Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्द्धमानाय नमः। । ... भाग १३। जैनहितैषी।" .. अंक ५-६-७। -: मई, जून, जुलाई १९१७। विषय सूची। १ सुधारका मूलमंत्र-ले०, बाबू जुगलकिशोर मुख्तार ... १९५ २ विचित्र ब्याह ( तृतीयसर्ग)-ले, पं. रामचरित उपाध्याय १९९ ३ वर्ण और जातिविचार-ले०, बाबू सूरजभान वकील ... २०१ ४ सन्तान-सुधार-ले०, बाबू दयाचंद गोयलीय बी. ए. ... .. २.१७ ५ योगचिकित्सा-ले० पं० माधवलाल शर्मा ... ... २२२ ६ चन्द्रगुप्तके स्वप्नोंकी जाँच-ले०, बाबू जुगलकिशोर ... ७ जैनधर्म और हिन्दूधर्म-ले०, लाला कन्नोमल एम. ए. चोर-( गल्प ) ले०, पं० शिवनारायण द्विवेदी ... ... ९दर्शनसार विवेचनासहित- ... ... ... ... १० श्रद्धा उठ गई-ले०, ब्र. भगवानदीन ... ... ... ११ दादाभाई नौरोजी-ले. पं० ज्वालादत्तशर्मा ... ... • १२ स्त्रियोंका पराधीनता-ले० ठाकुर सूर्यकुमार वर्मा १३ प्राचीनकाल में जिनमूर्तियाँ कैसी थी?-ले०,श्रीयुत .J.S.२८७ १५ राजा हरदौल ( गल्प )-ले० प्रेमचन्द ... ... ... २९५ १६ गोलमालकारिणी सभा-ले०, गढ़बड़ानन्द शास्त्री ... ३०२ १६ विविधप्रसङ्ग- ... ... ... ... ... ... ६०५ १७ धर्मपरीक्षा (ग्रन्थ परीक्षा), ले०चा. जुगलकिशोर मुख्तार : १४ संपादक-नायूराम प्रेमी। मुंबईवे च प्रेस 0.35 For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष प्रार्थना । इस अंक के 'वर्ण और जातिविचार ' ' चन्द्रगुप्तके स्वप्नोंकी जाँच, ' प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं, 'दर्शनसार, " धर्मपरीक्षा' आदि लेख बड़े परिश्रम से लिखे गये हैं | विचारशील पाठकोंको इन्हें अवकाशके समय में सावधानतापूर्वक पढ़ना चाहिए और अपने विद्वान मित्रों को पढ़ने के लिए देना चाहिए । -सम्पादक । साहित्य पत्रिका प्रतिभा । ( संपादक, श्रीयुत पं० ज्वालादत्त शर्मा ) प्रतिभाका पाँचवा अङ्क- शीघ्र प्रकाशित होनेवाला है । यह प्रति अँगरेजी मासके पहले सप्ताह में प्रकाशित होती है। यदि आप साहित्यसंबन्धी लेख पढ़ना चाहते हैं, तो प्रतिभा के ग्राहक बनिये । प्रतिभा रसमयी कवितायें और शिक्षाप्रद पर चुभती हुई गल्पें भी प्रकाशित होती हैं । वार्षिक मूल्य २) है । हम इसके विषयमें अधिक न कहकर हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका सरस्वतीकी सम्पति नीचे उद्धृत किये देते हैं: - " प्रतिभा — यह एक नई मासिक पत्रिका है। मुरादाबाद के लक्ष्मीनारायण प्रेस से निकली है । हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक पं० ज्वालादत्तजी शर्मा इसके संपादक हैं | सरस्वतीके पाठक आपसे खूब परिचित हैं । वे जानते होंगे कि शर्माजी सरस, बामुहावरा और साथ ही प्रौढ भाषा लिखने में कितने पटु हैं । ऐसे सुयोग्य संपादकके तत्वावधान में आशा है प्रतिभाका उत्तरोत्तर विकास होगा | इसका पहला अङ्क अप्रैल १९१० में प्रकाशित हुआ है । उसमें छोटे बड़े १० लेख और ६ कवितायें हैं । साहित्य, शिक्षा, उद्योग धन्धा, विज्ञान, जीवनचरित और आख्यायिका इतने विषयों पर इसमें लेख प्रकाशित हुए हैं । लेखोंके संबन्ध में सामयिकता और रोचकताका बहुत ध्यान रक्खा गया पत्रव्यवहार करने का पतामैनेजर 'प्रतिभा' लक्ष्मीनारायण प्रेस, मुरादाबाद | For Personal & Private Use Only ײן Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । SANARDO INE तेरहवाँ भाग। अंक ५-६ जैनहितैषी। वैशाख, ज्येष्ठ,२४४३. । मई जून, १९१७. न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी॥ PLANESH सुधारका मूलमंत्र। भला आदमी चोर और डकैत कैसे बन जाता है ? किस प्रकार एक असदाचारी सदाचारी और (ले०,श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार।) सदाचारी असदाचारी हो जाता है ? कल जो पाठकगण, क्या आपने कभी विचार किया भंगी या चमार था, वह आज ईसाई बनकर या "" है कि, एक मनुष्य जो अभी दूसरेके प्राण फौजमें भरती होकर बाह्मण और क्षत्रियों जैसी लेनेके लिए तैयार था शान्त क्यों हो गया ? एक बातें क्यों करने लगता है ? एक मनुष्य, जिसे बालक रोते रोते हँसने क्यों लगा ? एक आदमी अपने प्राणोंका बहुत मोह था, सहर्ष प्राण देनेके जो अभी हँसी खुशीकी बातें कर रहा था, शोकमें लिए क्योंकर तैयार हो जाता है ? कौन हमारी मन क्यों हो गया ? सभाके सब मनुष्य बैठे शान्तिको भंग कर देता है ? कौन हमारे हृदबिठाये एकदम खिलखिलाकर क्यों हँस पड़े ? योंमें प्रेम तथा भयका संचार कर देता है ? कल जो कायर और डरपोक बने हुए थे, वे और कौन किसी शान्तिमय राष्ट्रमें विप्लव' खड़ा आज वीर क्योंकर बन गये ? मर्खता और अस. कर देता है ? उत्तर इन सबका एक है और वह भ्यताकी मूर्तियाँ विज्ञान और सभ्यताकी मूर्ति- है-साहित्यशक्तिका प्रभाव । जिस समय योंमें कैसे परिणत हो गई ? जिस कार्यसे कल जैसे जैसे साहित्यका प्राबल्य हमारे सामने होता हमें घृणा थी आज उसीको हम प्रेमके साथ है, उस समय हमारा परिणमन उसी प्रकारका क्यों कर रहे हैं ! आनंद और सुखके देनेवाले हो जाता है । साहित्यसे अभिप्राय यहाँ किसी पदार्थ भी कैसे किसीको दुःखदायक और अरुचि- भाषाविशेषसे नहीं है और न केवल भाषाका कर हो जाते हैं ? आपसमें वैरविरोध क्योंकर नाम ही साहित्य हो सकता है । बल्कि भाषा भी पैदा होता और बढ़ जाता है ? एक अच्छे कुलका एक प्रकारका साहित्य है अथवा साहित्यके For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ प्रचारका साधन है । साहित्य कहते हैं भावोंके काँपने लग जाते हैं; कामसाहित्यके प्राबल्यमें वातावरणको, और वह वातावरण शब्दों, अनेक प्रकारकी कामचेष्टायें होने लगती हैं और भाषाओं, वार्तालापों, व्याख्यानों, चेष्टाओं, व्यव- द्वेषसाहित्यके प्रभावसे हम लड़ने, लड़ाने, घृणा हारों, विचारों, लेखों, पुस्तकों, चित्रों, आकृ- करने तथा एक दूसरेको हानि पहुँचानेके लिए तियों, मूर्तियों और इतर पदार्थोंके द्वारा उत्पन्न आमादा और तत्पर हो जाते हैं । युद्धमें क्या होता है अथवा उत्पन्न किया जाता है । इस होता है ? युद्धसाहित्यका प्रचार । अर्थात् युद्धलिए साहित्यके इन सब साधनोंको भी साहित्य सामग्रीको एकत्रित, संचित और सुरक्षित करनेके कहते हैं अथवा ये सब साहित्यप्रचारके मार्ग हैं। सिवाय युद्धकी महिमा गाई जाती है; युद्ध साहित्यके सामान्यापेक्षया क्षणिक, स्थायी, चर- करना कर्तव्य, और धर्म ठहराया जाता है; अपने स्थिर, उन्नत-अवनत, सबल-निर्बल और प्रौढ- देश धर्म और समाजकी मानरक्षा के लिए प्राणोंका -अप्रौढ ऐसे भेद किये जा सकते हैं। परन्तु बलि देना सिखलाया जाता है; अपमानित विशेषापेक्षया उसके शांतिसाहित्य, शोकसाहित्य, जीवनसे मरना श्रेष्ठ है, इस प्रकारकी शिक्षायें प्रेमसाहित्य, हास्यसाहित्य, भयसा०, कामसा०, दी जाती हैं; युद्धमें मरनेवालोंकी कीर्ति अमर हो द्वेषसा०, रागसा०, वैराग्यसा०, सुखसा०, दुख- जाती है और उनके लिए हरदम स्वर्ग या वैकुंठसा०, धर्मसा०, अधर्मसा०, आत्मसा०, अना- का द्वार खुला रहता है, इस प्रकारकी शिक्षायें दी स्मसा०, उदारसा०, अनुदारसा०, देशसा०, जाती हैं; शत्रुओंके असत् व्यवहारोंको दिखलाते समाजसा०, युद्धसा०, कलहसा०, ईर्षासा०, हुए उनसे घृणा पैदा कराई जाती है और उन्हें घणासा० हिंसासा०, दयासा०, क्षमासा०, तुष्टि- दण्ड देनेके लिए लोगोंको उत्तेजित किया जाता सा०, पुष्टिसा०, विद्यासा०, विज्ञानसा०, कर्मसा०, है । साथही सैनिकोंको और भी अनेक प्रकारके क्रोधसा०, मानसा०, मायासा०, लोभसाहित्य प्रोत्साहन दिये जाते हैं, वीरोंका खूब कीर्तिगान इत्यादि असंख्यात भेद हैं । बल्कि दूसरे शब्दोंमें होता है और कायरोंकी भरपेट निन्दा भी की यों कहना भी अनुचित न होगा कि स्थूल रूपसे जाती है। नतीजा इस संपूर्ण साहित्यप्रचारका भावोंके जितने भेद किये जा सकते हैं साहित्यके यह होता है कि मुर्दोमें भी एक बार जान पड़ भी प्रायः उतने ही भेद हैं । शांतिसाहित्यके जाती है, उनकी मुरझाई हुई आशालतायें फिरसामने आनेसे चाहे वह किसी द्वारसे आया हो, से हरीभरी होकर लहलहाने लगती हैं और वे यदि वह प्रबल है तो, हम शांत हो जाते हैं- कायर भी जो अभीतक युद्धसे भाग रहे थे अथवा हमारा क्रोध जाता रहता है; शोकसाहित्यके जिन्होंने हथियार डाल दिये थे, युद्ध में शत्रुओंप्रभावसे हम रोने लगते हैं-हमारा धैर्य छूट पर विजय प्राप्त करनेके लिए जीजानसे लड़नेजाता है; प्रेमसाहित्यके प्रसादसे हम प्रेम कर- खुशीसे अपने प्राणोंतककी आहुति देनेके लिए नेके लिए तैयार हो जाते हैं-दूसरोंके प्रति हमारा तैयार हो जाते हैं, पूर्ण उत्साहक साथ शत्रु पर धावा अनुराग और वात्सल्य बढ़ जाता है; हँसीका करते हैं, खूब जमकर लड़ते हैं और अन्तमें शत्रुसाहित्य हमें हँसने या मुसकरानेके लिए बाध्य को परास्त भी कर देते हैं । इससे पाठक समझ कर देता है; भयका साहित्य हमें भीरु और डरपोक सकते हैं कि साहित्यप्रचारमें कितनी शक्ति है। बना देता है-हम वातबातमें डरमे बदराने और जिन पाठकोंको इस दिषयका अधिक अनुभव For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] सुधारका मूलमंत्र। १९७ प्राप्त करना हो उन्हें भूमंडलके इतिहासोंका अध्ययन समाजोंके उत्थान और पतनका भी प्रायः ऐसा करना चाहिए । इतिहासोंका अध्ययन उन्हें बत- हा रहस्य है। उनका उत्यान और पतन भी लायगा कि साहित्यप्रचारमें कितनी बड़ी शक्ति है उनके साहित्यप्रचारकी हालत पर अवलम्बित और उसके द्वारा समय समयपर कैसे कैसे महान् है । आप किसी देश या समाजको जैसा बनाना उलट फेर हो गये हैं। सिक्ख समाज तथा चाहें उसमें वैसे ही साहित्यका पूर्ण रीतिसे प्रचार उसके धर्मकी आरंभमें क्या दशा थी और कर दीजिए, वह उसी प्रकारका हो जायगा । फर कैसे कैसे साहित्यके प्रभावसे उसकी उदाहरणके लिए, यदि आप यह चाहते हैं कि काया पलट होकर वह क्षत्रियत्वमें ढल गया, हिन्दी भाषाका भारतवर्षमें सर्वत्र प्रचार हो ये सब बातें भी इतिहासवेत्ताओंसे छिपी जाय और आप उसे राष्ट्रभाषा बनानेकी इच्छा नहीं हैं। वास्तवमें समस्त देशों, धर्मों और रखते हैं तो आप हिन्दी साहित्यका जीजानसे समाजोंका उत्थान और पतन साहित्यप्रचारके प्रचार कीजिए-स्वयं हिन्दी लिखिए, हिन्दी बोलिए, आधार पर ही अवलम्बित है। जिस देश, धर्म या हिन्दीमें पत्रव्यवहार, हिन्दीमें कारोबार और समाजमें जिस समय जिस विषयके साहित्यका हिन्दीमें वार्तालाप कीजिए; हिन्दी पत्रों और अधिक प्रचार होता है उस देश, धर्म या समाजमें पुस्तकोंको पढ़िए, उन्हें दूसरोंको पढ़नेके लिए उस समय उसी विषयकी तूती बोलने लगती है । दीजिए अथदा पढ़ने की प्रेरणा कीजिए । विषयके उत्थानात्मक होनेसे उत्थान और पतना- हिन्दीमें लेख लिखिए, हिन्दीमें पुस्तकें निर्मामक होनेसे पतन हो जाता है । जापान देशकी ण कीजिए, हिन्दीमें भाषण दीजिए और यह आज साठसत्तर वर्ष पहले कैसी जघन्य स्थिति थी सब कुछ दूसरोंसे भी कराइए । ऐसा यत्न की और आज उसका कितना चकित कर देनेवाला जिए कि हिन्दीमें सब विषयों पर उत्तमोत्तम उत्थान हो गया है, यह सब उसके उत्थानात्मक ग्रन्थ लिखे जायँ । हिन्दी लेखकोंका उत्साह बढा-: साहित्यके प्रसारहीका फल है । भारतवर्षका इए, उन्हें लेखों तथा पुस्तकोंके तय्यार करनेके । पतन क्यों हुआ ? और वह क्यों अपनी सारी लिए अनेक प्रकारकी सामग्रीकी सहायता दीगुण-गरिमाको खो बैठा ? इसी लिए कि उसके जिए, और तरह तरहके लेखों, चित्रों, व्या- ' साहित्यकी अवस्था अच्छी नहीं रही। वह अपने ख्यानों, वार्तालापों और व्यवहारोंके द्वारा हिन्दीसाहित्यको स्थिर नहीं रख सका, अथवा समयके का महत्त्व प्रमट करते हुए सर्व साधारणमें हिन्दीअनुकूल नया साहित्य उत्पन्न नहीं कर सका। का प्रेम उत्पन्न कीजिए। साथ ही, हिन्दी ग्रन्थों उसका साहित्य प्रेमशून्य होकर पारस्परिक ईर्षा, तथा हिन्दी पत्रोंकी प्राप्तिका मार्ग इतना सुगम देष, घृणा और निन्दासे तथा निष्फल क्रिया- कर दीजिए कि उनके लिए किसीको भी कांडसे भर गया; उसमें अज्ञानता, अकर्मण्यता, कष्ट न उठाना पड़े-यह सब कुछ हो बाथान्धता, कायरता, अंधश्रद्धा, अनेकता जाने पर आप देखेंगे कि हिन्दी राष्ट्र-भाषा और विलासप्रियता छा गई; और साथ ही, उसने बन गई । इसी तरह पर यदि आप अपने देश लोकोपकार, लोकतंबर. विचार-स्वातंत्र्य और या समाजका उत्थान चाहते हैं और उसके सहोद्योयिता जैसे महाके तत्त्वोंको भुलादिया। सुधारकी इच्छा रखते हैं तो आप उसमें उत्थादशके साहित्यकी ऐसी अवस्था हो जानेसे ही नात्मक और सुधार-विषयक साहित्यको सर्वत्र भारतवर्षका पतन हुआ। भिका भिन्न धमों और फैलाइए । अर्थात अपने देश या समाजके For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग १३ ] पुरुष, समाजमें कोई भी स्त्री, बालक और बालिका अशिक्षित न रहने पावे । न सब बातोंके सिवाय जो जो रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार अथवा सिद्धान्त उन्नति और उत्थानके बाधक हो, जिनमें कोई वास्तविक तत्त्व न हो और जो समय समयपर किसी कारणवशेषसे देश या समाजमें प्रचलित हो गये हों उन सबको सुले श शब्दों में आलोचना कीजिए और उनके गुणदोष सर्वसाधारणपर प्रगट कीजिए | सची आलोचनामें कभी संकोच न होना चाहिए । बिना समालोचनाके दोषोंका पृथक्करण नहीं होता । साथ ही, इस बातका भी खयाल रखिए कि इन सब कार्योंके सम्पादन करने और करानेमें अथवा यह सब साहित्य फैलानेमें आपको अनेक प्रकारकी आपत्तियाँ आवंगी, रुकावट पैदा होंगी, बाधायें उपस्थित होंगी और आश्चर्य नहीं कि उनके कारण कुछ हानि या कष्ट भी उठाना पड़े । परन्तु उन सबका मुकाबला बड़ी शांति और धैर्य के साथ होना चाहिए, चित्तमें कभी क्षोभ न लाना चाहिएक्षोभमें योग्यायोग्यविचार नष्ट हो जाता है-और न कभी इस बातकी परवाह करनी चाहिए कि हमारे कार्योंका विरोध होता है । विरोध होना अच्छा है और वह शीघ्र सफलताका मल है। कैसा ही अच्छेसे अच्छा काम क्यों न हो, यदि वह पूर्व संस्कारो के प्रतिकूल होता है तो उसका विरोध जरूर हुआ करता है । अमेरिका आदि देशों में जब गुलामोंको गुलामी से छुड़ानेका आन्दोलन उठा, तब खुद गुलामोंने भी उसका विरोध किया था । पागल मनुष्य अपना हित करनेवाले डाक्टर पर भी हमला किया करता है । इस लिए महत्पुरुषोको इन सब बातीका कुछ भी खयाल ने होना चाहिए। अन्यथा, वे भ्रष्ट हो जावेंगे और सफलमनारेथ न हो सकेंगे। उन्हें बराबर १९८ व्यक्तियोंको स्वावलम्बनकी शिक्षा दीजिए, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना सिखलाइए, भाग्यके भरोसे रहने की उनकी आदत छुड़ाइए, मीख माँगने तथा ईश्वरसे वस्तुतः याचना और प्रार्थना करनेकी पद्धतिको उठाइए, ' कोई गुप्त देवी शक्ति हमें सहायता देगी ' इस खयालको भुलाइए अकर्मण्य और आलसी मनुष्योंको कर्मनिष्ठ और पुरुषार्थी बनाइये; पारस्परिक ईर्षा, द्वेष, घृणा, निन्दा और अदेखसका भावको हटाकर आपस में प्रेमका संचार कीजिए; निष्फल क्रियाकांड और नुमायशी ( दिखावे के ) कामों में होनेवाले शक्तिके ह्रासको रोकिए; द्रव्य और समयका सदुपयोग करना बतलाइए; विलास - प्रियताकी दलदल में फँसने और अंधश्रद्धा के गड्ढे में गिरने से बचाइए; अनेक प्रकारके कलकारखाने खोलिए; उद्योगशालायें और प्रयोगशालायें जारी कीजिए; शिल्प व्यापार और विज्ञानोन्नतिकी ओर लोगों को पूरी तौरसे लगाइए; मिलकर काम करना, एक दूसरेको सहायता देना और देश तथा समाजके हितको अपना हित समझना सिखलाइए; बाल, वृद्ध तथा अनमेल विवाहोंका मूलोच्छेद हो सके ऐसा यत्न कीजिए; सच्चरित्रता और सत्यका व्यवहार फैलाइए; विचारस्वातंत्र्यको खूब उत्तेजन दीजिए; योग्य आहारविहारद्वारा बलाढ्य बनना सिखलाइए; वीरता, धीरता, निर्भीकता, समुदारता, गुणग्राहकता, सहनशीलता और दृढप्रतिज्ञता आदि गुणों का संचार कीजिए; एकता और विद्या में कितनी शक्ति है; इसका अनुभव कराइए, धर्मनीति, राजनीति और समाजनीतिका रहस्य और भेद समझाइए; समुद्रयात्राका भय हटाइए विदेशों में जानेका संकोच और हिच कचाट दूर कीजिए; अनेक भाषाओंका ज्ञान कराइए; तरह तरहकी विद्यायें सिखलाइए और शिक्षाका इतना प्रचार कर दीजिए कि देश या जैनहितैषी For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] विचित्र-व्याह। अपना कार्य और आन्दोलन जारी रखना चाहिए। विषयक साहित्यका सर्वत्र प्रचार करके अपने आन्दोलन के सफल होने पर विरोधी शान्त हो देश या समाजके साहित्यको सुधारनेमें समर्थ जायेंगे, उन्हें स्वयं अपनी भूल मालूम पड़ेगी हो जायेंगे तो फिर देश या समाजके सुधरने में और आगे चलकर वे तुम्हारे कार्योंके अनुमोदक कुछ भी देर नहीं लगेगी । उसका सुधार और सहायक ही नहीं बल्कि अच्छे प्रचारक और अनिवार्य हो जायगा । यही सुधारका मूलमंत्र तम्होर पूर्ण अनुयायी बन जायगे । जैनग्रंथोंके है। परन्तु इतना खयाल रहे कि साहित्य जित पानेका कितना बिरोध रहा ! परन्तु अब ना ही उन्नत, सबल और प्रौढ होगा उतना ही वही लोग, जो उस विरोधमें शामिल थे और उसका प्रभाव भी अधिक पड़ेगा और वह अधिक जिन्होंने छपे हुए शास्त्रोंको न पढ़ने की प्रति- कालतक ठहर भी सकेगा । इस लिए जहाँतक ज्ञाओंपर अपने हस्ताक्षर भी कर दिये थे, खुशीसे बने खूब प्रबल और पुष्ट साहित्य फैलाना चाहिए। उप हए ग्रन्थोंको पढ़ते पढ़ाते और उनका प्रचार ता. २५-४-१७। करते हुए देखे जाते हैं । जिधर देखो उधर छपे हुए ग्रंथोंकी महिमा और प्रशंसाके गीत गाये जाते विचित्र व्याह। हैं। यदि उस समय छपे ग्रन्थोंका प्रचार करनेबालोंक हृदयोंमें इस विरोधसे निर्बलता आ - (ले०-६० रामचरित उपाध्याय) जाती और द अपंन कर्त्तव्यको छोड़ बैठते तो तृतीय सर्ग। आज छपे ग्रन्थों की पासे जैनसमाजको शुक्ला एकादशी श्रावणी रही जिसी दिन, जो असीम लाभ पहुंच रहा है उससे वह वंचित रामदेव परलोकनिवासी हुए उसी दिन । रह जाता और उसका भविष्य बहुत कुछ अध नभमें काली घटा धनोंकी उमड़ रही थी, कारमय हो जाता । इस लिए विरोधके कारण कुछ बाकी था दिवस, साँझ हो गई नहीं थी ॥१॥ घबराकर कभी अपने हृदयमें कमजोरी न लानी कोई कहीं मलार प्रेमपूर्वक गाता था। चाहिए और न फलप्राप्तिके लिए जल्दी करके कोई झूले झूल रहा था, सुख पाता था। इताश ही हो जाना चाहिए। बल्कि बड़े धैर्य रामदेव भी रथी चढ़े सोते जाते थे, और गांभीर्यके साथ बराबर उद्योग करते रहना उनके पीछे दुखी बन्धु रोते जाते थे ॥२॥ चाहिए और नये पुराने सभी मागासे जिस मरघट पहुँचा रामदेव-शव घरसे चलकर, .. 'जिस प्रकार बने अपने सुधारविषयक साहित्यका उसे भूमि रख सभी लगे रोने कर मलकर । सर्वत्र प्रचार करना चाहिए । सच्चे हृदयसे काम कलरव करके जहाँ जन्हु-कन्या बहती थी, क्यों रोते हो व्यर्थ? मनो वह यों कहती थी॥३॥ करनेवालों और सच्चे आन्दोलनकारियोंको सफलता होगी और फिर होगी। उन्हें अनेक काम जो आता है उसे कभी जाना पड़ता है, जो नीचे है गिरा वही ऊपर चढ़ता है। करनेवाले, सहायता देनेवाले और उनके कार्यो यों गंगाके कूल ऊल कर जल कहता था, को फैलानेवाले मिलेंगे। इस लिए घबरानेकी जग अस्थिर है इसी लिए अस्थिर रहता था। कोई बात नहीं है । जो लोग देश या समाजके मरघट ! तुझमें पक्षपातका नाम नहीं है, सच्चे हितैषी होते हैं वे सब कुछ कष्ट उठाकर भी __वश कर लेना तुझे किसीका काम नहीं है। उसकी हितसाधन किया करते हैं। इस तरह पर तूने राजा-रंक सदा देखे सम दृगसे, सब कुछ सहन करते हुए, यदि आप सुधार- तूने नाता नहीं कभी जोड़ा है जग ॥ ५॥ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० 1 वर्णाश्रमका यहाँ स्वप्र में भेद नहीं है, तुझे किसीके लिए तनिक भी स्नेह नहीं है। वनिता बालक वृद्ध यहाँ सम हो जाते हैं, भीर वीर भी यहाँ पहुँचकर खो जाते हैं ॥ ६ ॥ त्यागी हो या गुही, भीरु हो या निर्भय हो, दुःखी हो या सुखी मलिन या सुषमालय हो । चिता ज्वलन में यहाँ सभी आकर सोते हैं, पलमें जलकर भस्म यहाँ आकर होते है ॥ ७ ॥ होरेही के भाव यहाँ कंकड़ बिकता है, किसी भाँति भी नहीं यहाँ कोई टिकता है । जगमें जिसने व्यर्थ अन्यको धूल मिलाया, उसने हो क्या रज समय आ यहाँ न पाया ॥ ८॥ जिसे नहीं निर्वेद वेद पढ़ने से होगा, उसे यहाँ निर्वेद निकल पढ़नेसे होगा । एकी रस बीभत्स यहाँ पर स्थित रहता है, नश्वरता-जल-पूर्ण शोकका नद बहता है ॥ ९ ॥ आशाओं का काम यहाँ पर मिट जाता है, यहाँ नहीं षड्वर्ग किसीको दुख-दाता है। सपने में भी लू न लगी हो जिसके तनमें, यहाँ चिताको आग लगेगी उसके तनमें ॥ १० ॥ कनक भवनमें पुष्पसेजके सोनेवाले, क्षुधा - क्षीण हो गली गली के रोनेवाले ! आकरके वे सभी यहाँ ठोकर खाते हैं. या जलचर ही यहाँ उन्हें धोकर खाते हैं ॥। ११ ॥ जो वपु चंपक, चन्द्र, कनकसे भी बढ़कर है, मतवाला हो गया मदन जिसपर चढ़कर है। वही एक दिन यहाँ विवश होकर आता है, म के सम अस्पृश्य त्याज्य समझा जाता है ॥ १२ ॥ सड़ी देहको खान खाते कहीं हैं, अघाते नहीं हैं, घिनाते नहीं हैं । कभी बीच में बोलते जा रहे हैं. मनो कालकी कीर्ति वे गा रहे हैं ॥ १३ ॥ कहीं मत्येकी खोपड़ी भी पड़ी है, कहीं वायु-दुर्गन्धि आती कड़ी है। बना था बड़ा भव्य जो भूषणोंसे, ढका है वही हा यहाँ मृकणोंसे ॥ १४ ॥ विहंगावली बोलती जा रही है, निजावासको त्रासको पा रही है। + जैनहितैषी - [ भाग १३ " हुई ज्ञात सूर्यास्त वेळा इसीसे न था बोलता जन्तु कोई किसीसे ।। १५ ।। नहीं सूर्य है चन्द्रमा भी नहीं है, हुई शान्तिवाली निराली मही है। दिवा है न, है रात सन्ध्या नहीं है, न प्रत्यूष ही है न तारे कहीं हैं ॥ १६ ॥ यथा पुण्यके बादमें पाप आवे, सुखी जीव ज्यों अन्तमें दुःख पावे | तथा लोक आलोक से हीन होके, हुआ है दुखी हा तमोलीन होके ।। १७ ।। हुआ व्योममें सूर्यका अस्त ज्यों हो, लगे बोलने हर्षसे स्वार त्यों हीं । टले लोकसे लोक-सन्ताप-दाता, किसे चित्तमें तो न आनन्द आता ? ।। १८ ।। खल श्री कभी स्थायिनी क्या हुई है ? कभी आगमें भी टिकी क्या रुई है । सुखी क्यों रहे जो सुखावे सभीको, गिरेगा न क्यों जो गिराने सभीको १ ॥ १९ ॥ सदा दुःख ही देखते लोक में हैं, कभी सौख्य भी दृष्टि आता हमें है । शशी भी उसी भाँति है दृष्टि आता, छिपाये हुए हैं उसे वारिन्दाता ॥ २० ॥ यथा स्वप्नवलोक में आप देही, तजे देहको देखते देखते ही उसी भाँति आई गई चन्द्रिका भी, न बाँधी गई भूमिकी भूमिका भी ।। २१ ।। बुरी या भली वस्तु कोई नहीं हैं, बुराई मलाई सभी में नहीं है। शशी देख जैसे चकोरी सुखी उसे देख त्यों चक्रवाकी दुखी हैं ॥ २२ ॥ रामदेव भी चिताबीच जलते थे कैसे, मरघट के मैदान दीप जलता हो जैसे । विविध भोग को भोग रही थी देह बली हो, अकरुण कालग्रस्त वही अब खेह चली हो ॥२३॥ जगतको अपना मत जानिए, पर उसे सपना अनुमानिए । न परको दुख दे सुख कीजिए, स्वकरसे अपकीर्ति न लीजिए ॥ २४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] वर्ण और आति-विचार। २०१ वर्ण और जाति-विचार। लेते हैं । ऐसी दशामें वास्तविक उन्नति न कुछ होती है और न हो सकती है। (ले०-श्रीयुत बाबू सुरजमानुजी वकील।) जैन जाति इस समय केवल १३ लाख है । हिन्दुओंमें आर्य और म्लेच्छ इस प्रकार उसमें भी दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानक 'मनुष्योंके दो भेद किये गये हैं। फिर वासी ये तीन टुकड़े हैं । इन तीनोंका आपसमें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र इस प्रकार आ- कुछ वास्ता नहीं, यदि है भी तो सिर्फ इतना ही mको भी चार भेदोंमें विभाजित किया है कि एक दूसरेके साथ लड़ें और मुकदमेबाजी जिनको वर्ण कहते हैं । इन वर्गों के भी फिर करें। ऐसी दशामें भी जैन लोग वर्ण और अनेक भेद हैं, जिनको जाति कहते हैं। जैसे जातिको बिलकुल उसही तरह मान रहे गौड़, कन्नौजिया, सारस्वत, सरवरिया, सनाढ्य हैं जिस तरह अन्य हिंदू भाई; यहाँतक कि आदि जातियाँ ब्राह्मणोंकी; चौहान, राठौड़, एक जातिका जैन अपनी जातिके ऐसे मनुष्यसे हाड़ा, आदि जातियाँ क्षत्रियोंकी; अग्रवाल, जो जैन नहीं है विवाहसम्बन्ध भी कर सकता ओसवाल, खंडेलवाल, परवार आदि जातियाँ है और उसके हाथकी रोटी भी खा सकता है; वैश्योंकी और नाई, कहार, कुम्हार, धोबी आदि परन्तु दो जैन-जो एक ही वर्णके हैं परन्त एक जातियाँ शूद्रोंकी हैं। पर यहाँ ही भेदोंका अन्त जातिके नहीं हैं-न आपसमें रोटी खा सकते हैं नहीं हो जाता है, किन्तु इन जातियोंके और न विवाहसम्बन्ध कर सकते हैं । जैनोंकी भी भेद प्रभेद होकर हिन्दुओंके हजारों टकड़े छोटीसी जातिके इस प्रकार अनेक टुकड़े होनेसे हो गये हैं और संसारभरमें इस समय जो २० उसकी बहुतही शोचनीय दशा हो गई है। करोड़ हिन्दू गिने जाते हैं उन सबकी एक कौम हिन्दू लोग वर्ण और जातिका भेद केक्स रोटी न बनकर दस दस पाँच पाँच हजार मनुष्योंके और विवाह आदिक सांसारिक कार्योहीमें नहीं अलग अलग समूह बन गये हैं और इनमें कोई मानते है; वे इस भेदको धर्मकार्यों में भी चलाते कोई जातियाँ तो इतनी छोटी रह गई हैं कि उनकी हैं। जैसे कोई जाति वेद नहीं पढ़ सकती, मनुष्यगणना ४००, ५०० से भी अधिक नहीं कोई यज्ञ नहीं कर सकती, कोई जनेऊ नहीं है । हिन्दुओंकी ये सब जातियाँ एक दूसरेसे पहन सकती, इस प्रकारकी अनेक बातें उनके यहाँतक अलग हैं कि एक जाति दूसरी जातिके यहाँ प्रचलित हैं। हमारे जैन भाई भी इस विषहाथकी रोटी नहीं खा सकती और न एक यमें हिन्दुओंसे कम नहीं हैं। उन्होंने भी नीच जातिकी कन्या दूसरी जातिमें ब्याही जा सकती जाति और वर्णके सम्बंधमें अनेक प्रकारके कड़े है। इस ही कारण उन्नातके आन्दोलनके इस नियम बना रक्खे हैं और उन पर बहुत जोर समयमें यदि हिन्दओंने उन्नति करनी शरू दे रक्खा है। भी की है, तो इस तरह कि प्रत्येक जातिने हमारी समझमें वर्ण और जातिका प्रश्न बहुत ही महत्त्वका है । इस पर कौमकी लौकिक अपनी अपनी अलग अलग महासभा या कान्फरस और पारलौकिक सारी ही उन्नति और अवनति बनाई है, जिसमें वे अपना अलग अलग राग अवलम्बित है। इस कारण इसकी पूरी पूरी गाकर और अपनी अलग अलग ढफली बजाकर जाँच होने और इस पर खूब वादानुवाद होनेकी और शेख चिल्ली जैसी बातें बनाकर ही खुश हो अत्यन्त आवश्यकता है और यह तब ही हो For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ . जैनहितैषी [भाग १३ सकता है, जब कि सबको अपने स्वतंत्र विचार, आत बताते हैं; उनहीको उन ही मुगासे श्वेताबिना किसी प्रकार के संकोचके, प्रकट करनेकी म्बरी और स्थानकवासी भाई भी आह मानते दूरी पूरी आजादी हो और हमारे भाई उत् है; परन्तु एक कहते हैं कि भगवान ने ऐसा कहा विचारोंको बिना किसी प्रकार की भड़क या पक्ष- और दूसरे कहते हैं कि नहीं, ऐसा नहीं कहा, पातके पड़े, सुनें और जाँचें; और यदि खंडन वैसा कहा । युनियाभरमें जैनधर्म ही एक ऐसा करनेकी जरूरत हो तो खंडन करें और जरूर धर्म है जो अपने तत्त्वोंको