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________________ जयपाड-किश्चित् प्रास्ताविक इस विषयके ज्ञाताओं और शास्त्रकारोंका अभिमत है कि जिन अज्ञात और गूढ तत्त्वोंका परिज्ञान, सर्वज्ञ केवलज्ञानी अपने आध्यात्मिक अन्तरज्ञान द्वारा अनुभूत कर सकता है वैसा ही परिज्ञान, इस शास्त्रका विशिष्ट ज्ञाता, इस शास्त्र द्वारा अनुभूत कर सकता है और इस लिये इस विषयके शास्त्रको 'अर्हचूडामणि, 'केवली चूडामणि,' 'केवली परिज्ञान' आदि नामोंसे भी व्यवहृत किया गया है। ... इस विषय पर प्रकाश डालनेवाली बहुत कुछ साहित्यिक सामग्री हमारे पास संग्रहीत हो गई है; पर उसका विस्तृत रूपसे आलेखन करनेका यथेष्ट अवकाश हमें प्राप्त नहीं हो रहा है। अतः अभी तो हमने इस ग्रन्थको, इस प्रकार, केवल मूल रूपमें ही प्रकट कर देनेका यन किया है, जिससे इस विषयके जिज्ञासुओंको इस शास्त्रका कुछ आभास प्राप्त हो सके। ..इसकी पुनरावृत्ति, विशिष्ट रूपसे करनेका हमारा मनोरथ है; जिसके साथ इस प्रकारकी कुछ अन्य रचनाएँ भी संकलित की जायेंगी और इस विषय पर प्रकाश डालनेवाली अनेक तथ्यपूर्ण बातें भी आलेखित की जायेंगी। विजयादशमी, संवत् २०१४ । (२१, अक्टूबर, १९५८) भनेकान्तविहार, अहमदाबाद -मुनि जिन विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002779
Book TitleJaypayada Nimmitashastra
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1958
Total Pages112
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Jyotish
File Size8 MB
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