारः-भ(तं) अ । पंक। यं च । सं(शं) ट । अस्याधः-थं आ। पं(फ) ख। ।रंछ । [षं ठ] दंइ। पं(बं) ग। भं(लं)ज । मंड । अस्याधः-नं अः । मं दः(ङः) । यं नः। गं(शं) णः। [प० २०३, पा० १] अस्याधः-घंई। भंघ । वं झ । हंढ । सविसर्गे(गो)प्येवं यथा-तः अ । पः क । यः च । सःट । अस्याधःथः आ। फः ख । रःछ । षः । अस्याधः-दः इ। पःश । [बाग] । लः ज । सः । अस्याधः-नः अ । मः ङ । यः। सःण । अस्याधः-धाई। भाघ । वःश । हाढ । सानुस्खार-विसर्गावेतौ । अथवाऽन्यथा रचनाक्रमेण गुरुरान(ह) ॥ ३३० ॥ मूलादर्श सर्वाऽपीयमक्षरस्थापना प्रभ्रष्टपाठात्मिका उपलभ्यते अतोऽधस्तात् कोष्ठकेषु शुद्धरूपेणैषा प्रदर्श्यते अस्माभिः। -संपादकः। सानुस्वाराणां सविसर्गाणां सानुस्वाराणां सविसगोणांतपयशानां कचटानां स्थापना- कचटानां स्थापना- तपयशानां स्थापना स्थापना। कं पचं य श|कः पचः य टःश|| तं अपं कायं च शं य तः अपः क यः च शः र २ ख फ छ र प २ खःफ छः रठः ष थं माफ खरं छषंठ |२ थः आफः ख रस छ षः ठी ३ गं बज लड गः बजाल डास||३ द इबं गलं जसं ड द: इ बः गलः जसः ४ घंभ झ वढं ह[४ घःभ झाव ढःह |४ईभ घवं झहं ढा धःई भः घव: शहा। ५ डं मज यणं श ५ नं अः म ङयं जशंणा५नः अमः यः मशःण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३३१-३३३ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं कचया (टा) दीणं पढमो, चरिमो य समं लभंतुकारेण । लभइ[५० २०३, पा० २] तवग्गे एक्कं, साणुस्सारे य सविसग्गे ॥ ३३१ ॥ 'क चटा दि' इत्यनेन कचटतपयशानां प्रथमो वर्गः । तृतीयस्वराः (वर्गः) गज ड द बलसानां । पश्चमः ङ ण न माः । एवमेवादिग्रहणं समर्थितं भवति । एते क चटा दयः उकारसहिता यथा - कु चुटु तु पु यु शु । मसो (एते ? ) धस्तात् पंचमवर्गोत्तरान् लभन्ते यथा - तप ये 5 सं (श)। अक चट । तृतीया [ १० २०४, पा० १ ]स्तु ग ज डा दयः उकारसहिता यथा - - जुगु (गु जु) डु दु (बु) लुसु । एतेऽपि त्व (स्व) स्मात् क्रमेण पञ्चमो पञ्चमो लभते (?) द ब ल स ग ज ड दया (डादयः) | अंत्या उकारयुक्ता यथा - डुबु णुनुमु । ग (य) वर्ग-शवर्गयोः पञ्चमः कथाशब्दः, हिक्काशब्दश्च । प्रश्नकाले तावपि श्रुत्वा पंचमस्य य सवर्गप्राप्तिर्भवति । यथा - मय यस दु । क्रथशब्दः, हिक्काश[ प ० २०४, पा० २ ]ब्दश्च । एते सप्त । "कचटा दीणं पढमो तइओ चरिमो समं 10 उंकारेण लभइ तवग्गं” इत्येतद् व्याख्यातम् ॥ ३३१ ॥ ख-छ-ठा दिएहि सहिया, एते उ हवंति छट्ठए वग्गे । घ-झ-ढाइएहिं सहिया, सत्तमवग्गे लभे एकं ॥ ३३२ ॥ ७७ खकार उकारयुक्तः षष्ठे पवर्गेऽक्षरमुत्तरं प्राप्नोत्युत्तरानुवलितत्वात् । छकार उकारयुक्तः शवर्गे उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् । ठकार उकारयुक्तः अवर्गे उत्तरानुवलितत्वात् उत्तरखरम् । ॥ एवं थ फर खा(षा)[अ]पि । खकारः अनुखारयुक्तः षष्ठे पवर्गे उत्त[ १० २०५, पा० १ ] राक्षरं लभते । स एव सविसर्गे युक्तोऽधरम् । छकारः सानुखारः सवर्गे उत्तरमवाप्नोति । धकारः सानुस्वारः अपवर्गे उत्तरं लभते । विसर्गयुक्तोऽधरम् । एवं छकारोऽपि [स] विसर्गयुक्तो यवर्गेऽधरमिति । एवं फरषा वक्तव्याः । एवं गाथाप्रागर्दशक्त (? प्रागर्द्धशब्दार्थः । ) 'घ झ ढाइएहिं सहिया' उकारबिन्दुविसर्गाः । थ(घ) कार ओ ( उ ) कारयुक्तः सवर्गे उत्तरं लभते । बिन्दुयुक्तः सवर्ग एवोत्तरं लभते । स एव घकारः विसर्गयुक्तः तत्रैवाधरमिति । एवं ऊ ( झ ) कार उकारयुक्तः सप्तमें सवर्गे उत्तरानुवलितत्वादुत्तरं स एव बिन्दुयुक्तः [प० २०५, पा० २] तस्मिन्नेवोत्तरं लभते । विसर्गयुक्तः अधरम् । एवं ढकारोऽपि । एवं च सर्वहा ( ?भ व हा) अपि स्वस्मात्सप्तमं वर्गाक्षरं लभन्ते ॥ ३३२ ॥ उत्तरवंजणसहि [य], सत्तमवग्गे लअंति सेससरा । अहरेहि अ संयु (जुत्ता, लभंति अहराहरे वग्गे ॥ ३३३ ॥ उत्तराः [१० २०६, पा० १] प्रथम - तृतीय- पञ्चमवर्गाक्षराः परिशिष्टैः खरैः 'ऊ ऐ औ' इत्येतैस्ट (त्रिभिर्युक्ताः आत्मीयादात्मीया[त्] सप्तम ईकारयुक्तो लभ्यते । प्रश्नाक्षराणामादिस्थितस्य यदाऽमतः हकार इकारयुक्तो दृश्यते तदा टकार इका[प०२०६, पा० २ ]रयुक्तो लभ्यते । प्रश्नाक्षराणामादिस्थितस्य यदामतः टकार औकारयुक्तो दृश्यते तदा दकारो लभ्यते । अधरवर्गा [अ]- धराधरमक्षरं लभन्ते अधरस्वरयुक्ताः । इत्येष पञ्चा ( ) गाथार्थः ॥ FO अथवाऽस्य (स्या) गाथ ( था ) या व्याख्या - उत्तरव्यंजन शेषखराः 'ऊ ऐ औ' त्रयोऽप्येते उत्तरव्यञ्जनसहिता यथा - कू चू टू तू पूयूशू । ऊकार अधस्तात् उत्तरव्यञ्जनसहितो लभते क्रमसः (शः) सर्वस(?) वर्ग यथा - श अ क च ट त प । तथा उत्तरव्यञ्जना येषु वर्गेषु अधरानुवलि - 24 25 31 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३३४-३३५ तत्वादधराक्षरान् । तथा उत्तरव्यञ्जनाः-गूजू डू दूपि० १०७, पा०.१]यूलूसू एषां लब्धि । क्रमेणैव सइ गज ड द बाः, एषु वर्गेषु अधरानुवलितत्वादधरं लभन्ते । तथा भूणूनू मू क्रमस(शः) सप्तमवर्गा यथा क्रमेण चि(चे)त्यधरानुवलितत्वादधरा(र)मिति । ई(ऐ)कार उत्तरव्यञ्जनसहितः यथा- कै चैटै तै पैयै शै । लब्धिस्तु क्रमसः(शः) एषु वर्गेषु तु(त्रि)धा भवति । [t..................] तत्त्वादधराक्षरं । बु । अ क च ट त प। एवं गज डा दयोऽपि ऐकारयुक्ता वक्तव्याः । ङबणा दयश्चेति । तथा ऊ(औ)कारयुक्ता उत्तरव्यञ्जनाः । कौ चौ टौ सौ पौ यो सौ(शौ)। लब्धिस्तु सप्तमवर्गात् अधरानुवलितत्वादधरान् । स क च ट त पाः। एवं ग जडा दयो ङ अ णा दयोऽपीति । एवं ऊकार-ऐकार-औकारयुक्ताः अधरा अधरा[न] लभन्ते । खूछ्ठूथू फूरूषू । लब्धिस्तूच्यते अधरानुवलितत्वादधरानेव [प० २०७, पा० २] ष आ ख छ ठ थ फ। " तथा, घू झू द धूभू वू हू। लब्धिक्रमो वर्गेषु अधरानुवलितत्वाधराधरलब्धिः । जइ घ झ ढ धभ यथा ऊकारयुक्तास्तथा ऐकारौकारावपि वाच्याविति एवं अधराधरेषु लभते । इत्युक्तो गाथार्थ इति ॥ ३३३॥ लभइ ककारो जुत्तो, चकारवग्गंमि तइय-चरिमेण । ट[त]वग्गे जइ पण्हे, दसमसरो [प० २०८, पा० १] तइओं यादीए ॥ ३३४ ॥ ककारः प्रश्नाक्षराणामादिस्थिति(त) ईकारेण सानुस्वारेण युक्तः चवर्गादेकमक्षरं लभते । उत्तरमुत्तरानुवलितत्वाल्लभते। प्रश्नाक्षराणामौकारस्यादिस्थस्य यदापत आकारयुक्तो टकारो दृश्यते तदा आकारयुक्तटकार एव लभ्यते । उकारस्यादिस्थितस्य प्रश्नाक्षर(रेषु) यदाप्रतः [प० २०८, पा०२] टकार: इकारयुक्तो दृश्यते तदा टकार एव ईकारयुक्तो लभ्यते । प्रश्नाक्षराणामौकारस्य यदाप्रतः तकारः अकारयुक्तो दृश्यते तदा ताकारो लभ्यते । औकारादिस्थस्य यदाऽप्रतः तकार ईकार• युक्तो दृश्यते तदा तीकारो लभ्यते । प्रश्नाक्षराणामादिस्थस्य इकारस्य यथा(दाs)प्रतः तकार आकारयुक्तो दृश्यते तदा तकार आत्मानं लभते । प्रश्नाक्षराणामादिस्थस्य इकारस्य यदाऽप्रतः तकार इकारयुक्तो दृश्यते तदा तकारो लभ्यते । औकारस्याग्रतः याकारो यदा दृश्यते तदा [प० २०९, पा० १] याकारो लभ्यते । औकारस्याग्रतः ईकारो दृष्ट ईकार एव लभ्यते । इकारस्याग्रतः याकार आत्मानं लभते ॥ ३३४ ॥ बितिय-चउत्थेहि समं, सरेहि सो चेव लभइ त-पवग्गे । सत्तम-णवमेहि समं, सेसेहि समं अहरवग्गे ॥ ३३५ ॥ पूर्वार्दो अस्य(स्या) गाथ(था)या अनन्तराकान्तगाथया वर्णितः । प्रश्नाक्षराणामादिस्थस्य उकारस्याग्रतः तोकारं लभते । औकारस्य प्रश्नादिस्थस्य पकार एकारयुक्तः पेकारं लभते । औकारस्य प्रश्नादिस्थस्याग्रतः पाकार औकारयुक्तः पो(पौ)कारं लभते । इकारस्य प्रश्नादिस्थस्या30 [प० २०९, पा० २]प्रतः इकारः(तकारः) तकारं लभते । इकारस्य प्रश्नादिस्थस्याप्रतः टो(ट)कार: टोकारं लभते । ईकारस्य प्रश्नादिस्थस्याग्रतः स्थितः[तकारः?] तेकारं लभते । इंकारस्य प्रभादिस्थस्यामतः तकारः तोकारं लभते । ईकारस्य प्रश्नादेरणतः स्थितस्य [थकारः१] थेकारं लभते । इकारस्य प्रश्नादिस्थस्य ॥ ३३५ ॥ | अनादर्श कियान् पाठः पतितः प्रतिभाति । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणाख्यं [ गाथा ३३६-३४२] बितिएण य संजुत्तो, चकारवग्गो लभइ [१० २१०, पा० १] तइयवग्गे । प-यवग्गे पुण लब्भइ, चत्तारिस(म)एण संजुत्तो ॥ ३३६ ॥ चकार एकसंख्याक[कः], ककारोऽप्येकसंख्य एव । ततः संयोगा[द] क्रान्तिकसंज्ञः । कस्मात् ? तुल्यसंख्यत्वात्। यथा 'च'। स यत्रतत्रस्थः प्रश्ने ध्व(स्व)वर्गान् प्राप्नुतः(प्राप्नोति)। टकारः ककारयुक्तोऽर्द्धक्रान्तिकसंज्ञः यथा 'टु' । स यत्रतत्रस्थः प्रश्ने पवर्ग प्राप्नोति । चतुर्थतकारेण । युक्तः [प० २१०, पा० २] ककारोऽर्द्धक्रान्तमापन्नो यथोक्तः स यत्रतत्रस्थे(स्थः) प्रश्ने तृतीयवर्ग प्राप्नोतीति ॥ ३३६॥ जो अ ककारे गमओ, भणिओ सो चेव तइय-चरिमाणं । आइम-तइयाभिहए, लभइ तकारो ह त-पवग्गे ॥ ३३७ ॥ यथा ककारः प्रथमस्वरेण तृतीयस्वरेण वा युक्तः सवर्गाक्षरं लभते । एवं तृतीयवर्गाक्ष-10 राणां ग ज ड द ब ल सा ना, चरि[प० २११, पा० १]माणां ङ अ ण न मा नां चान्यतमाक्षरप्रश्ने प्रथमस्वरेण तृतीयस्वरेण वा युक्तः आत्मीयवर्गऽक्षरमवाप्नोति उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् । खकारः प्रथमखरेण युक्तः तवर्गेऽक्षरमेकं प्रामोति उत्तरानुवलितत्वादुत्तरम् । स एव खकारः तृतीयस्वरेण युक्तः पवर्गेऽक्षरमेकमवाप्नोति उत्तरानुवलितत्वाउ(दु)त्तरम् ।। ३३७ ।। लभए वीव(इ)यजुत्तो, चकारवग्गो य तइया प० २११, पा० २ ]वग्गं च । ॥ चत्तारिमएण समं, लभइ यकारो पवग्गं उ ॥ ३३८ ॥ चकारो द्वितीयस्वरयुक्त: टवर्ग प्राप्नोति । यकारश्चतुर्थस्वरेण य(प)वर्ग लभते ॥ ३३८॥ जह भेओ उ चवग्गे, तह य कवग्गंमि चेव णायबो । एवं चिय दा(ता)दीहिं, सरेहिं भेओ मुणेयवो ॥ ३३९ ॥ यथा चकारो द्वितीयस्वरयुक्तः तृतीयं वर्ग प्राप्नोति एव्यं(व) ककारोऽपि द्वितीयस्वरयुक्तो । द्वितीयं वर्ग प्राप्नोति । तकार-चकारावप्येवमेव ॥ ३३९ ॥ एमेव सेसयाणं, चादीणं अट्ठमावसाणाणं । सरवग्गाण य जोगो, अद्धकंतकमो होइ [प० २१२, पा० १] ॥ ३४०॥ एवं यथा प्रथमवर्गः शेषाक्षराणां शकाराष्टसप्तं(ष्टमां)तानां तृतीयवर्गाक्षराणां ग ज ड द ब सानां पतुःसंख्यानामक्षराणां यः संयोगः सार्व(?आर्द्ध)क्रान्तिकसंज्ञः। तस्य संयोगस्य अधस्तात् । योऽक्षरस तृतीयवर्ग प्राप्नोति । तुल्यसंख्यस्य स्वरस्याक्षरस्य च यः संयोगः सोऽप्यर्द्धक्रान्तिकसंजः । अः तृतीयवर्ग प्राप्नोति ॥ ३४० ॥ पहाइमसंखाए, सबे पण्हक्खरे गुणेऊणं । उवरिल्ले पक्खेउं, आइल्ले अट्ठहि विभाए ॥ ३४१ ॥ सेसं वग्गे णामक्खरं होइ।* जइ पुच्छइ कं म(स)रं तो, करेज अह[प० २१२, पा० २ ]रुत्तरं कमसो॥३४२॥ मूलादर्श अस्या गाथाया एतादृश एव पूर्वार्द्ध उपलभ्यते । खण्डितप्राय इत्याभाति । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [ गाथा ३४३ - ३४४ ] श्राक्षरमध्ये उव ( प ) रिस्वराणां संख्या उपरिमात्रारहितानां च संयुक्ताक्षराणां या उपर्यक्षरसंख्या तामेकीकृत्य पृथग् (क) स्थापयेत् । परिस (शि) ष्टानां प्रश्नाक्षराणां विद्यमानाधरस्वराणां व या संख्या तामेकीकृत्य स्थापयेत् । अ क च ट त प य श वर्गाणां वसु मुनि - रस - स ( रा ) र सागरा-भियम- चन्द्राः क्रमसो (शो) गुणकारा [:] । प्रश्नाक्षराणां मात्राद्यक्षर- प्रतिबद्धो गुणाकारः, तेन गुणयित्वा स्थापितां अधोऽक्षरसंख्यामुपरि १०२१३, पा० १ ] स्वराक्षरं पृथक् स्थापितां तत्रैव प्रक्षिप्याष्टभिर्भागेऽपहृते लब्धाच्छेषाञ्च द्वौ वग्र्गौ लभ्य (भ्ये ) ते । लब्धवर्गो यदाधिका (क) स्तदास्ताभिः पुनर्भागे हृते लब्धाच्छेषाश्च (च) द्वौ वर्गों पुनर्लभ्य ( ये ) ते । ककारादयो लब्धवर्गाः शेषाश्च ज्ञेयाः ।। ३४१ - ३४२॥ ८० अत्यु(णु) सार - विसग्गविही, ण ( णा ) यो होइ सबओभणे ( है ) । चउसु विदिसासु एवं, वग्गे ण ( णा ) मक्खरुपपत्ती ॥ ३४४ ॥ सर्वतोभद्र [:] प्रस्तार मंतरेण न शक्यते दर्शयितुम् । अनुस्वारविसर्गग्रहणेन शेषस्वराणामपि सूचना कृता । अतो व्यंजनस्वरयोगाच (च्च) तुर्ष्वपि दिक्षु (क्ष्व ) क्षरपातनिकया सुखदुःखलाभालाभजीवितमरणाद्यपि नामाक्षरोत्पत्तिरपीति प्रस्तारेण दर्श ( ये ) त इति सर्वतोभद्रस्य महाकरश (ण) स्य मूलप्रतिषद्धादारस्या (भ्या) वरणपंचदशपर्यन्ति (न्तं ) न्यासमात्रं [ ५०२१४, पा० १] पंक्ति पंक्ति (?) " लिख्यते । तत्र मूलप्रतिबद्ध अष्टमंडलमध्ये अकार तस्य पूर्वतः एकारः । दक्षिणतः ऐकारः । अपरतः उकारः। उत्तरतः औकारः । द्वितीयवर्गे पूर्वादिगादि अकच ट प य श । तृतीयावरणे दक्षिणादि आ ख छ ठ थ फरष । चतुर्थे अपरादि इ ग ज ड द ब ल स । पंचमे उत्तरादि उ I .20 एमेव सवग्गे, णामक्खरपा ( या ) ण हवइ एकं तु । जइ इच्छसि तं करणं, करणे (रे) ज्ज अधराधरं तत्तो ॥ ३४३ ॥ तत्र शेषवर्गाल (ल.) ब्धवर्गाच्च एकैकं नामाक्षरं लभ्यते । प्रश्नाक्षराणां निपतितानां मध्ये पूर्वोक्ताधराधरक्रमेणाक्षरमुत्तरमधरं वाया ॥ ३४३ ॥ ॥ घर्गाक्षरसंयो[१० २१३, पा० २ ]गोत्पादनं समाप्तम् ॥ झधभव ह । भूयः षष्ठावरणे पूर्वादि आदित्य- भौम-शुक्र-बुध-गुरु-शनि-चन्द्र-राहु- पर्यन्ता ग्रहाः । सूर्यां (र्य) भौमांपु (त) रे पुनर्वसु- पुष्या - लेषा । भौमशुक्रान्तरे मघा फाल्गुनीद्वयं च । 25 शुक्रे हस्तः । शुक्रबु[ प० २१४, पा० २ ]धान्तरे चित्रा स्वाति विशाखा । बु[ध ] बृरा (हस्पत्यन्तरे अनुराधा ज्येष्ठामूलानि । गुरुसनेश्वरांतरे आषाढाऽभिजित्श्रवण | बृहस्पत्योपरि पूर्वाषाढाः । सनेश्चरांतरे धनिष्ठा शतभिषा पूर्वभाद्रपदा । चन्द्रोपरि उत्तराभाद्रपदा । चन्द्रराहू न(अ) न्तरे रेवती अश्विनी भरणी चेति । राहूसूर्यान्तरे कृतिका [ १०२१५, पा० १] रोहिणी मृगसिरश्चेति । सूर्योपरि आर्द्रा । एतत् षष्ठावरणं पूर्वदिगादितः ॥ मेष क ख ग घ ङ । वृषः च छ ज झ ञ । मिथुन वृषोपरि म ( ग ? ) कारः । जकारोपरि मिथुनः । दक्षिणस्यां कर्कटकः । ततः ट ठ ड ढ ण डकारस्योपरि सिंहः । तथदधन दकारस्योपरि कम्पः (न्या) । अपरदिसा (शा) यां तुल्य: (ला) । प फ ब भ म [ १०२१५, पा० २] पकार+ त्रुटितोsन कियान् पाठः, इति प्रतिभाति । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३४५-३४६ ] reciterrori ८१ । स्योपरि वृश्चिक । य र ल व पंचमोऽयं कुंथशब्दो लकारोपरि धनुः । उत्तरतो मकरः । श ष स ह पंचमोऽयं हिंकृतः शब्दः शकारोपरि कुम्भः । क ख ग घ ङ गकारोपरि मीनः । एवं सप्तमावरणम् । अष्टममिदानीं - पूर्वादितः क च छ ज झ ञ । न ट ठ ड ढ ण । च तथदधन । पफ बभम । दयरलव । शष सह । त क ख ग घ ङ । च छ ज झ ञ । एवा ( कम )ष्टमम् । नवमं इदानीं - पूर्वादितः च ट ठ ड ढ ण । यतथदधन । पफबभम । श यरलव । तशषस ह । क क ख ग घ ङ । पच छ ज झ ञ । च ट ठ ड ढ ण । दशममिदानीम् - ट त थ द ध न । शप फबभम । त य र ल व । क श ष स ह न । प क ख ग घ ङ । च च छ [प०२१६, पा० १ ]ज झ अ । यटठडढण । कत थदधन । एकादश (म) मिदानीं - तपफबभम । क य र ल व । पशष सह । यश क ख ग घ ङ । ज च छ ज झ ञ । ञपट ठ ड ढ ण । तथ दुध न । कृप फ ब भ म द्वादश[म] मिदानीम् - प य र ल व । शष सहन । य क ख ग घ ङ । ट च छ ज़ झन । श ट ठ ड ढ ण । तथदधन । क प फ ब भ म । पयरलव । त्रयोदश[म]मिदानींम् - यश ष स ह । द क ख ग घ ङ । शच छ ज झ ञ । त ट ठ ड ढ ण । क त थ द ध न । प फ ब भ म । व य र ल व । य श ष स ह न । चतुर्दश [म] मिदानीम् -शअ, क आ, खइ, गई, घ ङ (उ?), न उ (ऊ?), तए, च ए (ऐ), छ उ (ओ), ज ऊ (औ), झ अं, न अः । क अ, ट आ, ठइ, द (ड) ई, उ, ज (ऊ), षए, व ऐ, ओ, द औ, ध अं, न अः । च[अ], पआ, फइ, बाई, [१०२१६, पा० २] ॥ भ उ, मऊ, य ए, र ऐ, व उ (ओ), ल ऊ (औ), व अं, अः । द अ, [श] आ, [श ] इ, ई, इ उ, ख ज (ऊ), गए, क ऐ, ख उ (ओ), ग अ (औ), घअं, गः (ङ) अः । पंचदश[मं]पूर्वादितः कचटतपयश | ए । ऐख छ ठ थ फरष । आ । इ गजड द ब ल स । ओ । औ घझ ढ धभव ह । ई । अकचटतपयश । ए । आख छठथ फरष । ऐ । इ ग ज ड द ब ल स । ईझ भ वह । औ । एवं पंचदशावर्ण (रण) पर्यन्तोऽयम् ॥ ३४४ ॥ [ १०२१७, पा० १] ze ॥ सर्वतोभद्रः समाप्तः ॥ सर्वतोभद्र इति प्रहरि (ऋ) क्षराश्य क्षरविधानेन येन केनचिद् यथादिस (श) मायातस्यादेस्यो (श्या)क्षराण (णि) च प्राह्यानि । अन्यत्र विधानं इति । मंगलार्थं च इह लिखितमिति ॥ छ ॥ कंठतरिओ वि उरो, उ ( प ? ) रभारं (वं ?) सो न गच्छए मोतुं । अवसेसंति (समंत?) रिओ पुण, आइल्लुमणंतरं पावे ॥ ३४५ ॥ 'अइए उ' एते कंठ्याः । एतेषामन्यतमो[ प० २१७, पा० २] हकारस्ये (स्य) प्रश्नाक्षरादिस्थस्य यदाऽमतः तदा हकार एव लभ्यते । 'अ इ एउ' एतेषां कंठ्यानां अन्यतमादिस्थस्य 'आ ई उ ऊ ऐ औ अं अः' एतेषां अपरिशिष्टस्वराणां अन्यतमो यदाऽग्रतः स्थितमेवाद्यमन्यतरं तदा कंख्या (व्य) स्वरं लभते ॥ ३४५ ॥ उक्कारादिसु एवं, पढमंतरिओ ण एइ परभावं । अभिहर्म (मं) तो पुरओ, आदित्त (ल्ल ? )मणंतरं लभइ ॥ ३४६ ॥ उकारस्य हकारस्य प्रथमस्य प्रभाक्षरादिस्थस्य यथाऽप्रतोऽनंतरं ककारः प्रथमो दृश्यते वदा इकार एव लभ्यते । हकार (रे) ककारेणालिंगिते आदिस्थो [१०२१८, पा० १] इकार एव ठभ्यते । उकारस्य कंठपसंयोगकरणम् ॥ ३४६ ॥ नि० ० ११ 25 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । गामा ३४०-५१] +....................तीस भायए सदा कालं । जं सेसं सा हु तिही, वोच्छं णक्खत्तकरणं से ॥ लद्धाओ जा तिथीओ, या(हीणा) रूपेण कण्ण(ग्रह)पक्खस(स्स) । मुकं पि दोहि भाए, माससनामादिरिक्खगणं ॥ सर्वदा प्रश्नकालिनी छाया राम(श)यो द्वादश होरेति पंचदशानां संज्ञा प्रश्नाक्षरश्च । सर्वमेतदे. कीकृत्य तृन्स(त्रिंश)त्पंचगुणाक्षेपः । वर्तमानतिथियुक्तं च कृत्वा शेषं गतार्थः ॥अन्य(ना?)दर्शमेतत्।। पढमो विसमो उ सरो, बितिओ य समो तइज्जओ सम्मो । विसमसमो य चउत्थो, सेसा एवं सरचउक्का ॥ ३४७ ॥ प्रश्नाक्षराणामादिस्थो गकारो विष[म] इति इकारयुक्त गकारमेव लभते । प्रभाक्षरादिस्थो ॥ धकार स ईकारयुक्तो घकार एव लभते। दकारो विषम उकारयुक्तो दकार एव लभते ॥३४७॥ एवं समवग्गाणं, चउक्कया विसमवग्गयाणं च । - णायवा णंतरओ, विसमा [५० २१९, पा० १] विसमाण संजोए ॥ ३४८ ॥ समस्वरे[ण युक्तसमाक्षरस्तमेव लभते । विस(ष)मस्वरेण युक्तो विषमाक्षरो लभ्यते । एवं सर्वे ककारादयो हकारान्ताः समखरे()र्युक्ताः समाक्षरास्तमेव लभन्ते । विषमस्वरैर्युक्ता । विषमाक्षरास्त एव लभ्यन्ते ॥ ३४८ ॥ समसंजोएण समो, लभइ अ विसमो य विसमसंजोए। वग्गे दिह्रो एसो, भणिओ वग्गक्खरवि प० २१९, पा० २ ]भाओ ॥ ३४९ ।। समस्वरयोगे व्यंजनं समं लभ्यते । स्वरं च विषमस्वरसंयोगे उत्तरत्वाद् विषमाक्षरो लभ्यते । स्वरश्च विषम एव प्राग्व[दर्थः । ततोऽक्षरस्वरविभागे लब्धिरिति ।। ३४९ ॥ ॥संकट-विकटं समाप्तम् ॥ वग्गक्खरा तिपु(गु)णिया, खेवो पढमक्खरस्स वग्गंमि ।। तिसु चउसु अधो अहे, तंमि य णा[मक्खरं वग्गे ॥ ३५०॥ प्रभाक्षराः। एवं वर्गाक्षराः। प्रश्नाक्षराणां विद्यमानस्वराणां या संख्या तामेकीकृत्य तृ(त्रि)गुणां कृत्वा प्रश्नाक्षराणां ककारादीनां हकारांतानां अन्यतमादौ दृष्टा पूर्वत(त्रि)गुणितॐ पिंडात् पंच प्रक्षिप्य ये ककारादीनां हकारांतानां [प० २२०, पा० १ ]प्रश्नाक्षराणामन्यतमादौ दृष्टे तस्मिन्नेव संख्या पिंडाख्या चतुरक्षिप्यास्ताभिर्भागेऽपहृते शेषे तकारादिवर्गो लभ्यते । लब्धानां पुनः सप्तभिर्भागे पल(यल्ल)ब्धं यच्च शेषं तयोः ककारादिवर्गो लभ्यते ॥ ३५० ॥ अक्खरसरिसा जोणी, मत्तासरिसं च जाणए रूवं । . एवं सेण बिभत्ते, वग्गेण निरूविओ भेओ ॥ ३५१ ॥ + अस्या गाथाया एष पूर्वार्द्धः खण्डितरूपेण उपलभ्यतेऽत्रादर्शे। परं भने ८५ तमे पृष्ठे इयं गाणा अखण्डारिमका पुनर्लिखिता लभ्यते। आदर्शान्तरभेदेनेयं पुनरुक्तिरन जाता सम्भाव्यते। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गावा ३५२-३५७] प्रश्रव्याकरणाख्यं जीव-धातु-मूलाक्षरैः पूर्वोक्तैर्जीवधातुमूलयोनिनिर्देशकार्यः(य?) मात्राभिर्द्रष्टव्यम् । रूपं शुक्लं कृष्णं पीतं रक्तादि । लक्षणं दीर्घमल्पं वृत्तं इति । जीव-धातु-मूलोत्तराधरैः पंचभिर्भेदः प्रश्नाक्षराणां निरूपयितव्यो वर्गप्रतिबन्धः ॥ ३५१ ॥ [प० २२०, पा० २] पढम-तइए य चरिमा, वग्गा पासंडिया तहा भणिया । सेसा य अपासंडी, णिहिट्ठा पण्हइत्तेहिं ॥ ३५२ ॥ प्रथम-तृतीय-पंचमवर्गाणां अन्यतमबहुले प्रश्ने पाखंडिनो ज्ञेयाः। के ते ? प्रव्रजिताः अरहन्तादयः आजीविकादयश्च । शेषाणां द्वितीय-चतुर्थ-वर्गाक्षराणां अन्यतमाधिके प्रभे अपाखंडिनो शेयाः । [प० २२१, पा० १] अपाषंडिन इति गृहस्था भण्यन्ते ॥ ३५२ ॥ पढमो वग्गो पासंदाहिण (दाहिणपासं?) बिइ(ई)य एव चउत्थे य।। रा(वा)मं तइए मज्झं, दो पासे पंचमं जाण ॥ ३५३ ॥ प्रथमवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने तैरेव प्रथमवर्गाक्षरैरनभिहतैर्दक्षिणपार्श्वे पुरुषस्य लांछनं ज्ञेयम् । अनभिहतैः स(शोषप्रहार इति । द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षराणामन्यतमबहुले [प० २२१, पा० २] प्रश्ने तैरेव द्वितीय-चतुर्थवर्गाक्षरैरनभिहते वामपार्श्वे लांछनं प्रत्येतव्यम् । अभिहतैस्तैरेव शरः प्रहारादिकम् ॥ ३५३ ॥ पढमसरे सिरभागं, णिडालयं होइ तह कवग्गंमि । चिबुयं[च चवग्गंमि, गिवप्पएसो टवग्गंमि ॥ ३५४ ॥ प्रथमस्वरग्रहणेन अवर्गो गृह्यते । तेन सिरो ज्ञेयः। कवर्गे निडालं। चवर्गे! ५० २२२, पा० १] चिबुकं । टवर्गे प्रीवाप्रदेशा(शः) ॥ ३५४ ॥ हिययं च तवग्गंमि, कडिय पवग्गंमि होइ नायबा । ऊरू [य] यवग्गंमि, जाणु पव(ए)सो सवग्गंमि ॥ ३५५ ॥ तवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने हृदयं ज्ञेयम् । पवर्गबहुले प्रश्ने कटी ज्ञेया । ज(य)वर्गबहुले अरू शेयौ। जाणु(नु)पादौ सवर्गबहुले ॥ एवं अष्टविभागांगकल्पना । [प० २२२, पा० २] पंच(एवं?)खभागकल्पनार्थः(र्थमाह?) ॥ ३५५ ॥ सीसो य अवग्गंमि, णिडालदेसो तहा कवग्गंमि । अच्छी य चवग्गंमि अ, णासा हु तहा टवग्गंमि ॥ ३५६ ॥ यदभिहितं अवर्गबहुले प्रश्ने शिरो ज्ञेयः, तस्येदानीमवयवा[न्] तैरेव वर्गाक्षरैराहअवर्गाक्षरबहुले प्रभे मूर्द्धजाः प्रत्येतव्याः । [प० २२३, पा० १] कवर्गाक्षरबहुले प्रश्ने ललाट शेयम् । चवर्गबहुले प्रश्ने लोचने । टवर्गे नासिका ॥ ३५६ ॥ वर्क होइ तवग्गे, अहरोट्टा तह पवग्गए भणिया। चिबुयं च [य]वग्गंमि, होइ य गीवा शवगंमि ॥ ३५७ ॥ तकारा(वर्मा)धिके वक्त्रम् । पवर्गाधिके ओष्ठौ । यवर्ग चिबुकः । शपर्ने प्रीका इति ॥३५७॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३५८-३६५ ] एतेसु पए।प० २२३ पा० २]सेसुं, एतेभि अभिहएहि वग्गेहिं । मसयं तिलयं सत्थ-क्खयं च कमसो वियाणाहि ॥ ३५८ ॥ सिर(शिरः)प्रभृतयो ये प्रदेशा यैरक्षरा()रुक्ताः तैरनि(न)भिहतैः अधिकैः प्रभै(भे) स प्रदेशो निरुपद्रवो वक्तव्यः । अभिहतैरुपरु(द्रावयुक्तः। चचा(?शखा)भिघातस्तृ(वि)विधः । तत्र 'तैर्वर्गाक्षरैरालिंगितैः मस(श)कं तिलकं च वक्तव्यम् । अभिधूमितैब्राह्मणं (गैर्ऋणं) दग्धैस्तु स(श)स्त्रप्रहारः तत्र प्रदेशे वक्तव्यः ॥ ३५८ ॥ भणिएहि वयणदेसे, वग्गेहि य अभिहएहि जाणिज्जा । मसय-तिलयाइ सबं, चिण्हं गुरुप(ज्झप्प)एसेसु ॥ ३५९ ॥ वदने यानि[प० २२४, पा० १] चिह्नानि अभिह (हि)तानि तैरभिहतैरक्षरैस्तानि मशकतिल• कादीनि गुह्यप्रदेशे ज्ञेयानीति ॥ ३५९ ॥ ॥ अस्त्रविभागप्रकरणमंगस्य ॥ सत्तम-णवमो य रवी, चंदो वि य होइ पढम-तइएणं । भोमो बीय-चउत्थे, पंचम-छट्ठो य ससिसुओं भणिओ ॥ ३६० ॥ सप्तमखर एकारः, णवम उ(ओ)कारः। एतौ सूर्यस्य । चन्द्रः प्रथम-तृतीयैः 'अइ' ।भौमो द्वितीय-चतुर्थैः 'आई' । बुधः उऊ ॥ ३६० ॥ एक्कारस सूरसुओ, जीवो दसमे य अट्ठमे सुक्को । बारसमो वि य राहू, एते सरसामिया भणिया ॥ ३६१ ॥ अं शनिः । औ गुरुः । शुक्र ऐ । अः [प० २२४, पा० २] राहुः । स्वराणां सा(स्वामित्वं प्रहाख्यातं तन्नामप्रतिबद्धवस्तूपचयापचयोदया-स्तमन-जया जयोत्पातादिना ज्ञेयाः ॥ ३६१ ॥ ॥खरक्षेत्रभवनम् ॥ रवि-भीम-सुक्क-बुह-गुरु-सणि-यं(च)दो राहु अट्ठमो एते । अक च ट त प य श वग्गाण होति खेत्ताहिवा णिययं ॥ ३६२ ॥ .. अक च ट त प य श वर्गाणां ग्रहाः क्षेत्राधिपा उक्ताः। तत्प्रतिबद्धाक्षरवस्तुमहै: अस्तमिदा(मना)दिहासवृद्धिज्ञेया इति ॥ ३६२ ॥ पण्हक्खरसत्तमु(गु)णं, तिहिसहियं उ(ओ)मरत्तपरिसुद्धं । मत्त(?सत्ते)हि भागसेसे, सुजा(ज्जा)इ[५० २२५, पा० १]गहा मुणेयवा ॥३६३॥ सुन्नं छएण वा (च?)उरो, तिण्णि य दो तह य रूवमिकं तु । सूरादीणं एते, उमा(ऊसा?) संझा तहा कमसो ॥ ३६४० ॥ दिनकरानयनम् ॥ ३६३ - ३६४ ॥ छाया रासी होरा, पण्हक्खरयं च होइ तीसगुणं । . पक्खो वा तिण्णि सया, सट्ठासतिहि(?) तं सबं ॥ ३६५ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३६६-३७३ ] प्रश्नव्याकरणाख्यं तीसगुणं काऊणं, सीया ( तीसा ) ए हायए सया कालं । जं से सा उ तिही, वोच्छं णक्खत्त करणं से ॥ ३६६ ॥ लडाइ (ओ) जा तिहीओ, हीणा रूवेण कण्हपक्खस्स । सु (मु?) कंमि (पि?) दोहिं च भवे, मासस्स नामरिक्खगणं ॥ ३६७ ॥ सर्वदा प्रश्नकालिनी छाया रास्य (श) यो द्वादश । होरेति पंचदशानां संज्ञा । प्रश्नावरच | [१० २२५, पा० २] [सर्व? ] मेतदेकीकृत्य नृत्सत्या ( त्रिंशता ) गुणा शून्यक्षेपः ३६० वर्तमानातिथियुक्तं च कृत्वा । शेषं गतार्थम् । अनादर्थ (शै ? ) मेतत्तिथी (थि) नक्षत्रकांडम् ॥ ३६५-३६७ ॥ गंधवाह (इ) अवग्गे, दिट्ठे विज्जाहरा कवग्गंमि । पमाहाहा (?) [च] वग्गंमि, णागय (?) य ( ट ) वग्गमिति ॥ ३६८ ॥ [ इयं गाथा अस्पष्टार्था । न चास्या व्याख्यालेशो लभ्यते । - संपादक: । ] क्खा य []ariमि, देवा भणिया तहा पवग्गंमि । नागा य यवग्गंमि, भूया जाणे सवग्गंमि ॥ ३६९ ॥ aafa प्र यक्षा | पवर्गाधिके देवा । यवर्गाधिके नागा । स (श) वर्गाधिके भूताः ।। ३६९ ॥ पेया य षवग्गंमि, जाण सकारे य तह पिसाया य । कोहंडा य हकारे, एवं जाणिज्जा १० २२६, पा० १]णुक (क) मसो ॥ ३७० ॥ ख (ब) काराधिके प्रश्ने प्रेताः । सकाराधिके पिशाचाः । हकाराधिके कुष्मांडाः ॥ ३७० ॥ ८५ एहि अक्खरेहिं, जाणसु अभिघाइएसु मरणं तु । जो (जा) जस्स देवया अक्ख [र]स्स तेणेव सा भणिया ॥ ३७२ ॥ अणुणासिसु असुरा, णायचा यं (अं)मि दीसए जंमो । सविसग्गंमि अकारे, जक्खा सुणया य संजोए ॥ ३७१ ॥ अनुनासिक बहुले असुरा । अ (अं) कारः सानुखारः, तदधिके प्रश्ने यमो ज्ञेयः । अकार: 20 सविसर्गः, तदधिके प्रभे यक्षा ज्ञेयाः । संयोगाक्षराधिके प्रश्रे स्वा (श्वा) नरूपिणो यक्षा ज्ञेयाः ॥ ३७१ ॥ यस्य यस्य देषताविशेषस्य येऽक्षराः पूर्वाभिहितास्तैरहि ( र भिह) तैस्तस्मात् तस्मात् देवताविशेषात् सकासा (शा)न्म [ १० २२६, पा० २ ] रणमपि ज्ञेयम् ॥ ३७२ ॥ पढमय-बीय (बि-तिय) चउत्थो, पंचमवग्गो य तह ध णायचो । वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइय अक्खरा कमसो ॥ ३७३ ॥ प्रथमवर्गाधिके प्रश्ने वातिका व्याधिरादेस्या (श्या) । द्वितीयवर्गे पैत्तिका । तृतीयवर्गे श्लेष्मा । चतुर्थवर्गाक्षराधिके प्रश्ने सान्निपातः । पञ्चमवर्गाक्षराधिके प्रश्ने क्षयो व्याधिरादेश्यः । प्रष्टुरन्यस्य षा यं व्याधिष्कृत्पृच्छतीति ॥ ३७३ ॥ 10 15 25 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् । [गाथा ३७४-३७८] पणयालसयं अट्ठत्तरं च दोहावग्गाहिवुव(ध?)रासी। अवसा(से)साणं छण्हं, एक्कोत्तरिया हवइ विठ्ठी(डी)॥ ३७४ ॥ पूर्वादिस्थस्य प्रादक्षण्येन बुधका(?)विन्यस्य प्रभाक्षरसहितं कृत्वा गुणयेत् ॥ ३७४ ॥ पंच य सत्त य णव तेरसे य अट्ठादसमे य सोलसयं । बत्तीसं तित्तीसं, जाणसु गुणकार रासीओ ॥ ३७५ ॥ पूर्वादितः प्रश्ना सहिता बुधका(?) यथास्थितप्रस्तु[त]दिक्चक्रं गुण्य सोधनिकां यथाखं विशोधयेत् ॥ ३७५ ॥ पंचगतिगछसत्तट्ठमा य ते होंति सोहणा कमसो । धय धूमे(म) सीह साणा, वसहमि पुक्कितिया एते ॥ ३७६ ॥ णियव(?णवयोक्खरंमि जाणे, सोहणयं चोदसे तु वाणि(?) । पण्णरसगए भरिया, सोलसढके वियाणाहि ॥ ३७७ ॥ एसो [सो] संखेवो, भणिओ जिणभासिओ समासेण । जाव य णिठ्ठइ णाम, लाभालाभेसु सबेसु ॥ ३७८ ॥ एष सः उक्तेन प्रकारेण सात्त्विकाय पुरुषाय बुद्धिबलं ज्ञात्वा, ने(न)तदभव्यापि(य) । नास्तिके(का)याद्धधानया(नाय) अकुलपुत्राय जात्यादा(द)जात्यसंपन्नाय देयम् । गुरुशुश्रूषकाय ज्ञानवते चास्तिकाय देयमिति । जिनग्रहणपरिज्ञानार्थं कृतं यो यन्नामाक्षरैरक्षरैः लाभालाभादि स सर्व वक्तव्यं प्रश्ने [इति ।। ३७६-३७८ ॥ ॥प्रश्नव्याकरणं समाप्तम् ॥ ॥ संवत् १३३६ वर्षे चैत्र शु० १॥ इति संपूर्णम् ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानदीपकाख्यं चूडामणिसारशास्त्रम् । --2OROSनमिऊण जिणं सुरअणचूडामणिकिरणसोहिपयजुयलं । इय चूडामणिसारं कहिय मए जा(ना)णदीवक्खं ॥१॥ जिनमहंतं सुरगणचूडामणिकिरणशोभितपादयुगलं नत्वा इदं चूडामणिसारं ज्ञानप्रदी-: पाख्यं मया कथ्यत इति ॥ १॥ पढम-तईय-सत्तम-रंधसरा पढम-तईयवग्गवण्णाई । आलिंगियाइं सुहया उत्तर-संकडअणामाइं ॥२॥ अ इ ए ओ एते प्रथम-तृतीय-सप्तम-नवमाश्चत्वारः, तथा क च ट त पयशा गजड द ब ल सा एते प्रथम-तृतीय[वर्ग]चतुर्दशवर्णाश्च आलिंगिताः, सुभगाः, उत्तराः, संकटनामकाश्च 10 भवन्तीति ॥ २॥ कुच-जुग-वसु-दिस-सरआ बीय-चउत्थाई वग्गवण्णाई। अहिधूमिआई मज्झा ते उण अहराई वियडाइं ॥ ३ ॥ आई ऐ औ एते द्वितीय-चतुर्थाष्टम-दशमाश्चत्वारः स्वराः, तथा ख छ ठ थ फरषाः घ झ ढध भ व हाः एते द्वितीय-चतुर्थवर्गाणां चतुर्दशवर्णाः अभिधूमिताः, मध्यास्तथा उत्तराधरा 15 विकटाश्च भवन्तीति ॥ ३ ॥ सर-रिउ-रुद्द-दिवाअर-सराइं वग्गाण पंचमा वण्णा । दड्ढाइं वियड-संकड-अहराहर-असुहणामाई ॥ ४ ॥ उ ऊ अं अः एते पंचम-पष्ठिका एकादशम-द्वादशमाश्चत्वारः स्वराः, तथा उमण नमा इति वर्गाणां पंचमा वर्णाः दग्धाः विकटसंकटा अधरा अशुभनामकाश्च भवन्ति ॥ ४ ॥ सबाण होइ सिद्धी पण्हे आलिंगिएहि सबेहिं । अहिधूमिएहिं मज्झा णासइ दड्डेहिं सयलेहिं ॥ ५ ॥ प्रभे आलिंगितैः सर्वैः सर्वेषामेव सिद्धिर्भवति, [अभिधूमितैर्मध्या सिद्धिः] दग्धैः सर्वैः सिद्धिनश्यति ॥५॥ उत्तरसरसंजुत्ता उत्तरआ उत्तरुत्तरा हुँति । अहरेहिं उत्तरतमा अहरा अहरेहिं णायवा ॥६॥ उत्तरसंशकैः स्वरैः संयुक्ता उत्तरसंज्ञका एव वर्णा उत्तरतमा भवन्ति । त एव अधरा. धरसंशकैः स्वरैः संयुक्ता उत्तरसंज्ञका अधरसंज्ञकाश्च भवन्तीति ॥ ६॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडामणिसारशास्त्रम् । [गाथा ७-१४] अहरसरेहिं जुत्ता ते दड्डा हुंति अहरअहरतमा । कज्जाइं साहंति सुअ(इ)रं अधमा अधमाइं किं बहुणा ॥ ७ ॥ अधरसंज्ञकैः स्वरैः संयुक्ता दग्धा वर्णा अधराधरतरसंज्ञका भवंति । ते च सुचिरकालेन अधमाधमानि कार्याणि साधयन्ति किंबहुनेति ॥ ७॥ दड्ढसरेहिं जुत्ता दढतमा हुंति दड्डया वण्णा । । ते णासयंति कजं बलाबलं मीसयेसु सयलेसु ॥ ८॥ दग्धसंज्ञकैः स्वरैः संयुक्ता दग्धसंज्ञका वर्णा दग्धतमसंज्ञका भवन्ति तेषां बलत्वान्नि:फलं भवति ॥ ८॥ आलिंगिएहिं पुरिसो महिला अहिधूमिएहिं सवेहिं ।। दड्डेहिं होइ संढो जाणिजइ पण्हपडिएहिं ॥ ९ ॥ आलिंगितैर्वणः प्रश्ने पतितः पुरुषो भवति ।अभिधूमितैः स्त्री। दग्धैनपुंसकमिति जानीतेति ॥९॥ जइ वग्गाण य वण्णा पढम-बीय-तीय-चउत्थ-पंचमया । तह विप्प-राय-वयसा सुद्दो विय संकरा य सयलाई ॥ १०॥ यदि वर्गाणां वर्णाः प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पंचमकाः, तदा विप्र-राजन्य-विट्-शूद्राः, Is अपि च संकरजातयः सर्व एव भवन्तीति ॥ १० ॥ एदेहिं वण्णेहिं कमेण बालो कुमारओं तरुणो । मज्झिमवयो वि थविरो जाणिजइ पण्हपडिएहिं ॥ ११ ॥ तथा एतैरेव वर्णैः प्रश्ने पतितैः क्रमेण बालः कुमारस्तरुणो मध्यमवया वृद्धश्च भवतीति जानीहि ॥ ११ ॥ आलिंगिएहिं विट्ठी मज्झा अहिधूमिएहिं सा होइ । दड्डेहिं णत्थि विट्ठी जिणवयणं सच्चियं जाण ॥ १२ ॥ " आलिंगितैर्वृष्टिः, अभिधूमितैर्मध्यमा वृष्टिः, दग्धे नास्ति वृष्टिरिति जिनवचनं सत्यमेव जानीहि ॥ १२॥ अइउप्पज्जइ सस्सं पण्हे आलिंगिएहिं वण्णेहिं । अहिधूमिएहिं किंचण णासइ दड्रेहिं णो चित्तं ॥ १३ ॥ अतिशयेनोत्पद्यते सस्यं प्रश्ने आलिंगितैर्वर्णैः, अभिधूमितैः किंचिदुत्पद्यते, दग्धैर्नश्यति, अत्र नो चित्रमिति ॥ १३ ॥ संपदिकालं पण्हे वण्णो आलिंगि पयासेइ । अहिधूमिओ वि भूअं दड्डो उण भावियं णूणं ॥ १४ ॥ " प्रश्ने आलिंगितो वर्णः संप्रतिकालं प्रकाशयति । अभिधूमितोऽपि भूतम् । दग्धः पुनर्भाविकालं नूनमिति ॥ १४ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा १५-२२] ज्ञानदीपकाख्यं तह पढम बीय तइआ वण्णा वुचंति तिणि कालाई । मा इत्थ करह भंती जहसंखं सयलवग्गाणं ॥ १५॥ तथा समस्तवर्गाणां प्रथम-द्वितीय-तृतीयवर्णाः यथासंख्यं त्रीन् कालान् ब्रुवन्ति । अत्र मा भ्रांतिं प्रकुरुतेति ॥ १५ ॥ आलिंगिएहिं मुक्कइ वाहिं अहिधूमिएहिं ण हु रोई । अहवा चिरेण कटुं दड्डो मरणं पयासेइ ॥ १६ ॥ आलिंगितैयाधिं रोगी मुंचति, अभिधूमितैर्न मुंचति, अथवा चिरेण कष्टात् मुंचति, दग्धश्च मरणमेव प्रकाशयति ॥ १६ ॥ विसमा दाहिणपासे वामे य वणं समा य पयर्षति । वण्णा पण्हे पडिया पंचमया बेवि पासंमि ॥ १७ ॥ प्रश्ने पतिता विषमाः प्रथम-तृतीयवर्णा दक्षिणपार्श्वे तथा समाः द्वि-चतुर्था वर्णाः वामपार्श्वे पंचमका वर्णाः उत्तरपार्श्वे व्रणं प्रकाशयन्ति ॥ १७ ॥ अट्ठ सिरो-मणि-वयण-हियय-कडि-उरु-जाणु-चरणजुयलेहिं । पण्हविलग्गा वग्गा वणाइं दरिसंति जहसंखं ॥ १८ ॥ अष्टौ वर्गाः प्रश्नविलब्धाः यथासंख्यं शिरोललाटवदने[९] तथा हृदय-कटि-ऊरु-जानु- 15 चरण-युगलेषु व्रणा निदर्शयन्ति ॥ १८ ॥ अणिलय-पित्तय-सेफय-संसग्गय-आहिघाययं रोगं । पयडंति पंचवग्गा जहसंखं पढम उद्दिट्ठा ॥ १९ ॥ प्रथमोदिष्टाः पंचवर्गाः यथासंख्यं अनिलजं पित्तजं श्लेष्मजं संसर्गजं अभिघातजं रोगं प्रकटयन्ति ॥ १९॥ अइमंद-मज्झ-दारुणपीडाइं दिति पण्हपडिआइं । आलिंगियाहिधूमियदडा वण्णा जहासंखं ॥ २०॥ आलिंगिताभिधूमितदग्धा वर्णाः प्रश्नपतिता यथासंख्यं अत्यन्तमन्दमध्यदारुणां पीडां प्रकटयन्तीति ॥ २० ॥ आलिंगिएहि संधी ण हु संधी विग्गहे(हो) ण अहरेहिं। । अहराहरेहिं कहिओ समरो सुहडाण णासयरो ॥ २१॥ आलिंगितैः संधिर्भवति, अधरैर्न च संधिर्न च विग्रहः, अधराधरैः संग्रामः सुभटानां नाशकर इति ॥ २१ ॥ विजयं उत्तरवण्णो ण जयं ण पराजयं वि अहरेहिं । अहराहरो पयासइ पराजयं णत्थि संदेहो ॥ २२ ॥ उत्तरो वर्णो विजयं प्रकाशयति, अधरो वर्णो न जयं न पराजयं, अधराधरश्च पराजयवित्यत्र नास्ति संदेहः ॥ २२ ॥ मि.भा. १९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडामणिसारशास्त्रम् । [गाथा २३-२९] जइ पढमक्खरमहरं अवसाणे उत्तरक्खरं पण्हे । ता उत्तरो सुबलिओ विवरीओ ताण विवरीयं ॥ २३ ॥ जयपराजयप्रश्ने यदा प्रथमाक्षरमधरं अवसाने च उत्तरमक्षरं भवति तदा उत्तरो बली भवति ॥ २३ ॥ पढमसरेण य जुत्ता पण्हे मत्ताविवज्जिया वण्णा । अणभिहिअणामआ दे पअडंति य जीवचिंताई ॥ २४ ॥ प्रथमस्वरेण युक्ता अन्यमात्राविवर्जिता वर्णाश्च ते प्रश्ने अनभिहितनामका भवंति ते च जीवचिंता प्रकटयन्ति ॥ २४ ॥ ससि-तइअ-पंच-सत्तम-नवमसरा रुद्दसंखसरसहिया । क-च-टा पंचमहीणा सहिया य-स-हेहिं जीवक्खा ॥ २५॥ प्रथम-तृतीय-पंच-सप्तम-नवमाः स्वराः एकादशस्वरसहिताः, तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाः पंचमहीनाः, यकार-शकार-हकारसहिता एते एकविंशतिवर्णाः जीवाख्या भवन्तीति ॥ २५ ॥ बीओ छट्ठो सरओ सविसग्गो तह व-सक्खरोपेओ। तह उण पंचमहीणा त-पवग्गा धाउणामा उ ॥ २६ ॥ द्वितीयः षष्ठः स्वरः, सविसर्गः, तथा वकार-सकारोपेतः, तथा पुनस्तवर्गः पवर्गः पंचमहीन एते त्रयोदशवर्णा धातुनामका भवन्ति ॥ २६ ॥ ई ऐ औ सरजुत्ता र-ल-षा ङ-अ-ण-न-माइं वण्णाइं। एआरह मूलक्खा पयासिया जिणवरिंदेण ॥ २७ ॥ चतुर्थाष्टमदशमस्वरयुक्ता र-ल-षकारा ङ-ब-ण-न-माश्चेत्येकादश वर्णा मूलाक्षरप्रकाशका ॥ भवंतीति । एतेनैतदुक्तं भवति लाभप्रश्ने धातुलाभः, मूलाक्षरैर्जीवलाभः, धात्वक्षरैर्जीवाक्षरैर्मूललाभ इति नात्र कार्या विचारणा ॥ २७ ॥ मुट्ठीजीवक्खरए मूलं जीवं वि मूलअक्खरए । धाउं उण जाणिजह धाउक्खरएण किं चोजं ॥ २८ ॥ मुष्टौ जीवाक्षरैर्मूलं ज्ञातव्यम् , जीवं च मूलाक्षरैः, धातुं धात्वरैरेवेति किमित्याश्चर्यमिति ॥ २८॥ बहुपढमवग्गवण्णा अह बहुबिंदू विसग्गसंजुत्ता । बहुवन्ना जह पण्हे ता सुन्नं मुट्ठिचिंताई ॥ २९ ॥ प्रभे यदि बहवः प्रथमवर्गवर्णा भवन्तीति, अथवा बहुबिंदुविसर्गसंयुक्ता भवन्ति, अथवा प्रभा एव बहवो भवन्ति तदा मुष्टिचिन्तायां शून्यं भवति ॥ २९॥ प्र० जीबखरा। - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ३०-३६] ज्ञानदीपकाख्यं विसमसरा ऊआरो वग्गाणं पढम-तइयवण्णाइं। दुप्पय-णराण एसा एआहाराण णहु होइ ॥ ३० ॥ विषमस्वराः प्रथम-तृतीय-पंचम-सप्तम-नवमैकादशमाः, तथा ऊकारश्च, तथा वर्गाणां प्रथम-तृतीयवर्णाश्च एते द्विपदेषु नराणां वर्णाः, एतदाहाराणां राक्षसानां न भवन्तीति ॥३०॥ बीओ दसमो सरओ वग्गाणं बीयवण्णया सयला । दिसंति जइअ पण्हे ता मुणह चउप्पयं जीवं ॥ ३१ ॥ यदि प्रश्ने चतुर्थाष्टद्वादशः स्वरो भवति, तथा वृश्चिकादीनां जातिं दृष्टिं च व्याघ्रादिकं तं तवर्गवर्णों वदति, तथा वर्गाणां चतुर्था वर्णाश्च तदा चतुष्पादा जीवा भवन्ति ॥ ३१॥ जइ वग्गाण य वण्णा पंचमया हुंति पण्हपडियाइं। ता मुणह णरअवासिय भूअपिसाचाइं सबाइं ॥ ३२ ॥ यदि वर्गाणां पंचमा वर्णाः प्रश्ने पतन्ति भवन्ति, तदा नारकवासिनो भूतपिशाचाश्च सकलान् जानीतेति ॥ ३२ ॥ मत्ता त-पवग्गेहिं य-शवग्गेहिं हुंति सउणा य । सिद्धा सरेहि भणिया देवा उण क-च-टवग्गेहिं ॥ ३३ ॥ तवर्ग-पवर्गाभ्यां मर्त्याः, यवर्ग-शवर्गाभ्यां शकुनाः, स्वरैः सर्वैरेव सिद्धाः, देवाः पुनः 15 कवर्ग-चवर्ग-टवगैर्भवन्तीति ॥ ३३ ॥ चवइ कवग्गो पण्हे लडो थलचारियं विहंगमयं । तं चिअ अइप्पहाणं तवग्गओ णत्थि संदेहो ॥ ३४ ॥ प्रश्नलब्धः कवर्गः स्थलचारिणं विहंगमं वक्ति । तमेव स्थलचारिणं विहंगमं अतिप्रधानं . मयूरादिकं तवर्गो वक्तीति संदेहो नास्ति ॥ ३४ ॥ जइ अ चवग्गो लदो तह पक्खी होइ जलयरो णूणं । तं पि टवग्गे सिटुं चवइ पवग्गो गुहसयंधं ॥ ३५ ॥ यदि चवर्गो लब्धः तदा जलचराः पक्षिणो भवन्ति । नूनं तमपि जलचरं पक्षिणं श्रेष्ठं हंसादिकं टवर्गो वक्तीति । अधर्म (अन्धं ?) च गुहाशयं उलुकादिकं पवर्गो वक्तीति ॥ ३५ ॥ पण्हे कवग्गवण्णा कालोरय-सिंगिणो पयासंति । 23 राजीवसप्पजाई चवग्गवण्णा य दंतत्थं ॥ ३६ ॥ प्रभे कवर्गवर्णाः कालोरगाश्च शृंगिणश्च वृषभादीनि प्रकाशयन्ति । राजीवसर्पजाति शंखचूडाविक दंताक्षं च हस्तिप्रभृतिकं चवर्गवर्णाः प्रकाशयन्तीति ॥ ३६॥ प्र. मुणहु । २ प्र० अइपमाणं। ३ प्र० पंखी। ४ प्र. वच्च पवग्गो समधमं । । । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडामणिसारशास्त्रम् । [ गाथा ३७-४४] गोणाससप्पजाई टवग्गवण्णा फुडं पयासंति । लहुअविसाणं जाई दिट्ठीणं होई तवग्गवण्णेहिं ॥ ३७ ॥ गोनसो सर्पजाति टवर्गवर्णाः स्फुटं प्रकाशयन्ति । लघुकविषाणां जंतूनां वृश्चिकादीनां जाति दृष्टिं च व्याघ्रादिकं तं तवग्र्गो वर्णो वदति ।। ३७ ॥ विसमच्छ-दाहि(ढि ? )दुंदुहि-कीडविसेसाइं किं चुजं । जइ किर लद्दो पण्हे पवग्गओ पहचउरेण ॥ ३८ ॥ यदि प्रश्नचतुरेण प्रश्ने पवर्गों विलब्धस्तदा विषमत्स्यान् शृंगिकाप्रभृतीन् दंष्ट्रान् मकरनक्रप्रभृतीन् दुंदुभिप्रभृतिकीटविशेषकान वक्ति अत्र किमाश्चर्यमिति ॥ ३८ ॥ ससि-जलण-बाण-मुणि-गह-रुद्द-सरा वग्गाण दु-तीयवण्णा य । वुच्चंति धम्मधाउं अधर्म चिय सेससरवण्णा ॥ ३९ ॥ प्रथम-तृतीय-पंचम-सप्तम नवमैकादशमाः स्वराः, तथा कवर्गादिसप्तवर्गाणां द्वितीयवर्णाश्च धाम्यधातुं वदन्तीति ॥ ३९ ॥ रवि-रुद्द-पक्खसरओ पंचमहीणा कवग्गवण्णा य । कणयं चवन्ति तारं सत्तमवग्गो मुणिंदुसरओ य ॥ ४० ॥ द्वादशमैकादशम-द्वितीयस्वराः पंचमहीनाः कवर्गवर्णाश्च कनकं वदन्ति । रजतं च सप्तमो वर्ग: तथा सप्तमः प्रथमः स्वरश्चेति ॥ ४० ॥ तंब च तइओ सरओ पंचमहीणो चउत्थओ वग्गो । लोहं दसमो सरओ अट्ठमवग्गो मैकारो य ॥४१॥ तानं तृतीयस्वरः पंचमहीनः चतुर्थो वर्गश्च, लोहं दशमस्वरः तथाष्टमो वर्गों मकारश्च ० वदति वचनपरिणामेन पूर्वतो न वर्तत इति ॥ ४१ ॥ वंगं तइओ वग्गो पंचमहीणो कवग्गपंचमओ। अट्ठम-पंचमसरओ पण्हे लडो पयासेइ ॥ ४२ ॥ बंगं त्रपु पंचमहीनस्तृतीयो वर्गः, तथा कवर्गपंचमो वर्णश्च, तथाऽष्टमः पंचमः स्वरः प्रभे लब्धः प्रकाशयतीति ॥ ४२ ॥ ५ छट्ठसरो एकतो पंचमवण्णों अ तईयवग्गस्स । जइ पाविजइ पण्हे ता णूणं सीसअं मुणहें ॥ ४३ ॥ षष्ठखर एकाकी तथा तृतीयवर्गस्य पंचमो वर्णश्च यदि प्रश्ने प्राप्यते तदा नूनं सीसकं कथयन्ति ॥४३॥ न-प-फ-म-भा ऊ वण्णा पण्हे लद्धा कुणंति पित्तलयं ।। ण-त-था द-धा इ-आरा कंसं ण हु अत्थि संदेहो ॥ ४४ ॥ प्र. धाम । २० समं । ३ प्र० तह म । ४ प्र० °वग्गो वि। ५५० भणए । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ४५-५१] ज्ञानदीपकाख्यं नकार-पकार-फकार-[मकार-भकारस्तथा ऊकारश्च एते प्रश्ने लब्धाः पित्तलकं कथयन्ति । णकार-तकार-थकार-दकार-धकार-इकारश्च एते कांस्यं कथयन्ति । तथा अत्र न खलु संदेहोऽस्तीति ॥४४॥ कणयक्खरं पयासइ मरगयमाणिकपहुईरयणाई। मुत्ताहीरयपहुइं तारक्खरयं णे संदेहो ॥ ४५ ॥ कनकाक्षरं मरकतमाणिक्यप्रभृतिरत्नानि प्रकाशयति, ताराक्षरं च मुक्ताहीरकप्रभृतिकं प्रकाशयति ॥ ४५ ॥ कक्करतालयपहुर्दि [तं]वक्खरयं [च] भणइ णो चित्तं । लोहक्खरेहिं जाणह रयणाइं इंदनीलपहुदीणि ॥ ४६ ॥ ताम्राक्षरः तालकप्रभृति भणति नात्र चित्रम् , लोहारैश्च इंद्रनीलप्रभृतीनि रत्नानि " जानीतेति ॥ ४६॥ कंसक्खरं पयासइ रयणऽसेसाई काचपहुदीणि । सेसं सीसयपहुदि पित्तलसीसाइ अक्खरयं ॥ ४७ ॥ कंसाक्षरं काचप्रभृतीनि रत्नविशेषाणि प्रकाशयति । शेषं पित्तलसीसकाद्यक्षरं शीशकप्रभृतीनि रत्नविशेष प्रकाशयति ॥ ४७ ॥ उत्तरवण्णपहाणं पण्हे गढियं पयासए णिचं । धाउमगढिअं अहरं अक्खरयं भणइ सच्चमियं ॥ ४८ ॥ प्रश्ने उत्तरवर्णाः प्रश्नमक्षरं नित्यं घटितं धातुं प्रकाशयति । अधरमक्षरं अघटितं धातुं भणतीति सत्यमिदम् ॥ ४८ ॥ आलिंगिएहिं जाणह कंकणकेऊरपहुदि आहरणं । अहरक्खरेहि गढिअं कच्चोलयपहुति भायणयं ॥ ४९ ॥ घटिते धातोर्लब्धे सति पुनरपि प्रश्ने आलिंगिताक्षरैः घटितं केयूरप्रभृतिकमाभरणक भवतीति । अधराक्षरैर्घटितं कच्चोलकप्रभृति भाजनं भवति ॥ ४९ ॥ उत्तरवण्णपहाणं पण्हे दरिसेइ अहिणवाहरणं । अहरक्खर अपहाणं उवभुत्तं पत्थि संदेहो ॥ ५० ॥ आभरणे प्राप्ते सति पुनरन्यप्रश्ने उत्तरवर्णप्रधानं प्रश्नमभिनवाभरणं दर्शयति । अधराक्षरेऽप्रधानं च उपाभरणं दर्शयतीति नास्ति संदेहः ॥ ५० ॥ सबे उत्तरवण्णा भवंति सुरलोअलोअणाहरणं । अहरवखराइ Yणं माणवलोयस्स जंतूणं ॥ ५१ ॥ पुनरन्यप्रश्ने सर्व एवोत्तरवर्णाः सुरलोकानामाभरणं ब्रुवन्ति । अधराक्षराणि मानवलोकस्य 30 द्विपदचतुष्पदजंतूनामाभरणं झुवन्ति ॥ ५१ ॥ प्र. पहुदि। २५० णस्थि । ३ प्र० सञ्च । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडामणिसारशास्रम् । [गाथा ५२-५९ दुप्पयवण्णा पण्हे दुप्पअजंतूण चवइ आहरणं । सो वि णर-णारयाणं विहगाणं विहगवण्णेहिं ॥ ५२ ॥ पुनरन्यप्रश्ने द्विपदवर्णा द्विपदजंतूनामाभरणं ब्रुवन्तीति । विहगवर्णाश्च विहंगानामाभरणं ब्रुवन्ति ॥ ५२ ॥ जइ य चउप्पयवण्णा पण्हे लडाई हुंति पउराई। मा करहु इत्थ भंती जाणिज चउप्पयाहरणं ॥ ५३ ॥ पुनरन्यप्रश्ने यदि चतुष्पदवर्णाः प्रश्ने लब्धाः प्रचुरा भवंति तदा मा भ्रांतिं कुरुत चतुपदाभरणं जानीतेति ॥ ५३ ॥ दिस-कुच-वेयट्ठमया सरया दरिसंति उद्धआहरणं । ससि-तिय-गह-सत्तमया मज्झंगे सेस अद्धाणं ॥ ५४ ॥ दशम-द्वितीय-चतुर्थाष्टमकाः स्वराः ऊर्द्धदेहाभरणं दर्शयन्ति । प्रथम-तृतीय-नवमसप्तमकाश्च मध्यदेहाभरणं दर्शयति ॥ ५४ ॥ आहरणाण य वण्णा संसिट्ठा हुँति जई य त-पउरा । ता तं रयणणिबद्धं भायणयं ताण वण्णेहिं ॥ ५५ ॥ यद्याभरणानां वर्णाः संश्लिष्टाः संबद्धाः तवर्गप्रचुरा भवन्ति तदाऽऽभरणं रत्ननिषद्धं भवति, भाजनवर्णैश्च संबद्धैर्भाजनं रत्ननिबद्धं भवति ॥ ५५॥ जइ पउरउत्तरद्धं ता रयणं सुद्धजाइयं मुणहु । तं अहरक्खरबद्धं कित्तिमयं मीसिए मिस्सं ॥ ५६ ॥ यदि ततः प्रचुरोत्तराधरसंबंधे...... कृत्रिमजातिमिश्रितं च इतः ज्ञास्यतेति ॥५६ ॥ - उत्तम-मज्झिम-अधमा हुंति य णाणा तहा जहासंखं । - आलिंगियाहिधूमियदड्ढयपत्तेहिं पण्हेहिं ॥ ५७ ॥ तथा आलिंगिताभिधूमितदग्धके प्राप्ते प्रश्ने उत्तममध्यमाधमानि नाणकानि टंककानि शिवांकादिकानि यथासंख्यं भवन्तीति ॥ ५७ ॥ पढमं तरूण वण्णा तह ससि-गहसंमिओ सरो चेव । - क-च-टादुआण(? °ण दुइय)वण्णा दसमओ दुजो सरो वेवि ॥५८ ॥ क-च-टादिवर्गानां सप्तानां प्रथमो वर्णस्तथा प्रथम-नवमस्वरश्च एते नववर्णाः तरूणामाम्रादीनां वाचकाः, कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां च द्वितीयवर्णाः ख-छ-डास्तथा दशम-द्वितीयौ स्वरौ च एते पंच वर्णा लतानां द्राक्षादीनां वाचका इति ॥ ५८॥ रिउ-बाण-रुद्दसरओ पंचमवण्णा तिणाइ जति । । सेसदुइज्जा वण्णा वल्लीं वग्गाण चत्तारि ॥ ५९ ॥ 15 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ६०-६६] ज्ञानदीपकाख्यं ९५ __षष्ठ-पंचमैकादशस्वरः, तथा वर्गाणां कवर्गाणां सप्तानां पंचमाश्च वर्णास्तृणानि दूर्वादीनि जल्पन्ति । शेषा द्वितीया वर्णाः चत्वारि तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां चतुर्णा वल्लीनां बूलीप्रभूतिको जल्पन्ति ॥ ५९॥ अट्ठम-चउअं तिसरा चउत्थवण्णेण ठाइआ तिण्णि । जंपति ख-छ-ठ-फाओ जाइविसेसाइं गुम्माइं ॥ ६० ॥ फवर्गादिसप्तवर्गाणां चतुर्थवर्णेन स्थापिताश्चतुर्थाष्टमांतिमास्त्रयः स्वराः ख-छ-ठ-फा जातिविशेषान् गुल्मान् जल्पन्ति ॥ ६० ॥ ग-ज-डेहिं होंति य लया सालादि सत्तमसरेहिं गहिएहिं । गहिएहिं दबलसेहिं प(ध ?)ण्णापहुदीनि जाणेह ॥ ६१ ॥ कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां तृतीयवर्णेन भवन्ति तृतीय-सप्तमाभ्यां स्वराभ्यां शालादिकान् ।। वृक्षान् , तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां चतुर्णां तृतीये वर्णे गृहीते धान्यकादीन् जानीतेति ॥६१॥ जल-साहारण-जंगलदेसपभूयं चवंति भूरुहयं । आलिंगिय-अहिधूमिय-दड्ढयवण्णा जहासंखं ॥ ६२ ॥ जलसाधारणं जांगलदेशप्रभूतं भूरुहं यथा जलजं कमलोत्पलादिकं जांगलजं करीरकरमादिकं तानेतान् यथासंख्यं आलिंगिताभिधूमिता वर्णा ब्रुवन्तीति ॥ ६२ ।। तरवो हुँति असोया संणिहिया उत्तरेहिं वण्णेहिं । अधरसरेहिं अधमा पण्हे पडिएहिं दूरट्ठा ॥ ६३ ॥ उत्तराक्षरैरशोकाद्यास्तरवः प्रत्यासन्ना भवन्ति । अधराक्षरैरधमा वृक्षाः सर्वत्र शाखोटकादयो दूरस्था भवन्ति ॥ ६३ ॥ संजुत्त-असंजुत्ता जहाकम लद्ध[पण्ह]वण्णेहिं । फलियाफलिया तरुणो केवलिनाणेण भासंति ॥ ६४ ॥ संयुक्ता असंयुक्ता लब्धाः प्रश्नवर्णाः यथाक्रमं फलिताफलितान् तरून केवलिकाज्ञानेन भाषन्ति इति ॥ ६४ ॥ तह दिवस-मास-पक्खय पुणो वि मासे वि तह य वच्छरए । जहसंखं लाहसुहं एसु य सयलेसु वग्गेसु ॥६५॥ एषु सर्वेषु वर्गेषु कवर्गादिसप्तस्वपि वर्गेषु एकद्वित्रिचतुःपंचमके वर्णे तस्मिन्नेव दिवसे लाभसुखादिकं चिन्तितं भवति । सर्वैर्द्वितीयवर्णैर्मासे उद्भवति, सर्वे तृतीयवणे पक्षे उद्भवति, सर्वे चतुर्थवर्णे पुनर्मासे एव उद्भवति, सर्वे पंचमवणे संवत्सरे उद्भवति ॥ ६५ ॥ उत्तरवण्णपहाणो उत्तरअयणं पयासए पण्हे । अहरक्खरेसु पेण्हे दक्खिणअयणं णे संदेहो ॥ ६६ ॥ .प्र. सत्तराययं । २ प्र० भनराखरपहाणं । ३ प्र० दक्षिणयणं णस्थि । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडामणिसारशास्त्रम् । [गाथा ६७- उत्तरवर्णप्रधानप्रश्नः उत्तरायणं प्रकाशयति । अधराक्षरप्रधानश्च दक्षिणायनं प्रकाशयति अत्र नास्ति सन्देहः ॥ ६६ ॥ पढमक्खरेण सिसिरो महु वि तहा वीयएण वण्णेण । तीयक्खरेण गिम्हो चउथेण य पाउसो होइ ॥ ६७ ॥ कवर्गादिसप्तवर्गाणां प्रथमाक्षरेण प्रश्नप्राप्तेन शिशिरः, तथा द्वितीयवर्णेन मधुर्वसंतः, सृतीयाक्षरेण प्रीष्मः, चतुर्थाक्षरेण प्रावृट् भवति ॥ ६७ ॥ सत्तमसरेहिं सरओ कहिओ अणुणासिएहिं हेमंतो। अंअ [: ?] इ उ अक्खरयं पयासियं जिणवरिंदेण ॥ ६८ ॥ सप्तमखरे शरत् कथितः, अनुनासिके हेमंतः । इदं स्पष्टाक्षरं जिष्णवरेंद्रेण प्रकाशित॥ मिति ॥ ६८॥ होइ च-टेहिं चित्तो वेसाहो होइ ग-ज-डवण्णेहिं ।। जिट्ठो वि द-ब-ल-सेहिं ई ओघ-झ-ढेहिं आसाढो ॥ ६९ ॥ चवर्ग-टवर्गयोः प्रथमाक्षराभ्यां चैत्रो भवति । तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां तृतीयाक्षरैवैशाखो भवति । तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां तृतीयाक्षरैज्येष्ठो भवति । चतुर्थ-दशमस्वराभ्यां " तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां चतुर्थाक्षरैराषाढो भवति ॥ ६९ ॥ णहु होइ ध-भ-व-हेहिं सर-रिउसर ङ-अ-णेहिं भद्दवओ। ए ऊ बिन्दु-विसग्गा सेसयवण्णेहिं आसिणओ ॥ ७० ॥ तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां चतुर्थाक्षरैनभः श्रावणो भवति । पंच-षड्भ्यां स्वराभ्यां कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां पंचमाक्षरैर्भाद्रपदो भवति । अनुस्वार-विसर्गाभ्यामाश्विनो भवतीति ॥७॥ तह त-प कत्तिकमासो कहिओ पढमेहिं. दोहिं वण्णेहिं । य-शवण्णेहिं वि दोहिं मियसरणामो य मासो य ॥ ७१ ॥ सवर्ग-पवर्गयोः प्रथमाक्षराभ्यां द्वाभ्यां तथा पुनः कार्तिको मासः कथितः, यवर्ग-शवर्गयोः प्रथमवर्णाभ्यां द्वाभ्यां मार्गशीर्षो नामधेयो मासः कथितः इति ॥ ७१ ॥ आ ई ख-छ-ठेहिं सहो थ.फ-र-षवण्णेहिं होइ तह माहो । फग्गुणमासो ससि-मुणिसरएहिं तह कवग्गेण ॥ ७२ ॥ द्वितीय-चतुर्थाभ्यां स्वराभ्यां तथा कवर्ग-चवर्ग-टवर्गाणां द्वितीयाक्षरैः सह पौषो मासो भवति । तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गाणां द्वितीयवर्णैस्तथा मांघो भवति । प्रथम-सप्तमस्वराभ्यां कवर्गस्य प्रथमाक्षरेण फाल्गुनमासो भवतीति ।। ७२ ।।। दो तिन्नि पंच अट्ठा पंच य अट्ठा य तह य दो तिन्नि । चारिक सत्त छक्का सत्त च्छक्का य चारिका ॥ ७३ ॥ ॥ इति जिनेन्द्रकथितं प्रश्नचूडामणिसारशास्त्रं समाप्तम् ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धाभव अमृतं तु वि घंबई