अककी कसौटी पर रखंडन करें; परंतु टंडे और सभ्यताके शब्दोंमें। जाँचनेकी घोषणा केकी बोटले करता है: ऐसा ही खयाल करके आज मैं इस लेखके द्वारा अन्य सब ही धर्म प्राय: आज्ञा-प्रधान है। केसी इस विषयमें अपने विचार प्रकट करनेका साहस भी आज्ञा-प्रधान धर्मको यह अधिकार नहीं हो करता हूँ और खंडनमें हो या मंडनमें, अन्य सकता है कि वह किसी दूसरे धर्मका सडन भाईयोंके विचार जाननेकी उत्कंटा रखता हूँ, करे और उसको मिथ्यामत बताने । यह अधिजिससे यह प्रश्न हल हो जाय और इसकी अस- कार केवल उस ही धर्मको हो सकता है, जो लियत खुल जाय । मैं इस प्रश्नको चार विभागोंमें ऐसी किसी भी बातके माननेको तय्यार नहीं विभाजित करता हूँ है जो बुद्धिकी कसौटी पर पूरी न उतरे : हमको (१) वर्ण और जातिका धर्मसे सम्बन्ध वर्ण और जातिके इस अत्यावश्यक लिहाल्तको (२) वर्ण और जातिका रोटीबेटी-व्यवहारसे भी पराक र भी परीक्षाकी कसौटी पर करना चाहिए और सम्बन्ध, (३) वर्ण और जातिका पेशेसे सत्य वालको खोज निकालना चाहिए । सम्बन्ध, (४) वर्ण और जातिका जन्मसे और संसारक समस्त प्राणी अनादि कालसे संसारकर्मसे सम्बन्ध । पी चोर दुःखसागरमें पड़े हुए अनेक कष्ट उठा रहे हैं । जो कोई इन प्राणियोंको इस घोर दुःखसे १ वर्ण और जातिका धर्मस सम्बन्ध। छडाकर उत्तम सुख प्राप्त कराता है, वही धर्म है जैनधर्मका सम्पूण आधार आप्तवचन और और वही कल्याणका मार्ग है। वस्तुस्वभावनयप्रमाण पर है । सर्वश, वीतराग, और हितोप- का ही नाम धर्म है। जीवका विभाव भाव दूर देशक होनेसे आप्तके वचन प्रमाण होते हैं और होकर असली स्वभाव प्राप्त हो जाना ही उसका नयप्रमाणसे वस्तुस्वभावकी जाँच और सत्य कल्याण है । स्वभावसे सब ही जीव समान हैं. सब ही असत्यका निर्णय होता है। सब ही धर्मवाले धर्म मार्ग पर चल सकते हैं और सबहीका कल्याण अपने धर्मको आप्तकथित बताते हैं और सब ही हो सकता है। पापियोंको धर्मात्मा बनाना, दुःखी अपने परमेश्वरको सर्वज्ञ-वीतराग और हितोपदेश जीवोंको सुखी करना ही धर्मका काम है। अनादि की पदवी देकर आप्त सिद्ध करते हैं । इस ही कालसे संसारके सब ही जीव मिथ्यात्वमें फंसे कारण जैन शास्त्रोंमें परीक्षा-प्रधानी होने पर हुए अनेक प्रकारके घोर पाप कर रहे हैं। उनज्यादा जोर दिया गया है और अंधश्रद्धाको को पापसे हटाकर कल्याणमार्ग पर लगाना ही मिथ्यात्वमें दाखिल किया है । इस परीक्षाकी धर्मका स्वरूप है । जो धर्म अपने कल्याणके ज्यादा जरूरत इस कारण भी हो गई है कि मार्गको किसी वर्ण, किसी जाति, किसी देश, हमारे दिगम्बरी भाई जिन अरहंत भगवानको किसी रंग या किसी अवस्थाके जीवके वास्ते सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशके आदि गुणोंसे तो खुला रखता है और दूसरोंके लिए बन्द कर For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] वर्ण और जाति-विचार । ता है, वह धर्म नहीं है; देषका बीज है। कल्या- विचारनेकी बात है कि काहे कोई ब्राह्म का मार्ग नहीं है बल्कि संसारको भस्म कर- गकी संतान हो, चाहे, चांडालकी; शरीर के लिए आगकी चिनगारी है। संसारभरमें एक दोनोंका ही हाइ-मांस आदिक अपवित्र पिना जनधम ही एसा धर्म है, जो अपने कल्याणक वनी ओझा ना आ शेगा। बादणके भागको प्राणिमात्रके वास्ते खोलता है और शरीरके भी सब ही परमाण अपवित्र हैं प्रकार पुकार कर कहता है कि-हे जगत्के प्रा- और चांडालके भीः इस लिर शरिके कारण णियो, छोड़ो पापक्रियाओंको, चलो इस मार्ग का इस माग- इनमें नीचता या उच्चता नहीं हो सकती है। पर, और करो अपना कल्याण ! अरहंत भगवा- हाँ इनमेंसे जिसका भी आत्मा सत्य धर्मसे नके समवसरणमें सिंह-सपोदिक महाहिंसक और पवित्र हो रहा है, वह पवित्र है और उच्च सूअर कुत्ता आदिक महा अपवित्र जीवोंका आना है और जिसका आत्मा मिथ्यात्वसे अशद्ध और उन सबको धर्ममार्ग बतलाया जाना, हो रहा है वह अपवित्र है और नीच है । इससे इस बातका ज्वलंत दृष्टान्त है कि यह धर्म जीव- सिद्ध है कि वर्ण या जातिका धर्मसे कोई मात्रके उद्धारके वास्ते है और सूर्यके प्रकाशकी सम्बन्ध नहीं है। तरह बुरे भले सभी जीवोंके हृदयोंमें रोशनी पहुँचाता है। जैनधर्मकी इस बड़ाईको और इस समय एक वर्णकी अनेकानेक जातिया हो भो ज्यादा खोलनेके वारले जैनधर्मके कथा- रही हैं। इनका तो किसी प्रकारका कथन किसी ग्रन्थोंमें ऐसी अनेक कथायें वर्णन की गई हैं कि जैनशास्त्रमें मिलता नहीं; ये जातियाँ तो देशकाएक सिंहको जो किसी पशुको मारकर उसका लकी परिस्थितियोंके, देशभेदके, और आसपासकी मांस खा रहा था और जिसका मुँह खूनसे भरा बैंचतान या लड़ाई झगड़ोंके कारण बन गई. हैं . हुआ था, मुनिमहाराजने उपदेश दिया और और बनती जाती हैं। वों की उत्पत्तिका जो कुछ उसने अपने मुखका मांस थूककर धर्म ग्रहण भी कथन जैनशास्त्रों में मिलता है उससे भी स्पष्ट किया । एक चांडालकी लड़की, जिसको इतना तौरपर यही सिद्ध होता है कि वर्णभेदका धर्मसे भारी कोढ़ हो रहा था कि उसके शरीरकी कोई सम्बध नहीं है : आदिपराणमें वर्णोकी दुंगधिसे दूरदूरतकके प्राणी दुखी हो रहे थे, उत्पत्तिके विषयमें लिखा है कि जब भोगभो विष्टाकी कूड़ी पर बैठी हुई थी, उसको भमि समाप्त हुई तब भगवान आदिनाथने प्रजामनिमहाराजने समझाया और धमोत्मा बनाया। जनोंको उनकी आजीविकाके वास्ते असि, मसि इसी प्रकार श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नकरंड श्रावका- कषि. विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छः कर्म चारमें लिखते हैं कि चांडालसे पैदा हुआ सिखाये। क्योंकि उस समय भगवान सरागी , मनुष्य भी यदि सम्यक्ती हो जावे तो वह भी बीतराग नहीं थे। उसही समय भगवानने तीन देवके समान पूजने योग्य है। धर्मके प्रभावसे वर्ण प्रकट किये। जिन्होंने हथियार बाँधकर रक्षा कुत्ता भी स्वर्गका देव हो जाता है और पापके प्रभा करनेका कार्य लिया वे क्षत्री कहलाये, जो खेती वसे स्वर्गका देव भी कुत्ता हो जाता है। यथा व्यापार और पशुपालन करने लगे वे वैश्य हुए ... सम्यग्दर्शनसंपन्नमपि मातंगदेहनं। देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरोजसम् ॥ २८॥ और सेवा करनेवाले शूद्र कहलाये। श्वापि देवोपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् । असिमसिः कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥२९॥ कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥ १७९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनहितैषी [भाग १३ तत्र वृत्ति प्रजानां स भगवान्मतिकौशलात् । देकर स्वयं छः महीनेका योग लगाकर बैठ गये उपादिशत्सरागो हि स तदासीजगद्गुरुः ॥ १८०॥ और छः महीनेके पीछे योगसे उठने पर भी और उत्पादितात्रयो वास्तदा तेनादिवेधसा। उनको भ्रष्ट देखकर भी उन्होंने उनकी अवस्थाक्षत्रिया वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ॥१८३॥ पर अफसोसं तो किया; परन्तु धर्मका उपदेश क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वमनुभय तदाऽभवन् । रंच मात्र भी न दिया । योगसे उठकर जब वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपशुपाल्योपजीविनः ॥ १८४ ॥ भगवानने आहारके वास्ते विहार किया, तो लोग तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्ते द्विषा कार्वकारवः । धर्मसे अनजान होने के कारण आहार न दे सके; कारवो रजकाद्याः स्युस्ततोन्ये स्युरकारवः ॥१८५।। यहाँ तक कि भगवानको आहारके वास्ते फिरते -आदिपुराण, पवे १६ फिरते छः महीने बीत गये; तो भी भगवान इन श्लोकोंमें यह बात खास तौर पर दिखाई किसीको आहारदानकी विधिका उपदेश नहीं गई है कि तलवार चलाना आदि आजीविकाके दिया । गरज जब ऐसी ऐसी आवश्यकताओंमें छः कर्म भगवान् इस कारण सिखा सके और भी भगवान् ऋषभदेवने केवलज्ञान प्राप्त होनेसे उसी समय तीन वर्ण भी इसी कारण बना सके पहले धर्मका उपदेश नहीं दिया; तब यह बात कि भगवान् उस समय सरागी थे, वैरागी नहीं कैसे हो सकती है कि उन्होंने वर्णव्यवस्था में थे। क्योंकि वैराग्यावस्थामें यह काम हो ही धर्मका सम्बंध रक्खा हो ? ऊपर लिखे हुए श्लोक नहीं सकता है । इससे स्पष्ट है कि भगवान उस भी साफ तौर पर यही प्रकट कर रहे हैं कि समय आप्त नहीं थे; क्योंक आप्तके वास्ते प्रजाकी आजीविकाके वास्ते ही भगवानने वीतरागी होना जरूरी है । आप्त न होनेसे वे न उनको छः कर्म सिखाये और उनके पेशेके ही तो कोई धर्ममर्यादा बाँध सकते थे और न उन्होंने अनसार उनके तीन भेद किये । इसमें धर्मक केवलज्ञान होनेसे पहले कोई धर्ममर्यादा बाँधी। कुछ भी लगाव नहीं है। इससे सिद्ध है कि वर्गों का धर्मसे कोई सम्बन्ध ___ भगवान् आदिनाथने वर्णव्यवस्था केवल नहीं है। लौकिक प्रबन्धके वारते ही की, इसका स्पष्टी___ भगवान् आदिनाथका सम्पूर्ण पुराण पढ़नेसे करण आदिपुराणके उस कथनसे और भी तो यहाँतक मालूम होता है कि धर्मविषयकी ज्यादा हो जाता है जहाँ भगवानको राजपद कोई मर्यादा बाँधना तो दूर रहा, उन्होंने तो मिलनेके बाद लिखा है कि कर्मभूमिकी रचना केवलज्ञान प्राप्त होनेसे पहले धर्मकी साधारण करनेवाले भगवान् वृषभदेवने अपने पितासे राज्य ऐसी बातोंका भी उपदेश नहीं दिया जिनके पाकर सबसे पहले इस प्रकार प्रजापालनक उपदेशकी अत्यन्त आवश्यकता थी। जिस समय प्रयत्न किया कि प्रथम उन्होंने प्रजाकी सृष्टि की, भगवानने दीक्षा ली, उस समय उनके साथ और उनकी आजीविकाके नियम बनाये और फिर । भी चार हजार राजाओंने दीक्षा ली; परन्तु वे अपनी अपनी मर्यादाका उल्लंघन न करें इसके सब धर्मसे अनजान थे, इस कारण भ्रष्ट हो गये नियम किये। इस तरह वे अपनी प्रजा पर राज्य और उनके द्वारा अनेक मिथ्यामतोंका प्रचार करने लगे । भगवानने अपने दोनों हाथोंमें हथिहुआ। यदि दीक्षासे पहले भगवान् उनको यति- यार लेकर क्षत्रियों की रचना की । क्योंकि जो धर्मका उपदेश दे देते तो ऐसा न होता, परन्तु हथियार बाँधकर रक्षा करते हैं वे ही क्षत्री कहलाते भगवान् उनको कुछ भी धर्म का उपदेश न हैं। फिर भगवान ने अपनी टाँगोंसे यात्रा करना सि.. For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] वर्ण और जाति-विचार। खाकर वैश्य बनाये, और नीच काम करनेवाले कि कोई मनुष्य अपने वर्णके पेशेको छोड़शूद्रोंकी रचना अपने पैरोंसे की, क्योंकि उच्च कर दूसरे वर्णका पेशा न करे । यदि कोई ऐसा वर्णोकी सेवा करना ही उनकी आजीविका है । करेगा तो उसको राजासे दंड मिलेगा और अथाधिराज्यमासाद्य नाभिराजस्य सन्निधौ। वह वर्णसंकर हो जायगा । प्रजानां पालने यत्नमकरोदिति विश्वसृट् ।। २४१॥ स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत् । कृतादितः प्रजासर्गतद्वृत्तिनियमं पुनः। स पार्थिवनियंतव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा ॥ २४८ ॥ स्वधर्मानतिवृत्त्यैव नियच्छन्नन्वशात्प्रजाः॥२४॥ --आदिपुराण पर्व १६ । स्वदोभ्या धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद्विभुः। क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः ॥ २४३ ॥ ___भगवानने उपर्युक्त आज्ञाके द्वारा शूद्रोंको ही उरूभ्यां दर्शयन्यात्रामस्राक्षीद्वणिजः प्रभुः। " बाध्य नहीं किया, अर्थात् केवल उन्हीके वास्ते जलस्थलादियात्राभिस्तवृत्तिर्वार्तया यतः ॥ २४४॥ यह रोक पैदा नहीं की कि वे क्षत्री या वैश्यका 'न्यम्वृत्तिनियतान् शूद्वान् पद्भ्यामेवासृजत्सुधीः। पेशा न कर सकें, बल्कि क्षत्रियों को भी मजबर वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तवृत्तिकधा स्मृता ॥ २४५॥ किया है कि वे वैश्य या शूद्रका पेशा न करने -आदिपुराण पर्व १६ । पावें और वैश्योंको भी रोका है कि वे क्षत्री या उपर्युक्त श्लोकोंसे साफ जाहिर है कि भगवान् र _ शूद्रका काम न करने लगे। क्योंकि भगवानको आदिनाथने वर्णव्यवस्था दुनियाका व्यवहार चला '. यह भय था कि यदि राज्यकी तरफसे ऐसा कड़ा नेके ही वास्ते की है और राज्यावस्थामें की है। नियम नहीं होगा, तो वर्णसंकरता हो जायगी, उन्होंने राज्य पाकर उस समयके मनुष्योंको ' अर्थात् उनका यह विचार था कि इस समय तीन टुकड़ोंमें बाँटकर किसीको हथियार चलाना, जितने फौजी आदमियोंकी जरूरत है उतने किसीको सौदागरी आदि करना, और किसीको क्षत्री, जितने इस समय खेती करनेवाले, सेवा करना सिखाया। उस समय यद्यपि भगवानने पशु पालनेवाले, या व्यापार करनेवाले चाहिए हथियार चलाना और खेती, व्यापार आदि कर उतने वैश्य, और जितने इस समय सेवक चाहिए नेको उत्तम कर्म और सेवा करनेको नीच कर्म उतन शूद्र बनाये गये हैं; परन्तु यदि इनको - अपना पेशा बदलनेकी स्वतंत्रता होगी तो ससमझा; परन्तु सेवकोंके बिना भी दुनियाका न काम नहीं चल सकता है, इस कारण भगवानने " म्भव है किसी पेशेके आदमी जरूरतसे ज्यादा उन्हीं मनुष्योंमेंसे बहुतोंको नीच कर्भ भी ' हो जावें और किसी पेशेके बहुत कम, और यह भी सम्भव है कि किसी पेशेका कोई भी आसिखाया और उनको सेवक बनाया । वह कर्मभूमिका नया नया समय था । उस समयके दमी न रहे । ऐसा होनेसे कर्मभूमिका सर्व प्र. मनुष्योंमें किसी भी पेशेकी बाबत पूर्वके कोई बंध बिलकुल गड़बड़ हो जावेगा । इस वास्ते सबसंस्कार नहीं थे, इस कारण यह सम्भव था ही पेशोंके वास्ते ऐसी कड़ी आज्ञा दी गई। । कि जिन लोगोंको भगवानने नीच काम सिखाकर यद्यपि उस समय भगवानने राज्यदृष्टिसे सेवक बनाया था, वे सब लोग या उनमेंसे बहुतसे क्षत्रीका पेशा सबसे उत्तम समझा और स्वयं लोग यह नीच काम छोड़ देते और इससे उस हथियार चलाना सिखाया; परन्तु इस पेशेमें समयके प्रबन्धमें गड़बड़ी पड़ जाती। इस कारण सिर कटवाना पड़ता है, अनेक मनुष्योंका उस समय भगवानने यह भी आज्ञा जारी की सिर काटकर खूनकी नदियाँ बहानी पड़ती : For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जनहितपी हैं और सदा से ही भाव रखने पड़ते हैं जैसे सिद्ध है कि योद्धा लोग सदा यद्ध मनाते रहते कि आदिपुराणके निम्न लिखित श्लोकोंसे हैं जिसमें मर कर और अनकोको मार कर वह अपना कर्तव्य दिखावें और वशके भागी हों। चिरात्समरसमदः स्वामिनोऽयमभूदिह । युद्ध जो हिंसा होती है उसका कुछ नमूना किं वयं स्वानिसकारादतणीभवितुं क्षमाः ॥ १४२॥ पर्व ४४ के कार दिये हुए ३ श्लोकोसे मालूम हो पोषति नहीपाला भृत्यानक्सरं प्रति । सकता है । भगवान आदिनाथके पोते अर्ककीर्ति न चेदवसरः सार्यः किमेभिस्तृणमानुषैः ॥ १४३॥ और जयकुमारमें सुलोचनाक स्वयम्जर के समय कलेवरमिदं त्याच्यमर्जनीयं यशोधनं । जो युद्ध हुआ था उसका वर्णन करते हुए इन जयश्रीविजये लभ्या नाल्पोदकॊ रणोत्सवः ॥ १४ ॥ लोकोंमें लिखा है कि विद्याधरोंके बाणोंसे बहदंतिदंतार्गलप्रोतागलदंत्रस्खलद्वचाः । तसे हाथी घोड़े मारे गये । उनके बाण शत्रुजयलक्ष्मीकटाक्षाणां कदाहलक्ष्यतां भजे ॥ १४९ ॥ ऑका रुधिर पीने और मांस खानेके वास्ते -आदिपुराण पत्र, ३५ । नीचा मुख किये इस प्रकार आ रहे थे जैसे. दूरपाताय नो किंतु दृढपातार बैचरैः । खगाः कोतमाकृष्य मुक्ता हन्युट्टिपादिकान् ॥१४५॥ पापी नरकमें जाते हैं। रथके पहियोंके संघट्टनसे अधोमुखाः गर्मुक्तः रक्तपानात्पलाशनात् । मुर्दोकी लाशें पिस गई थी और उनमेंसे निकले पृषत्काः साहसो वेयुर्नरकंवाऽबनेरथः ॥ १४६ ॥ हए रुधिर और मांससे ऐसी कीच होगई थी कि चक्रसंघसंपिष्टशवासृड्यांसकर्दमे । उसमें रथ इस प्रकार फिरते थे, जैसे समुद्री नावें। रथकव्याश्चरंति स्म तत्राब्धी मंदपोतवत् ।। १७९ ॥ अनियहिसे नाव और ऐसे कृत्य होनेसे -आदिपुराण, पर्व ४४। वे लोकिक दृष्टिसे कितने ही उत्तम समझे पर्व ३५ के उपर्यक्त , श्लोक उस समयके हे जावें; परन्तु धर्मदृष्टिसे किसी प्रकार भी उत्तम जब कि बाहुबलि और भरत युद्ध छिड़नेवाला नहीं समझे जा सकते हैं। एक दयावान् सद्गृथा। बाहुबलिके योद्धा उस समय युद्धकी खुशीमें हस्थ धर्मात्मा जो छोटेसे छोटे जीवकी हिंसासे आपसमें बातें करते हुए कह रहे हैं कि स्वार्माके भी बचना चाहता है, जो हिंसाको ही पाप यहाँ बहुत दिनों पछि युद्ध छिड़नेका है । और अहिंसाको ही धर्म समझता है, वह कभी स्वामीने अबतक जो हमारा पालन पोषण किया हथियार बाँधकर फौजमें भरती होना पसन्द है, उस कणसे अब हमारा छुटकारा होगा, नहीं करेगा, चाहे वह फौजका सबसे बड़ा अर्थात् उसका बदला हम अब लड़ाई में मरने अफसर ही बनाया जाता हो। बल्कि इसकी मारनेसे चुकावेंगे। इस समयके वास्ते ही राजा अपेक्षा वह शूद्रका नीचसे नीच ऐसा काम लोम सिपाहियोंका पालन किया करते हैं । यदि करना अच्छा समझेगा, जिसमें हिंसा न होती समय पर भी कोई काम न आया, तो ऐसे घास हो । यदि उस समय भगवान आदिनाथ राज्यकी फूसके बने हुए मनुष्यसे क्या लाभ ? अब यह तरफसे इस बातका कड़ा प्रबन्ध न करते कि शरीर छूटेगा और यश मिलेगा, इस कारण किसी भी वर्णका आदमी अपना पेशा छोड़कर यह युद्ध बहुत ही फलदायक होगा । वह दिन दूसरे वर्णका पेशा न करे, तो बहुत सम्भव कब आयेगा जब हाथियोंके दाँतोंमें मेरा शरीर है कि भगवानको केवलज्ञान प्राप्त होने पर पिरोया हुआ होगा और मेरी सब अंतड़ियाँ उनकी दिव्य ध्वनिके द्वारा अहिंसा धर्मका बाहर निकली हुई होंगी ! इन श्लोकोंसे स्पष्ट प्रवाह बहने पर अनेक क्षत्री अपने वर्णको छोड़-. For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण और जाति-विधार। २०७ कर वैश्य या शूद्र हो जाते । जैसा कि आज- है; धर्मसे इसका कोई सम्बध नहीं है। क्यों कि यदि कल राज्यको तरफसे स्वतंत्रता मिलने पर कोई एक शूद्र खेती करने लथे, यशुपालनसे आजीभी जनं क्षत्री नहीं रहा है, प्रायः सब ही वैश्य हो विका करने लगे, किसी प्रकार की दूकान गये हैं या वैश्य ही जैन रह गये हैं। और वैश्य करने लगे, या सिपाहोपलेकी नौकरी करने लगे, होकर भी उन्होंने प्रायः खेती आदि ऐसे पेशोंको तब तो वह वर्णसंकर हो जाय और ऐसा वर्णछोड़ दिया है और छोड़ते जाते हैं जिनमें संकर न होने देनेके वास्ते भगवानने राज्यका ज्यादा हिंसा होती है । परन्तु कुछ हो, दंड कायम किया; परन्तु इस बातकी स्वयं भगवानको तो उस समय पूर्ण रीतिसे आज्ञा दे दी कि ब्राह्मण क्षत्री और वैश्य तीनों लौकिक प्रबन्ध करना था, इस वास्ते उन्हों- ही उच्चवर्णवाले शूद्रकी कन्यासे विवाह कर ने राज्यका पहरा बिठाकर उन लोगोंको लें और ऐसा करनेसे न वर्णसंकरता हो और न जबर्दस्ती ही फौजी बनाये रक्खा, जिनको कोई अन्य बिगाड़ पैदा हो । यदि चारों वर्गों में उन्होंने हथियार चलाना सिखाया था, चाहे वे धर्मसम्बंधी कोई भी भेद होता, तो कदाचित लोग इस पेशेको कितना ही पापपूर्ण समझते हों; भी उच्च वर्णवालेको नीच वर्णकी कन्यासे विवाह और जबर्दस्ती उन लोंगोंको शूद्र ही बनाये करनेकी आज्ञा न होती; बल्कि इस बातकी रक्खा जिनको शूद्रका नीच काम सिखाया था, पूरी पूरी रोक की जाती, ऐसा करनेवालेको चाहे वे लोग इस पेशेसे कितनी ही घिन करते राज्यसे भी दंड मिलनेका प्रबन्ध किया जाता हों, और ऊँचा पेशा करने की योग्यता रखते हों। और पेशा बदलने पर विशेष ध्यान न दिया इस सब कयनसे दो पहरके प्रकाश के समान यह जाता । क्यों कि यदि कोई क्षत्री वैश्यका काम बात सिद्ध हो गई कि वर्णव्यवस्था लौकिक करने लगे, या कोई वैश्य क्षत्रीका काम करने दृष्टिसे की गई है, धर्मका इसमें कुछ भी खयाल लगे, तो इसमें धर्मकी कोई हानि नहीं होती है; नहीं रक्खा गया है। परन्तु उस समय तो भगवानको केवल लौकिक एक पेशेका आदमी यदि दूसरे पेशेका काम प्रबन्ध करना था, इस वास्ते उन्होंने पेशेके ही बदकरने लगेगा, तो वर्णसंकर हो जायगा। इस कारण लनेसे वर्णसंकर होना बताया और इसहोके वास्ते ऐसा करनेवालेको राज्यसे दण्ड मिलना चाहिए , राज्यका दंड नियत किया। ब्राह्मण, क्षत्री वा वैश्य ...इस कड़े नियमके साथ विवाहका नियम यहाँ तक यदि शूद्रासे विवाह कर लें तो वे वर्णसंकर ढीला कर दिया गया है कि ब्राह्मण चारों वर्णोकी न हों और ब्राह्मण-क्षत्री-वैश्यके द्वारा शूद्रके कन्याओंसे, क्षत्री अपने वर्णकी तथा वैश्य और पेटसे पैदा हुआ बालक ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य ही शंद्रकी कन्याओंसे, और वैश्य अपने वर्णकी हो और ऐसा होनेसे भी कोई वर्णसंकरता न कन्यासे तथा शूद्रकी कन्यासे विवाह कर सकता हो । हाँ, यदि कोई शद्र या क्षत्री खेती करने है। यथाः . लगे, या और कोई पेशा बदल ले तो वर्णसंकर शूद्रा शग वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः। वहेत्स्वांते च राजन्यः स्वां द्विजन्माक्कचिच्च ताः२४७ ' हो जावे और ऐसा करनेसे राज्यसे उसको दंड मिले । इससे ज़्यादा इस बातका और क्या विवाहके इस नियमले इस बातमें कुछ भी संदेह सुबूत हो सकता है कि वर्णभेद सिर्फ पेशेके नहीं रहता है कि वर्णव्यवस्था केवल पेोके वास्ते वास्ते है, धर्मके वास्ते नहीं। For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी भाग १३ भगवानके बेटे भरत महाराजने ९६ हजार भरतमहाराजने चौथा वर्ण ब्राह्मणका बनाया। स्त्रियोंसे विवाह किया, जिनमें म्लेच्छ आदि राजा. आदिपुराण और पद्मपुराणके पढ़नेसे मालूम ओंके द्वारा दी हुई, ३२ हजार रानियाँ अप्सराओंके होता है कि क्षत्री, वैश्य और शूद्र इन तीनों ही समान सुंदर और राजाकी प्यारी थीं । इन ९६ वणोंसे ब्राह्मण बनाये गये; न कि किसी विशेष हजार रानियोंके साथ भरत महाराज कामदेवके वर्णमेंसे। क्योंकि जब भरतको अणुव्रती श्रावकोंको समान सब प्रकारके सुख भोगते थे । यथाः- दान देनेका विचार हुआ और उन्होंने इनकी म्लेच्छराजादिभिर्दत्तास्तावत्यो नृपवल्लभाः। परीक्षाके वास्ते लोगोंको बुलाया, तब यह नहीं अप्सरः संकथाक्षोणी यकाभिरवतारिताः ॥ ३५॥ लिखा कि अमुक वर्ण या जातिवालोंको बुलाया। प्रकाममधुरानित्थं कामान् कामातिरकेणः । इससे विदित है कि सब ही वर्णवालोंको बुलाया स ताभिनिर्विशन् रेमे वपुष्मानिव मन्मथः ॥ ५॥ और होना भी चाहिए था ऐसा ही । क्योंकि ताश्च तच्चित्तहारिण्यस्तरुण्यः प्रणयोद्धराः। अणुव्रती श्रावक तो सब ही हो सकते हैं, बल्कि बभुवः प्राप्तसाम्राज्या इव रत्युत्सवे श्रियः ॥ ५८ ॥ आदिपुराणमें तो शूद्रोंके बुलानेका खास वर्णन --आदिपुराण, पर्व ३७। हा . है। उसमें लिखा है किजब भरतजीने यह विचार किया कि अणुव्रती गृहस्थोंको दान देना चाहिए, इस प्रकार ३२ हजार म्लेच्छ कन्याओंसे तब उन्होंने समस्त राजाओंको बुलाया और भी विवाह करने पर न वर्णसंकरता हुई और कहला भेजा कि तुम और तुम्हारे सदाचारी न अन्य ही कोई बिगाड़ पैदा हुआ । भरत इष्टमित्र और नौकर चाकर सब अलग अलग महाराजने ऐसा करने पर भी दीक्षा ली और आवें । यथाःवे उस ही भवसे मोक्ष गये। इससे स्पष्ट सिद्ध है। अणुव्रतधरा धौरा धोरेया गृहमेधिनां । कि धर्मके वास्ते मनुष्य मात्र समान हैं, इनमें तर्पणीया हि तेऽस्माभिरीप्सितैर्वसुवाहनैः ॥८॥ कोई किसी प्रकारका भेद नहीं है । भरत महा इति निश्चित्य राजेंद्रःसत्कर्तुमुचितानिमान् । राजने जो ३२ हजार म्लेच्छकन्याओंसे विवाह परीचिक्षिषुराह्वस्त तदा सर्वान्महीभुजः ॥ ९ ॥ किया था, उनकी बाबत यह कहीं नहीं लिखा कि वे सबकी सब बन्धायें थीं। इस कारण ३२ सदाचानिजौरिष्टैरनुजीविभिरन्विताः । हजार म्लेच्छ रानियोंसे सन्तान भी जरूर हई अद्यास्मदुत्सव यूयमायातति पृथक् पृथक् ॥१०॥ होगी और यदि भरत महाराजके न हुई हो तो । -आदिपुराण पत्र अन्य चक्रवर्तियों या अर्धचक्रवर्तियोंके अवश्य उक्त श्लोकोंका यह वाक्य कि सदाचारी हुई होगी । यदि इन म्लेच्छकन्याओंकी संतान नौकर चाकर भी अलग अलग आवें, इस बातको क्षत्री न मानी जाती तो साफ तौर पर ऐसा स्पष्ट बताता है कि शूद भी बुलाये गये थे और नियम शास्त्रमें जाहिर किया जाता, परन्तु किसी उनमेंसे भी ब्राह्मण बनाये गये थे । इस प्रकार भी ग्रन्थमें ऐसा वर्णन नहीं है। इससे सिद्ध है वलाये हुए लोगों से भरत महाराजन जिनको कि उन म्लेच्छकन्याओंकी सन्तान क्षत्री ही हुई, अणुव्रती समझा उनमें जो परली प्रतिमाके योग्य जिसने और जिसकी आगामी सन्तानने अवश्य थे, उनको एक, और जो दूसरी प्रतिमाके योग्य दीक्षा भी ली होगी और उनमें अनेक मोक्ष थे उनको दो. इरूकार स्यारह जनेऊ तक भी नये होंगे। दिये। रथा:-- For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ण और जाति-विचार । २०९ तेषां कृतानि चिह्नानि सूत्रैः पद्माह्वयानिधेः। ऐसी दशामें ब्राह्मण बनना उनही लोगोंने उपात्तैर्ब्रह्मसूत्राद्वैरेकायेकादशान्तकैः ॥२१॥ पसन्द किया होगा, जिन्होंने उस समय भी और गुणभूमिकृताद्भदात्कृप्तयज्ञोपवीतिनाम् । भविष्यतमें भी सन्तान प्रतिसन्तान दान लेना सत्कारः क्रियतेस्मैषामव्रताश्च बहिःकृताः ॥ २२ ॥ पसन्द किया होगा। अर्थात् धनी-मानी, सेठ ___आदिपुराण, पर्व ३८ । साहूकार और राजा-महाराजा लोग ब्राह्मण नहीं इन श्लोकोंके अनुसार जब भरत महाराजने बने होंगे; बल्कि धनहीन धर्मात्मा ही ब्राह्मण पहली प्रतिमावालेको भी ब्राह्मण समझ लिया, बने होंगे; अर्थात् बहुत करके अणवती शद्रोंने नब यह हो नहीं सकता कि शूद्र न बुलाये ही ब्राह्मण बनाना स्वीकार किया होगा। गये हों और उनमें से भी ब्राह्मण न बनाये गये ब्राह्मण बहत करके शुद्रोंसे ही बनाये गये, हों; क्योंकि शूद्रोंको पहली प्रतिमाके भी योग्य , मा पाग्य यह बात आदिपुराणके उस कथनसे भी सिद्ध न समझना जैनधर्मको ही न माननेके समान है। है, जहाँ भरतने अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंको ऊपर उद्धृत किये गये आदिपुराण पर्व ३८ के समझाया है कि “ यदि कोई मनुष्य अपने श्लोक ८-९ से स्पष्ट विदित है कि महाराज उच्च वर्णके घमंडमें तुमसे कहे कि क्या तू अमुभरतने समस्त ही राजाओंको और उनके इष्ट कका बेटा नहीं है, क्या तेरी मा अमुककी बेटी मित्रोंको बुलाया था; परन्तु भगवानके श्रेयान, नहीं है, तेरी जाति वह ही है जो पहले थी अकम्पन, बाहुबलि आदि एक सौ बेटे, जयकु- और तेरा कुल वही है जो पहले था और मार और उसके भाई, चक्रवर्तीके बेटे, तथा तू भी वह ही है जो पहले था; तब फिर तू और भी-जिन जिन क्षत्रियोंका वर्णन आदि पुरा- अपनेको बड़ा क्यों मानता है ?-तो" यथा-. णमें आया है और जो ऐसे ऊँचे दर्जेके धर्मात्मा अथ जातिमदावेशाकश्चिदेनं द्विज ब्रुवः ।। थे कि उनमेंसे करीब करीब सबहीने दीक्षा ली ब्रूयादेवं किमद्यैव देवभूयं गतो भवान् ॥ १०८॥ और इनमेंसे बहुतसे उसी भवमें मोक्ष गये-ब्राह्मण त्वमामुष्यायणः किं न किन्तेऽम्बाऽमुष्यपुत्रिका । नहीं हुए वे सब क्षत्री ही रहे । कारण इसका यह ही येनैवमुन्नतो भूत्वा याम्यसत्कृत्य मद्विधान् ॥ १०९ ॥ मालूम होता है कि भरतमहाराजने ब्राह्मण बनानेका जातिः सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रगेतनः। . यह सारा आडम्बर दान देनेके वास्ते ही किया था, तथापि देवतात्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥ ११ ॥ जैसा कि ऊपर उद्धृत किये हुए पर्व ३८ के -आदिपुराण; पर्व ३९ । श्लोक ८ में लिखा है कि इनको धन सवारी इस कथनसे स्पष्ट सिद्ध है कि बहुत करके आदिक देकर संतुष्ट करना चाहिए और पद्मपु- शूद्रोंमेंसे ही ब्राह्मण बनाये गये । यदि क्षत्री या राणमें लिखा है कि भरतने उनको वस्त्राभरण वैश्य दोनों उच्च वर्गों से ही ब्राह्मण बनाये जाते, दिये । भरतने स्वयं ही इनको दान नहीं तो कौन ऐसा आक्षेप कर सकता था और भरत दिया है; बल्कि आगेके वास्ते सबहीको यह महाराज क्यों ऐसी संभावना करते । भरत महाउपदेश दिया है कि इनको अवश्य दान देना राजने ऐसे आक्षेपकी संभावना करके जो उत्तर चाहिए। ब्राह्मणोंको सिखाया है उससे भी यही सिद्ध प्रदानाहत्वमस्येप्टं पात्रत्वं गुणगौरवात् । होता है कि बहुत करके दोमेस ही ब्राह्मण बनाये गुणाधिको हि लोकेऽस्मिन्पूज्यः स्यालोकपृजितैः॥१८५ गये हैं। क्यों कि यदि शूद्रोंमेंसे ही ब्राह्मण __ -आदिपुराण, पर्व ४॥ न बनाये गये होते, तो उपर्युक्त आक्षेपका For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग १३ सीधा जवाल यह था कि हमारा वर्ण ब्राह्मण बान जिनेंद्रदेव ही ब्रह्मा है। क्योंकि वे ही सम्ब.. बनने से पहले यात्री या वैश्य था, इस कारण हम ग्दर्शन आदि आत्माको गोंके बहाने वाले हैं पहले भी उन वर्णके थे और अब भी हैं; हम भूयोपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान सस्क्रिय चितान । न पहले घटिया थे, न अब हैं । परन्तु भरतने जातिवादाइलेपस्य निरासा मतःपरं !! १२६ ।। उनको यह उसरन बताकर यह उत्तर सिखाया ब्रह्मणोऽसत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः। हैं कि जिनेद्रदेव ही हमारा पिता और ज्ञान ही ब्रह्मा स्वयंभूभगवान्परमेष्ठी जिलोत्तमः ।। १२७ १५ सह्यादिपरमब्रह्मा जिनेद्रो गुणवहमान। हमारा निर्मल गर्ने है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान परं ब्रह्म यदायत्तमाननीत नुनीश्वराः ।। १२८ चरित्ररूपी संस्कारजन्मसे हम पैदा हुए हैं, -आदिपुराण, पर्व १२ । अर्थात हम बिना योनिके पैदा हुए हैं, इस इस कथनका अभिप्राय दूसरे शब्दोंने यह है वास्ते देव हैं । हमारे समान जो कोई भी हों कि "जात पात जाने ना कोय, हर को भजे सं: उनको देव ब्राह्मण समझना चाहिए । यथा हरका होय । ” अर्थात् चाहे कोई आर्य हो या श्रयतां भो दिजन्य लयाऽस्मद्दिव्यसंभवः । . म्लेच्छ, द्विज हो या शूद्र, जो कोई भी ! जिनो जनयितास्माइ गर्मोऽतिनिमल: ।।११॥ जिनेन्द्रदेवके धर्म पर चलता है, वही देव ब्राह्मण तत्राहिती त्रिधा सिनो शक्ति गुथ्यसंश्रितां । हो जाता है। इसी प्रकार भरत महाराज साह्मणांक स्वसात्कृत्य समुद्धता वयं संस्कारजन्मना ।। ११५॥ समझाते हुए कहते हैं कि जिन्होंने जिनेंद्रदेवके अयोनिसंभवास्तेन देवा एव न मानुषाः । वयं वयमिवान्येऽपि सति चेद ब्रूहि तद्विधान् ॥११६॥ ज्ञानरूपी गर्भसे जन्म धारण किया है, वे है द्विज है और से द्विजों को अन्तःपाती अर्थात -आदिपुराण; पर्व ३९ ॥ वर्गसे गिरा हुआ नहीं कहना चाहिए । यथा-- आदिपुराणक उपयुक्त कथनस कवल यह दिव्यमूजिनद्रस्य ज्ञानगादनाविलात् । ही सिद्ध नहीं हुआ कि सदर है। बहुत करके समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥ १३ ॥ ब्राह्मण बनाये गये थे. बाल्के इससे स्पष्ट शब्दोंमें वर्णान्तःपातिनो नैते मंतव्या द्विजसत्तमाः। यह भीमामहेता है कि धर्मका वर्णसे या , व्रतमंत्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ।।१३३॥ जन्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई आदमी -आदिपुराण, पर्व ३९ किसी भी वर्ण या किसी भी जातिका हो, वह इस बातको और भी स्पष्ट करने के वास्ते श्लोक यदि जिनेद्र भगवानका उपदेश हुआ किया जैनधर्म १३२ में खोल कर ही कह दिया है कि जिसके स्वीकार करता है, तो वह ही बड़ा है । हम आचरण उत्तम है उसहीका वर्ण उत्तम है:बिना योनिके पैदा हुए हैं " ये शब्द जन्मकी वर्णोत्तमानिमान् विद्मः क्षांतिशौचपरायणान् । बड़ाई छटाईको बिलकुल रद कर देते हैं और संतुष्ट न प्राप्तवैशिष्टयान् क्लिष्टाचारभूषणान् ॥ १३२१ यही शिक्षा देने हैं कि जो जैसा करेगा, वह -आदिप पर्व ३२ । वैसा माना जागा । इसहीको पुत्रिमें भरत नहा इस बातको और भी ज्यादा खोलनेके लिए राज अपने बनाये हुए ब्राहगोको समझाते हुए कहा है कि शुद्धि और अशुद्धि न्यायरूप वृत्ति कहते हैं कि ''जातिवादका अभिमान दूर माननी चाहिए, अर्थात् जो न्यायरूप चलता है करनेके वास्ते उत्तम क्रियाओंको काने वाले वह शुद्ध है और जो अन्यायरून प्रवर्तता है वह ब्राह्मणोंको मैं और भी समझाता हूँ कि जो ब्र. अशुद्ध है; इयारूप केवल वृत्तिको न्याय कहते की सन्तान हो उसे ब्रह्मा कहते हैं, और भा- हैं. और जोडोंको दिमाको अन्याय कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] वर्ण और जाति-विचार। तच्छुद्धयशुद्धी बोद्धव्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः। आदिपुराणमें तीन प्रकारकी क्रियाओंको न्यायो दयावृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणं ॥१४११ वर्णन करते हुए एक दीक्षान्वय क्रियाका वर्णन -आदिपुराण, पर्व ३९। किया है, जो उन लोगोंके वास्ते है, जो पहले इस श्लोकसे विदित है कि जो हिंसा करता अजैन हों और अब जैन बनते हों । इस दीक्षाहै वह अन्याय करता है और अन्याय करने- न्वयक्रिया में ४८क्रियायें हैं, जिनमें सबसे पहली वाला ही अशद्ध है; और जो दया करता है वह अवतारक्रिया है। इसके विषयमें लिखा है कि न्यायवान् है और जो न्यायवान् है वह शुद्ध जब मिथ्या दृष्टि पुरुष श्रेष्ठ जैनधर्मको ग्रहण है। अर्थात् दया करनेवाला या अहिंसा धर्मको करने के सन्मुख होता है, तब यह क्रिया की पालनेवाला ही शुद्ध है। अभिप्राय यह कि शुद्धि जाती है: और अशुद्धि किसी वर्ण या जाति पर अवलम्बित तत्रावतारसंज्ञा स्यादाद्या दीक्षान्वयक्रिया। नहीं है, बल्कि मनुष्यके आचरणों पर है । इस मिथ्यात्वदूषिते भव्ये सन्मार्गग्रहणोन्मुखे ॥ १॥ विषयको बिलकुल ही साफ खोल देनेके वास्ते -आदिपुराण, पर्व ३८ .. अगले श्लोकमें लिखा है कि सभी जैनधर्मावलम्बी इस दीक्षान्वयंक्रियामें १८ वी क्रिया क्षुल्लक शुद्ध वृत्तिवाले होनेसे, अर्थात् अहिंसामय धर्मके बनना है और १२ वी क्रिया दिगम्बर मुनि पालनेसे उत्तम वर्णवाले हैं और विज हैं, वे किसी बनना हैतरह भी वर्णान्त पाती अर्थात् वर्णसे गिरे हुए त्यक्तागारस्य तस्यातस्तपोवनमुपेयुषः। नहीं हैं, बल्कि दया पालनेसे जगमान्य हैं। एकशाटकधारित्वं प्राग्वदीक्षाद्यमिष्यते ॥ ७७ ॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । ततोऽस्य जिनरूपत्वमिष्यते त्यक्तवाससः। वर्णान्तःपातिनो नेते जगन्मान्या इति स्थितम् १४२ धारण जातरूपस्य युक्ताचारागणेशिनः ॥ ७८ ।। -आदिपुराण, पर्व ३९ । -आदिपुराण, पर्व ३९॥ जैनी वर्णान्तःपाती नहीं हैं, इसका अर्थ ___ इससे विदित है कि अन्यमती भी जैन कोई कोई विद्वान ऐसा भी करते हैं कि “जैन- धर्मको ग्रहण करके दिगम्बर मुनि तक हो सकता धर्ममें ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्रका भेद है। इस दीक्षान्वयक्रियामें कहीं भी यह नहीं ही नहीं है। अहिंसा धर्म पालनेके कारण सबही लिखा है कि वह अन्यमती कौन वर्णका हो. जैन उत्तम और श्रेष्ठ माने जाते हैं।" कछ भी जिसका अर्थ यही होता है कि वह चाहे किसी अर्थ हों; परन्तु इससे यह बात स्पष्ट है कि भी वर्णका हो । यदि किसी विशेष वर्णवालेधर्मका वर्णसे कोई सम्बंध नहीं है । वर्ण पेशेके को ही दीक्षान्वयक्रिया करनेका अधिकार होता. वास्ते है और धर्म मनुष्य मात्रके वास्ते है। तो अवश्य इसका वर्णन स्पष्ट शब्दोंमें होता। इस बातको आदिपुराणके निम्न लिखित श्लोकमें अन्यमतवालोंमें भी वर्णव्यवस्था मानी जाय या स्पष्ट शब्दों द्वारा कहा है कि-जाति नाम कर्मके नहीं और यदि मानी जाय तो किस प्रकार ? उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्यजाति एक ही है. इसके उत्तरमें यदि यह कहा जाय कि वे भी अर्थात् समान है; परन्तु पेशेके भेदसे वह चार ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्र इस प्रकार प्रकारकी कही जाती है: चार ही वर्गों में विभाजित हैं, इस कारण मनुष्यजातिरेकैव जातिनामादयोद्भवा । उनमें भी वर्णव्यवस्था माननी चाहिए और वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥४५॥ उत्तम या नीच जो कुछ उनका वर्ण प्रसिद्ध है -आदिपुराण, पर्व ३८। उसे ही मानना चाहिए; तब तो हमारा सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ बिलकुल ही मान्य हो जाता है । क्योंकि ऐसा मानने से यह सिद्ध हो गया कि अधर्मका श्रद्धान रखते हुए भी, और अधर्म क्रिया करते हुए भी - यहाँ तक कि मांसादिभक्षण करते हुए भी और जैनधर्मसे पूर्ण विरोध रखते हुए भी, मनुष्य ब्राह्मण क्षत्री वैश्य अर्थात् उच्च वर्णका बना रहेगा; चाहे ऐसा आचरण करते हुए उसकी सैकड़ों पीढ़ियाँ बीत गई हों । और अहिंसाधर्मको पालता हुआ एक धर्मात्मा जैन भी नीच शूद्र ही बना रहेगा, चाहे इस उत्तम धर्मको पालते हुए उसकी सैकड़ों पीढ़ियाँ बीत गई हों । अर्थात् धर्मसे वर्णभेदका कोई सम्बन्ध नहीं हैं । और यदि यह कहा जावे कि विधर्मियोंका कोई वर्ण ही नहीं मानना चाहिए, या हिंसादि करने और मांसादि भक्षण करने से उनका नीच वर्ण मानना चाहिए, तब भी हमारा सिद्धान्त सिद्ध होता है । क्यों कि दीक्षान्वय क्रियामें विधर्मियोंको जैन बनाकर दिगम्बर मुनि तक पहुँचाया है, अर्थात कोई नीच वर्णका हो, या उच्चका और चाहे किसीका कोई भी वर्णन हो; परन्तु जैनधर्मका द्वार सबके वास्ते खुला हुआ है और वे इस उदार धर्मको पाल सकते हैं । जैनहितैषी - इस दीक्षान्ययक्रिया में १३ वीं क्रिया वर्णलाभक्रिया है । उसमें लिखा है कि प्रथमकी १२ क्रियायें हो चुकने पर वह नवीन जैन मुखिया श्रावकोंको बुलाकर उनसे प्रार्थना करे कि आप लोगोंको मुझे अपने समान बनाकर मेरा उपकार करना चाहिए | मैंने जैनधर्म अंगी - कार करके आवक के व्रत लिये हैं । गृहस्थों के जो धर्म हैं, वे सब मैंने धारण किये हैं और चिरकालसे पालन किये हुए मिथ्यात् कर सम्यक् चारित्र स्वीकार किया है, अर्थात् बिना योनिसे उत्पन्न हुआ जन्म धारण किया है | व्रतोंकी सिद्धिके वास्ते मैंने यज्ञोपवीत लिया है । इस कारण अत्र मुझको वर्णलाभ [ भाग १३ 1 होना चाहिए । इसके उत्तर में वे जैन पंच उसको अपने समान कर लेवें । यथा:चतुरः श्रावकज्येष्टानाहूय कृतसत्क्रियान् । तान्ब्रूयादरम्यनुग्राह्यो भवद्भिः स्वसमीकृतः ॥ ६२ ॥ यूयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकपूजिताः । अहं च कृतदोक्षोऽस्मि गृहीतोपासकव्रतः ॥ ६३ ॥ मया तु चरितो धर्मः पुष्कलो गृहमेधिनां । दत्तान्यपि च दानानि कृतं च गुरुपूजनं ॥ ६४ ॥ अयोनिसंभवं जन्म लब्ध्वाऽहं गुर्वनुग्रहात् । चिरभावितमुत्सृज्य प्राप्तो वृत्तमभावितं ॥ ६५ ॥ त्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतोऽस्मि सांप्रतं । कृतविद्यश्च जातोऽस्मि स्वधीतोपासकः ॥ ६६ ॥ एवं कृतव्रतस्याद्य वर्णलाभो ममोचितः । सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात्सधर्मणां ॥ ६८ ॥ इत्युत्कैनं समाश्वास्य वर्णलाभेन युंजते । विधिवत्सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षतां ।। ७१ ॥ -- आदिपुराण, पर्व ३९ वर्णलाभ के इस कथन से प्रत्यक्ष है कि अन्यमती वर्णलाभसे पहले ही धर्मग्रहण कर सकता है, यज्ञोपवीत धारण कर सकता है, और सद्गृहस्थ के योग्य पूजादि सब क्रियायें कर सकता वर्णका सम्बन्ध केवल पेशेसे या आपसके सांसाहै । अर्थात् धर्मका वर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है । रिक व्यवहार से है । इस प्रकार अनेक हेतुओंसे यह बात सिद्ध हो जाने पर कि धर्म प्राणिमात्र के वास्ते है, और इसके धारण करनेमें किसी को कोई रोकटोक नहीं है, परीक्षाप्रधानीको उचित है कि वह इस उदार सिद्धान्तसे विरुद्ध जो कोई कथन या हेतु ि उन सबकी जाँच करे और उक्त हेतुओंसे उनकी तुलना करें; फिर जो कुछ सत्य प्रतीत हो उसका । वर्ण और जातिका रोटी-बेटीव्यवहार से सम्बन्ध | इससे पहले इसही लेखमें हमने आदिपुराण के १६ वें पर्व का एक श्लोक (२४७) उद्धृत किया For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] वर्ण और जाति-विचार। २१३ है, जिसमें लिखा है कि ब्राह्मण चारों वर्णकी बादशाहने राजपूतोंकी कन्याओंको लिया, परन्तु कन्याओंसे विवाह कर सकता है, ब्राह्मण- उनको अपनी कन्यायें नहीं दी । यहाँ तक कि कन्याके सिवाय अन्ध तीन वर्णो की कन्याओंसे अकबर और उसके बेटे जहाँगीर और पोते शाहअत्री विवाह कर सकता है, वैश्य और शूद्रकी जहाँकी सब कन्यायें सारी उमर बिना ब्याही ही कन्याओंसे वैश्य विवाह कर सकता है और शूद् रहीं । अपनी कन्या अपनेसे उच्चकुलवालेको ही शूद्रकन्यासे ही विवाह कर सकता है। भावार्थ इस- देनी चाहिए, इसी खयालसे अब भी बंगालके का यह है कि सभी वर्ण अपनेसे नीच वर्णकी कुलीन ब्राह्मणोंके बीसों विवाह हो जाते हैं और कन्यासे तो विवाह कर लें; परन्तु अपनेसे नीच कन्यावाले अपना घरबार बेचकर उनको हजारों वर्णको अपनी कन्या न देवें । इस श्लोकमें जब रुपया भेटस्वरूप देते हैं, जिससे वह कुलीन ब्राह्मण, क्षत्री, और वैश्य इन तीनों ही उच्च वर्ण- उनकी कन्याको स्वीकार कर ले । फल इस सब वालोंको शूद्रकी कन्यासे भी विवाह करनेकी आज्ञा कथनका यह है कि जिस प्रकार उच्चवर्णवाला है, तब इस बातका तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता अपनेसे नीच वर्णोंकी कन्याओंको ले सकता है कि इन चारों वर्षों में खानपानका कुछ भेद है। इसी प्रकार देनेमें भी कोई वास्तविक दोष तो विवाहके इस नियमने खानपान तो चारों वर्णोका है नहीं; हाँ, जबतक यह रिवाज प्रचलित है एक कर ही दिया, और भरतमहाराजने ३२ कि बेटी देनेवाला अधीन और लेनेवाला अफसर हजार म्लेच्छ कन्याओंसे विवाह करके आर्य और समझा जाता है उस समय तक कोई ऐसेको म्लेच्छोंके खानपानको भी एक कर दिया और अपनी बेटी न दे जिसके अधीन वह न बनना आयके लिए म्लेच्छकन्याओंसे विवाह करनेका भी चाहता हो और जब यह रिवाज न रहे और बेटी द्वार खोल दिया । हाँ, विवाहके मामलेमें इतना देनेवाला और लेनेवाला दोनों ही बराबर समझे प्रश्न अवश्य रह गया कि उच्च वर्णकी कन्या जाने लगें जैसा कि आजकल होता जाता है, तो नीच वर्णके परुषसे ब्याही जानेकी मनाही क्यों? फिर किसी बातका खटका ही नहीं; जहाँ पर कन्यापरन्तु उत्तर इसका बहुत सहज है। क्यों कि की योग्यता मिली वहीं विवाह कर दिया। जिन भाइयोंने कथाग्रन्थोंको पढ़ा है, उनको हिन्दुस्तानमें जब वर्णव्यवस्था जोरों पर मालूम होगा कि पहले समयमें जो राजा किसी थी और जब राज्यकी तरफसे भी इसकी देखराजाके अधीन या उस राजासे पराजित होते भाल थी, तब घटिया वर्णवालेको उससे उच्च थे, वे भेंटस्वरूप अपनी कन्या विजयी राजाको वर्णवालों पर अफ़सर नहीं बनाया जाता था देते थे। उस समयमें बहादुरीकी यही पहचान और उच्च वर्णवाला अपनेसे घटिया वर्णवालेके थी कि वह अमुक अमुक देशसे इतनी इतनी अधीन रहना कभी मंजूर नहीं करता था। उस कन्या विवाह कर लाया । यही कारण है कि समय विवाहके वास्ते भी यह नियम उचित ही सार्वभौम राजाके यहाँ ९६ हजारतक रानियाँ था कि उच्च वर्णवाला अपनेसे घटिया वर्णवाहो जाती थीं। उस समयमें सब कोई अपनी लेको कन्या न दे; परन्तु आज कल तो कन्याको अपनेसे बड़ेको ही देना चाहता था। घटिया वर्णके थानेदार, तहसीलदार, डिपुटी, अपनेसे घटियाको कन्या देकर उसके आधीन आदि अनेक हाकिम हैं, जिनके अधीन ब्राह्मण होना कोई भी पसन्द नहीं करता था । हिन्दु- क्षत्री आदिक अनेक उच्च जातिके लोग काम कर स्तानके इसी रिवाजको लेकर दिल्लीके अकबर रहे हैं और जिनको अनेक उन्न जातिके लोग सू-- For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनाहितैषी भाग १३ लाम करना अपना अहो भाग्य समझते हैं । ऐसी और कमसे कम जन्मसे तो वर्णव्यवस्था कदा. अवस्थामें यदि उच्च वर्णवाले अधीन पुरुषकी चित् भी न रही होगी। इस कारण यह कदःकन्याको घटिया वर्णवाला उसका अफ़सर स्व. चित् भी नहीं कहा जा सकता कि आदिनाथ कार कर ले तो कन्यावालेको अपना अहो भाग्य भगवान्द या भरत महाराजने जो वर्ग बनाये थे ही समझना चाहिए । दृष्टान्तरूप एक ब्राह्मण उनहीकी सन्तानसे अबतक ब्राह्मण, क्षत्री, जो किसी करोड़पति सेठके यहाँ रोटी पकाने वैश्य और शूद्र चले आते हैं । अर्थात् जो अब या पानी पिलाने आदिक किसी सेवाके काम• ब्राह्मण हैं वे उन्ही ब्राह्मणोंकी सन्तान है जिनको पर नौकर है और रात दिन सेठजी और सेठा- भरत महाराजने ब्राह्मण बनाया था और इस नीजी और उनके बड़े नौकरोंके झिड़के खाने समयके क्षत्री उन्ही पुरुषोंकी औलाद हैं जिनको और उनकी अनेक प्रकारकी सेवा शुश्रूषा कर. आदिनाथ भगवानने क्षत्री बनाया था। इस पंचम (नेको अपना अहो भाग्य समझ रहा है, उस कालमें जब धर्मका सर्वथा अभाव नहीं हुआ है; फिर ब्राह्मणकी कन्याको यदि सेठका पुत्र स्वीकार भी इतनी गड़बड़ अवश्य हो गई है कि ब्राह्मणा, • कर ले तो यह ही समझना सत्य है कि उस क्षत्री, वैश्य और शूद्र भी पुलिसके सिपाही ब्राह्मणने अपनी कन्या अपनेरेले बढ़ियाको बनकर या फौजमें भरती होकर क्षत्रीका काम करने ही दी। लगे हैं, ब्राह्मण क्षत्री और रूद्र खेती, पशुपालन विस्तारभयसे हम अपने लेखको यहीं पर और दूकानदारीका काम करके वेश्यक ऐका समाप्त करते हैं और वर्ण और जातिका पेशेस करने लगे है, बाह्मणत्री वैश्य शिल्पकारी और सम्बन्ध' और 'वर्ण और जातिका जन्म सेवा करके शूद्रका काम करने लगे हैं, और और कर्मसे सम्बन्ध । ये दोनों विषय एक स्वतंत्र स्त्री वेश्य और शूद्र पढ़ने पढ़ाने और उपदेश लेखके वास्ते छोड़ते हैं, परन्तु यहाँपर इतनः आद्रिकका कार्य करके ब्राह्मणका पेश! करने कह देना जरूरी समझते हैं कि चौथे कालमें लगे हैं। इस कालमें राजाओंने वर्णकी रक्षा बीच बीच में बात बहुत दिनोंतक धर्मका करनी छोड़ दी है और मनुष्यमात्रको चारों बिलकुल अभाऊ होता रहा है । उत्तरपुराणमें वर्गों का पेशा करनेकी स्वतंत्रता दे दी है । इस लिखा है कि श्रीशीतलनाथ भगवानके जन्मके कारण वर्तमान समयमें पूर्णरूपसे वर्णसंकरता हो एक पूर्व कम पाव पल्य पहलेसे और श्रीश्रेयांस- गई है और केवल वर्णसंकरता ही नहीं हुई है, नाथ भगवानके जन्मके अस्सी लाख वर्ष कम. बल्कि वर्णपरिवर्तन भी होगया है जैसा कि आधे पल्य पहलेसे और श्रीवासुपूज्य भगवानके अग्रवाल-जो राजा उग्रसेनकी सन्तान कहलाते जन्मके ७२ लाख वर्ष कम पौन पल्य पहलेसे है-अब क्षत्रीसे वैश्य होगये हैं। अतः जब कि धर्मधर्ममार्ग बन्द हो गया था। इतने इतने लम्बे मार्गका सर्वथा अभाव न होने पर भी और तीर्थसमयके वास्ते धर्ममार्ग बन्द रहनेकी अवस्थामें कर भगवानके होनेको केवल ढाई हजार वर्ष यह कभी सम्भव नहीं हो सकता है कि वह वर्ण- बीतने पर भी इतना उलट-पलट होगया है तव व्यवस्था कायम रही हो, जिसकी रक्षाके वास्ते श्रीशीतलनाथ आदि तीर्थकरोके जन्मसे पहले भगवान आदिनाथको राज्यका पहरा बिठाना अर्बो और संखों वर्षोंसे भी ज्यादा समयतक पड़ा था। इन अंतरालके समयोंमें तो अवश्य धर्मका सर्वथा अभाव रहने की अवस्थामें क्या घोर अन्धकार और पूर्ण गड़बड़ हो गई होगी कुछ उलट पलट नहीं हुआ होगा ? इस कारण For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] वर्ण और जाति-विचार | २१५ इस समय के ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शूद्रोंको प्रच्युत्यार्थनिवासात्स्याद्धर्मः प्रत्यंतासिषु ॥ १२ ॥ जादिनाथ भगवान के समय के ब्राह्मण क्षत्री वैश्य आदिपुराण, पर्व ४१ ॥ और शूद्रोंकी सन्तान समझना बिलकुल ही जब- अत: जब श्रीभगवानका ही ऐसा वाक्य है। दस्ती और सत्यता के विरुद्ध है । श्रीआदिनाथ तब धर्मकी बाबत तो इस बातके कहनेका किसीभगवानने भरत महाराजके स्वप्नोंका फल बत को अधिकार ही नहीं है कि जो लोग घटिया वर्णलाते हुए क्षत्रियोंकी बाबत तो स्पष्ट शब्दोंही में के हैं या म्लेच्छ कहे जाते हैं वे अमुक धर्म नहीं कह दिया है कि पंचमकालमें प्राचीन क्षत्रियोंके पाल सकते, या अमुक धर्मक्रिया नहीं कर वंशका नाश हो जायगा । अर्थात् प्राचीन क्षत्रि- सकते हैं। हाँ, यदि वे लोग आर्यक्षेत्र के उत्तम योंकी संतान में कोई न रहेगा । यथा -- - वर्णवालों पर यह आक्षेप करने लगें कि आदिनाथ -करीद्रकंधरारूढशाखामृग विलोकनात् । भगवान के वचनानुसार तुम सर्वथा ही धर्मपालन आदिक्षत्रान्वयोच्छित्तौ क्षमां पास्येत्य कुलीनकाशा६॥ नहीं कर सकते, या मुनि आदिका उत्कृष्ट धर्म -आदिपुराण, पर्व ४१ । पालन नहीं कर सकते, तो शायद कुछ ठिकाने की बात भी हो । इससे स्पष्ट है कि इस समय जो क्षत्री हैं वे उन क्षत्रियोंकी सन्तान नहीं हैं, जिनको आदिनाथ भगवान ने बनाया था। ऐसा ही अन्य वर्णोंके विषय में भी समझ लेना चाहिए ! धर्म के सम्बन्ध तो श्रीजादिनाथ भगवानमे कहा ही है कि पञ्चम कालमें ब्राह्मणलोग धर्म के विरोधी हो जायँगे, हिंसा करने और मांस खाने को अच्छा समझेंगे, और हिंसामय धर्मका प्रचार करेंगे । यथा: ततः कलियुगेऽभ्य जातिवादावलेपतः । भ्रष्टाचारः प्रपत्स्यते सन्मार्गप्रत्यनीकताम् ॥ ४७ ॥ सत्वोपघातनिरता मधुमांसाशनप्रियाः । प्रवृत्तिलक्षणं धर्मे घोषयिष्यत्यधार्मिकाः ॥ ५१ ॥ आदिपुराण, पर्व ४१ ॥ ब्राह्मणोंकी तो पंचम कालमें यह दशा हुई, रहे क्षत्री, सो वे आजकल लगभग सभी मांसा - हारी हैं । इस प्रकार जब सबसे उत्तम वर्णोंका यह हाल है, तब धर्मका आधार घटिया लोगों पर ही रह गया। ऐसा ही श्री आदिनाथ भगवानने भरतके स्वनोंका फल बताते हुए कहा है कि जैनधर्म आर्यक्षेत्र में न रहकर म्लेच्छ आदि आसन पासके देशवासियोंहीमें रहेगा । यथा-शुष्कमध्यतडागस्य पर्यंतेंऽबुस्थितीक्षणात् । अब रहा रोटी और बेटीका सवाल, सो जब कि आदिनाथ भगवान के वाक्यके अनुसार पञ्चम कालमें जो ब्राह्मण कहलायेंगे वे जैनधर्मके विरोधी होंगे और जो क्षत्री कहलायेंगे वे उन लोगोंकी सन्तानसे नहीं होंगे, जिनको आदिनाथ भगवानने क्षत्री बनाया था, तब वैश्य और शूद्र बेचारोंकी तो कहाँ खैर है ! वे भी अनेक कार - गोसे जिनका वर्णन ऊपर किया गया है उन लोगों की सन्तान से नहीं होंगे, जिनको आदिनाथ भगवान ने वैश्य और शूद्र बनाया था । तब रोटी और बेटी व्यवहारके वास्ते भी प्राचीन वर्ण और जातिकी दुहाई देना व्यर्थ ही है । इस समय जब कि सभी वर्णके लोग सभी वर्णोंका पेशा करते हैं, अर्थात् जब कि पूर्णरूप से वर्णसंकरता छा रही है और जब कि लोग पेशा कुछ करते हैं और वर्ण उनका कुछ और कहा जाता है, अर्थात् जब कि वर्णका पेशेसे कुछ सम्बन्ध नहीं रहा है, तब यह बात विचार करनी बहुत ही जरूरी है कि रोटीबेटी व्यवहार किस प्रकार रक्खा जावे। आज कल इस विषय में जैनजातिका वर्ताव हिंदुस्तानके प्रत्येक प्रान्तमें एक ही प्रकारका नहीं है । क्यों कि इस विषयमें For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितवी [ भाव १३ इस समय जैन जाति अपने जैनशास्त्रोंके हैं, उस देशके जैन भी ऐसा ही करते हैं और वचनों पर न चल कर हिन्दुओंका अनुकरण जहाँ हिन्दू ऐसा नहीं करते, वहाँ जैन भी नहीं कर रही है । जिस जिस प्रान्तमें जो जो करते । जिस देशमें हिन्दू लोग धीवर, माली, रिवाज इस विषयमें हिन्दू लोगोंमें प्रचलित हैं, आदि ऐसे लोगोंके हाथका पानी पीते हैं, उनहीं पर उस प्रान्तकी जैन जाति भी चल रही जिनके हाथकी रोटी नहीं खाते, उस देशके है और उसहीको भगवानकी आज्ञा मानती है। जैनोंको भी उनके हाथका पानी पानसे घृणा जैन शास्त्रोंमें खेती करनेवाले किसान, पशु नहीं है; परन्तु उनके हाथकी रोटी सानेमें धमा पालनेवाले घोसी और दूकानदारी करनेवाले होती है । जिस देशमें हिन्दू लोग बाजारका बनिये सब एक वैश्य वर्णमें शामिल किये गये हैं; सिर्फ दूधपेड़ा ही खाते हैं, ल घेवर आदि परन्तु अब हमारे जैन भाई किसानों और ऐसी वस्तुयें-जिनमें अन्न पड़ा हो-नहीं खाते घोसियोंको वैश्य वर्णमें नहीं मानते। जैन शास्त्रोंमें उस देशके जैन भी ऐसा ही करते हैं और दूसः हजारों कथायें बड़े बड़े योग्य पुरुषोंकी ऐसी देशके जैनोंको बाजारकी पूरी कचौरी खाते वर्णन की गई हैं जिन्होंने अपनी मामाकी देखकर हँसते हैं । गुजरातके हिन्दुओंमें आपसमें बेटीसे या बुआकी बेटीसे विवाह किया है। खानपानकी ज्यादा ठूत-छात और पानी य. ऐसी भी कई कथायें हैं जिनमें दो भाई-बहनोंमेंसे वर्तनके झूठा हो जानेका ज्यादा सयाल भाईका बेटा बहनकी बेटीसे और बहनका बेटा नहीं है, वहाँ इस विषयमें बहत ही टीले नियन उसही भाईको बेटीसे व्याहा गया है। परन्त आज हैं , इस वारते यही जन-माई भी वैसा ही कल हमारे जैन भाई ऐसा करने पर तैयार नहीं करते हैं । गरज कहाँ तक कह, खान पान के हैं। श्रीआदिनाथ भगवानकी स्पष्ट आज्ञा है कि विषधर्म आज कलके जैनोंका कोई एक सब कोई अपनेसे नीच वर्गों की कन्याओंसे विवाह सिद्धान्त नहीं है; जो कुछ भी है, वह हिन्दुओंक कर ले; परन्तु आजकल यदि एक वर्णवाला अनुकरण है। दूसरे वर्णकी कल्यासे विवाह कर ले, तो ऐसा इस कथनसे सिद्ध हो गया कि हम विवाहक भारी दोष समझा जाता है; जिसका इलाज जाति- मामलेमें जैनशास्त्रोंके बिलकल खिलाफ चल रहे से बाहर निकाल देनेके सिवाय और कुछ है ही हैं और खानपानके मामलेमें अपना कोई सिद्धानहीं। बल्कि आज कल तो एक ही वर्णमें भी विवाह न्त ही नहीं रखते। बल्कि हिन्दुओंका अनुकरण करने की इजाजत नहीं है । अग्रवाल, खंडेलवाल कर रहे हैं । ऐसी दशामें यदि हमारे सब जन आदिक अनेक जातियाँ वैश्यवर्णमें गिनी जाती हैं, भाई द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार कोई एक परन्तु इनका भी आपसमें विवाह नहीं हो सकता; सिद्धान्त स्थिर कर लें, तो किसी तरह भी अनुयदि कोई कर ले तो वह जातिसे बाहर कर दिया चित न होगा । बल्कि ऐसा करना बहुत ही आवजावे । इसही प्रकार ऐसी बहुत बातें हैं जो शास्त्रोंकी श्यक मालूम होता है; परन्तु यह तभी हो सकता आज्ञाके विरुद्ध की जाती हैं और विरुद्ध करना ही है जब कि सबको अपना अपना विचार प्रगट धर्म समझा जाता है । रहा खानपानका व्यवहार, करनेकी स्वतंत्रता हो और शान्तिके साथ बिना सो वह तो बिलकुल ही हिन्दुओंके अनुसार किया किसी प्रकारकी भड़कके सबके विचारोंकी जाँच जाता है । जिस देशमें हिन्दू लोग कचौरी पूरी की जावे। आदि पक्का साना रसोई घरसे बाहर खा लेते For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] सन्तान-सुधार। २१७ सन्तान-सधार। वे यथेष्ट स्थान पर पहुँच सकें। उनके मार्गमें जो जो विघ्न बाधायें आवे दूर कर दें और उन्हें कठिनाइयोंसे सूचित कर दें। यही माता पिताका (ले०-बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीय, बी. ए.।) कर्त्तव्य है और इस कर्त्तव्यके वे सोलहों आने जिम्मेवार हैं । बच्चोंका अच्छा बुरा बनाना माता१ संतानपालन। . पिताके हाथमें है, इस लिए यह जिम्मेवारी भारी किसी कविने कहा है कि बाँसरीकी आवाज और नाजक है। इस जिम्मेवारीको ठीक ठीक उन्हीं लोगोंको मीठी और सुरीली मालूम होती निवाह ले जाना ही वास्तविक संतानपालन हैं । है, जिनके यहाँ बच्चोंका गुल-गपाड़ा नहीं होता। यदि विचार करके देखा जाय तो इस जिम्मेभला दुनियाँमें कोई भी ऐसी मा या कोई भी वारीको समझनेवाले सौ पीछे दो भी न निकऐसा बाप है कि जो उस खुशीको भूल गया हो लेंगे । जो समझते भी हैं, उनमें भी बहुत ही कम जो उसे अपने पहले बच्चेका मुँह देखने या ऐसे निकलेंगे कि जो उसके अनुसार प्रवृत्ति करते. छातीसे लगानेसे हुई थी। बेटा हो या बेटी, हों और संतानपालनमें उन नियमोंका प्रयोग उसे ईश्वरकी कृपा और अपना सौभाग्य समझना करते हों जिन पर सच्चे जीवनका आधार है । चाहिए । परन्तु माता पिताको याद रखना कैसे दःखकी बात है कि बच्चेका मन, बच्चेका चाहिए कि यह नन्हाँसा बच्चा केवल इस लिए मस्तिष्क और बच्चेका स्वभाव, सब कुछ माताउनके हाथोंमें नहीं दिया गया है कि अवकाशके पिताके लाडप्यार पर बलिदान कर दिया जाता समय उनके मनोरंजनका कारण हो, उससे है। उसे कपडा पहिराया जाता है तो ऐसा कि खेल तमाशा करके वे अपना जी बहला लिया मौसिकी नर्मी गर्मीका कोई विचार नहीं किया करें और जब वह बाल्यावस्थासे निकल जाय जाता। खाना खिलाया जाता है तो ऐसा कि तो उसे यों ही पशुओं की तरह छोड़ दें, उसके चाहे उसे बच्चा पचा सके या नहीं। बातें सिखाई पालन, पोषण और शिक्षणका कोई समुचित प्रबंध जाती हैं तो ऐसी जिनसे बच्चा मातान करें। बच्चों का पालन पोषण करना यह माता पिता और सगे सम्बन्धियोंके मनोरंजनका पिताकी भारी जिम्मेवारी है और इस जिम्मेवारी कारण हो । गालियाँ देना, मारना, मूंछे उखाके वे देश और समाज दोनोंके निकट उत्तर ड़ना, मुँह बनाना, गाल फुलाना, जानवरोंकी दाता हैं। आवाजोंकी नकल करना, स्वाँग उतारना इत्यादि - बच्चा मनुष्यकी भिन्न भिन्न शक्तियोंका समूह बातें बच्चोंको गोदमें ही सिखला दी जाती हैं । है, जो वास्तवमें इस लिए उसे मिली हुई हैं कि जो बच्चा इनमें उन्नति करता है, वह मा-बापका वह संसारमें सुखपूर्वक रह सके। उन शक्तियोंका लाडला बेटा होता है । पड़ोसी उससे उन्हीं कार्य जीवन है। यदि कार्य ठीक ठीक हो तो बुरी बातोंका अभ्यास कराते हैं जो माता पिताने जीवनके भी उत्तम रीतसे व्यतीत होनेकी उसे सिखला दी हैं। मित्र सम्बंधी आदि जब आते आशा है; परंतु यदि कार्यों भूल हो जाय तो हैं तो वे भी बच्चेसे उन्हीं बातोंको कराकर खुश जानो जीवन ही नष्ट हो गया। माता पिताके होते हैं । बच्चा कोई बुरा काम करता है तो यहाँ बच्चोंके पैदा होनेका गूढ रहस्य यह है कि वे उसके करनेसे उसको मना नहीं करते, यदि उनकी शक्तियोंको सन्मार्ग पर लगा दें, जिससे कोई अच्छा काम करता है तो उसकी प्रशंसा -- For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ करके उसका उत्साह नहीं बढाते । प्रायः कोंके बुरे कामोंको देखकर ही माता-पिता प्रसन्न होते हैं और यह नहीं सोचते कि आज तो लाड़ प्यारमें ये बातें कुछ हानिकर मालूम नहीं होती, परंतु कलको जब बड़ा हो जायगा तो ये ही बातें हानिकर सिद्ध होंगी। उस समय कुछ नहीं बन सकेगा । उन कामोंके करनेकी बच्चों में आदत पड़ जायगी और फिर aager छूटना कठिन है । जैनहितैषी - नहीं जिस देश और जातिमें ऐसी असावधानी से बच्चों का पालन होता है, वे यदि दिनोंदिन होनावस्थाको प्राप्त हो तो इसने कौन आकी बात है ? जिस जातिको जाति कहलाने का अभि मान है, वह अपने बच्चोंको ऐसा समझती है, जैसा साहूकार को गुलसे मल ही कुछ चला जाय परंतु व्याजमेंसे एक कौड़ी न जाने पर कारण कि यही व्याज आगे चलकर उसका मूल बननेवाला है । वह जाति बारके मालीके सदृश - जो बड़े पेड़ों की इतनी करता, जितनी छोटे ओरसे कभी असावधान नही होतील जातियाँ अपने बच्चोंको अपनी आशाओंका पूरा करनेवाले, अपने नामको कायम रखनेवाले, अपनी हानियाँको मिटानेवाले, अपने देश और धर्मका मान बढ़ानेवाले, शत्रुओं से रक्षा करनेवाले, मित्रोंको सहायता देनेवाले समझती है और इस तरहसे उनका पालन पोषण करती हैं कि वे बड़े होकर जातिक अंग बनकर उसकी रक्षा करें और उसे बल प्रदान करें ! जिन बच्चोंकी मातायें जीवित होती हैं उनका तो कहना ही क्या है, अनाथ बच्चोंतक के पालन के लिए जीवित जातियोंने सैकडों सामान कर रखे हैं। अनेक प्रकारके अनाथालय, विद्यालय, छानालय और शिल्प शालायें खोल रक्खी है, जहाँ उनका उत्तम गीतसे पालन पोषण किया जाता है और उन्हें शिक्षा दी की भाग १३ जाती है। स्मरण रहे कि यह प्रबंध राजाकी ओरसे नहीं है और न किसी एक व्यक्तिकी जोरसे, किन्तु जातिके चंदेसे । जातिके लोग चंदा करके इन सब कामों को चलाते हैं । य बच्चे स्वयं उनके नहीं हैं, परन्तु हैं तो जातिके बच्चे ही। उनके अच्छे होनेसे जातिको लाभ है और बुरे होनेसे जातिको हानि है । यह दशा इंग्लैंड अमेरिका आदि देशोंकी है । यही कारण है कि वे देश दिनोंदिन उन्नति कर रहे हैं : हमारी दशा इसके विपरीत है । हमारे देश अनाथोंका पालन पोषण और शिक्षण होना तो दूर रहा, जिन बच्चोंके माता पिता मौजूद हैं, अच्छे खाते-पीते हैं वे भी अपने बच्चों का ठीक तोरसे पालन पोषण नहीं करते। छोटी उमर में लाड़ प्यार करके उनकी आदतें खराब कर देते हैं । बड़े होने पर जब वे बेजा लाइप्यार के कारण न लिखते पढ़ते हैं और कोई काम धा करते हैं तो उनसे घृणा करते लगते हैं । देखिए ही बच्चे हैं, जिनको कभी माता-पिता अपनी आँख की पुतली कहा करते थे, मा बलायें लेती लेती कभी थकती न थी और बापका देखदेख कर कभी मन नहीं भरता था क्या कारण है ? यह कि माता पिताने अपने कर्त्तव्यको नहीं समझा, या समझकर उसके पूरा करनेमें आलस या ज सावधानी की । लाड़ तो जानवरोको भी अपने बच्चोंसे होता है। गाय, घोड़ी, मुर्गी, बिल्ली हर एक अपने बच्चे से लाड़ करती है । मनुष्य पशुओं श्रेष्ठ है; उसमें गाय बैल वगैरह से अधिक बुद्धि हैं। अतएव उसे उचित है कि लाइ तो अपने बच्चोंसे करे परन्तु वह लाड़ ऐसा हो कि जो बच्चोंकी भलाईका कारण हो और उनको ऐसा बना सके कि वे बड़े होकर दुनियाकी कठिनाइयोंको झेल सकें और अपने कामको सफलतापूर्वक कर सकें। भाईबंधुओं से जो सम्बन्ध है उसे अच्छी तरह निबाह सकें । दूसरोंके प्रति जो उनके For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] कर्त्तव्य हैं उनको पूरा कर सकें। वे गुणी और ज्ञानी हो, साहस और दृढता में पक्के हों, बात के सच्चे हों, धर्म और देश के हितैषी हों, शुद्धाचारी हों, सत्यवती और दूरदर्शी हों और शील, संयम, शांति, संतोष आदि गुणोंसे विभूषित हो । इन शक्तियोंको एक खास केंडे पर लाना मातापिताका काम है । बागमें जो पौधा होता हैं उसके लिए भी जरूरत होती है कि समय पर उसको पानी दिया जाय, ठीक स्थान पर उसको जमाया जाय, उचित खाद डाली जाय, उसके बढ़ावको कम करनेवाली घास बूटी उसके पास से हटाई जाय और उसकी काटछाँट होती रहे । ऐसा करनेसे ही वह बढ़ता है और फल लाता है। हीरा जब खानिसे निकलता है, उस समय वह देखनेमें बड़ा भद्दा होता है। कारीगर अपनी मिहनत से उसपर से मैल उतारता है, और उसे इस योग्य बनाता है कि वह राजा महाराजाओंके मुकुटमें लगनेयोग्य होता है । यही हाल मनुष्य के स्वभावका है । उसको ठीक बनाने के लिए बड़े श्रम, उत्साह, बुद्धि, ज्ञान और दृढ़ताकी आवश्यकता है । उनके बिना मनुष्य में और पशुमें कोई अंतर नहीं रहेगा | अतएव मातापिताको उचित है कि वे बालकोंको अच्छा बनाने के लिए सदैव प्रयत्न करते रहें और शुरूसे ही करते रहें; अन्यथा वे पशुओंके सदृश जंगली और असभ्य बन जायेंगे और फिर बड़े होकर उनका ठीक करना असम्भव हो जायगा ! सन्तान सुधार । २ संतान पर मातापिताका प्रभाव | जब बच्चे बुरे निकलते हैं तो मूर्ख मातापिता अपने भाग्यको उलाहना दिया करते हैं; परंतु हम पूछते हैं कि यदि तुम्हारा कोई नौकर असावधानीसे तुम्हारा कोई वर्तन तोड़ दे और कहने लगे कि साहब, मैं क्या करूँ, यह तो भाग्यकी बात है, तो क्या आप उसकी बातको मान २१९ लेंगे ? कदापि नहीं । बच्चों को जैसा मातापिता बनाते हैं वैसे ही वे बन जाते हैं । उनका रूपरंग और उनकी आकृति मातापितासे बिलकुल मिलती जुलती होती है । बातचीत में भी बच्चा मातापिताकी नकल करता है । फिर वह उनके गुण और स्वभाव क्यों न सीखे ? मनुष्य अच्छे कामको इतनी जल्दी नहीं सीखता जितनी जल्दी बुरे कामोंको सीख लेता है । इस लिए यदि तुम्हारा ही चालचलन अच्छा नहीं है तो बच्चे का क्या होगा ? तुम अपने बच्चे के लिए नमूना हो । जैसा वह तुमको करते देखेगा वैसा ही वह स्वयं करने लगेगा । बच्चे पर पिताका भी इतना असर नहीं होता, जितना माताका होता है । जिस समय से बच्चा गर्भमें आता है, उसी समय से उस पर माताका असर पड़ने लगता है । जबतक बच्चा माताकी गोद में रहता है, माताका उस पर असर रहता है और जब बच्चा बड़ा हो जाता है तब उस पर माता और पिता दोनोंका असर पड़ता है । बाल्यावस्था ही ऐसी अवस्था है कि जिसमें बच्चेका चरित्र और स्वभाव बनता है । बड़े होकर केवल उस चरित्र और स्वभावका विकास होता है, उसमें परिवर्तन नहीं होता । अतएव इस बातकी अत्यंत आवश्यकता है कि मातापिता दोनों इस योग्य हों कि संतानपालनके नियमोंसे भली भाँति परिचित हों । एक विद्वानने कहा है कि एक विदुषी और बुद्धिमती माता सौ शिक्षकोंसे अच्छी है । जिस बच्चेका शुरू में मूर्खा माताकी गोद में पालन होता है उसमें ऐसे अवगुण पड़ जाते हैं कि जिनका पीछे दूर होना असम्भव हो जाता है । चाहे कितनी ही शिक्षा दो, परन्तु उसके अवगुण दूर नहीं हो सकते । जब बच्चा जरा कुछ बड़ा हो जाता है और पिताका भी उस पर असर पड़ने लगता है, तब जिम्मेवारीका For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनहितैषी - काम माता और पिता दोनों पर होता है । उस समय दोनोंका योग्य होना आवश्यक है, अन्यथा एकका काम दूसरा बिगाड़ देगा। गाड़ी में यदि एक घोड़ेका मुँह इस ओर हो और दूसरेका उस ओर, तो वह चल नहीं सकती । इसी तरह यदि माता मूर्खा हो और पिता बुद्धिमान हो, अथवा पिता मूर्ख हो और माता बुद्धिमती हो, तो संतानका पालन पोषण ठीक नहीं हो सकता । उत्तम रीति से संतानपालन करने के लिए दोनों बुद्धिमान होना चाहिए। सबसे पहली शिक्षा जो बच्चोंके लिए आव श्यक है, यह है कि उन्हें आज्ञा पालन करना सिखलाना चाहिए और इस गुणको उनमें इतना बढ़ा देना चाहिए कि उन्हें इस बातका विश्वास हो जाय कि उनके मातापिता उनसे अधिक बुद्धिमान हैं; परंतु यदि वे देखेंगे कि किसी विषयमें मातापितामें मतभेद हो गया है तो उनका विश्वास जाता रहेगा और अब उनको संदेह हुआ करेगा कि क्या करना चाहिए। मातापिताको उचित है कि वे कभी बच्चे के सामने एक दूसरे की शिकायत न करें। यदि वे किसी दिषयमें सहमत न हों तो उन्हें चाहिए कि बच्चेसे अलग होकर परस्पर के मतभेदको दूर कर लें । कुछ मातायें बच्चोंको बिगाड़ देती हैं और जब बिगड़े हुए बच्चे अपराध करते हैं तो वे मातायें उनको पितासे छिपाकर दण्डसे बचा लेती हैं। केवल इतना ही नहीं, वे स्वयं झूठ बोलती हैं और बच्चों को झूठ बोलना और धोखा देना सिखलाती हैं । यदि पिता बच्चों को उनके अवगुणोंके कारण का है अथवा दण्ड देता है, तो कोई कोई मूर्खा माता पिताको दुष्ट और अन्यायी तक कह डालती हैं और बच्चे को हटा लेती हैं। इसका क्या परिणाम होता है ? यह कि बच्चा बुराई में और भी पक्का हो जाता है। ऐसी माताके होते हुए बच्चे को और किसी शत्रुकी आवश्यकता नहीं रहती । [ भाग १३ इसका नाम प्यार नहीं है । सच्चा प्यार यह कि बच्चों की बुराइयोंको दूर किया जाय और उन्हें अच्छी अच्छी मलाईकी बातें सिखलाई जावें । जो पुरुष बुद्धिमान होतें हैं वे अपनी स्त्रियोंको ऐसी बातें समझाते रहते हैं, परन्तु मूर्खा स्त्रियाँ एक नहीं सुनतीं । मातापि - ताके लिए आवश्यक है कि उनका व्यव हार बच्चों के साथ एकसा हो । मूर्खा मातायें स इसके विपरीत करती हैं । स्वयं अपना कोई सिद्धांत नहीं रखतीं । अभी वे एक काम के लिए बच्चेकी सराहना करती हैं और अभी थोड़ी देर में उसी कामके लिए उसे बुरा भाल कहने लगती हैं । अभी प्रसन्न हैं तो बच्चेकी प्रशंसा कर रही हैं चाहे उसने कुछ चुरा लिया हो और अप्रसन्न हैं तो उसे मारने लगती हैं, चाहे उसने कोई भी बुरा काम न किया हो। कहनेसे कर दिखाना अच्छा होता है । उसका असर अपने आप हो जाता है । कहावत है कि एक केंकड़े को उसकी मTने कहा कि बेटा, तुम सदा टेढ़े चलते हो, सीधे क्यों नहीं चला करते ? के कड़ेने उत्तर दिया कि मा, मैंने टेढ़ा चलना तुमसे ही सीखा है। तुम भी तो टेढ़ी चलती हो । दुनियामें हर एक बच्चा चाहे वह किसीका हो, अपने मातापिताका अनुकरण करता है । वह कहनेकी उतनी परवाह नहीं करता जितनी करते देखनेकी करता है । जैसा माता पिताको करते देखता है वैसा ही आप करने लगता है । जिस माताको क्रोध अधिक आता हैं उसका बच्चा भी क्रोधी होता है। जो माता गालियाँ अधिक देती है उसके बच्चे को भी गालियाँ देनेकी आदत पड़ जाती है । जिस माताको झूठ बोलने की आदत होती है, उसका बच्चा भी झूठा और मायाचारी होता है; परन्तु इसके विपरीत जो माता सभ्य और शिक्षित होती है, सच बोलती है और धर्मानुसार आचरण करती For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तान-सुधार। २२१ है उसका बच्चा भी वैसा ही होता है। परंतु काम यों करो। जो कुछ उन्हें बताओ वह आजकलकी मूर्खा स्त्रियाँ अवगुणोंको नहीं देखतीं उनसे कराकर छोड़ो। जैसे कन्याओंको सिलाईऔर न दूसरोंके बतानेसे उनको मानती हैं। उलटी के केवल नियम बतला देना काफी नहीं , रुष्ट होती हैं और मुंह बनाकर आखोंमें पानी भर उनसे सिलाईका काम कराकर छोड़ना चाहिए । लाती हैं । न उन्हें अपने सुधारनेका ख्याल होता केवल नियमोंके बता देनेसे बच्चोंको कोई लाभ है और न बालककी भलाई बुराईका । उन्हें नहीं होता। नियमोंको वे शीघ्र भूल जाते हैं । केवल लड़ना झगड़ना और रोना चिल्लाना आता जिस कामके नियम उनको बताये जायें उसे है। एक पुरानी कहावत है कि सबसे अधिक बारबार उनसे कराना चाहिए, यहाँ तक कि वह विनय बालकोंकी करनी चाहिए। माता पिताको उनका स्वभाव हो जाय । प्रायः माता बालकोंसदा इस बातका ख्याल रखना चाहिए कि जो को यह तो बता दिया करती है कि घरकी काम वे बच्चोंके सामने करते हैं, वह कैसा है। चीजें अपनी अपनी जगह पर रक्खा करो; जो मनुष्य बच्चेके सामने कोई बुरा काम करता परंतु उससे कोई लाभ नहीं होता जबतक कि है वह एक ही समय दो बुरे काम करता है, वह स्वयं उनसे चीजोंको नियत स्थान पर न अर्थात् एक तो वह स्वयं बुरा करता है और रखवावे और स्वयं न रक्खे । अतएव कहनेके : दूसरे बच्चेको बुरा करना सिखलाता है। बच्चोंको साथ साथ करके भी दिखाना चाहिए । माताका अच्छी बातोंकी शिक्षा देना और स्वयं बुरा केवल इतना बता देना काफ़ी नहीं कि बेटा, नमूना बनकर दिखलाना ऐसा ही है जैसा कि रास्ता वह है; किंतु उसे चाहिए कि वह यह उनको मुँहसे तो यह बताना कि सीधा रास्ता कहे कि 'बेटा, आओ मैं तुम्हें साथ ले यह है, परंतु हाथ पकड़कर बुरे रास्ते पर डाल चलती हूँ।' देना । जिस बातकी शिक्षा दी जाती है यदि असलमें जिस दिनसे बच्चा पैदा होता है उसका नमूना बनकर न दिखलाया जाय तो उसी दिनसे उसकी शिक्षा शुरू हो जाती है। वह शिक्षा व्यर्थ है; उससे कोई लाभ नहीं है- थोडे ही दिनों में वह माताकी प्रेम भरी दृष्टिके उलटा आने समय और श्रमको खोना है और उत्तरमें मुस्कराने और क्रोधभरी दृष्टिसे आखोंमें बच्चेको बिगड़ना है । कारण कि जब बच्चा स्वयं आँसू भरने लगता है। उसका ज्ञान दिनों दिन तुमको शिक्षाके विरुद्ध चलते देखता है तो वह बढ़ता जाता है। धीरे धीरे वह जिस बातको कदापि शिक्षाको नहीं मान सकता और जो तुम सुनता है या देखता है, करने लगता है। यही करते हो उसे ही करने लगता है । बच्चों में देखने कारण है कि इंग्लैंडमें पैदा हुआ बच्चा अंगरेजी और अनुकरण करनेकी विलक्षण शक्ति होती है। बोलता है और हिंदुस्तानमें पैदा हुआ बच्चा वे झट ताड़ जाते हैं कि उनके माता पिता कैसे हिंदुस्तानी बोलता है। बच्चा जो कुछ सीखता आदमी है और जैसे वे होते हैं वैसे ही आप है वह सब थोड़ी उमरमें ही सीखता है । जिस बन जाते हैं । अतएव जैसा तुम बच्चोंको बनाना भाषाको वह छुटपनमें माता पिता और भाई चाहले हो पहले वैसे स्वयं बनो, बच्चा स्वयं बहिनोंसे सहजमें ही निःशंक होकर सीख लेता वैसा बन जायगा। हैं उसीके सीखनेमें दूसरे देशके बच्चेको बड़े बच्चोंके शिक्षणसे केवल इतना ही तात्पर्य नहीं होकर वर्षों लगते हैं और फिर भी उसमें इतनी है कि उनको बता दिया जाय कि अमुक जल्दी और साफ नहीं बोल सकता जितनी For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..२२२ जनहितैषी भाग १३] जल्दी और साफ अपनी मातृभाषामें बोलता है ! योग-चिकित्सा । इस लिए जिस किसी भी गुणकी शिक्षा बच्चेको दनी हो उसे बाल्यावस्थामें ही देनी चाहिए। (ले-श्रीयुत पं० माधवलाल शर्मा।) उस अवस्था में बच्चा बिलकल अपनी माके आधीन । होता है। उस समय उसको चाहे जो काम भूमिका। सिखाया जा सकता है। परमात्मस्वरूपमनुष्यतनुधारी दिव्यमूर्तियो ! ____ कुछ बातें बहुत ही छोटी ख्याल की जाती "तुम जानते हो कि तुम सर्व शक्तिमान हो, हैं, परंतु उनसे भी असावधान कभी नहीं होना तुम अपने केवल एक संकल्पके बलसे जो चाहो चाहिए। उनके परिणाम बहुत बड़े होते हैं। सो कर सकते हो । तुम बलवान, स्वस्थ और बोटी छोटी बातोसे ही बच्चोंकी आदत पक्की तेजस्वी होनेके प्रकृत अधिकारी हो। तुम एमा होती है । एक माताने केवल लाड़ प्यारके कार.. क्यों कहते हो कि में वृद्ध हूं, निर्बल हूँ, दुःखी ण अपने बच्चेको शरारतसे मना नहीं किया और इस कारण उसे छोड़ दिया कि बात हल्कीसी हूँ। यह निर्बलता छोड़ दो और आज ही काय. हे । एक बुद्धिमान पुरुषने उससे कहा कि रताको लात मारकर उसे हृदयसे बाहर कर दो। निसंदेह बात छोटीसी है, परंतु छोटी इसी क्षणसे अपनी कायरता और दीनताको - छोटी बातोंसे ही आदत पड़ती है और तिम नमस्कार करो और ओमकारकी गर्जना जा आदत एक बार पड़ जाती है फिर उसका करके कह दो कि मैं सतस्वरूप हूँ-बलवान छूटना बहुत कठिन हो जाता है। इस लिए हूँ-अपने शरीरका स्वामी हूँ और मैं अपने बच्चसे जो काम कराना चाहते हो अथवा जिस शरीरको जैसा चाहूँ वैसा बनानेमें समर्थ हूँ। प्रकारका व्यवहार उससे करते हो उसके दि. यमें पहलेसे यह सोच लो कि उसले कमी आद. ___ हाँ, यथार्थमें ही तुभ समर्थ हो । तुम कहोगे तके पड़नेकी सम्भावना है। जिन कामोंसे या कि मैं अज्ञानी हूँ, मेरी इच्छाशक्ति निर्बल है, जिन बालोंसे बुरी आदतोंके पड़ने की सम्भावना मेरा चित्त अस्थिर है; परंतु मै कह सकता हूँ कि हो, उन्हें बालकोंसे नहीं कराना चाहिए। यह तुम्हारा केवल भ्रम है-केवल प्रलाप है। ___ बच्चोंके साथ व्यवहार करनेसे पहले इस - जागो, उठो और मोहनिद्राको त्याग दो। अपने बातको देख लेना चाहिए कि उनका स्वभाव कैसा मूल स्वरूपका विचार करो। तुम बलवान हो, हैं। कुछ बच्चोंका स्वभाव नर्म होता है । उनसे , स्वतंत्र हो । अपने मनमें से सब तरहकी शंकाओंको काम लेना आसान होता है। ऐसे बच्चोंके साथ निर्मूल कर डालो । 'यदि मै ऐसा होता तो बड़े प्रमसे व्यवहार करना चाहिए । कुछ बच्चोंमें इस वाक्यके ' यदि ' और 'तो' ये शब्द ही तुम्हारे सामर्थ्यको ठंडा कर देते हैं, तुम्हें बलहठ अधिक होती है, उनसे दृढतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए । कुछ बच्चोंमें आलस होता है उनके । हीन बना देते हैं और अधिकारभ्रष्ट कर देते हैं। लिए उत्तेजनाकी जरूरत है। यद्यपि बच्चोंका अब कब तक दु:खी रहोगे ? तुम कहोगे स्वभाव माता पिताके स्वभाव के अनुकूल होता कि हम दुःखसे तो उकता गये हैं, परंतु उसमे है तथापि माताको उचित है कि वह बच्चोंकी मचि मुक्त होनेका उपाय क्या है ? हम कहते हैं कि और प्रकृतिको देखती रहे और उन्हींके अनुसार उपाय स्वयं तुम्हारे हाथहीमें है। तुम स्वाधीन उनके साथ व्यवहार करती रहे। हो, तुमको कोई बाँध या छोड़ नहीं सकता । यदि तुम अपनी स्वाभाविक शक्तियोंको उपयोग For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] योग-चिकित्सा। २२३ में लाना सीखोगे तो बात-की-बातमें पूर्ण स्वाधीन जब देहसे जुदा हो जाता है तब देहमें प्राणकी तथा सुखी हो जाओगे। आवश्यकता नहीं रहती और वह शीघ्र ही विश्ववह शक्ति कौनसी है ? के सर्वव्यापी प्रागसमूहमें मिल जाता है । प्राण - तुम पूछोगे कि वह शक्ति कौनसी है ? कैसी का अंकुश दूर होते ही शरीरके सारे जीवनतत्त्व है ? हम उसे किस प्रकार पहिचान सकते पृथक पृथक हो जाते हैं और कुछ कालमें पंच हैं ? उसे किस प्रकार अधिकारमें लाकर उससे महाभूतमें मिलकर नवीन शरीरकी रचना करने में अपनी इच्छानुसार काम ले सकते हैं ? वह लग जाते हैं। शक्ति स्वतः तुम्हारे शरीरमें स्थिर है और उसके अभी हम कह चुके हैं कि प्राण एक महान् द्वारा ही तुम्हारे शरीरके सब कार्य होते हैं, परंतु शक्ति है । उसे कोई कोई विद्युत शक्ति कहते तम उसे पहिचानते नहीं हो। अपने शरीरकी जाँच हैं। कोई कोई उसे और सुधारकर Human करो। वह किन पदार्थो का बना हुआ है ? तुम Electricity अर्थात् ' मानुषी विद्युत् शक्ति कहोगे कि अस्थि, रुधिर त्वचा और मांसका। कहते हैं। कितने ही विद्वान उसे Magnetism यह ठीक है, परंत इससे अधिक गहरा विचार कगे, अथवा आकर्षणशक्ति भी कहते हैं । परंतु हमारी अधिकाधिक बारीकीसे देखो और सूक्ष्मदर्शक समझमें उसका वास्तविक नाम ‘क्रियाशक्ति यंत्रकी सहायता लो। इस यंत्र द्वारा रुधिरकी है । उसको चाहे जिस नामसे पुकारो या कहो, एक बिन्द्रकी अथवा वीर्यके एक छोटेसे छोटे परंतु यह तो सभी स्वीकार करेंगे कि वह एक कणकी परीक्षा करो । तुमको दिखाई देगा कि महान शक्ति है । मनुष्य, प्राणी और पदार्थ उसमें असंख्य जीवनतत्त्व हैं । रुधिर और मात्र में वह गुप्त रीतिसे स्थित है। संक्षेपमें कहें वीर्य्य केवल जड पदार्थ नहीं हैं, ये केवल रास' तो बड़ पवन, पानी और सूर्यकिरण आदि सबमें यनिक पदार्थोके संयोगसे ही नहीं बने है, वरन् है । सम्पूर्ण विश्व उससे व्याप्त है । विश्वमें इस इनमें चेतन भी है । प्रत्येक रुधिरके अणमें शक्तिका अटूट खजाना है। यह सब शक्ति चेतन है। इस प्रकार तुम्हारा सारा शरीर जीव- तुम्हारी निजकी है । तुम इस शक्तिको प्रकृतिसे नतत्त्वोंसे बना हुआ है। ये जीवन तत्त्व ये सब जितनी खींच सको उतनी खींचो और अपनेको परमाण पृथक् पृथक नहीं हैं, इन असंख्य तत्त्वोंकी बलवान् तथा तेजस्वी बनाओ । वास्तवमें तुम एकता होनेसे ही एक जीवित शरीर बनता है । सब समृद्धियोंके मालिक हो, दरिद्री तथा इसी प्रकार प्राणी वनस्पति और जिनको हम दुःखी तो तुम अपने हाथसे बनते हो। सामान्य भाषामें जड़ पदार्थ कहते हैं उन सामान्य देनगियाँ। सबमें ये जीवनतत्त्व संकलित रहते हैं । इन सब तुम निश्चयपूर्वक मानते हो कि प्रकृति बड़ी तत्त्वोंको नियममें रखनेवाली एक चमत्कारिक ही दयालु है । उसने मनुष्यके यावत आवश्यकीय शक्ति प्राणी मात्र और पदार्थ मात्रमें रहती है पदार्थ जगतमें जहाँ तहाँ भर रखे हैं। जिसके और वह प्राण है । इसी प्राणके बलसे सब विना थोड़े ही घंटोंमें मनुष्यका गला सूख जाता जीवनतत्त्व नियंत्रित और संगठित . रहते हैं। है और जिसके विना असह्य वेदना होती है, प्राणका अर्थ आत्मा या वायु नहीं करना चाहिए। ऐसा परमावश्यक पदार्थ जल कहाँ नहीं आत्मा तुम्हारा मूल स्वरूप है और वह प्राण मिलता ? सहाराके सूखे तथा निर्जन मरुस्थलमें । तथा दूसरी सर्व शक्तियोंका स्वामी है। आत्मा भी उसने हरित भूमि ( Oasis ) की रचना की For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनहितैषी [भाग १३ है । वहाँ भी मीठे पानीका निर्मल झरना अपनी आत्मसंरक्षण करनेकी बुद्धि दी है, वही प्रकृति भाषामें परमेश्वरकी सिखाई हुई कविताका गान लगभग सब प्राणियोंको नाना प्रकारकी उपाधिकरता हुआ बहता है । धूप और गरमीसे दुःखित योंसे बचानेके उपायों की पूर्ति करती है। पश पथिक उस झरनेके शीतल जलको पीता और जब बीमार होते हैं तब वे भखे रहते हैं। उप. वृक्षोंकी घनी छायामें बैठकर विश्राम करता है । वास करनेसे व्याधि स्वाभाविक रीतिसे घटती पानीसे भी आवश्यक वायु है । जलके विना है। इस बातको हमारे भारतीय विद्वान् पहलेसे कुछ घंटों तक मनुष्य जीवित भी रह सकता है, ही कहते आये हैं, परंतु अब यूरोप और अमेरिपरंतु वायुके विना तो पलभर भी जीना कठिन काके विद्वान् भी इस बातको मानने लगे हैं। है । अब आप बतलावें कि ऐसा कौन स्थान परंतु पशुओं को यह नियम सृष्टि के आरंभसे है जहाँ वायु नहीं है ? ये दोनों बातें तुम्हें क्या ही ज्ञात है । मनुष्यका उदाहरण लो । जब शिक्षा देती हैं ? यही कि मनुष्यकी आवश्यक हमें कहीं चोट लग जाती है तब हम उस जगह वस्तुयें उसके निकट ही हैं। प्रकृतिने उन्हें दूर पर हाथ फेरते हैं अथवा फूंक मारते हैं; पेटमें खोजने जाने की आवश्यकता नहीं रखी । यदि दर्द होता है तब पेट पर हाथ फेरते हैं। इस हम विश्व के स्वाभाविक नियमोंका परिशीलन प्रकारसे हम अपने शरीरकी एक गप्त शक्तिको करें तो हमें विदित होगा कि यह नियम अन्धोंको काममें लाते हैं, भेद केवल इतना ही है कि भी दिखाई दे जाय, ऐसे मोटे अक्षरों में जहाँ तहाँ हमें उस शक्तिका ज्ञान नहीं होता। लिखा हुआ है। जब ऐसा है तो मनुष्यको शक्तिका आकर्षण । व्याधियों को निर्मल करने के लिए जंगलों में जड़ी- इतने विवेचनसे तुमको यह स्पष्ट रीतिसे बटियोंके ढूँढने को जाने की क्या आवश्यकता है ? समझमें आगया होगा कि तुम्हारा शरीर तथा विषके समान कड़वी औषधियाँ क्यो पिये ? उसके आसपासका सारा जगत् एक अद्भुत किस लिए वैद्य और सबटरोंको मुँह माँगे दाम शक्तिसे व्याप्त है । तुम्हें यह भी मानना पड़ेगा है और उनी सुशामद करे ? सच तो यह है कि कि इस शक्ति के द्वारा प्रत्येक व्याधिका निवारण प्रकतिने मनुष्यको क्षुद्र नहीं बनाया, वह स्वयं हो सकता है। तम कहोगे कि प्रत्यक्ष देखे बिना अपनी ही अज्ञानताके कारण क्षुद्र बन रहा है । । ९ हम नहीं मान सकते । परंतु हम कहते हैं कि और दुःख पाता है। तुम विना देखी हुई कई बातें मानते हो तब यह कुछ स्वाभाविक उपाय। एक और मान लो । यदि कुछ समय तक यह छोटासा बालक जब भूखा होता है तब रोने बात सत्य है ' ऐसा विश्वास करके तम इसका लगता है । कुत्तेको या अनजान मनुष्यको देख- प्रयोग करोगे तो इच्छित प्रत्यक्षानुभव भी तुम्हें कर चीख मारता है या आप-ही-आप उससे दूर प्राप्त हो जायगा। अतः अब तुम्हें यह स्वीकार हटने लगता है । इसका कारण क्या है ? करना ही पड़ेगा कि तुम्हारा शरीर और सम्पूर्ण प्रकृतिने उसे आत्मसंरक्षण करनेकी बुद्धि दी है। जगह एक परम शक्तिसे भरपूर है और यदि अतः अपनी बुद्धिके अनुसार उसे जो कुछ तुम किसी अक्रिया द्वारा इस शक्तिको अपने भयकर या भयप्रद प्रतीत होता है उससे वह शरीरमें भर सकोगे तो तुम बातकी बात में सम्पूभलीभाँति बचने और दूर रहनेका प्रयत्न करता ण व्याधियोंसे मुक्त हो जाओगे । तुम्हारा रुधिर है । जिस प्रकृतिले बालकों तथा सब प्राणियोंको धमनियों में तेजीसे बहने लगेगा, तुम्हारा मंद For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] योग-चिकित्सा। २२५ यड़ा हुआ हृदय चंचल हो उठेगा, तुम्हारे नि- है। स्नायुओका बल केवल इतना ही है कि वह स्तेज नेत्र चमकने लगेंगे और तुम्हारी मंद जठ- तुम्हारे मनकी आज्ञाके अनुसार कार्य कर दे। राग्नि वैश्वानरके रूपमें प्रकट होगी। तुम एक एक उदाहरण लो। तुम दस मील चलकर आये अपूर्व बलका अनुभव करोगे और जीवनका सच्चा हो, इस लिए कुछ थक गये हो । इसी समय आनंद लूटोगे। तुम जिससे मिलोगे उसे ही यदि कोई तुम्हें ऐसा समाचार सुनावे जिससे तुम अपनी शक्तिसे पराजित कर डालोगे। मैं कहता उत्तेजित हो उठो और तुमको बीस मील और हूँ, केवल इतना ही नहीं, इससे सैकड़ों गुनी चलनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगे तो तुम सफलतायें प्राप्त कर सकोगे। केवल विश्वास उठकर खड़े हो जाओगे और चलना प्रारंभ कर रक्खो, आत्मश्रद्धा रक्खो और इस लेखमें बताई दोगे। तुम इस धुनमें बीस मील चले जाओगे हुई क्रियाओंको आचारमें लाओ। और तुम्हें कुछ भी थकावट न मालूम होगी । जब ___ तुम्हारे आसपास वायु है और तुम्हारी जीवन- तुम्हारे यहाँ किसीका विवाह होता है या जब क्रियाको परिचलित करनेके लिए तुम्हारे फेंफ- कोई बीमार पड़ता है तब तुम मनकी उत्तेजित डेमें उसकी अवश्यकता है। परंतु यदि तुम नाक अवस्था प्रतिदिन बेशुमार चलते फिरते हो, . बंद करके बैठे रहोगे तो क्या वह अमृत वायु परंतु क्या तुम्हें उस समय श्रम प्रतीत होता है ? तुम्हारे शरीरमें प्रवेश कर सकेगी ? नहीं। एक सिपाही ज्वरसे पीड़ित पड़ा हुआ है । ऐसी तुमको इच्छाशनिक बल द्वारा नाकके द्वारोंको स्थितिमें युद्ध आरम्भ होता है और रणवाद्य खोलना पड़ेगा और फेफड़ोंको खाली करना बजने लगते हैं । उनका स्वर कानों में पड़ते ही पड़ेगा, जिससे वायु अपने आप ही तुम्हारे शरी- उस सिपाहीमें वीरत्व आ जाता है। इस वीरत्वके रमें प्रवेश करेगी। इस विश्वमें अनंतशक्ति भरी आदेशसे ज्वर एकदम उतर जाता है और वह हुई है और तुम शक्तिसमूहके बीच बैठे हो। पागलके समान रणक्षेत्रकी ओर दौड़ जाता है। अब तुम्हें केवल इच्छाशक्तिका उपयोग करना यह बल किसका है ? मनका या शरीरका ? सीखना है । इच्छासे उस शक्तिको शरीरमें खीं- शरीरके ऊपर मनका पूर्ण अधिकार है, इस चना सीखो। वह तुम्हारी आज्ञाके वशमें है। वातको सभी मानते हैं । जब तुम क्रोधित तम ऐसा अनुभव करो कि वह अनंतशक्ति मेरे होते हो तब तुम्हारे नेत्र लाल हो जाते हैं; जब शरीरमें प्रवेश कर रही है-मेरे शरीरके अवयव तुम भययुक्त होते हो तब तुम्हारा मुख मलिन उससे पूर्ण हो रहे हैं और उससे नये रजः कण पड़ जाता है । तुम निद्रित अवस्थामें हो और बन रहे हैं । बस इतनी इच्छा दृढ़तापूर्वक करो स्वप्नमें किसीके साथ लड़ते हो, तो कभी कभी और फिर क्या चमत्कार होता है उसे देखो। तुम बोल उठते हो और हाथ पैर फेंकने लगते .. मनोबलकी महिमा । हो । स्वप्नमें कामवश होनेसे वीर्यस्त्राव हो जाता _तुम मनोबलका प्रभाव जानते हो ? न है । इन सब बातोंसे यही सिद्ध होता है कि जानते हो तो अब जान लो। तुम्हारे हाथ पैरके शरीर पर मनका बहुत बड़ा प्रभाव है । कसरत स्नायुओंमें शक्ति है । तुम भारी वजन उठा सकते सिखानेवाले उस्ताद उपदेश दिया करते हैं कि हो और दस मील चल सकते हो। इससे तुम शरीरको दृढ़ करनेवाली कसरत करते समय मनको यह मानते होगे कि यह बल हमारे स्नायुओंका भी कसरतमें लगाना चाहिए। मैं बलवान होता है । नहीं, उसमें अधिकांश बल तुम्हारे मनका जाता हूँ ऐसी भावना करना चाहिए; अन्यथा For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कसरतसे कुछ लाभ नहीं होगा। इससे भी मनका शरीर पर पड़नेवाला प्रभाव सिद्ध होता है । यदि तुम्हें इस लेख में बतलाई हुई गुप्त क्रियाओं से लाभ उठाना हो तो तुम इन दो उपयोगी और कार्य में लाने योग्य सिद्धान्तोंको स्वीकार कर लो, एक तो तुम्हारा मन बहुत सामर्थ्यवान है और दूसरा तुम्हारे मनका तुम्हारे शरीर पर पूर्ण अधिकार हैं । इन दोनों सिद्धान्तों को स्वीकार करके आगे बढ़ो, इनका अनुभव करो और प्रयोग करके देखो । प्रयोग करने में यदि वे झूठे प्रतीत हों तो फिर अवश्य उनको फेंक देना । मनकी क्रियाके आधार पर उसके दो विभाग | जैनहितैषी - तुम्हारे मन तो एक ही है और वह विभक्त भी नहीं हो सकता है, तो भी मानसशात्री मनके द्वारा होनेवाली भिन्न भिन्न क्रियाओं और व्यापारोंको लक्ष्य करके उसे Subconscious mind और Subluminal mind ये दो नाम देते हैं | महासागरका पानी तो सर्वत्र एक ही है. परंतु भिन्न मित्र देशों के पीप आनेसे उसके अलग नाम पड़ जाते हैं जैसे भूमध्य समुद्र, लालसागर इत्यादि । हमें इस समय मानस शक्तियोंके द्वारा किये गये मनोव्यापारोंके सूक्ष्म पृथक्करणोंको जानने की आवश्यकता नहीं है। परंतु हम उसके सीधे और सरल दो विभाग करते हैं । एक आन्तरिक क्रियाओंको करनेवाला और दूसरा बाहरकी क्रियायें करनेवाला । बाहरकी क्रियायें करनेवाला मन ( Objective mind) विचार करता है, तर्क करता है, अनुमान करता है, सिद्धान्त नियत करता है और उन्हें सिद्ध करता है तथा हाथ पैर आदि शरीरके सब अवयवोंक स्नायुओंको गति देता है। आंत - रिक क्रियायें करनेवाला मन ( Subjective mind ) संस्कारको, सिद्धान्तको ग्रहण करता [ मांग १३ है, आवश्यकता पड़ने पर उन्हें अपने भंडारमेंसे बाहर निकालता है और शरीर के भीतरी अवयवोंकी गतिको नियमित करता है। तुम्हारे शरीरमें रुधिर रात दिन घूमा करता है, हृदय निरंतर धड़कता रहता है, पाचन क्रियाके अवयव भोजनमेंसे पोषकतत्त्व खींचकर शेषको मलके रूपमें बाहर निकाला करते हैं, स्वप्नमें मच्छर या कोई दूसरा जंतु काटता है तो उसका प्रतीकार कर देके लिए हाथ ऊँचा उठता है । ये और ऐसीऐसी सब ही क्रियायें मनके द्वारा होती हैं । इन क्रियाओं पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। तुम अपनी इच्छा के अनुसार रुधिरकी गति में या हृदय स्फुरण में फेरफार नहीं कर सकते हो : परंतु इसी मन पर इस लेख में बताई हुई क्रिया ओंके द्वारा तुम्हें अधिकार प्राप्त करना है। उसे ही तुम्हारी इच्छानुसार कार्य करनेवाला बनाता है। जो तुम इतना कर सके तो समझना कि तुम्हार कार्य सिद्ध हो गया । आंतरिक मन पर विशेष प्रकाश । • कदाचित् तुम सोचते होगे कि यह कार्य बहुत कठिन है, परंतु यथार्थ में यह कार्य वैसा कठिन नहीं है । यदि तुम अपनी आंतरिक मनकी प्रक्रियाओंको बराबर समझ लोगे और बताई हुई रीति के अनुसार प्रयोग करोगे, तो तुम एक सप्ताह में अपने आरोग्य में, अपने विचारमें, अपनी प्रकृतिमें महत्त्वपूर्ण परि वर्तनको देखोगे तुम्हें इस बातको जान लेना चाहिए कि तुम्हारा आंतरिक मन जो शरीर के अंदरकी क्रियायें करता है, बहुत कोमल और संस्कारग्राही है प्रिय और स्वतंत्र और बाह्य मन स्वतंत्रताकाम करनेवाला है । वह सदैव विचार करता है, तर्क करता है, और सत्यासत्यकी परीक्षा करता है । इसलिए उसे जो आज्ञा दी जाती है उसे वह एकदम नहीं स्वीकार करता । उस पर वह नाना तरह के For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] योग-चिकित्सा। २२७ तर्क करने लग जाता है। कभी कभी तो वह कदापि नहीं पहुँचेंगीं। इस लिए पहले बाह्य मनको तुम्हारी आज्ञा स्वीकार कर लेता है और कभी स्थिर करना चाहिए, अथवा उसे सुषुप्ति अवकभी सामने हो जाता है । वह बहुत चपल और स्थामें लाना चाहिए । जब मालूम हो कि बाह्य मन अस्थिर है । बंदरकी नाई वह एक विषयसे दूसरे सुषुप्ति अवस्थामें है अथवा स्थिर हो गया है, तब विषयकी ओर दौड़ता है । परंतु आन्तरिक मन आन्तरिक मनको जो आज्ञायें देनी हों दे डालो, छोटे बालकके समान सरल है। उसे जो आज्ञा जो संस्कार डालना हो, डाल दो, वे सब सफल दी जाती है उसे वह एकदम ग्रहण कर लेता है होंगे। ये राजयोगकी गुप्त कुंजियाँ लोकहितके लिए और बरावर उसी तरह, लेशमात्र भूल या हेर- प्रकट की जाती हैं। इनसे लाभ उठाकर बलवान् फेर किये विना उसे कार्यमें परिणत करता है। और विजयी होना अथवा लाभ न उठाकर दुर्बल , वह लेशमात्र भी विचार नहीं करता; उसे भली- और पराधीन रहना स्वयं तुम्हारे ही हाथमें है। बुरी जो आज्ञा दो, वह तुरंत मान लेता है। प्रत्येक मनुष्य अपने सद्भाग्यका स्वयं कर्ता यह तुम्हें मालूम ही है कि तुम्हारे शरीरके भी- हर्ता है । तरी अवयवों, तुम्हारे विचारों और तुम्हारे साधनाका द्वार। . स्वभाव पर उसका पूरा प्रभाव है-पूरा अधिकार अब यदि तुम बलवान् और स्वस्थ होनेके । है । अब तुम आंतरिक प्रक्रियाद्वारा शरीरकी लिए उत्सुक हो, जो गुप्त रीतियाँ बताई जाती हैं सम्पूर्ण व्याधियों और कुटेवोंको पराजय करने- उनका लगातार अभ्यास करते रहनेकी दृढ़ता की गुप्त रीतियोंका कुछ भेद समझ गये होओगे। रखते हो तो आगेकी पंक्तियोंको पढ़ो, नहीं तो यदि न समझे होओगे तो आगे समझ जाओगे। इस लेखको एक ओर ताकमें रख दो, अथवा तुम अपने शरीरके स्वामी कहलाते हो, मैं कहता किसी विशेष अधिकारी मित्रके स्वाधीन कर दो। हूँ कि तुम सचमुच ही उसके सम्पूर्ण स्वामी बन कितने ही मनुष्य छोटे बालकके समान जिज्ञासु जाओ। मैं चाहता हूँ कि तुम बलवान् और होते हैं । वे कोई नई बात सुनकर तुरंत नीरोग बनो। उसके मोहमें पड़ जाते हैं और उसके पीछे आवश्यकीय सूचना। दौड़ने लगते हैं। वे एक या दो दिन उसका जिन मनुष्योंने राजयोगके मार्गमें प्रवेश प्रयोग करते हैं और मनःकल्पित परिणामकी किया है, वे ऊपर कही हुई बातोंको सहज ही सिद्धि न दिखाई देने पर उसे छोड़ देते हैं। *मान लेंगे, परंत जो केवल जिज्ञासु हैं वे इन एक बालक जमीनमें बीज बोता है, उसके ऊपर । बातोंको स्वीकार करने में संशय करेंगे। उनका जलसिंचन करता है, मिट्टीके द्वारा उसे ढाँक । यह संशय दूर करनेके लिए पहले दो एक सरल देता है; परंतु अंकुर फूटा या नहीं यह देखने के प्रयोगं बतलाऊँगा, जिनको आजमाकर देख- लिए अधीर होकर दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह . नेसे उनका संशय-तिमिर हट जावेगा, आत्म- मिनिटमें मिट्टी खोदकर देखता है । अब विचारो, श्रद्धा बढ़ेगी और आवश्यकीय क्रियायें करनेके क्या वह बीज कभी अंकुरित होगा ? यदि तुम लिए उनको बल प्राप्त होगा। साधनारूपी मार्ग- इस बालकके समान अधीर हो-जो एक या दो पर चलनेवाले प्रत्येक शिष्यको स्मरण रखना दिवसके अभ्यासमें सिद्धिकी आशा रखता हैचाहिए कि जबतक बाह्य मन चंचल है, तबतक तो यह मार्ग तुम्हारे लिए नहीं है । साधनाके तुम्हारी आशायें और सूचनायें आन्तरिक मन तक द्वारमें प्रवेश करनेके पहले तुममें दृढ़ता और For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ आत्मश्रद्धाके होने की बड़ी आवश्यकता है। यह है। यह काम एकदम सिद्ध नहीं होगा। यदि राजयोगकी 'प्रवेशिका परीक्षा' है । इस परीक्षाके आठ दस दिनतक विना उकताये अभ्यास जारी पास किये बिना किसी विद्यार्थी ( साधक) को रक्खोगे तो अवश्य सफलता होगी। इस क्रियासे साधनाके द्वारमें प्रवेश करनेका अधिकार नहीं तुम अपनी बड़ी-से-बड़ी थकावटको चाहे जब मिलता और यदि कोई ऐसी अपरिपक्क साधक- सहज ही मिटा सकोगे। आठ घंटेकी निद्रा लेने अवस्थामें प्रवेश करता है तो वह अवश्य ही से शरीरको जितनी विश्रान्ति मिलती है, उतनी ही निष्फल जाता है, और वह अपनी भूलके कारण इस शिथिल करनेकी क्रियासे कुछ मिनिटोंमें ही अथवा शीघ्रताके कारण निष्फल हो जानेसे मिल जायगी। शिथिल हो चुकने पर अब एक लम्बी योगविद्याका कट्टर शत्रु बन जाता है-उसे ढोंग श्वास लो । फेंफड़ोंमें एक साथ सब वायु मत या इन्द्रजाल समझने लगता है। भरो, और ठहर ठहरकर अटक अटक कर भी पहली सीढ़ी। श्वास मत लो; वरन् धीरेसे गहरी श्वास लो; उपरिलिखित रीत्यनुसार यदि तम अधि- फेंफड़े और छातीको वायुसे भर डालो और कारी हो, तो दृढता, आत्मश्रद्धा और मनो- वायुको नाभिपर्यंत जाने दो । यदि तुम्हें बलको अपना साथी बनाकर मेरे साथ किसी अभ्यास न हो तो कुंभककी अर्थात श्वासको अंदर एकान्त स्थानमें चलो और कमरेका दरवाजा रोकनेकी क्रिया मत करो। जैसे धीरे धीरे श्वास बंद कर लो । यदि तुम्हारे हृदयमें व्यग्रता. ली थी उसी प्रकार उसे धीरे धीरे छोड दो। फिर तर्क वितर्क आदि हो तो उन्हें बाहरके कमरेमें जितने क्षणतक विना श्वासके सुखपूर्वक रह रख जाओ और प्रसन्न चित्तसे मेरे सम्मुख आसन सको उतने समयतक श्वास मत लो । यही पर बैठ जाओ। मनमें किसी प्रकारका संशय उत्तम कुंभक है । इसके पश्चात् फिर धीरे धीरे मत रक्खो । कहा है कि-'संशयात्मा विनश्यति। गहरी श्वास लो और फिर धीरे धीरे बाहर इस क्रियामें कुछ भी कठिनाई नहीं है । यदि निकालो । इस क्रियाको सुख शान्तिपूर्वक तुम पद्मासनसे बैठ सकते हो तो ठीक है, नहीं करना चाहिए । फेंफड़े और हृदयको श्रमित तो एक आराम कुर्सी पर सो जाओ। यदि आराम मत होने दो । बीच बीचमें हो सके तो 'ओम कुर्सी भी न हो तो दरी पर सिर और पैरके नीचे का उच्चारण करो । यदि इस बतलाई हुई तकिया रखकर लेट जाओ। अब तुम अपने हाथों, प्रक्रियाके अनुसार अभ्यास करोगे तो तुम्हारा पैरों और गर्दनकी स्नायुओंको शिथिल कर दो। बाह्य मन स्थिर हो जायगा और आन्तरिक मन शिथिल करनेकी क्रिया बहुत ही आवश्यक है। तुम्हारी आज्ञायें ग्रहण करनेको सदैव यदि तुम प्रतिदिन एक या दो बार पाँच या तत्पर रहेगा। दस मिनिटतक शरीरको शिथिल करके नि:श्चेष्ट सामान्य आदश । होकर पड़े रहने का अभ्यास कर लोगे तो तुम्हारी जब तुम इस स्थिति तक पहुँचोगे तब, तुम्हारी सारी थकावट उतर जाया करेगी और नई शक्ति श्वास बहुत स्थिर हो जायगी, तुम्हारा मन आ जाया करेगी। इससे तुम्हारी आयुकी वृद्धि विचार करना या भटकना छोड़ देगा और तुमको होगी। अतएव शिथि होना सीखो। हाथ पैरोंको ऐसाभासने लगेगा कि सारे संसारमें मेरे सिवा और बिलकुल ढीले कर दो, कपड़ेके समान नरम कोई नहीं है । ऐसी स्थिति प्राप्त करनेके लिए तुम्हें हो जाओ, मानो शरीरमें बिलकुल शक्ति ही नहीं धैर्यके साथ प्रयत्न करना चाहिए । चाहे थोड़े दिन For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'योग- चिकित्सा | अङ्क ५-६ ] २२९ म्भमें पूरा मंत्र उच्चारण करने के लिए तुम्हें पाँचसे दस मिनिट लगेंगे, बाद में जब तुम्हारा अभ्यास बढ़ जायगा, तब तुम अधिक समयतक एक ही विचारमें मग्न रहना सीखोगे और वैसे ही अधिकाधिक बल और आरोग्यता प्राप्त करोगे । लगे चाहे अधिक; परंतु इस स्थिति तक पहुँच सब सकते हैं। जब तुम ऐसी स्थिति में प्रवेश करोगे तब तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारा आंतरिक मन तुम्हारा आदेश ग्रहण करनेके योग्य हो गया है । इतना हो चुकने पर निम्न लिखित महामंत्रको मनन करते हुए उच्चार करो। याद रखना चाहिए कि इस मंत्र के शब्दों को केवल मुँह से जपने या कह जानेसे कुछ लाभ नहीं होता । इसके अर्थको समझकर और स्थिरता के साथ विचार करके उसके भावको हृदयङ्गम करना चाहिए । प्रत्येक वाक्य कहते समय उसका जो प्रातःकालकी क्रिया । ऊपर बतलाई हुई क्रियाका उपयोग दिन में जब कभी दस दस पाँच पाँच मिनिटका अदकाश मिले तभी करने लगना चाहिए और इसका अभ्यास बढ़ाना चाहिए। पहले थोड़े दिनतक मनको याद दिलानी पड़ेगी, परंतु कुछ भाव हो, तुम यथार्थमें वैसे ही हो ऐसी दृढ़ धा-देनोंके बाद अभ्यास बढ़ जाने पर मन आप-ही T रणा करनी चाहिए | कलना मिथ्या नहीं होती है । स्मरण रक्खो, तुम जैसी कल्पना करोगे वैसे ह्रीं हो जाओगे | जब तुम श्रद्धापूर्वक यह मान लेते हो कि मैं बलवान् हूँ तब तुम सचमुच में ही बलवान् हो । अत एव तुम ऐसी कल्पना करो कि हमारे हाथ, पाँव, पीठ, छाती आदि सब स्नायु बद्ध और रुधिरसे परिपूर्ण हैं। थोड़े समके बाद तुम्हें इस क्रियाका चमत्कार दिखाई देगा | आप स्वाभाविक रीति से ध्यानस्थ हो जायगा । परंतु जो साधक पूर्ण आरोग्य और बल प्राप्त कर नेकी इच्छा रखते हों, उन्हें प्रतिदिन प्रातः काल मनको स्थिर करके एक क्रिया करनी चाहिए ! पहले तो ऊपर कहे अनुसार शिथिल होकर बाह्य मनको स्थिर करो, फिर अपने सामने हनुमान, भीम, राममूर्ति अथवा और किसी महाबलवान्, पुरुषका चित्र रक्खो । उसके शरीरके प्रत्येक अंगको प्रेमपूर्वक देखो और फिर नेत्र बंदू करके नीचे लिखे अनुसार कल्पना करो - " मेरा शरीर वज्र के समान दृढ़ और शक्तिमान् है । मेरे हाथ पैर और सब शरीर के स्नायु कठिन, मोटे और सशक्त हैं । शरीरके किसी भाग में भी रोग नहीं है । सम्पूर्ण शरीर अलौकिक चेतन शक्तिसे परिपूर्ण है ।" इस विचारको मनमें खूब स्थिर करो । ऐसी कल्पना करके कि हम स्वतः वैसे हैं अपने हाथ, पाँव और छाती पर हाथ फेरो | बारंबार नाभिपर्यंत दीर्घ श्वास लो । इस क्रियाको प्रतिदिन १० से १५ मिनिटतक करो । महामंत्र - – “ ॐ मैं अपने शरीरका स्वामी हूँ | मैं सुखरूप हूँ | मैं बलवान् हूँ | मेरा रुधिर सब नाड़ियों में निरामय वेगसे भ्रमण करता है। मेरे फेंफड़े और हृदय अपना कार्य नियमित रीति से करते हैं । मेरी जठराग्नि उत्तम रीति से अन्नको पचाती है। उससे शुद्ध रुधिर उत्पन्न होता है । तें निरुपयोगी मलको बाहर निकालती हैं । " मैं फिर कहे देता हूँ कि इसका प्रत्येक वाक्य उच्चारण करते समय ऐसी दृढ़ कल्पना करना चाहिए कि मैं जो कह रहा हूँ उसके अनुसार शरीरमें क्रियायें हो रही हैं, अथवा उन क्रियाओं की मूर्तिको अपने हृदय में बनाना चाहिए | तुम्हारी कल्पना जितनी दृढ़, श्रद्धायुक्त और सतेज होगी उतना ही अधिक तुमको लाभ होगा। आर उपयोगी व्यायाम । सदैव विस्तरोंसे उठकर छत पर जाओ । यदि छत न हो तो कमरेकी सब खिड़कियाँ खोलकर For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनहितैषी [ माग १३ एक खिड़कीके सामने खड़े हो जाओ । फिर दीर्घ श्वास लो । साथ ही दोनों हाथ आगे ले अमृतमय वायुसे फेफड़ोंको मरो और तुरंत ही जाओ और मुट्ठी बाँधकर जोरसे कंधोंके पास ले खाली करो। इस प्रकार दीर्घश्वास-प्रश्वासकी आओ । इस प्रकार कई बार करो। ऐसा करते क्रिया जबतक बन सके, करो । जब फेंफड़े समय हाथोंमें खूब ताकत रक्खो, यहाँ तक कि श्रमित हुए मालूम पड़ने लगें, हृदय जोरसे वे सहज ही काँपते हुए मालूम पड़ें । फिर धड़कने लगे और रक्त खूब दौड़ने लगे तब इस हाथोंको जैसे थे वैसे करके बिलकुल ढीले कर क्रियाको बंद कर दो और आराम करो । इस दो। फिर फेंफड़ेमें रोकी हुई हवाको मुखद्वारा प्रकार नित्य सबेरे और शामके समय खुली जोरसे बाहर निकाल दो और एक शोधक हवामें दीर्घ श्वास-प्रश्वास लेनेकी कसरत प्राणायाम करो । ये कसरतें शरीरके किया करो। ज्ञान-तंतुओंको बहुत बलवान बनाती हैं । ये दूसरी कसरत । तीनों कसरतें बहुत ही आवश्यक और महत्त्वकी सीधे खड़े हो जाओ। पैर और जंघाओंके हैं । बाह्यदृष्टिसे देखनेवालेको शायद मालूम हो स्नायुओंको कड़े कर दो । एक दीर्घ श्वास लो. कि ये कसरतें मामूली हैं, परंतु अनुभव करने पर ये बहुत लाभकारी सिद्ध होती हैं। कसरत, और वायुको फेंफड़े रोक रक्खो । एड़ियोंको । । प्राणायाम और इच्छाशक्ति इन तीनोंका एकत्र ऊँची उठाकर अंगूठे और उँगलियों पर शरीरका । उपयोग करके जो बल उत्पन्न होता है वह मारामार रखकर खड़े हो जाओ ) फिर धीरे र अन्य किसी तरहकी कसरतसे प्राप्त नहीं हो धीरे पैरोंको नीचे आने दो और साथ-ही-साथ । सकता। फेंफडेमें रोकी हुई श्वासको धीरे धीरे नाकके अमृत। नथनों द्वारा बाहर निकालते जाओ। फिर एक शोधक प्राणायाम करो। शोधक प्राणायामकी अब मैं तुम्हें एक अद्भुत चमत्कारिक और क्रिया इस प्रकार है---धीरे धीरे नाकके नथनों । बलवर्द्धक प्रयोग सिखाता हूँ । सैकड़ों वर्षों से द्वारा एक श्वास लो और जबतक सरलतापूर्वक " जिस अमृतको खोजनेके लिए लोग प्रयत्नशील थे उसे फेंफडॉमें रोक सको रोको । फिर जैसे सीटी और उसे प्राप्त नहीं कर सके थे, उसे मैं आज बजाते हैं इस प्रकार जोरसे मुखद्वारा श्वासको तुम्हें बतलाता हूँ। यह सच्चा अमृत कोई पेटेंट बाहर निकाल दो। * ये कसरतें और क्रियायें दवा या पौष्टिक वस्तु नहीं है, यह मंत्रित ताबीज यथाशक्ति करना चाहिए। या डोरा भी नहीं है, परंतु यह योगकी एक क्रिया है । यह क्रिया इतनी सरल. है कि तीसरी कसरत। इसे हर कोई कर सकता है । तुम इसे बिलकल सीधे खड़े हो जाओ, छाती आगे आज ही प्रयोगमें लाओ । तुम अपने कमरे में निकालो, गर्दन जरा पीछे करो और कंधोंको भी प्रवेश करो और अपने मनकी व्यग्रता, चिन्ता, कुछ पीछेकी ओर हटाओ । मतलब यह कि तर्क वितर्क आदि सबको दूर कर डालो । फिर बिलकुल फौजी ढंगसे खड़े हो जाओ। फिर एक प्रसन्न चित्तसे एक आसन या आराम-कुर्सी पर . *अनेक पाश्चात्य लोगोंने श्वासको मखके द्वारा बैठ जाओ और कुछ समयतक दीर्घ श्वास निकालनेकी क्रिया कर देखी है, परंतु उससे किसी प्रश्वास लो । दशः पाँच बार जोरसे ओंकारका प्रकारका नुकसान नहीं हुआ। उच्चारण करो और फिर ऊपर बतलाई हुई रीतिके + वा For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] योग-चिकित्सा। २३१ अनुसार शिथिल हो जाओ। मैं पहले भी कई कम मत समझना । देखो, गुरुत्वाकर्षणका नियम बार कह चुका हूँ कि शिथिल होनेकी क्रिया कितना सरल है, परंतु उसका प्रभाव विश्वव्यापी बहुत ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है । इस है । संसारके सब बड़े बड़े नियम ऐसे ही हैं। प्रवृत्तिके समय साधकके ज्ञानतंतुओंको इतना उनका महत्त्व उनके उपयोगसे प्रगट होता है । श्रम पड़ता है कि यदि दिवसमें १० मिनिट सर्यकिरणोंका आकर्षण । भी शिथिल होनेका अभ्यास न रक्खा जाय तो ऊपर बताई हई रीतिसे ही सूर्य-किरणोंमें उसका जीवनतत्त्व अल्प समयमें ही क्षीण हो व्याप्त, प्राणोंको पोषण करनेवाली महान् शक्तिजाय । वर्तमान समयमें आयुष्यके घट जानेका का आकर्षण किया जा सकता है । प्राचीन यह भी एक कारण है । अच्छा, शिथिल हो ऋषि लोग सूर्यका पूजन करते थे, सूर्यको अर्घ जाने पर तुम अपने मन और शरीरकी परीक्षा करो। हर । देते थे, सूर्यका आवाहन करते थे, सूर्यकवच नेत्र बंद करके ऐसी कल्पना करो कि “ मेरे र पढ़ते थे और सूर्यके प्रकाशमें बैठकर संध्या आसपासका समस्त वातावरण एक परम चेतन । चतन वंदन करते थे। इसका मतलब यह है कि वे शक्ति ( energy) से भरपूर है । यह चेतन उपलिखित क्रियाओं द्वारा सूर्यमेंसे 'रेडियम' विश्वव्यापी है । इस अनन्त चेतन समुद्रके मध्य हम और ऐसे दूसरे आयुष्यवर्धक तत्त्वोंको शरीरमें अकेले बैठे हुए हैं। सारे संसारमें हम और चेतन खींचते थे। यदि तुम चाहो, संकल्प करो तो शक्ति के सिवा और कुछ नहीं है ।" तुम अन्य तुम भी वैसा करनेमें समर्थ हो सकते हो। सब मनुष्योंको-सब पदार्थाको थोड़ी देरके प्रातःकालके पहले प्रहरमें जब सर्यकी धूप तेज लिए भूल जाओ । फिर कल्पना करो कि “ में नहीं होती, एक वस्त्र पहनकर और बाकी शरीर इस चेतन-सागरमें गोता लगा रहा हूँ-चेतनस खुला रखकर और यदि आवश्यकता जान पड़े व्याप्त हो रहा हूँ । ” इस समय तुम अपने तो एक कपड़े द्वारा सिर ढंककर सूर्यके प्रकाशरीर और मनको कपड़ेके समान ढीला कर दो। शमें बैठ जाओ और नेत्र बंद करके ऐसी कल्पना कल्पनाको खूब सतेज करो । तुम अपने नेत्रोंके करो कि “जो सर्य-किरणें हमारे शरीर पर पड़ सन्मुख इस क्रियाको जितनी उत्तमताके साथ रही हैं और जो हमारे चारों ओर फैल रही हैं, चित्रित करोगे, उसी परिमाणमें तुम इस चेतन- उन सबमें रहनेवाली शक्ति (Energy ) हमारे रूपी अमृतको प्राप्त कर सकोगे । अब कल्पना झरीरमें प्रवेश कर रही है।" थोडी देर बाद करो कि चेतनकी लहरें एकके बाद एक चारों तम्हारा सारा शरीर किसी अलौकिक बिजलीके ओरसे तुम्हार शरीरमें प्रवेश कर रही हैं, वे समान शक्तिसे चमक उठेगा और तमको नवजीतुम्हारे शरीरकी प्रत्येक रग और परमाणुको नया वन प्राप्त होगा । तुम जीवनके सच्चे आनन्दका बनाती हैं । इस समय ऐसा विचार करो कि अनभव करने लगोगे । इस नसखेको आजमाओ तम प्रत्येक श्वासद्वारा जगत मेंसे शक्तिका आक- और इस नवविज्ञानके पक्षपाती बनो। र्वण करते हो और उसके द्वारा तुम्हारा शरीर सोनेके पहले क्या बलवान् और तेजस्वी बनता है । यह सच्चा अमृत है । इसके द्वारा ऋषिलोग दीर्घजीवी होते करना चाहिए ? थे और तुम भी हो सकते हो। यह क्रिया देखनेमें सोने के पहले निम्रलिखित क्रियाको करनेका बहुत सरल मालूम होती है । इससे इसका मूल्य अभ्यास डालो । विस्तरों पर चित्त लेट जाओ। For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनहितैषी [भाग १३ पैरोंके नीचे भी एक तकिया रक्खो, अर्थात् करनेके हेतु ऊपर लिखी हुई क्रियाओंके सिवा सिरके समान पैरोंको भी कुछ ऊँचाई पर रक्खो। एक दूसरी क्रिया और करनी चाहिए । शरीरके कुछ दीर्घ श्वास लो और शिथिल हो जाओ, फिर जिस भागमें दर्द होता हो अथवा जिस अंगमें सिर नेत्र, गर्दन, छाती, पैर आदि एकके बाद एक व्याधि हो उस पर अपना हाथ रक्खो । ( अब अवयव पर जहाँ तक तुम्हारा हाथ पहुँचे थोड़ी यह कहने की आवश्यकता नहीं रही कि कोई देरतक हाथ रखकर ऐसी दृढ भावना करो कि भी क्रिया करनेके पहले दीर्घश्वास लेने और प्रत्येक अवयव अपना कार्य नियमित रूपसे कर शरीरको शिथिल करनेकी नितान्त अवश्यकता रहा है। यदि तुम्हारे किसी अवयवमें कोई व्याधि है। तुमको यह भी मालूम होगा कि हिन्दूहै तो उस अवयव पर अधिक समय तक हाथ धर्मानुसार किसी भी धार्मिक क्रियाके आरंभमें रक्खो और ऐसी भावना करो कि वह व्याधि आचमन और प्राणायाम करनेका विधान है निर्मूल हो रही है। तुम अपनी भावना शक्तिको और वह सकारण है । ) फिर तुम अपने चित्तकी कम मत समझो। तुम्हारी भावनाके द्वारा केवल वृत्तिको व्याधि-स्थान पर स्थिर करो । यह तुम्हारे शरीरका ही नहीं, वरन् सारे संसारका किया कुछ कठिन तो है, परंतु थोड़े दिनके परिवर्तन हो सकता है । ईसा मसीहने एक प्रसंग अभ्याससे सुगम हो जाती है। मान लो कि तुम्हारी पर कहा था-" यदि तुम आज्ञा करोगे तो ये छातीमें शूलका दर्द है, तो उस समय शरीरके पहाड़ लुढ़क कर समुद्रमें जा गिरेंगे।” मनु- और किसी अवयवकी ओर मन न लेजाकर ध्यकी भावनाका बल बहुत जबर्दस्त है । तुम केवल छातीकी ओर मन लगाओ-मानो कि मनुष्य हो; मनुष्य होनेका सत्त्व क्यों अपने हाथों उसके सिवा तुम्हारे और कोई अवयव है ही द्वारा खोते हो ? अपने हाथोंसे क्यों दरिद्र और नहीं । ऐसा करनेसे वह अवयव तुम्हारी चित्त. निर्बल बनते हो ? वृत्तिका केन्द्र बन जायगा और उस जगह पर जब निद्रादेवी तुम्हारी आँखों पर अपना तुम अधिक आत्मबल डाल सकोगे । जैसे अधिकार जमाने लगे तब एक अंतिम भावना सामान्य काँचके द्वारा आग पैदा नहीं होती, करके उस देवीके आधीन हो जाओ। तुम ऐसी परंतु बहिर्गोल ( Concave ) काँचको सूर्यकी भावना करो कि प्रातःकाल जब मैं सोकर उठू धूपमें रक्खो तो उस काच पर पड़नेवाली सूर्य्यकी तब मेरा शरीर पूर्णरूपसे स्वस्थ और ताजा हो, समस्त किरणें उसके एक मध्य बिन्द पर इकटी मस्तक हलका और प्रफुल्लित हो । बस, ऐसी हो जाती हैं और उसके नीचेवाले पदार्थमें आग भावना करके सो जाओ । जब तुम प्रातःकाल पैदा कर देती हैं। उसी प्रकार तुम्हारी भटकती सोकर उठोगे तब तुम्हें मालूम होगा कि तुम्हारा हुई वृत्तियों द्वारा रोग दूर नहीं हो सकता, शरीर स्वस्थ और निरोगी है । तुम्हारा शरीर तो परंतु उन सब वृत्तियोंको किसी एक अवयव यंत्र है, उसे तुम जैसा बनाना चाहोगे वैसा ही पर स्थिर करनेसे अद्भुत परिणाम दिखाई देता बन जायगा। __ है। जिस अंगमें व्याधि हो उस पर मनकी किसी खास व्याधिका निवारण। वृत्तियोंको स्थिर करनेके पश्चात ऐसी कल्पना करो ऊपर लिखी हुई सब क्रियायें स्वास्थ्य और कि उस जगहसे व्याधि हटकर श्वासद्वारा बल प्राप्त करनेके लिए बताई गई हैं, परंतु यदि बाहर निकलती जाती है और जो श्वास तुम शरीरमें कोई खास व्याधि हो तो उसका निवारण भीतर खींचते हो उसके द्वारा तुम्हारे शरीरमं बल For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] और जीवनका संचार होता है। इसके बाद एक मेरे शरीर से चन्द्रगुप्त के स्वप्नोंकी जाँच । विस्मित प्रबल आज्ञा करो कि व्याधि मात्र बाहर निकल जाय । फिर तुम उसी क्षण किसी प्रकारकी शंका किये बिना ऐसी कल्पना करो कि हमारे शरीरसे एक मलिन श्वास द्वारा वह बाहर निकल रही है । तुम विश्वास रक्खो कि वह अवश्य निकल जायगी। तुम इस तरह एक बार आज्ञाका कैसा प्रभाव पड़ता है, सो देखो। मैं तुम्हें झूठमूठ नहीं चढ़ाता हूँ, वरन मैंने ये सब क्रियायेँ स्वत: अनुभव करके देखी हैं । इस तरह मैंने अपनी व्याधियोंको स्वत: निर्मूल किया है। इसमें आश्चर्य करने योग्य कुछ नहीं है । जो जानता है और जिसे अनुभव प्राप्त हो गया है उसे ये क्रियायें एक खेलके समान सरल हैं। विज्ञानके आश्चर्यजनक प्रयोग अज्ञानियोंको करते हैं, परंतु जो उनके ज्ञाता हैं उनको वे बहुत साधारण प्रतीत होते हैं | विज्ञान दो प्रकारका है । एक आधिभौतिक विज्ञान ( Physical science ) और दूसरा आध्यात्मिक विज्ञान (Spiritual science) | लोक तुम्हें कब्जियतकी बीमारी है । अब तुम सोते समय पेट पर हाथ रखकर आज्ञा करो कि सब मल प्रातःकाल निकलनेके लिए तैयार हो जाय। फिर कल्पना करो कि जठराग्नि, तिल्ली, आँतें इत्यादि सब कर्म कर रहे हैं और मल पृथक हो रहा है । दो चार दिन ऐसा करो और फिर देखो कि उसका क्या परिणाम होता है । हम समझते हैं कि कदाचित दूसरे दिन ही तुमको लाभ दिखाई देगा, परंतु यदि तत्काल लाभ न दिखाई दे तो भी उसे सहसा मत छोड़ो। क्यों कि फलप्राप्तिमें विलम्ब होनेका एक मात्र कारण क्रियामें शिथिलता होना है । क्रियाओंमें दृढ़ श्रद्धा और पूर्णता होते ही फल अवश्य मिलता है - यह आध्या-' · त्मिक तत्त्वका अटल नियम है । इस रीतिके द्वारा तुम हर तरह की व्यधियों को दूर कर सकते हो । सामान्य सूचनायें | जब तुम जल पिओ, तब एकदम शीघ्रता से मत पी जाओ, जिसप्रकार गरम चाय या दूध पीते हो उसी प्रकार धीरे धीरे एक एक घूँट करके पिओ । पानी पीते समय ऐसी भावना करो कि पानीमें जीवन तत्त्व है और वह हमारे भी २३३ तर प्रवेश कर रहा है । प्रत्येक घूँट लेते समय मनमें 'ओम्' का उच्चरण करो । भोजन कर समय भी तुम ऐसी ही कल्पना करो कि मैं प्रत्येक चीजमेंसे पोषक तत्त्वका ग्रहण कर रहा हूँ । वारंवार ओंकारका उच्चारण करो | हमेशा प्रसन्न रहो । चिन्ता और व्यग्रताको कभी मनमें न आने दो। बीमारीकी बातें न कभी करो और न कभी सुनो । तुम्हारे शरीर और मन पर तुम्हारा ही पूरा अधिकार है और किसीका नहीं ! इसको कभी मत भूलो। तुम्हारी इस भावना परमात्मबल है, इसको स्मरण रक्खो । सर्वे सन्तु निरामयाः । * चन्द्रगुप्तके स्वोंकी जाँच | ( लेखक - श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार । ) कहा जाता है कि मौर्यवंशी महाराज जिनकी संख्या १६ है और जिनके फलको सुनकर चंद्रगुप्तको एक समय कुछ स्वप्न आये थे उन्होंने, संसार-देह-भोगों से विरक्त होते हुए, जैनमुनिदीक्षा धारण की थी । भद्रबाहुचरित्र में, रत्ननन्दि नामके आचार्यने इन स्वनोंके नाम इस प्रकार दिये हैं: १ कल्पवृक्षकी शाखाका टूटना; २ सूर्यका अस्त होना; ४ छलनी के समान छिद्रोंवाले चंद्रमाका उदय; ४ बारह फणका सर्प; ५ पीछा लौटता * एक गुजराती निबन्धका अनुवाद | For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ हुआ सुंदर स्वर्गीय विमान; ६ कूड़े कर्कटमें समुद्रको उल्लंघन करना; ६ लोमड़ियोंद्वारा वृद्ध उत्पन्न हुआ कमल; ७ नृत्य करता हुआ भूतोंका बैलोंका पीछा किया जाना ।' समूह; ८ खद्योतका (जुगनूका) प्रकाश; ९ मध्यमें इन छहों स्वप्नोंका फल क्रमशः इस प्रकार सूखा और प्रान्तमें थोड़े जलको लिये हुए सरोवर; दिया है:१०सुवर्णके पात्रमें कुत्तेकाखीर खाना;११ हाथी पर १ पापका प्रचार और पुण्यका लोप होगा; चढ़ा हुआ बन्दर; १२ समुद्रका मर्यादा छोड़ना; २ नीच, दुष्कुलीन और दुराचारी मनुष्य अधि-- १३ बहुभारयुक्त रथका बछड़ों द्वारा चलाया कार प्राप्त करेंगे; ३ उच्चकुलीन राजा लोग जाना; १४ ऊँट पर चढ़ा हुआ राजपुत्र; नीचोंके साथ संसर्ग करेंगे; ४ नीच जातिके ५१ देदीप्यमान रत्नराशिका धूलिसे आच्छादित मनुष्य सत्कुलीनोंको कष्ट देंगे और उन्हें उसी होना; १६ काले हाथियोंका युद्ध । * समस्थलीकी ओर नीचा ( अर्थात् अपने जैसा) __ कर्नाटकी विद्वान देवचन्द्रने भी अपने 'राजाव- करनेका प्रयत्न करेंगे; ५ राजालोग व्यवहार कर लीकथे।'x नामक कन्नड ग्रंथमें सम्राट चंद्रगुप्तके । (चुंगी ) और अन्य अनुचित टैक्स लगाकर १६ स्वप्नोंका उल्लेख किया है। परन्तु इस उल्लेखमें प्रजापीडनमें सहायक बनेंगे; ६ नचि पुरुष झूठी स्वप्नोंके जो नाम दिये हैं उनसे मालूम होता है प्रशंसाओं तथा नम्रताओंसे उच्चकुलीन, सत्पुरुष कि राजावली कथेमें भद्रबाहुचरित्रके स्वमों से और बुद्धिमानोंको ठगेंगे।' ६, ७, ११, १२, १४, और १५ नम्बरके छह स्वप्न नहीं हैं। इनके स्थानमें वहाँ दूसरे ही प्रकारके यह फल भद्रबाहचरित्रके उन उहाँ स्वमोंके स्वम दिये हैं, जिनके नाम ये हैं:-- फलसे प्राय: एकदम विलक्षण है। जैसा कि उक्त १ समस्त वायुमंडलमें व्याप्त होता हुआ चरित्रमें दिये हुए उनके निम्नफलोंसे प्रगट है:---- धुआँ; २ सिंहासन पर बैठा हुआ एक बन्दर; . ६ प्रायः हीन जाति के लोग जैनधर्मको धारण ३ गर्दभों पर चढ़े हुए क्षत्रियपुत्रः ४ बन्दरोंका करेंगे, क्षत्रियादिक उसे धारण नहीं करेंगे: राजहंसाको भय दिखाकर भगानाः ५ गोवत्सोंका ७ मनुष्य नीच देवताओंमें अधिक श्रद्धा और । भक्तिके रखनेवाले होंगे; ११ दुष्कुलमें उत्पन्न यथा:-"इमान् षोडशदुःस्वप्नान् ददशाश्चर्यकारकान् । कल्पपादपशाखाया भंगोऽस्तमनं रखे हुए नांच जातिके मनुष्य राज्य करेंगे, क्षत्रियलोग तृतीयं तितउप्रक्षमुद्यन्तं विधुमंडलम् । तुरीयं फणिनं राजा नहीं होंगे; १२ राजालोग प्रजाकी संपर्ण स्वप्ने फणद्वादशमांडतम् ॥ १२॥ विमानं नाकिनां कनं लक्ष्मी ग्रहण करेंगे और न्यायमार्गक! संघन ध्याघुटन्तं विभासरं । कमलं तु कचारस्थं नत्यन्तं भत- करनेवाले होंगे: १४ राजालोग निमल धर्मको वृन्दकम् ॥ १३ ॥ खद्योतोद्योतमद्राक्षात्प्रान्ते तुच्छ. जलं सरः । मध्ये शुष्कं हेमपात्रे शुनः क्षीरानभक्षणम् १ कचारम्बजमुत्पन्नं दृष्टं प्रायेण तेन वै। जिनधर्म ॥ शाखामृगं गजारूढमब्धि कूलप्रलोपनम् । विधास्यन्ति हीना न क्षत्रियादयः ॥ २ भूतानां नर्तन बाह्यमान तथा वसभूरिभारभृतं रथम् ॥ १५॥ राज. राजन्नद्राक्षीरद्धतं ततः। नीचदेवरता मुढा भविष्यन्तीद्द पुत्रं मयारूढं रजसा पिहितं पुनः । रत्नराशि कन मानवाः ॥ ३ तुंगमातंगमासीनशाखामगनिरीक्षणात् । कान्ति युद्धं चासितदन्तिनोः ॥ १६ ॥" राज्यं हीना विधास्यन्ति कुकुला न च बाहुजाः ।।४ सीमो४ इस लेखमें राजावलीकथेका जो कुछ उल्लेख किया लंघनतः सिन्धोास्यन्ति सकलां श्रियम् । जनाना च गया है, वह सब मिस्टर बी. लेविस राइस साहबकी भविष्यन्ति भूमिपा न्यायलंधकाः ॥ ५ क्रमेलकसमारू• इनिस्कपशन्स ऐट श्रवणबेलगोल ' नामक अंगरेजी ढराजपुत्रस्य वीक्षणात् । हिंसाविधि विधास्यन्ति धर्म पुस्तकके आधार पर किया गया है। हित्वामलं नपाः ।। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] चन्द्रगुप्तके स्वप्नोंकी जाँच। २३५ छोड़कर हिंसामार्ग प्रवृत्त होंगे; १५ निर्थ मुनि है कि 'लक्ष्मी नीचोंके लिए सुलभ और उत्तआपसमें विवाद और एक दूसरेकी निन्दा मोंके लिए दुष्प्राप्य होगी।' परन्तु राजावली करनेवाले होंगे।' कथेमें यह बतलाया है कि 'राजालोग, छठे दोनों ग्रंथोंमें इन छह स्वोंके भेदको भागसे संतुष्ट न होकर, भूमिकरका प्रचार करेंगे छोडकर शेष स्वमोंमें जो प्रायः मिलते जुलते हैं। और द्विगुण तथा त्रिगुण कर माँगकर अपनी अनेक स्वप्न ऐसे भी पाये जाते हैं, जिनके फलोंमें प्रजाओंको सताएँगे।' परस्पर भेद है । यथाः रामचंद्र मुमुक्षुके बनाए हुए 'पुण्यासव' १-भद्रबाहुचरित्रमें ९ वें स्वप्न (मध्यमें नामके कथाकोशमें भी चंद्रगुप्तके १६ स्वमोंका सूखा और प्रान्तमें थोड़ा जल लिये हुए सरोवर) उल्लेख पाया जाता है। परन्तु भद्रबाहुचरित्रमें का फल यह बतलाया है कि । जहाँ जिनेंद्र जिनका उल्लेख है, उन स्वप्नोंमेंसे इस ग्रंथमें १ भगवानके जन्मादिक कल्याणक हुए हैं, ऐसे तीर्थ- नृत्य करता हुआ भूतोंका समूह (नं. ७), २ क्षेत्रोंमें जिनधर्मका नाश हो जायगा और वह ऊँटपर चढ़ा हुआ राजपुत्र ( नं० १४) और कहीं दक्षिणादि प्रान्त देशोंमें स्थित रहेगा;' परन्तु धूलिसे आच्छादित रत्नराशि (नं० १५) इन राजावली कथमें इस स्वमका नाम केवल 'सखा तीन स्वप्नोंका अभाव है । इनके स्थानमें यहाँ. सरोवर' देकर फलोल्लेखमें लिखा है कि 'आर्य- १ धूम्र, २ सिंहासन पर बैठा हुआ बन्दर और खंड जैनमतसे रहित हो जायगा और असत्य- ३ तरुण बैलों पर चढे हुए क्षत्रिय, ये तीन स्वम, की वृद्धि होगी।' अधिक हैं। जिनमें से पहले दो राजावली कथेके . २--राजावली कथेमें, दूसरे स्वप्न ( कल्प- स्वप्नोंसे मिलते हैं और तीसरा भद्रबाहुचरित्रके स्वम-* वृक्षकी शाखा टूटना ) का उल्लेख करते हुए, का रूपान्तर जान पड़ता है । उक्त कथाकोशमें देवचंदजी लिखते हैं कि 'जैनधर्मका पतन होगा इन तीनों स्वप्नोंका फल क्रमशः १ धूर्तीका और चंद्रगुप्तके सिंहासनके उत्तराधिकारी दीक्षा- आधिक्य, २ अंकुलीनोंका राज्य और ३ क्षत्रिधारण नहीं करेंगे' । परन्तु भद्रबाहुचरित्रमें इसी योंका कुधर्ममें रत होना बतलाया है । स्वमका फल यह बतलाया है कि 'अब आगेको रहा भद्रबाहुचरित्रके उक्त तीनों स्वमों ( नं० कोई भी राजा जिनभाषित संयमको ग्रहण ७-१४-१५) का फल, वह ऊपर प्रकाशित नहीं करेगा।' किया जा चुका है। दोनोंके मीलानसे इन स्वमों३-सुवर्णके पात्रमें कुत्तेका खीर खाना, इस का फलभेद भी भले प्रकार समझमें आ जाता १० चे स्वप्नका फल भद्रबाहुचरित्रमें यह लिखा है। परन्तु इतना ही नहीं, जिन स्वप्नोंके नाम - परस्पर मिलते जुलते हैं, उनमें भी अनेक स्वप्न .१ रजसाच्छादितसद्रत्नराशेरीक्षणतो भशम् ऐसे हैं, जिनके फलोंमें भेद पाया जाता है । जैसे करिष्यन्ति नपाःस्तेयां निर्ग्रथमुनयो मिथः ॥ २ सरसा पयसा रिक्तनातितुच्छजलेन च । जिनजिन्मादि. १ कलधौतमये पात्रे भषकक्षीरभक्षणात् । कल्याणक्षेत्रे तीर्थत्वमाश्रिते ॥ नाशमेष्यति सद्धर्मो मार- प्राप्स्यन्ति प्राकृताः पद्मामुत्तमाना दुरासदा ॥ वीरमदच्छिदः । स्थास्यतीह कचित्प्रान्ते विषये २ धूमो दुर्जनाधिक्यं भणति । दक्षिणादिके॥ ३सिंहासनस्थो मर्कटोऽकुलीनस्य राज्यं प्रकाशयति। ३ सुरद्रुमलताभंगदर्शनाद्भप भूपतिः । ४ तरुणवृषभारूढाः क्षत्रियाः नातोप्रे संयम कोपि प्रहीष्यति जिनोदितम् ।। क्षत्रियाणांकुधर्मरति प्रख्यापयन्ति । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन हितैषी [भाग १३ 'सुवर्णके पात्रमें कुत्तेका खीर खाना' नामक कि नहीं, यदि आये तो वे कौन कौनसे स्वप्न स्वमका फल लिखा है कि ' आंगे राजसभाओंमें थे और उनका क्या क्या फल किसके द्वारा कुलिंगियोंकी पूजा होगी।' यह फल ऊपर कहा गया है । श्वेताम्बर जैनोंके यहाँ भी चंद्रउद्धृत किये हुए भद्रबाहुचरित्र और राजावली गुप्तके १६ स्वप्न माने जाते हैं, ऐसा जैन कथे दोनोंहीके फलोंसे स्पष्ट भिन्न तथा विलक्षण संज्झायमाला' आदि दो गुजराती पुस्तकों पर जान पड़ता है। इसी प्रकार और भी स्वप्नोंका से जाना जाता है । परन्तु अभीतक इस सम्बधमें फल जानना। मुझे उनका कोई मूल प्रामाणिक ग्रंथ उपलब्ध __पाठकोंको यह जानकर जरूर आश्चर्य होगा कि नहीं हुआ। इस लिए यहाँपर श्वेताम्बर-स्वप्नोंउक्त तीनों ग्रंथों में स्वप्नोंका यह सब फल श्रीभद्र- का उल्लेख छोड़ा जाता है; तो भी इतना जरूर बाहु श्रुतकेवलीका बतलाया हुआ कहा जाता है ! सूचित कर देना होगा कि उक्त दोनों गुजराती परन्तु तीनों ग्रन्थोंका कथन परस्पर एक दूसरेके पुस्तकोंका फलकथन भी, परस्पर समान न विरुद्ध होनेसे कोई भी बुद्धिमान यह स्वीकार होकर, बहुत कुछ अंशोंमें एक दूसरेसे भिन्न है; करनेके लिए तय्यार नहीं हो सकता कि स्वप्नोंका और तिसपर भी तुर्रा यह है कि दोनोंके ही (यह सब फल श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवलीका कहा रचयिता अपने अपने कथनको भद्रबाहु श्रुतकेवलीहुआ है । अवश्य ही इस कथनमें ग्रंथकर्ताओंका का कहा हुआ बतलाते हैं । अस्तु । मतिकौशल शामिल है । उन्होंने देश, काल तथा अब यहाँ पाठकोंपर एक बात और प्रगट की समाजकी परिस्थितियोंके प्रभावसे प्रभावित होकर जाती है और वह भरत चक्रवर्तीके स्वप्नोंकी बात और किसी खास उद्देश्यको अपने हृदयमें रखकर है । श्रीजिनसेनाचार्यप्रणीत आदिपुराणमें भरत ही वास्तविक घटनाओंमें कुछ फेरफार किया है। चक्रवर्तीको भी १६ स्वप्नोंका आना लिया अथवा यों कहना चाहिए कि उन्हें इस विषयका हैं, जिनमेंसे १ हाथीके कन्धेपर बैठा हुआ 'सत्य इतिहास नहीं मिला; यह सब रचना, बन्दर, २ भूतींका नृत्य, ३ मध्यमें सखा और प्रमादवश, दन्तकथाओं आदिके आधारपर की किनारोंपर प्रचुर जलसे भरा हुआ सरोवर, ५ गई हैं। और इसीसे यह सब गोलमाल हआ धूलसं धूसरित रत्नराशि और ५ आदर सत्काहै । परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि रसे पूजित कुत्तेका नैवेद्य भक्षण, ये पांच स्वर सपा जो लोग चरित्रग्रंथों पर पूर्ण श्रद्धा रखते हैं, उनके भा प्रायः वही हैं जिनका उल्लेख भद्रबाहुचरित्रम अक्षर-अक्षरको सत्य मानते हैं और उन्हें पाया : पाया जाता है । आदिपुराणके ४१ व पर्वमें साक्षात् जिनवाणी समझते हैं-कहते हैं कि इन पाचा * इन पाँचों स्वप्नोंका फल क्रमशः इस प्रकार वर्णन 'आचार्योने अपनी तरफसे एक शब्द भी नहीं किया है:-- मिलाया- उनके लिए तीनों ग्रंथोंका यह सब १ इस पुस्तकके द्वितीय भागमें नयविजयका कथन अवश्य ही चिन्ताजनक होगा और उनके बनाया हुआ 'सोल सुपननी सज्लाय' नामका विव क्षित पाठ है। दूसरी पुस्तक या पाठका नाम 'चंद्रहृदयोंमें यह शंका उत्पन्न किये बिना नहीं गुप्त राजाने सोल सुपन' है, जिसे जयमल नामके रहेगा कि वास्तवमें महाराजा चंद्रगुप्तको इस किसी कविने बनाया है । यह पुस्तक हमें हस्तलिखित प्रकारके भविष्य-सूचक कोई स्वप्न आयेथे या प्राप्त हुई है । पुस्तकके अन्तमें कवि लिखता है कि १ सुवर्णभाजने पायसं भुंजानः श्वानः मैंने इसे 'व्यवहार सूत्रकी चूलिका' के अनुसार राजसभायां कुलिंगपूजां द्योतयन्ति । बनाया है। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] ' १ आदि क्षत्रिय वंशका नाश होकर नीच कुलके मनुष्य पृथ्वीका पालन करेंगे; २ प्रजाके लोग व्यन्तरोंको देवता मानकर उनकी पूजा सेवा करेंगे; ३ जैनधर्म आर्यक्षेत्र में न रहकर म्लेच्छ देशोंके निवासियोंमें रहेगा; ४ पंचम काल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे; ५ अवती ब्राह्मण गुणी पात्रोंके समान आदरसत्कार पायँगे । " चन्द्रगुप्तके स्वप्नोंकी जाँच । इस फलकथनमें चौथे स्वमका फल भद्रबाहु चरित्र कथनसे, तीसरेका फल भदबाहुचरित्र और पुण्यास्त्रवके कथनसे और पाँचवें स्वप्रका फल ' राजावलीकथे' को मिलाकर तीनों ही ग्रंथोंके कथनसे विलक्षण और विभिन्न है । आदिपुराण में इन स्वमों के फलका सम्बंध पंचमकाल ( वर्तमान युग ) के ही साथ बतलाया गया है । अर्थात् भरत चक्रवर्तीको सुदूरवर्ती पंचमकालका भविष्य संसूचित करने के लिए ही ये सब स्वम आये थे । यथाः -- " स्वप्नानेवं फलानेतान्विद्धि दूरविपाकिनः । नादोषस्ततः कोपि फलमेषां युगान्तरे ॥ ८० ॥ यह श्लोक श्री जिनसेनाचार्यने भगवान् ऋषदेव मुखसे कहलाया है । भगवान् ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीको हुए आज अब और खर्चे वर्ष ही नहीं, बल्कि कुछ हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागरका लम्बा चौड़ा समय कहा जाता है । किसी स्वप्न और उसके १ करीन्द्रकन्धरारूढशाखामृगविलोकनात् । आदि क्षत्रान्वयोच्छित्तौ क्ष्मां पास्यन्त्यकुलीनकाः ॥ २ प्रनृत्यतां प्रभूतानां भूतानामीक्षणात्प्रजाः । भजेयुर्नाम - कर्माद्यैर्व्यतरान्देवतास्थया ॥ ३ शुष्कमध्यतडागस्य पर्यन्तेऽम्बुस्थितीक्षणात् । प्रच्युत्यार्थनिवासात्स्याद्धर्मः प्रत्यन्तवासिषु ॥ ४ पांसुधूसररत्नौघनिध्यानादृद्धिसत्तमाः नैव प्रादुर्भविष्यन्ति मुनयः पंचमे युगे ॥ ५ शुनोऽर्चितस्य सत्कारैश्वरुभोजनदर्शनात् । गुणवत्पात्रसरकारमा - 'स्यन्त्यत्रतिनो द्विजाः ॥ २३७ फलमें इतने लम्बे चौडे अन्तरालका होना स्वप्नशास्त्रकी दृष्टिसे कहाँतक सत्य और युक्तियुक्त है, इसे तो बड़े बड़े स्वमशास्त्री या केवली भगवान् ही जानें; परन्तु जहाँतक मैंने इस विषयका अध्ययन किया है, उसके आधार पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि स्वप्नों और स्वप्नफलों में इतने अधिक अन्तरालकी व्याप्तिका कोई कथन या नियम किसी भी दूसरी जगह देखने में नहीं आता । श्री दुर्गदेव नामके जैनाचार्य, ११ वीं शताब्दी में बने हुए अपने 'रिष्टसमुच्चय' नामक ग्रंथमें रात्रिके प्रथम द्वितीयादि प्रह आनेवाले स्वप्नोंके फलका मर्यादित समय क्रमशः १० वर्ष, ५ वर्ष, ६ महीने और १० दिन बतलाते हैं । यथा: - " दहवरिसाणि तयद्धं, छम्मासं तं मुणेह दहदियहा 1 जहकमसेो णायव्वं सुवणत्थं स्यणिपहरेहिं ॥ ११४ ॥ इसी प्रकार स्वप्नशास्त्रसम्बधी और भी बहुतसे कथन हैं, जिनसे आदिपुराणके इस कथन की असंगतता पाई जाती है । आश्चर्य नहीं कि श्री जिनसेनाचार्य ने अपने समयकी परिस्थितियोंको लक्ष्य करके और अपने कुछ सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही भविष्यकथनका यह सब ढंग निकाला हो और उन्हीं की देखादेखी पीछेसे रत्ननन्दि आदि ग्रंथकारोंने चंद्रगुप्तके सम्बंध में उसका प्रयोग किया हो । परन्तु कुछ भी हो, इतना जरूर कहना होगा कि जिन स्वप्नोंके आधार पर इतनी बड़ी भविष्यवाणी की गई हो, जिसका देश और समाजकी प्रगति तथा जीवनीशक्ति से बहुत कुछ सम्बंध है, जो अपने संस्कारोंसे जैन समाजमें अकर्मण्यता- शिथिलताका संचार ही नहीं करती बल्कि उसके भवि ष्यको अंधकारमय बनाने के लिए उतारू है, उन स्वनका विषय कुछ कम महत्त्वकी वस्तु नहीं हैं । उनके सम्बंध में इस प्रकारका गोलमाल होना कुछ अर्थ रखता है, और वह उपेक्षा For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी भाग १३] केये जानेके योग्य नहीं है । जहाँतक मुझे मालूम पहले दार्शनिक बातोंका विचार कीजिए। है, चंद्रगुप्तके समयका जो इतिहास मेगास्थनीज जैनशास्त्रने समस्त दार्शनिक विषयोंको नव तत्त्वोंमें आदि प्राचीन विद्वानोंका लिखा हुआ इस समय विभक्त किया है। यही शैली हिन्दू दर्शनशास्त्रोंकी उपलब्ध है, उसमें चंद्रगुप्तके स्वप्नोंका कोई उल्लेख भी है । सांख्यदर्शनने २५ तत्त्व, न्यायदर्शनने नहीं है । प्राचीन दिगम्बर जैनग्रंथ और शिला- १६ पदार्थ, और वैशेषिकदर्शनने ७ पदार्थ माने लेख भी इस विषयमें मौन पाये जाते हैं । भारत- हैं । वेदान्तदर्शनने केवल एक तत्त्व 'ब्रह्म'ही के प्राचीन इतिहासमें चंद्रगुप्तके स्वप्नों जैसी एक माना है । समस्त वस्तुओंको तत्त्वोंमें बाँटकर ऐसी बड़ी और महत्त्वकी घटनाका जिसने चंद्र- निर्णय करना बड़ी प्राचीन शैली है और यह गुप्तको विरक्त करके जैनमुनिदीक्षातक धारण जैनधर्म और हिन्दूधर्म-दोनोंमें ही है। करनेके लिए वाध्य किया हो, उल्लेख न होना यद्यपि जैनधर्ममें नव तत्त्व कहे हैं, तथापि संदेहसे खाली नहीं है । इस लिए जैन विद्वानों- मुख्य तत्त्व दो ही हैं, एक जीव और दूसरा को इस विषयके सत्यकी जाँच करनी चाहिए अजीव । ये ही दोनों द्रव्य हैं। सांख्यदर्शनमें और स्वपरसाहित्यका मथन करके, ऐतिहासिक इन्हीं दोनोंको पुरुष और प्रकृति कहा है और दृष्टि से इस बातका निर्णय करना चाहिए कि न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें जीव और प्रकृति । वास्तवमें सम्राट चंद्रगुप्तको इस प्रकारके भविष्य- जैसे सांख्य, न्याय और वैशेषिक मत द्वैतवाद सूचक कोई स्वप्न आये या कि नहीं, यदि आये हैं वैसे ही जैनमत भी द्वैतवाद है, अर्थात् यह तो वे कौन कौन स्वप्न थे, उनका क्या क्या जीव और अजीव दो वस्तुओंको मानता है । फल किसके द्वारा कहा गया, और वह वेदान्त मत सर्वथा अद्वैतवाद है । वह केवल फल स्वमशास्त्रकी दृष्टिसे कहाँतक सत्य हो जीवहीको नित्य सत्य मानता है-अजीवको सकता है। आशा है कि विद्वान् लोग इस विष- नहीं । इसीको उसने ब्रह्म कहा है। उसने अजीयपर अपने अपने विचारों और अनुसंधानोंको वकी व्यावहारिक सत्यता मानी है-वास्तविक प्रगट करके सर्व साधारणका भ्रम दूर करनेकी सत्यता नहीं । उसके मतानुसार अजीव ही कृपा करेंगे। माया है। बम्बई __ जैसे जैनशास्त्र जीवको चेतन और ज्ञानविशिष्ट मानता है वैसे ही वेदान्त और सांख्य शास्त्र भी मानते हैं। जैनधर्म और हिन्दूधर्म। __ न्याय और वैशेषिक शास्त्रोंकी जीवसम्बन्धी परिभाषा अवश्य कुछ भिन्न है । वह यह है:[ लेखक-श्रीयुत लाला कन्नोमलजी एम. ए.] इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सुख-दुःखज्ञानानि आत्मनो लिङ्गमिति। । प्राणापाननिमेषोन्मेषमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः । पसिद्धान्त मिलते हैं और कौन कौन सुखदुःखेच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिङ्गानि ॥ नहीं-यही बताना इस लेखका उद्देश्य है। इस आलो- जैनमतकी जीव-परिभाषा, सांख्यमतकी परिचनाके लिए जैनधर्मके सिद्धान्त चार भागोंमें भाषासे अधिकतम मिलती है । जैसे जैनशास्त्र विभक्त किये गिये हैं-१ दार्शनिक विषय, २ कहता है कि, जीव अनेक हैं-सब जीव एक कार्यकर विषय, ३गृहस्थ धर्म और ४ साधु धर्म। नहीं, वैसे ही सांग्च्य न्याय और वैशषिक शास्त्र ता. १५-७-१७ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] जैनधर्म और हिन्दूधर्म। भी कहते हैं । वेदान्त, जीवको एक ही मानता वासांसि जीर्णानि यथा विहाय है-अलग अलग नहीं। नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। __ जैसे जैनशास्त्रने माना है कि वास्तवमें जीव तथा शरीराणि विहाय जीर्णाशुद्ध ज्ञानस्वरूप है, पर कर्मोंका आवरण पड़नेसे न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ छिप जाता है- और जब यह आवरण हट जाता जैनधर्ममें संसारी जीवोंके मुख्य भेद दो हैं: है तो उसे कैवल्यज्ञान प्राप्त हो जाता है, स्थावर और त्रस । पृथिवीकाय, जलकाय, वायुवैसे ही वेदान्त और सांख्यशास्त्रोंने भी माना है। काय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय ये पाँच भेद वे कहते हैं जब सूर्यके सामने बादल आ जाते स्थावर या एकेन्द्रिय जीवोंके हैं । त्रस जीवोंके हैं तो सूर्य छिप जाता है और उसका प्रकाश द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये मलिन हो जाता है, इसी प्रकार जब जीव चार भेद हैं। इन सब प्रकारके जीवोंका जन्म अथवा आत्माके सामने कर्मोंका आवरण आ तीन प्रकारसे माना है-गर्भ, सम्मर्छन, और उपजाता है, तो वह मलिन और बन्धयुक्त दिखाई पाद । गर्भजन्म तीन प्रकारका है-जरायुज, देता है। यदि यह आवरण हट जाय तो अण्डज और पोत । पोत जन्म वह है, जो जीव माके उसकी वास्तविक अवस्था रह जायगी, और यह गर्भसे विना जरायुके उत्पन्न होता है; जैसे सिंह शुद्धज्ञान अवस्था है। जैसे जैनमत जीवको या बिल्ली।जो जीव आप ही आप उत्पन्न हो जाते अनादि, अज, अमर, अव्यय और नित्य मानता हैं जैसे वनस्पति आदि, वे सम्मूर्च्छन हैं । देवोंका है वैसे ही हिन्दूशास्त्र भी मानते हैं । गीतामें जन्म उपपाद जन्म है । हिन्दूधर्ममें जैनधर्मके कहा है: इन्हीं जन्मभेदोंके समान जरायुज, अण्डज, स्वेदज. न जायते म्रियते वा कदाचिन् और उद्भिज, ऐसी चार प्रकारकी सृष्टि मानी नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। है । स्वेदज और उद्भिज सम्मूर्च्छनके ही अन्तअजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो गत हैं । इस सम्बन्धमें यह कहना भी आवश्यक न हन्ते हन्यमाने शरीरे ॥ है कि हिन्दू धर्ममें पृथिवी, जल, वायु, अग्नि नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। और आकाश ये पंच तत्त्व माने गये हैं, परंतु ये न चैन क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुतः॥ तत्त्व प्रकृति के विकार हैं-पुरुषके नहीं हैं। आकाश अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमल्लेदयोऽशोष्य एव च। तत्त्वको तो जैनमतमें भी प्रकृति या अजीवका नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ भेद जड़ माना है; परन्तु पृथिवी, जल, जैनधर्मने जीवका आवागमन माना है । इसे वायु और अग्निको जैनधर्ममें स्थावर जीव भी हिन्दू धर्म भी वैसे ही मानता है । वेदान्त और माना है । यह विलक्षणता है। अर्थात् जैनधर्मके सांख्यशास्त्रोंका कथन है कि आवागमन, मनु- अनुसार ये चारों जीव भी हैं और जड़ भी हैं। ध्यके लिङ्ग अथवा सूक्ष्म शरीरको होता है-पुरुष ये चारों उस हालतमें जब कि इनमेंसे जीवनअथवा आत्माको नहीं । न्याय और वैशेषिक शक्ति नष्ट कर दी जाती है जड़ रह जाते हैं। शास्त्र जीवका ही आवागमन मानते हैं । जैन- जैसे प्राकृतिक जल सजीव है । यदि यह औंटा मत प्रतिपादित आवागमन, न्याय और वैशेषिक लिया जाय-गर्म कर लिया जाय तो जड. मात्र शास्त्रके सिद्धान्तोंसे सर्वथा मिलता है। गीतामें रह जाय । जैनधर्म बनस्पतिमें भी जीव मानता इस तरह कहा है: है, जो विज्ञानसिद्ध बात है। For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनहितैषी - जैनमत में जो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि भेद हैं, वे हिन्दू धर्म में नहीं माने गये हैं; परन्तु कुछ कुछ इसी ढँगसे उसमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोशवाले जीव बतलाये हैं, पर इनके लक्षण नहीं मिलते। जैनधर्म में अजीवके पाँच भाग हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्ति - काय और काल । धर्मास्तिकाय जीव और पुलों की गति में और अधर्मास्तिकाय स्थितिमें सहायक होता है । धर्म और अधर्म - ये दोनों दव्यें जैन मतमें विलक्षण हैं। शेष अजीवके तीन भाग हिन्दू मत में भी प्रकृति के विकार कहे हैं । इस विषयको न्याय और वैशेषिक शास्त्रोंने अच्छी तरह बताया है । पुलको न्याय और वैशेषिक शास्त्रों में परमाणु कहा है । परमाणु की यह परिभाषा है: - • जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । भागस्तस्य च षष्ठो यः परमाणुः स उच्यते ॥ जिस तरह दो दो तीन तीन अथवा अधिक मुद्गल मिलकर प्राकृतिक वस्तुओंके रूपमें आते हैं और संसारकी रचना करते हैं, वैसे ही न्याय मतानुसार परमाणु भी करते हैं । समस्त संसार परमाणुओं के मिलने से ही बना है । न्याय और वैशेषिक शास्त्रका यही मत है । और यही मत जैन शास्त्रका है * । वेदान्त और सांख्य शास्त्रोंका यह मत नहीं है । सांख्यशास्त्र विकासवादी है, और वेदान्तशास्त्र मायावादी । आजकल पाश्चात्य विद्वान् विकासवाद को ही ठीक मानते हैं - परमाणु अथवा पुद्गलवादको नहीं । माया - * परन्तु जैनमतमें पुगलके उस छोटे से छोटे हिस्से के परमाणु कहते हैं जिसका कोई भाग न हो सके असंख्य अनन्त परमाणुओंके समूहसे दृष्टिगोचर होने! वाला पुल बनता है । जालान्तर्गत रजका छहा हिस्सा जैनधर्मके अनुसार परमाणु नहीं, किन्तु असं ख्य परमाणुओंका समूह है-सम्पादक । [ भाग १३ वाद और विकासवाद में कुछ अन्तर नहीं है, अर्थात् सृष्टिकी उत्पत्ति दोनों में ही एकसी है-सिर्फ प्रकृति और मायाके रूपमें कुछ अन्तर है । जिस तरह जैनमत में कालके दो रूप कहे हैं। अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिर्णा, वैसे ही सांख्यशास्त्रमें कालके संक्रम और प्रतिसंक्रम ये दो रूप कहे हैं । उत्सर्पिणी अथवा संक्रमकाल में सब वस्तुयें अच्छी होती हैं और अवसर्पिणी अथवा प्रतिसंक्रमकाल में सब वस्तुयें बुरी होती जाती हैं । हिन्दू शास्त्रमें समयके सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग ये चार भाग भी कहे हैं । ये चारों भाग उत्सर्पिणी अथवा संक्रमकाल और अवसर्पिणी अथवा प्रतिसंक्रमकाल में आ जाते हैं । वास्तवमें जैनमतके अनुसार दो ही द्रव्य हैं। जीव और अजीव । ऐसे ही हिन्दूधर्म में न्याय, वैशेषिक और सांख्यमत के अनुसार ये ही दोनों वस्तुयें द्रव्य मानी गई हैं । सांख्यमत, पुरुष और प्रकृतिको द्रव्य मानता है, न्याय और वैशेषिक शास्त्र जीव और प्रकृतिको द्रव्य मानते हुए ईश्वरको भी द्रव्य मानते हैं । इस विषय में सांख्यमत और जैन मतकी सहमत्ता है । "जैन में कहा है कि आस्रव तत्त्वके द्वारा जीव- अजीवका सम्बन्ध होता है, अर्थात् आस्रव वह क्रिया है, जिसके द्वारा मनुष्यको पुण्यपाप लगता है। पुण्यपापोंहीसे अजीब का बन्धन होता है। कल्पना करो कि जीव एक जलाशय है और कर्म जलप्रवाह । जिस मार्ग से यह प्रवाह बहकर जलाशय में आवेगा, वही आस्रव कहा जायेगा। आस्रव दो प्रकारका है - शुभ और अशुभ। शुभ आस्रव पुण्यजनक है, और अशुभ पापजनक । इन दोनों ही कमसे जीवका बन्धन होता है । अब इसी बात को हिन्दुशास्त्र की दृष्टि से देखो तो जिसे आस्रव कहा है. वह हिन्दू शास्त्रों में प्रवृत्ति मार्ग है । मन, वचन, कायसे अच्छे बुरे कर्म For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] करना प्रवृत्ति है। इन्हीं शुभ अशुभ कर्मोंसे आत्माका बन्धन होता है । यदि आश्रवकी जगह प्रवृत्ति, पुण्यपापकी जगह शुभ और अशुभ कर्म, और बन्धकी जगह बन्धन शब्दोंका प्रयोग किया जाय तो हिन्दूमतविचार हो जायगा | जैनशास्त्रज्ञ तो कहेंगे कि पुण्य और पापकर्मो के आस्रवसे जीवका बन्ध होता है, और हिन्दू शास्त्रज्ञ इसी बात को कहेंगे कि शुभ अशुभ कर्म की प्रकृतिसे आत्माका बन्धन होता है । बात एक ही है - चाहे पुण्यपापरूप कर्मों के आस्रवसे जीवका बन्ध कहो, चाहे शुभ अशुभ कद्वारा प्रवृत्तिसे आत्माका बन्धन कहो । जैनधर्म और हिन्दूधर्म । इस बन्धनके तोढ़नेके लिए जैनमतमें दो उपाय कहे हैं-संवर और निर्जरा । आस्रवकी ..बाराको रोकने का नाम संवर है । इस धारासे पहले आये हुए कर्मोंको विध्वंस करना निर्जरा है | आस्रवको संवरसे रोककर कर्मोंको निर्जराद्वारा विध्वंस करना चाहिए । इसी बात को हिन्दू धर्मवाले कहेंगे कि संसार-प्रवृत्तिको वैराग्यद्वारा रोककर संन्यासादिसे कर्मों का क्षय करना चाहिए । जब निर्जरा अथवा संन्यासादिक द्वारा जीवका बन्धन कट जाता है तब जीवको मोक्षकी प्राप्ति होता है । मोक्षका अर्थ बन्धन से छुटकारा पाकर अपनी असली अवस्थाको फिर प्राप्त करना है ! जैनमतके अनुसार मुक्त जीमें व्यक्तिता रहती है । न्यायशास्त्रवालोंका भी यही मत है | वेदान्त और सांख्यशास्त्र के अनुसार मुक्त जीवमें व्यक्तिता नहीं रहती है । मोक्षविषयमें जैनमत, न्याय और वैशेषिक शास्त्र सहमत हैं । जैनधर्ममें ईश्वरको संसारकर्त्ता नहीं माना है । ईश्वर शब्दका प्रयोग उन मुक्त जीबोंके लिए किया है, जिन्हें संसारमें तीर्थंकर कहते हैं, और मुक्त हो जानेके पश्चात् सिद्ध । जैनधर्म, संसारको अनादि मानता है और क २४१ हता है कि कोई समय ऐसा नहीं था कि जब संसारकी उत्पत्ति हुई हो । संसारकी वस्तुओंका नाश अवश्य होता है, परन्तु समष्टिरूपमें संसार अनादिकालसे वैसा ही चला आता है । इस कथनका यह आशय है कि जैसे मनुष्य मरा करते हैं, परन्तु मनुष्यजाति सर्वदासे वैसी ही चली आती है, वैसे ही संसारकी वस्तुओंका नाश तो होता रहता है परन्तु संसारका नाश कभी नहीं होता है । इस विचारसे यह सिद्ध होता है कि संसारोत्पत्ति करनेवालेकी कोई आवश्यकता नहीं है । इसलिए ईश्वरको संसारकर्त्ता नहीं कहा है । हिन्दूधर्ममें ईश्वरके विषयमें कई मत हैं । वेदान्त, निर्गुण ईश्वरको मानता है, जिसका नाम ब्रह्म है । न्याय और वैशेषिक शास्त्र, सगुण ईश्वरको मानते हैं, और इसे संसारका कर्त्ता भी समझते हैं । ऐसा समझनेका कारण यह है कि वे संसारको उस रूपमें अनादि नहीं मानते, जिसमें जैनशास्त्र मानते हैं । न्याय और वैशेषिक शास्त्रों के अनुसार संसार केवल परमाणुरूपसे अनादि है - व्यक्त रूपसे नहीं । 1 प्रलय के समय समस्त व्यक्त संसार परमाणुरूपमें हो जाता है । प्रलय के पश्चात् उन परमाणुओंको व्यक्त संसारके रूपमें लाना ईश्वरका काम है । क्योंकि ये परमाणु अपने आप किसी दैवी शक्तिकी सहायताके विना, संसार रूप में नहीं आ सकते हैं । यदि जैनमत भी संसारको केवल परमाणुरूपमें ही अनादि मानता और प्रलय को भी मानता तो उसे भी संसारकर्त्ता ईश्वरकी आवश्यकता पड़ती। उसने संसारको व्यक्त रूपसे अनादि माना है और उसका सार्वदेशिक प्रलय नहीं माना है; इस लिए उसे संसारक ईश्वरके मानने की आवश्यकता नहीं पड़ी है। सांख्यशास्त्र सगुण ईश्वरको नहीं मानता परन्तु वह संसारविषय में परमाणुवादी नहीं हैं, For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैसा कि जैनमत है । वह विकासवादी है। जहाँतक सगुणईश्वर नहीं माननेका सम्बन्ध हैं, वहाँतक जैनमत और सांख्यमतकी एक सम्मति है । यदि सूक्ष्म विचारसे देखा जाय तो जैन और सांख्यमत दोनों में ही निर्गुण ब्रह्मकी मानता है, यद्यपि यह मानता स्पष्ट शब्दों में नहीं कही गई है । जब जैनधर्म जीवको अजर, अमर और अव्यय मानता है और मुक्त जीवको सर्वज्ञ और अमर बताता है; तो जैनमतको अनीश्वरवादी नहीं कह सकते हैं । क्योंकि वेदान्त सांख्य आदि शास्त्रोंमें ईश्वरका निर्गुण रूप ही माना है । ईश्वरको संसारकर्त्ता स्पष्ट शब्दों में नहीं कहा है। जैनमतको नास्तिक मत भी नहीं कह सकते हैं; क्योंकि नास्तिक तो न जैनहितैषी - मानता है और न ईश्वरको । जिस मतमें जीवको अजर, अमर और अनादि मानकर, उसकी सिद्ध अवस्थातक मानी है, जो ईश्वर अवस्थाके बराबर ही है, तो वह मत अनीश्वरवादी अथवा नास्तिक मत कैसे हो सकता है? इतना अवश्य कह सकते हैं कि जो ईश्वरकी परि भाषा हिन्दू धर्म में है, वह जैन धर्ममें नहीं है । यदि शकरको एक मनुष्य शकर कहे और दूसरा उसे किसी और नामसे कहे तो शकर पदार्थ में कोई भेद नहीं हो जाता है - केवल नामों की भिन्नता रहती है । इसी तरह यदि एक ही वस्तुको हिन्दूधर्मवाले ब्रह्म अथवा ईश्वर कहें और जैनमतवाले सिद्ध अथवा शुद्ध जीव कहें, तो उसमें कोई अन्तर नहीं आता है। यदि जैन मतवाले इस वस्तुको ही नहीं मानते होते तो अवश्य मतभेद होता । यदि जैनमतवालोंका यही कहना है कि ईश्वर जगतका कर्ता नहीं है, और न कमका फलदाता हैं, तो ऐसा तो वेदान्त और सांख्यशास्त्रका भी मत मालूम होता हैं । इतना ही कह सकते हैं कि ईश्वर विषय में जैनमतवालोंकी न्याय और वैशेषिक मत वा [ भाग १३ लॉसे मतभिन्नता है - हिन्दू धर्मके अन्य दार्शनिक विचारोंवालोंसे नहीं । इस सम्बन्ध में यह कहना भी आवश्यक है। आधुनिक पाश्चात्य विद्वानोंने संसारकी उत्पत्ति विकासवाद द्वारा मानी है - परमाणुवाइद्वारा नहीं । संसारकी प्रलय भी मानी है । संसारको व्यक्त रूपसे अनादि नहीं माना है । संसारकी रचना में किसी चेतनशक्तिका होना माना है । किसीने इस शक्तिको अज्ञेय कहा है, और किसीने इसे किसी दूसरे नामसे पुकारा है । वेदान्तने इस शक्तिको ब्रह्म कहा है और संसारोत्पत्तिको माया विका सद्वारा माना है । इस मायानिर्मित संसारकी प्रलय भी मानी है । इन अंशोंमें पाश्चात्योंके दार्शनिक विचार वेदान्तमतविचारोंसे बहुत कुछ मिलते हैं । जैन धर्म के तीन साधन अर्थात ज्ञान, दर्शन और चारित्र हिन्दूधर्मके ज्ञान, भक्ति और कर्म मार्गों से मिलते हैं । दार्शनिक विषयोंकी विवेचना करते समय यह भी कहना आवश्यक है कि जैनधर्मका सप्तभङ्गीनय हिन्दू शास्त्रोंके मतसे नही मिलता है । यह जैनशास्त्रोंका विल क्षण नय है 1 जैनमतके तीर्थंकर वे महान पुरुष हैं, जो अनेकानेक जन्मोंमें मुक्तिप्राप्तिकी चेष्टा करते रहे हैं, और जिन जन्मोंमें वे तीर्थंकर पदवीको पहुँचे हैं उनमें उन्होंने शरीर के रहते ही मुक्तः अवस्था प्राप्त कर ली है, अर्थात जिनके कर्म न हो गये हैं और जिन्हें आगे के लिए भी कर्मचक्र नहीं रहा है। ऐसी अवस्थामें ये सभी जीवोंको सम दृष्टि से देखते हैं। उनके लिए शत्रु, मित्र, ब्राह्मण, चांडाल, स्त्री, पुरुष, सन एक ही हैं । वे संसारमें तो अवश्य रहते हैं, परन्तु कोई कर्म उन्हें नहीं लगता है। जब तीर्थकर देह त्याग कर देते हैं तो वे सिद्ध हो जाते हैं; अर्थान ईश्वरावस्थाको रह जाते हैं । तीर्थकरों के ही समान सामान्यकेवली भी होते हैं, जिनके For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] ___ जैनधर्म और हिन्दूधर्म। २४३ गर्भ, जन्म, तप आदिके 'कल्याणक ' नामक सकते हैं कि जैनमतके तीर्थंकरोंकी संख्या तो उत्सवविशेष नहीं होते हैं । ऐसी अवस्था- हिन्दूधर्मके अवतारोंकी संख्यासे मिलती है, और वालोंको हिन्दूमतमें जीवन्मुक्त कहा है। राजा उनका मनुष्ययोनिसे ईश्वर पदवी पर पहुँचना, जनक, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुकदेव आदि जीव- जीवन्मुक्तोंसे । न्मुक्त थे । ये महान् पुरुष सब चराचर संसारको हिन्दुधर्ममें जीवन्मुक्त पुरुषोंकी मूर्तियाँ एक दृष्टिसे ही देखते थे। इनके विषयमें निम्न मन्दिरों में नहीं स्थापित की गई हैं। अवतारोंकी लिखित श्लोक सत्य कह सकते हैं: मूर्तियाँ ही मन्दिरों में स्थापित हुई हैं। इन्हींकी मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । पूजा होती है और समय समय पर इन्हींके आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति ॥ उत्सव भी बड़े समारोहसे होते हैं। सभी सामान्य __ अथवा हिन्दू इन्हींको ईश्वर मानकर पूजते हैं और भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ . इन्हींकी भक्ति करते हैं । हिन्दू धर्मके ख्यालसे पर्वोक्त विचारसे हम यह कह सकते हैं कि अवतारोंकी महिमा जीवन्मुक्त पुरुषों की अपेक्षा जिनको जैनधर्म, तीर्थकर और सामान्य केवली अधिक है; इसलिए अवतारोंके ही मन्दिर बनाये मानता है उन्हें हिन्दूधर्म जीवन्मुक्त कहता गये हैं-जीवन्मुक्तोंके नहीं । जैनधर्ममें हिन्दू है। हिन्द ओंमें जिस तरह जीवन्मक्तोंकी कोई धर्मके समान अवतार और जीवन्मुक्त दो पृथक्संख्या नहीं, उसी तरह जैनधर्ममें भी नहीं है। पृथकरूप नहीं हैं-केवलजीवन्मुक्त ही हैं, जिन्हें हाँ, जिस तरह हिन्दुओंमें अवतारोंकी संख्या तीर्थंकर कहते हैं । इन तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ २४ मानी है, उसी तरह जैनधर्ममें भी प्रत्येक मन्दिरोंमें स्थापित कर पूजी जाती हैं और समय चतर्थकालमें तीर्थंकरोंकी संख्या २४ मानी है। समय पर उनके उत्सव होते हैं । सभी सामान्य अवतार और जीवन्मुक्तमें यह अन्तर है जैन इन्हें ही ईश्वरसमान मानकर पूजते हैं कि अवतार तो जन्मसे ही सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ और उन्हींकी भक्ति करते हैं। आदि विशेषणोंसे युक्त होता है। वह वास्तवमें जैनधर्ममें साधुओंके मुख्य धर्म पाँच हैंईश्वरका अवतार किसी विशेष कार्य करने के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । होता हैपर जीवन्मुक्त मनुष्य ही होते हैं। ये इन्हींको पाँच महाव्रत कहते हैं । इनका पालन अनेकानेक जन्मोंसे मुक्ति प्राप्त करनेकी चेष्टा करना साधुओंका मुख्य धर्म है । इन्हीं पाँच करते रहते हैं और अपने तप और परिश्रमसे व्रतोंको हिन्दूधर्ममें यम कहा है । देखिए:-- किसी जन्ममें जीवन्मुक्त हो जाते हैं । जैन- 'अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य्यापरिग्रहौ ।' धर्मके तीर्थकरोंकी और सन्मान्य केवलियोंकी अहिंसा धर्मको इस तरह कहा हैः-- तुलना हिन्दूधर्मके जीवन्मुक्त पुरुषोंसे हो सकती कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। है । तीर्थंकरों और अवतारोंकी तलना उचित अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः ।। नहीं मालम होती है। इन दोनों में केवल संख्या अर्थ-कर्मसे, बचनसे, मनसे, सब प्राणिमात्रका ही सादृश्य है । तीर्थकरों और जीव- योंमें कभी भी क्लेश नहीं पहुँचाना, अहिंसा है। म्मुक्तोंमें बहुतसी बातें मिलती हैं, जिनमें मुख्य इसी तरह सत्यके लिए कहा है:ये हैं-ये दोनों मनुष्ययोनिसे अपने ही तप सत्येन सर्वमाप्नोति सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम् । और शानद्वारा, ईश्वरपदवीको पहुँचते हैं। यह कह यथार्थकथनाचारः सायं प्रोक्तं द्विजातिनाम् ।। For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ : शाह अर्थ--सत्यसे सभी चीजोंकी प्राप्ति होती है। बताये हैं वे सब उनमें गर्भित हो जाते हैं। सत्यमें ही सबकी प्रतिष्ठा है । जैसा हो वैसा ही नियम ये हैं:कहना और आचरण करना सत्य है। अस्तेय तपः स्वाध्याय सन्तोषौ शौचमीश्वरपूजनम् ।। धर्मको देखो, उसकी यह परिभाषा है:-- अर्थ-तप, स्वाध्याय, सन्तोष, शौच और परद्रव्यापहरणं चौर्यादथ बलेन वा। ईश्वरपूजा । x उपवासादिसे शरीर शोषण स्तेयं तस्यानाचरणादस्तेयं धर्मसाधनम् ॥ करना तप है । जितना मिल जाय उसी पर . अर्थ-दूसरेकी द्रव्यको चोरी अथवा बलसे प्रसन्न रहना संतोष है । शौच दो तरहका है-- ले लेना स्तेय कहलाता है, और स्तेयका नहीं भीतरी और बाहरी । बाहरी शौच मट्टी और जलसे करना अस्तेय धर्म है। ब्रह्मचर्यको इस तरह होता है और भीतरी शौच मनकी शुद्धिसे । मनकी कहा है: शुद्धि सत्यसे होती है, बुद्धिकी ज्ञानसे और कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा । आत्माकी तप और विद्यासे । मन, वचन, काय सर्वत्र मैथुनत्यागं ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ॥ और कर्म, इन चारोंके द्वारा स्तुति करना, अर्थ-कर्मसे मनसे और वचनसे सब अव- स्मरण करना और पूजा करना, ईश्वरपूजन स्थाओंमें हमेशा और सब जगह मैथुन त्याग कहलाता है। यम और नियम मिलकर दस करना ब्रह्मचर्य है । परिग्रहकी यह परिभाषा है:- धर्म होते हैं। इनके अन्तर्गत और सब धर्म द्रव्याणामप्यनादानमापद्यपि तथेच्छया । आजाते हैं। अपरिग्रहमित्याहुस्तं प्रयत्नेन पालयेत् ॥ इस लेखमें मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार, जैन अर्थ-द्रव्योंका आपत्तिमें भी इच्छासे नहीं और हिन्द धर्मोकी समानता दिखानेकी चेष्टा की ग्रहण करना अपरिग्रह है । इन पाँचों धर्माका वि- है। यदि इसमें कोई त्रुटि या भूल हो, तो आशा स्तारपूर्वक वर्णन हिन्दूशास्त्रांम भी है और जैन- है कि दोनों धर्मावलम्बी ही क्षमा करेंगे । मेरा शास्त्रोंमें भी। जैनसाधुके मूलधर्म ये ही हैं। अभिप्राय किसी मत पर आक्षेप करना नहीं हैमनवचनकाय तीनोंसे इनका पालन करना केवल उनके तात्त्विक अंशोंकी समानता दिखाना दोनों ही धर्मों में बताया है । इन महावतोंके है जिससे परस्पर प्रेम और श्रद्धाकी वृद्धि हो । सिवा और जो कुछ साधन कहे हैं, उनमें भी " बहुत कुछ सादृश्य है । अतः साधु धर्म विषयों सम्पादकीय वक्तव्य-लेखक महाशयने भी जैनमतके मूल नियम हिन्दू धर्मके मूल इस लेख में बहुत मोटी मोटी और बाहरी बातोंको नियमोंसे मिलते हैं। लेकर दोनों धर्मीकी समानता दिखलाई है-सूक्ष्म __गृहस्थधर्मके भी ये ही पाँच मूलाधार नियम और भीतरी बातों पर विचार करनेकी कृपा नहीं हैं। इनमें नीचे लिखे ७त्रत और जोड़कर १२ ---- त माने हैं:- ६ दिगवत, ७ भोगोपभोग- हमारी समझमें इन पाँच नियोका मिलाना परिमाण, ८ अनर्थदंडत्याग, ९ सामायिक, १०, जैनधर्मके षट्कर्मोंसे किया जाय तो अच्छा हो। देशवत, ११ प्रोषधोपवास और १२ अतिथि देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और - और दान ये षट्कर्म हैं। नियमोंका मिलान सात व्रतोंके साथ नहीं हो सकता। उनमेंसे दिग्जत, देशसिवा, उसके पाँच नियमों पर भी ध्यान दिया व्रत और अनर्थदण्डविरति ये तीन तो किसी भी जाय तो मालूम होगा कि जो गृहस्थके धर्म नियमके अन्तर्गत नहीं आसकते । सम्पादक । For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] चौर। aanwar.Munaamanawware की। हिन्दु, बौद्ध, जैन आदि जितने धर्म चोर। भारतवर्षकी मिट्टी पर जमाये गये हैं और यहाँके (ले. श्रीयुत पं० शिवनारायण द्विवेदी।) जलवायुसे वर्द्धित तथा विकसित हुए हैं उन सबमें । चाहे जैसे हो जानकीको बचाना ही होगा। इस प्रकारकी समानताओंका रहना अनिवार्य है-- " "वह मुझे संसारमें अकेला छोड़ जायगी,प्रेमवे अवश्य रहेंगी। पर इससे उनकी विशेषतायें रहित कर जायगी तो फिर मेरे जीवनमें रह ही क्या नहीं मिट सकतीं । मूल बातें तीनोंमें एकसी हो जायगा ? फिर तो मैं केवल कंगाल, केवल दीन सकती हैं, पर उनके स्वरूपमें तीनोंके पृथक्त्वके बन जाऊँगा। नहीं, जैसे होगा उसे बचाऊँगा। अनुसार अन्तर अवश्य होगा । हिन्दू धर्मका अब तक मेरे साथ, केवल मेरा मुँह देखअपरिग्रह और जैनधर्मका अपरिग्रह शब्दसादृश्य कर उसने संसारके सब दुःख चुपचाप सहे । रखने पर भी विशेषता रखता है । जैनसाधु दरिद्रतासे हताश होकर मुझे जब चारों ओर तिलतुषमात्र परिग्रह नहीं रखता, यहाँ तक कि केवल अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता था; वस्त्र तक छोड़ देता है । पर हिन्दूधर्मके साधुके तब वह धीरे धीरे हँसती हुई मानों मुझे प्रकाश लिए इतना त्याग आवश्यक नहीं है। जैनसाधुकी और आशा देती थी । वह अपने स्नेह, यत्न और अहिंसा चरमसीमाको पहुँची हुई होती है । वे प्रेमसे मेरे मृत शरीरमें नई संजीवनी शक्ति ढाल अपने निमित्त बनाये हुए भोजनका लेना भी दूषित देती थी। सचमुच, जो कहीं वह न होती तो समझते हैं । पर हिन्दू साधु कन्दमूलको अपने मैं निराश होकर अब तक कभीका आत्महत्या हाथसे पकाकर खा सकता है । हिन्दू धर्म भले ही कर डालता ! कर्मसिद्धान्तकी कुछ बातोंको मानता हो; पर इतने दिन ठोकरें खानेके बाद आशाकी एक कर्मसिद्धान्तको एक सम्पूर्ण सुघटित रूपमें जैन- किरण दिखाई दी है, पर तकदीरका यह कैसा धर्मने ही खड़ा करके दिखलाया है । और जन- खेल है । मेरे दुःखमें जिसने अपना कलेजा बिछा धर्ममें जब सारा ही कर्तृत्व कर्मोको दे रक्खा है, दिया था, परमात्मा ! क्या मेरे सुखसे प्रसन्नतब उसके लिए यह अनिवार्य भी था कि वह इस ताके साथ एक बार हँसना भी उसके भाग्यविषयको अन्तिम सीमा तक पहुँचा दे । हिन्दु. में नहीं है ? हाय क्या वह दुख-ही-दुख में मुझसे ओंके यहाँ यह विषय अच्छी तरह पल्लवित नहीं सदा सर्वदाके लिए बिदा हो जायगी ? और हुआ। क्योंकि वहाँ ईश्वरके कारण कर्म पर मैं अपनी चिर प्रसन्नता खोकर कलेजे पर अधिक निर्भर रहनेकी आवश्यकता नहीं । इसी पत्थर रखे हुए देखूगा ? नहीं, ऐसा नहीं तरह और और बातोंके विषयमें भी समझना हो सकता । नहींचाहिए । गरज यह कि एक देशमें उत्पन्न हुए पर करूँ क्या ? जानकीको बचानेके लिए धर्मोमें बाहरी सादृश्य अवश्य होते हैं; पर इससे अच्छे डाक्टरकी जरूरत है-और डाक्टरके यह न समझ लेना चाहिए कि उनमें भीतरी लिए रुपयोंकी जरूरत है । रुपये कौन देगा? दो अन्तर भी कम होगा । प्रत्येक धर्म जिस मूल दो चार चार करके ही इतना कर्ज हो रहा है कि उद्देश्य या सिद्धान्तको लेकर जन्म लेता है, सब कुछ देने पर भी उद्धार नहीं हो सकता। उसका भीतरी झकाव उसी ओरको सविशेष रहता स्त्रीके लिए दवा नहीं, छोटे पुत्रके लिए भाजन है और उसका यह झुकाव ही उसकी वस्तु है। नहीं । रुपयोंके बिना, जीते हुए भी मौतसे अधिक कष्ट होता है। मेरी ओर नजर करनेवाला कोई For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - २४६ भी तो नहीं दिखाई देता । विश्वास करके कोई एक रुपया भी उधार नहीं देता। भिखारीकी तरह दिनभर मारा मारा फिरता हूँ, पर कोई नहीं पूछता । बुखार से जानकी बेहोश हो रही है, दवा न मिलनेके कारण उसकी अवस्था और भी बिग ढ़ती जाती है । इस कड़ाके की सर्दी में उसको एक फटा और मैला सूती चादरा उढ़ा रक्खा है । बहाशीमें भी उसके दाँतसे दाँत लगे हैं । पति होकर अपनी सती स्त्रीकी इतनी व्यथा कैसे देखें ! छाती फटी जाती है । यह असह्य है । दारुण कोटकी जेब में हाथ डालकर देखा, केवल चार पांच आने पैसे और एक दरख्वास्तके उत्तर में आई हुई चिट्ठी है । चिट्ठा निकाल कर एक बार पढ़ी | कितने दुःख और निराशा के बाद अम्बालके एक दफ्तर में मेरी दरख्वास्त मंजूर हुई है। सबने लखा है कि तुम्हें दो हफ्ते के भीतर भीतर अम्बाले पहुँचकर काम सँभालना होगा । इस चिट्ठीसे मेरी अपेक्षा जानकीको कई गुणा अधिक आनन्द होता, पर हाय वह आज इस संसारसे बिदा होने के किनारे पर है । इतने • दिन से जो चाह रहा था वह मिला, पर जो वह मुझे सदा सर्वदा के लिए छोड़कर चली गई तो मैं किसका मुँह देखकर दूसरे की नौकरी करूँगा ? मैं धीरे धीरे उसके सिरहाने जाकर खड़ा हुआ। उसकी भीतर घुसी हुईं दोनों आँखें मुँदी हुई हैं। शरीर थरथर काँप रहा है। चिरागका मैला प्रकाश उसके मुख पर पड़कर उसे कितना भयानक कर रहा है । उसके सिरपर हाथ लगाने से हाथ मानों जल गया-मनमें हो आया कि इसी ज्वालामें उसका हृदय जल रहा है । दुःख और उसे मेरा कलेजा धड़कने लगा । क्या करूँ क्या करूँ ! इसका जीवन प्रतिपल क्षीण हो रहा है - किस प्रकार इसकी रक्षा करूँ ? भाग १३ मैं उसी जगह बैठकर कपाल पर हाथ रखे हुए सोचने लगा । यह सोच कितना भयानक था सो भगवान् ही जानते हैं । जब किसी ओर किनारा न दीखा और हृदय बाणविद्ध कुरंगकी छटपटाकर जड़ बनने लगा, तब धीरे धीरे किसीने कान में आकर कहा - " तू चोरी कर ! " तरह चोरी ? हाँ चोरी ! सिवाय इसके अब कोई उपाय नहीं है । धनके लोभमें आकर संसारमें न मालूम कितने लोग कितने बड़े बड़े पाप, कितनी नरहत्या करते हैं; पर मैं तो एक सती सदाचारिणीको जान बचाने के लिए केवल एक दिन चोरी करता हूँ, इसमें दोष ही क्या है ? मन-ही-मन इसकी आलोचना करने लगा | जितना ही सोचने लगा उतना ही मनमें आने लगा कि इससे अधिक सरल उपाय और कोई नहीं है। न किसीको खबर होगी, न कोई देखेगा, न सुनेगा । चोरी करके मैं जानकी के प्राण बचा सकूँगा- मैं यहीं करूँगा | सोच विचार में आधी रात बीत गई। जाड़े में लिहाफ लपेटे सब लोग आनन्दसे सो रहे हैं । महानगरी दिल्ली के सब रास्ते सूने पड़े हैं। किबाड़ खोल कर देखा, चारों ओर शान्ति है। म्यूनिसिपैलिटीकी धुंधली लालटेनें कुहरेको भलीभाँति नहीं हटा सकतीं। फिर भी मानों स्थान स्थानपर वे जागकर सब कुछ देख रही हैं । मैं पागलों की तरह घर से निकल पड़ा ।क्या इसी प्रकार निराश होकर लोग चोर बना करते हैं ? [ २ ] उस अँधेरी गली में दूसरे के मकान की दीवारपर खड़े हुए मेरा कलेजा धड़कने लगा । यदि कहीं में पकड़ा गया तो ? गरीब होने पर भी लोग मुझे इज्जतदार मानते हैं । यदि मैं चोरी करता हुआ पकड़ा गया तो मेरी क्या दशा होगी ? दूर गली के किनारे पर पहरेवाला जोरसे पुकार उठा - ' जागते रहो'। उसी दीवार पर For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर । अङ्क ५-६ ] मैं सिर पकड़कर बैठ गया । डर के मारे मानों नाड़ियोंका रक्त बर्फ बनने के किनारे पर आगया । इस दशामें मैं कितनी देर बैठा रहा सो नहीं कह सकता । जिस कामको करने के लिए पाग लकी तरह घरसे निकल पड़ा था, वह न किया गया । मनमें होने लगा मानों इधर उधर सैकड़ों मनुष्य छिपे हुए मेरी ओर तीखी नजरसे घूर रहे हैं; - एक क्षणभर में ही जैसे वे सब एक स्वर से पुकार उठेंगे---" चोर, चोर चोर । " मैं झटपट दीवारसे नीचे उतरने लगा । बिजलीकी चमक के समान शीघ्रतासे जानकीका रोगसे पीला पड़ा हुआ मुख मेरे सामने उदय हुआ । आह, वह कुम्हलाया हुआ, जाड़ेका मारा, मलीन मुख देख कर हृदय फटने लगा उस मुखके चारों ओर मृत्युकी काली छाया घरी हुई हैं। मानों वह श्मशानमें बैठी है और चारों ओर हाहाकार करती हुई अनेक चितायें जल रही हैं । अब अधिक विलम्ब नहीं है । बिना दवाके मेरा घर श्मशान बन जायगा । । क्षणमात्र में सब भय चला गया। मैं प्राणपनसे चेष्टा करके दीवार के ऊपरवाली छत पर चला गया । कम ३] उस कमरे में किसीकी आहट न मिली। बड़ा गहरा अँधेरा है, कुछ नहीं सूझता - जेबसे पेटी निकालकर एक दियासलाई जलाई । जिस मैं मैं खड़ा हूँ, उसके बीचमें लकड़ीकी दीवार खींचकर वह दो हिस्सों में बाँटा गया है। बीचएक पर्दा पड़ा हुआ है, शायद इसी दरवाजेसे दूसरे कमरे में जाते होंगे । दीवार के सहारे दो आलमारियाँ हैं। बीचमें जके नीचे एक दराज है। खूँटी पर कुछ स्त्रियों के पहनने के कपड़े लटक रहे हैं। मेज पर एक बड़ा आईना लगा है। उसके पास ही विलायती रबरकी कंधियाँ, ब्रुश, पियर्स सोप, काचके अतरदानमें जर्मन हेको और देशी ओटो मोहिनी'की शीशियाँ, रोज पाउडर, हैजलाइनकी शीशी आदि सजाई हुई हैं । नीचे चमकदार बिलायती २४७ फर्श बिछा है । यह सब देखकर समझा कि यह कमरा किसी रमणीका शृंगारघर है । वह अवश्य ही धनवाली होगी, इसमें भी सन्देह नहीं । मेकी एक एक दराजको खींच खींच कर देखा, पर वे सब बंद थीं। दोनों आलमारियोंमें भी ताला लगा था । हताश होकर मैं सोचने लगा कि इतनी दूर आकर भी खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा ? एक दियासलाई और जलाकर इधर उधर देखने लगा । आलमारी के ऊपरवाले आले पर नजर पड़ते ही मेरे हृदय में फिरसे आशा लौट आई । आलेमें चाबियों का गुच्छा रक्खा भी मैं यह सोचे बिना न रह सका कि, 'भगवान् था ! इस नीच और निन्दित कामको करते हुए ही आज मेरा सहायक है । 1 १ गुच्छे में से चाबी खोजकर मैंने ऊपरवाली दराज खोली। दराज खींचते समय 'कचकच ' शब्द हुआ । उस समय एक और दियासलाई जलाकर मैंने देखा । एक हार, कई जोड़े चूड़ियाँ, करनफूलआवश्यकता नहीं है । मैं चोरी करने के लिए तो सब जड़ाऊ हैं । पर इतने गहनोंकी तो मुझे चोरी नहीं करता । मैं तो विवश होकर उसके प्राण बचाने के लिए कुछ दवा के लिए लेने आया हूँ । 1 यह सोचकर मैंने निश्चय किया कि एक चूड़ीसे ही मेरा काम चल जायगा । चूड़ी भी भारी कीमती है, पर मैं इसे बेचूँगा नहीं । किसी के यहाँ चार पाँच रुपये में गिरवी रख दूँगा । उन्हीं रुपयोंसे स्त्रीकी दवा करूँगा । फिर रुपये आने पर इसे गिरवीसे छुड़ाकर जैसे बनेगा वैसे इसके मालिक को दे दूँगा | / काँपते हुए हाथसे मैंने एक चूड़ी बाहर निकाल ली । मन-ही-मन कहा - हे परमात्मा ! मुझे क्षमा कर । बस मेरा यही सबसे पहला और सबसे अन्तिम पाप है । फिर जन्ममें कभी इस मार्ग पर न चलूँगा । दराज बंद करके जैसे ही पीछे सरकाई वैसे ही न मालूम, क्या चीज जोरसे नीचे गिर पड़ी । अन्धेरेमें सकपकाकर मैं काठकी तरह खड़ा रह गया। यदि किसीने यह शब्द सुना हो तो ? मुझे किसी कपड़ों सड़सड़ाने की आवाज आई । मानों एक एक पैर उठाता हुआ कोई घर . For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ में आया। डरके मारे मेरा श्वास रुकने के किनारे पर आ गया । ' पट ' से एक बटन दबाने की आवाज हुई और कमरे में बिजलीकी रोशनी फैल गई । एकदम उजाला होनेके कारण मेरी आँखें चकचधा गई । जैनहितैषी - जब थोड़ी देरमें आँखें खुलीं तब मैंने देखा कि मेरे सामने ही एक स्त्री सकपकाई हुई खड़ी है। आश्चर्य और भय से निश्चेष्ट होकर रमणी मेरी ओर देख रही है । मेरा सिर घूमने लगा, मानों पैरोंके नीचेकी जमीन खिसकती जा रही है दीवारका सहारा लेकर मैंने अपने आपको गिरने - से बचाया | मानों अपने भीतर मैं नहीं रहा । । आश्चर्यका वेग बीत जानेपर रमणीकी नजर दराज पर पड़ी। वह दरवाजेकी ओर बढ़ी। अब मुझे भी होश हुआ । समझा कि वह और किसीको जा रही है । पागलकी तरह मैं दरवा - जे की ओर लपककर उसके पैरों पर लोट गया । वह हलकीसी चींख मारकर दो पैर पीछे हट गई। मैंने कातर और दीन भावसे कहामुझे क्षमा करो, मेरा सर्वनाश मत करो, किसी को बुलाओ मत। "C माता, पत्थर की मूर्तिके समान चुपचाप खड़ी हुई वह मेरी ओर सन्देहकी दृष्टि से देखने लगी । फिर कहने लगा- "मा, मैं भले घरका हूँ, विवश होकर आज एक दिनके लिए चोर बना हूँ, इसके सिवाय मेरे लिए और कोई उपाय न था, मेरा विश्वास करो - मेरा विश्वास करो। " י उस रमणीने कुछ भी न कहा । वह वैसे ही पत्थर की मूर्तिके समान खड़ी रही। मैंने नजर उठाकर उसे देखा । मेरी दीनता देखकर ही हो, या माता कहनेसे ही हो—चाहे जैसे हो पर उसके मुखसे डरका भाव चला गया । मानों वह समझ चुकी कि मेरे द्वारा उसकी कोई हानि न होगी। नहीं तो अबतक वह अवश्य ही किसीको पुकारती । मैंने दबे हुए स्वरमें, संक्षेपसे अपनी सब अवस्था उससे कह दी। अब उसके पास दयाके [ भाग १३ सिवाय मेरे लिए और उपाय ही क्या था ? रमणीकी दृष्टि कोमल हो आई, मानों उसने मेरी बातका विश्वास किया । पर तब भी उस एक शब्द भी न निकाला । मैंने कहा - " मैंने चोरी की है पर मैं, चोर नहीं हूँ । आप दराज खोलकर देख लीजिए, मैंने और कोई ग नहीं लिया । सोचा था कि इस चुडीको गिरवी रखकर अपनी स्त्रीका इलाज करूँगा, पर मालूम होता है कि भगवानकी यह मरजी नहीं है । लो मा, यह अपना गहना लो। मैं चोर भी बना और अपनी स्त्रीके प्राण फिर भी न बचा सका ! " यह कहकर मैंने वह चूड़ी उसके पैरों के पास रख दी। मेरी आँखोंसे दो बूँद आँसू टपक पड़े । उस रमणीने एक बार अपने गहने की ओर और एक बार मेरे मुँहकी ओर देखा । फिर गर्दन टेढी करके थोड़ी देर खड़ी रहने के बाद वह अत्यन्त कोमल स्वर में बोली - "इस चूड़ीको तुम ले जाओ । " मैं आश्चर्य में डूबकर उसके मुँहकी ओर देखता रह गया । फिर गद्गद कंठसे मैंने कहामा, तुम साक्षात् देवी हो । आपकी दयासे आज मेरी स्त्रीके प्राण बचेंगे । यह उपकार मैं इस जन्ममें न भरूँगा । जैसे होगा वैसे इसे गिरवी से छुड़ाकर मैं वापिस लोटा दूँगा । " - " लौटाने की कोई जरूरत नहीं है । तुम जल्दीसे यहाँ से चले जाओ । ” यह कहकर स्त्रीने उँगली से दरवाजा दिखा दिया । [ ४ ] धीरे धीरे घर से बाहर निकल आया। उस मैं छतकी ओर बढ़ रहा था कि इतने में समय मन में नाना प्रकारके भाव आ रहे थे । चोर " । मेरा सब शरीर पत्थर हो गया । मान अकस्मात् न मालूम कौन पुकार उठा - " चोर, आकाशके सब तारे मुझे नजर गड़ाकर देख रहे हैं और कह रहे है- " चोर चोर । " नीचे से कोई जल्दी जल्दी ऊपर चढ़ता चला आ रहा था । और भी कई तरफ से कई मनुष्यों की आवाज सुनाई दी । हतज्ञान होकर मैं फिर उसी रमणीके घरमें आगया । उसने भी " चोर, , चोर" For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] चोर। २४९ नहीं है।" की पुकार सुनी थी । उदासी और चिन्तासे वह चोर भी जागने पर हाथ आये हैं ? " जड़ बनकर घरके बीचमें खड़ी थी। “भाई भाभी, तेरे सिरकी कसम मैंने चोरको ___ बच्चोंकी तरह उसके पैरों पर गिरकर मैंने इधर आते देखा है। ये क्या भाईजी सो रहे कहा-“मा, मेरी रक्षा करो।” ___ एक पल भर में उस स्त्रीने बिजलीकी बत्ती “जियादा शोर मत करो, उनकी नींद खबुझा दी। फिर झटपट मेरा हाथ पकड़कर मुझे राब होगी।" दूसरे घर में ले गई। ___“आओ बाबू, चोर कहीं दूसरी ही तरफ पीछेसे जो आदमी आ रहे थे वे कमरेके दर- आँख बचा कर छिप रहा है।” वाजे पर ही खडे होकर शोर गल करने लगे। सब जल्दी जल्दी घरसे बाहर चले गये । मैं अन्धेरा देखकर भीतर जानेकी उनकी हिम्मत भी एक शान्तिका श्वास त्यागकर खाटसे नीचे न पड़ी । उस स्त्रीने धीरे धीरे मेरे कानमें कहा- उतरकर बैठ गया। "जल्दीसे मेरे साथ बिलोने पर सो जाओ। उस देवीके पैरों पर अपना सिर रखकर मैंने मैंने आश्चर्यसे कहा-" आपके बिछौनेमें " कहा-"मा, आज तुमने अपने प्राणोंकी बाजी उसने कहा-" हाँ, देर मत करो । तुमने Hi लगाकर मेरी रक्षा की । अब बताओ, मैं किमुझे माता कहा है । इसके सिवाय तुम्हारी रक्षा - घरसे जाऊँ ?', देवीने कहा--" थोड़ी देर ठहरो, सबको मैंने कहा-“ यदि मैं पकड़ा गया तो आपका सो जाने दो।" क्या होगा? “ पर जो आपके स्वामी आ जायँ तो ?" ___--" वे आते ही घर खोजेंगे, अब इसके के नीची दृष्टि किये हुए करुण स्वरमें उसने सिवाय कोई उपाय नहीं है । जो तुम बचना कहा--" वे रातमें घर नहीं आते !" चाहो और अपनी स्त्रीको बचाना चाहो तो आश्चर्य है ! ऐसी दयामयी देवीके भाग्यमें जल्दीसे सो जाओ।" भी इतना दुःख है। उस समय वह विचारमें __ इस पर मैं कुछ भी न कह सका। छोटा लीन थी। बहुत धीरेसे अनजानमें उसके महसे चालक जैसे अपनी माताके पास सो जाता है, निकल गया-" स्त्रीके लिए स्वामी चोरतक से ही मैं उस दयामयी देवीके साथ सो गया । बनता है और मेरा स्वामी--मेरा स्वामी--" दो एक मिनिटमें ही कई आदमी लालटेन लिये आ पहुँचे । एकने व्यग्र स्वरमें कहा"भाभी, भाभी, देखो तो तुम्हारे घरमें चोर तो थोड़ी देरमें सब सो गये। मैंने उसके चरणोंनहीं आया ?' ' पर फिर सिर रखकर कहा-" मा, मैं तुम्हारे - रमणीने संयत भाषामें कहा-"क्या, मेरे इस उपकारको इस जन्ममें कमी न भूलूंगा।" घरमें चोर ? कहाँ है ? यहाँ क्यों बेफायदे नींदके वह मुझे सदर दरवाजेतक छोड़ने आई। रास्तेमें समय हल्ला मचा रहे हो !” " चलते हुए मैं सोचने लगा कि विश्वमें जिन्हें देवता --" नहीं, तुम्हारी कसम मैंने उसे इधर कहता ह र कहते हैं वे इनसे बढ़कर और कैसे होंगे? कोमलआते देखा है। फिर किधर गया ?" " तामें जिसका हृदय गुलाबकी कलियोंसे भी अधिक -" घर पड़ा है, देख लो। आया था तो कोमल दयामय है, पवित्रतामें जो यज्ञकी धूमके या कहाँ ?" समान है, कर्तव्यमें जो वज्रकी तरह कठोर है वही विश्वजननी है।* " " मैं यही तो सोच रहा हूँ, गया किधर ?, वही विश्व " सपनेमें चोर देखा होगा । कहीं सपनेके * बंगला 'भारती' से । For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनहितैषी [ भाग १३ श्रीदेवसेनाचार्य संकलित दर्शनसार । --- पणमिय वीरजिणिंदं सुरसेणणमंसियं विमलणाणं । वोच्छं दसणसारं जह कहियं पुव्वस्तरीहिं ॥१॥ प्रणम्य वीरजिनेन्द्रं सुरसेननमस्कृतं विमलज्ञानम् । वक्ष्ये दर्शनसारं यथा कथितं पूर्वसूरिभिः ॥ १ ॥ अर्थ-जिनका ज्ञान निर्मल है और देवसमूह जिन्हें नमस्कार करते हैं, उन महावी भगवानको प्रणाम करके, मैं पूर्वाचार्योंके कथनानुसार 'दर्शनसार ' अर्थात् दर्शनों या जुदा जुद मतोंका सार कहता हूँ। भरहे तित्थथराणं पणमियदेविंदणागगरुडानाम् । समएसु होंति केई मिच्छत्तपवट्टगा जीवा ॥२॥ . भरते तीर्थकराणां प्रणमितदेवन्द्रनागगरुडानाम् । समयेषु भवन्ति केचित् मिथ्यात्वप्रवर्तका जीवाः ॥ २ ॥ अर्थ-इस भारतवर्षमैं, इन्द्र-नागेन्द्र-गरुडेन्द्र द्वारा पूजित तीर्थंकरोंके समयोंमें ( धर्मत में ) कितने ही मनुष्य मिथ्यामतोंके प्रवर्तक होते हैं । मतप्रर्वतकोंके मुखियाकी उत्पत्ति । उसहजिणपुत्तपुत्तो मिच्छत्तकलंकिदो महामोहो । - सव्वेसि भट्टाणं धुरि गणिओ पुव्वमूरीहिं ॥३॥ ऋषभजिनपुत्रपुत्रो मिथ्यात्वकलङ्कितो महामोहः । सर्वेषां भट्टानां धुरि गणितः पूर्वसूरिभिः ॥ ३ ॥ अर्थ---पूर्वाचार्यों के द्वारा, भगवान ऋषभदेवका महामोही और मिथ्याती पोता ' मरीचि तमाम दार्शनिकों या मतप्रवर्तकोंका अगुआ गिना गया है । तेण य कयं विचित्तं दंसणरूवं संजुत्तिसंकलियं । तम्हा इयराणं पुण समए तं हाणिबिडिगयं ॥४॥ तेन च कृतं विचित्रं दर्शनरूपं सयुक्तिसंकलितम । तस्मादितराणां पुनः समये तद्धानिवृद्धिगतम् ॥ ४ ॥ क पुस्तकमें 'समुत्तिसंकलिय' पाठ है । परन्तु इन दोनों ही पाठोंका वास्तविक अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ। For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनसार। ३५१ ___ अर्थ-उसने एक विचित्र दर्शन या मत ऐसे ढंगसे बनाया कि वह आगे चलकर उससे भिन्न भिन्न मतप्रवर्तकोंके समयोंमें हानिवृद्धिको प्राप्त होता रहा । अर्थात् उसीके सिद्धान्त थोड़े बहुत परिवर्तित होकर आगेके अनेक मतोंके रूपमें प्रकट होते रहे । एयंतं संसइयं विवरीयं विणयजं महामोहं । अण्णाणं मिच्छत्तं णिद्दिटुं सव्वदरसीहिं ॥५॥ एकान्तं सांशयिकं विपरीतं विनयज महामोहम् । अज्ञानं मिथ्यात्वं निर्दिष्टं सर्वदर्शिभिः ॥५॥ अर्थ-सर्वदर्शी ज्ञानियोंने मिथ्यात्वके पाँच भेद बतलाये हैं-एकान्त, संशय, विपरीत, विनय और अज्ञान। सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्थो। - पिहियासवस्स सिस्सो महासुंदो बुड्डकित्तिमुणी ॥ ६ ॥ श्रीपार्श्वनाथतीर्थे सरयूतीरे पलाशनगरस्थः । पिहितास्रवस्य शिप्यो महाश्रुतो बुद्धकीर्तमुनिः ॥ ६ ॥ अर्थ-श्रीपार्श्वनाथ भगवान के तीर्थमें सरयू नदीके तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहितास साधुका शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुआ जो महाश्रुत या बड़ा भारी शास्त्रज्ञ था। तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपवज्जाओ परिभट्टो। रत्तंबरं धरित्ता पवट्टियं तेण एयंतं ॥७॥ तिमिपूर्णाशनैः अधिगतप्रवज्यातः परिभ्रष्टः । रक्ताम्बरं धृत्वा प्रवर्तितं तेन एकान्तम् ॥ ७ ॥ अर्थ-मछलियोंके आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई दीक्षासे भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर (लाल वस्त्र ) धारण करके उसने एकान्त मतकी प्रवृत्ति की। मंसस्स णत्थि जीवो जहा फले दहिय-दुद्ध-सकरए। तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥८॥ मांसस्य नास्ति जीवो यथा फले दधिदुग्धशर्करायां च । तस्मात्तं वाञ्छन् तं भक्षन् न पापिष्ठः ॥८॥ १क पुस्तकमें 'महालुद्धो' और गमें ' महालुदो ' पाठ हैं, जिनका अर्थ महालुब्ध होता है। २ क पुस्तकमें ' अगणिय पावज जाउ परिभो' है जिसका अर्थ होता है-अगणित पापका उपामन करके भ्रष्ट हो गया । ख पुस्तकमें 'अगहिय पवजाओ परिकमहो' पाठ है, परन्तु उसमें अगहिय ( अPहोत ) का अर्थ ठीक नहीं बैठता है। संभव है 'अहिंगय' ( अधिगत) ही भूलसे 'अमहिय' लिखा गया हो। For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनहितैषी [ भाग १३ अर्थ-फल, दही, दूध, शक्कर, आदिके समान मांसमें भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करनेमें कोई पाप नहीं है। मजं ण वज्जणिज्जं दवदव्वं जहजलं तहा एदं। इदि लाए घोसित्ता पवट्टियं सव्वसावजं ॥९॥ मद्यं न वर्जनीयं द्रवद्रव्यं यथा जलं तथा एतत् । इति लोके घोषयित्वा प्रवर्तितं सर्वसावा ॥९॥ अर्थ-जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात् तरल या बहनेवाला पदार्थ है उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नहीं है । इस प्रकारकी घोषणा करके उसने संसारमें सम्पूर्ण पापकर्मकी परिपाटी चलाई। अण्णो करेदि कम्मं अण्णो तं भुंजदीदि सिद्धतं । परि कप्पिऊण तणं वसिकिच्चा णिरयमुववण्णो ॥ १० ॥ __ अन्यः करोति कर्म अन्यस्तद्भुनक्तीति सिद्धान्तम् । परिकल्पयित्वा नूनं वशीकृत्य नरकमुपपन्नः ॥ १० ॥ . अर्थ-एक पाप करता है और दूसरा उसका फल भोगता है, इस तरहके सिद्धान्तकी कल्पना करके और उससे लोगोंको वशमें करके या अपने अनुयायी बनाकर वह मरा और नरकमें गया। (इसमें बौद्धके क्षाणिकवादकी ओर इशारा किया गया है । जब संसारकी सभी वस्तुयं क्षणस्थायी हैं, तब जीव भी क्षणस्थायी ठहरेगा और ऐसी अवस्थामें एक मनुष्यके शरीरमें रहनेवाला जीव जो पाप करेगा उसका फल वही जीव नहीं, किन्तु उसके स्थान पर आनेवाला दूसरा जीव भोगेगा।) श्वेताम्बरमतकी उत्पत्ति । छत्तीसे वरिस सए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। सोरहे वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥११॥ पत्रिंशत्सु वर्षशते विक्रमराजस्य मरणप्राप्तस्य । सौराष्ट्र वल्लभ्यां उत्पन्नः सितपटः संघः ॥ ११ ॥ अर्थ-विक्रमादित्यकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद सौराष्ट्र देशके वल्लभीपुरमं श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। १ गुजरातके पूर्व में भागा नगरके निकट यह प्राचीन शहर बसा हुआ था। बहुत समृद्धशाली था। ईस्वी सन् ६४० में चीनी यात्री हुएनसंगने इसका उल्लेख किया है । उस समयतक यह भाबाद था । काठियाबाड़का 'बला' नामक ग्राम जहाँ है, कोई कोई कहते हैं कि वहीं पर यह बसा हुआ था। खेताम्बर सूत्रोंका सम्पादन भी यहीं हुभा था। For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ अङ्क ५-६] दर्शनसार । सिरिभद्दबाहुगणिणो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो ॥ १२॥ श्रीभद्रबाहुगणिनः शिष्यो नाम्ना शान्ति आचार्यः । तस्य च शिष्यो दुष्टो जिनचन्द्रो मन्दचारित्रः ॥ १२ ॥ अर्थ--श्रीभद्रबाहुगणिके शिष्य शान्ति नामके आचार्य थे। उनका 'जिनचन्द्र' नामका एक शिथिलाचारी और दुष्ट शिष्य था। तेण कियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुणो अदक्खाणं तहा रोओ ॥१३॥ तेन कृतं मतमेतत् स्त्रीणां अस्ति तद्भवे मोक्षः। केवलज्ञानिनां पुनः अद्दक्खाणं (?) तथा रोगः ॥ १३ ॥ अर्थ---उसने यह मत चलाया कि स्त्रियोंको उसी भवमें स्त्रीपर्यायहीसे मोक्ष प्राप्त हो सकता है और केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है । अंबरसहिओ वि जई सिज्झइ वीरस्स गब्भचारतं। पर लिंगे वि य मुत्ती फासुयभोजं च सव्वत्थ ॥ १४ ॥ अम्बरसहितः अपि यतिः सिद्धयति वीरम्य गर्भचारत्वम् । परलिङ्गेपि च मुक्तिः प्राशुकभोज्यं च सर्वत्र ॥ १४ ॥ अर्थ--वस्त्र धारण करनेवाला भी मुनि मोक्ष प्राप्त करता है, महावीर भगवान्के गर्भका संचार हुआ था, अर्थात् वे पहले ब्राह्मणीके गर्भमें आये, पीछे क्षत्रियाणीके गर्भ में चले गये, जैन. मुद्राके अतिरिक्त अन्य मुद्राओं या वेषोंसे भी मुक्ति हो सकती है और प्राशुक भोजन सर्वत्र हर किसीके यहाँ कर लेना चाहिए । अण्णं च एवमाइ आगमदुहाई मित्थसत्थाई। विरइत्ता अप्पाणं परिठवियं पढमए णरए ॥१५॥ अन्यं च एवमादिः आगमदुष्टानि मिथ्याशास्त्राणि । विरच्य आत्मानं परिस्थापितं प्रथमे नरके ॥ १५ ॥ अर्थ-इसी प्रकार और भी आगमविरुद्ध बातोंसे दूषित मिथ्या शास्त्र रचकर वह पहले नरकको गया। विपरीतमतकी उत्पत्ति । सुब्वयतित्थे उज्झो खीरकदंबुत्ति सुद्धसम्मत्तो । सीसो तस्स य दुठो पुत्तो वि य पब्वओ वक्को ॥ १६ ॥ . . For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनहितैषी - सुव्रततीर्थे उपाध्यायः क्षीरकदम्ब इति शुद्धसम्यक्त्वः । `शिष्यः तस्य च दुष्टः पुत्रोपि च पर्वतः वक्रः ॥ १६ ॥ अर्थ — बावीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के समयमें एक क्षीरकदम्ब नामका उपाध्याय था । वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था । उसका ( राजा वसु नामका ) शिष्य दुष्ट था और पर्वत नामका पुत्र वक्र था । २५४ faaiयमयं किच्चा विणासियं सञ्चसंजम लोए । तत्तो पत्ता सव्वे सत्तमणरयं महाघोरं ॥ १७ ॥ विपरीतमतं कृत्वा विनाशितः सत्यसंयमो लोके । ततः प्राप्ताः सर्वे सप्तमनरकं महाघोरम् ॥ १७ ॥ अर्थ - उन्होंने विपरीत मत बनाकर संसारमें जो सच्चा संयम ( जीवदया ) था, उसको नष्ट कर दिया और इसके फलसे वे सब ( पर्वतकी माता आदि भी ) घोर सातवें नरकमें जा पड़े । वैनयिकों की उत्पत्ति । सव्वे यतित्थेसु य वेणइयाणं समुब्भवो अस्थि । सजडा मुंडियसीसा सिहिणो गंगा य केई य ॥ १८ ॥ सर्वेषु च तीर्थेषु च वैनयिकानां समुद्भवः अस्ति । सजटा मुण्डितशीर्षः शिखिनो नग्नाश्च कियन्तश्च ॥ १८ ॥ अर्थ-सारे ही तीर्थोंमें अर्थात् सभी तीर्थंकरों के बारेमें वैनयिकोंका उद्भव होता रहा है । उनमें कोई जटाधारी, कोई मुंडे, काई शिखाधारी और कोई नग्न रहे हैं । गुणवंते विय समया भत्तीय सव्वदेवाणं । णमणं दंडुव्व जणे परिकलियं तेहि मूढेहिं ॥ १९ ॥ दुष्टे गुणवति अपि च समया भक्तिश्च सर्वदेवेभ्यः । नमनं दण्ड इव जने परिकलितं तैर्मूढैः ॥ १९ ॥ [ भाग १३ अर्थ - चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् हो, दोनों में समानता से भक्ति करना और सारे ही देवोंको दण्डके समान आड़े पड़कर ( साष्टांग ) नमन करना, इस प्रकारके सिद्धान्तको उन मूखने लोगों में चलाया । * अज्ञानमतकी उत्पत्ति । सिरिवीरणाहतित्थे बहुस्सुदो पाससंघगणिसीसो । मक्कडिपूरणसाहू अण्णाणं भासए लोए ॥ २०॥ * विनय करनेसे या भक्ति करनेसे मुक्ति होती है, यही इस मतका सिद्धान्त जान पड़ता है । For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ adaare | श्रीवीरनाथतीर्थे बहुश्रुतः पार्श्वसंघगणिशिष्यः । मस्करि - रि- पूरनसाधुः अज्ञानं भाषते लोके ॥ २० ॥ अर्थ - महावीर भगवानके तीर्थमें पार्श्वनाथ तीर्थंकरके संघके किसी गणीका शिष्य मस्करी अङ्क ५०-६०] पूरन नामका साधु था । उसने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया । अण्णाणादो मोक्खो णाणं णत्थीति मुत्तजीवाणं ॥ पुणरागमनं भमणं भवे भवे णत्थि जीवस्स ॥ २१ ॥ अज्ञानतो मोक्षो ज्ञानं नास्तीति मुक्तजीवानाम् । पुनरागमनं भ्रमणं भवे भवे नास्ति जीवस्य ॥ २१ ॥ अर्थ - अज्ञानसे मोक्ष होता है। मुक्त जीवोंको ज्ञान नहीं होता । जीवोंका पुनरागमन नहीं होता, अर्थात् वे मरकर फिर जन्म नहीं लेते और उन्हें भवभवमें भ्रमण नहीं करना पड़ता । एक्को सुद्धो बुद्धो कत्ता सव्वस्स जीवलोयस्स । सुण्णज्झाणं वण्णावरणं परिसिक्खियं तेण ॥ २२ ॥ एकः शुद्धो बुद्धः कर्त्ता सर्वस्य जीवलोकस्य । शून्यध्यानं वर्णावरणं परिशिक्षितं तेन ॥ २२ ॥ अर्थ – सारे जीवलोकका एक शुद्ध बुद्ध परमात्माकर्ता है शून्य या अमूर्तिक रूप ध्यान करना चाहिए, और वर्णभेद नहीं मानना चाहिए, इस प्रकारका उसने उपदेश दिया । जिणमग्गबाहिरं जं तच्चं संदरसिऊण पावमणो । णिच्चणिगोयं पत्तो सत्तो मज्जेसु विविहेसु ॥ २३ ॥ २५५ जिनमार्गबाह्यं यत् तत्वं संदर्य पापमनाः । नित्यनिगोदं प्राप्तः सक्तो मद्येषु विविधेषु || २३ || अर्थ - और भी बहुतसा जैनधर्मसे बहिर्भूत उपदेश देकर और तरह तरहकी शराबोंमें आसक्त रहकर वह पापी नित्यनिगोदको प्राप्त हुआ । द्राविडसंघकी उत्पत्ति । सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥ २४ ॥ अप्पासुयचणयाणं भक्खणदो वज्जिदो मुणिंदेहिं । परिरइयं विवरीयं विसेसियं वग्गणं चोज्जं ॥ २५ ॥ जुम्मं । श्री पूज्यपादशिप्यो द्राविड संघस्य कारको दुष्टः । नाम्ना वज्रन्दि: प्राभृतवेदी महासत्त्वः ॥ २४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ अप्राशुकचणकाणां भक्षणतः वर्जितः मुनीन्द्रैः । परिरचितं विपरीतं विशेषितं वर्गणं चोद्यम् ॥ २५ ॥ (युग्मम् । ) अर्थ-श्रीपूज्यपाद या देवनन्दि आचार्यका शिष्य वज्रनन्दि द्रविड संघका उत्पन्न करनेवाला हुआ । यह प्राभृत ग्रन्थों ( समयसार, प्रवचनसार आदि ) का ज्ञाता और महान् पराक्रमा था । मुनिराजोंने उसे अप्रासुक या सचित्त चनोंके खानेसे रोका; क्योंकि इसमें दोष होता है-पर उसने न माना और बिगड़कर विपरीतरूप प्रायश्चित्तादि शास्त्रोंकी रचना की। बीएसु णत्थि जीवो उन्भसणं णस्थि फासुगं णत्थि । सावज ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठ॥ २६ ॥ बीनेषु नास्ति जीवः उद्भक्षणं नास्ति प्राशुकं नास्ति । सावद्यं न खलु मन्यते न गणति गृहकल्पितं अर्थम् ॥ २६ ॥ अर्थ-उसके विचारानुसार बीजोंमें जीव नहीं हैं, मुनियोंको खड़े खड़े भोजन करनेकी विधि नहीं है, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है । वह सावध भी नहीं मानता और गृहकल्पित अर्थको नहीं गिनता। कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। ण्हतो सीयलणीरे पावं पउरं स संजेदि ॥२७॥ कच्छं क्षेत्रं वसतिं वाणिज्यं कारयित्वा जीवन् । स्नात्वा शीतलनीरे पापं प्रचुरं स संचयति ॥ २७ ॥ अर्थ-कछार, खेत, वसतिका, और वाणिज्य आदि कराके जीवननिर्वाह करते हुए और शीतल जलमें स्नान करते हुए उसने प्रचुर पापका संग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, रोजगार करावें, बसतिका बनवावें और अप्रासुक जलमें स्नान करें तो कोई दोष नहीं है। पंचसए छव्वासे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥ २८॥ पञ्चशते षडिशति विक्रमरानस्य मरणप्राप्तस्य । दक्षिणमथुरानातः द्राविडसंघो महाघोरः ॥ २८ ॥ . अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके ५२६ वर्ष बीतनेपर दक्षिण मथुरा ( मदुरा ) नगरमें यह महामोहरूप द्राविडसंघ उत्पन्न हुआ। १.विशेषितं वर्गणं चोद्यं ' पर क पुस्तकमें जो टिप्पणी दी है उसका अर्थ यह है कि उसने प्रायश्चित शास्त्र बनाये । उसीके अनुसार हमने यह अर्थ लिखा है; परन्तु इसका अर्थ स्पष्टतः समझमें नहीं आया। For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] दर्शनसार। २५७ यापनीय संघकी उत्पत्ति । कल्लाणे वरणयरे संत्तसए पंच उत्तरे जाद। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ॥ २९॥ कल्याणे वरनगरे सप्तशते पञ्चोत्तरे जाते । यापनीयसंघभावः श्रीकलशतः खलु सितपटतः ॥ २९ ॥ अर्थ-कल्याण नामके नगरमें विक्रम मृत्युके ७०५ वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार २०५ वर्ष बीतने पर ) श्रीकलशनाम श्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ। काष्ठासंघकी उत्पत्ति । सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो सयलसत्थविण्णाणी । सिरिपउमनंदिपच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ ३०॥ श्रीवीरसेनशिप्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी। श्रीपद्मनन्दिपश्चात् चतुःसंघसमुद्धरणधीरः ॥ ३० ॥ अर्थ-श्रीवीरसेनके शिष्य जिनसेन स्वामी सकल शास्त्रोंके ज्ञाता हुए। श्रीपद्मनन्दि या कुन्दकुन्दाचार्यके बाद ये ही चारों संघोंके उद्धार करनेमें समर्थ हुए। तस्स य सीसो गुणवं गुणभद्दो दिव्वणाणपरिपुण्णो । पक्खुववासुदुमदी महातवो भावलिंगो य॥३१॥ तस्य च शिष्यो गुणवान् गुणभद्रो दिव्यज्ञानपरिपूर्णः । पक्षोपवासः सुष्ठुमतिः महातपः भावलिङ्गश्च ॥ ३१ ॥ अर्थ-उनके शिष्य गुणभद्र हुए, जो गुणवान, दिव्यज्ञानपरिपूर्ण, पक्षोपवासी, शुद्धमति, महातपस्वी और भावलिंगके धारक थे । तेण पुणो वि य मिच्चु णाऊण मुणिस्स विणयसेणस्य । सिद्धंतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ ३२॥ तेन पुनः अपि च मृत्यु ज्ञात्वा मुनेः विनयसेनस्य । .... सिद्धान्तं घोषयित्वा स्वयं गतः स्वर्गलोकस्य ॥ ३२ ॥ अर्थ-विनयसेन मुनिकी मृत्युके पश्चात् उन्होंने सिद्धान्तोंका उपदेश दिया, और फिर वे स्वयं भी स्वर्गलोकको चले गये । अर्थात् जिनसेन मुनिके पश्चात् विनयसेन. आचार्य हुए और फिर. उनके बाद गुणभद्र स्वामी हुए। १ग प्रतिमें ' दुण्णि सए पंच उत्तरे ' ऐसा पाठ है जिसका अर्थ होता है, २०५ वर्ष । २ 'तेणप्पणो वि मिच्चु ' अर्थात् ' उन्होंने अपनी भी मृत्यु जानकर ' इस प्रकारका भी पाठ ख और ग प्रतियों में है। । For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनहितैषी [ भाग १३ आसी कुमारसेणो णंदियडे विणयसेणदिक्खियओ। सण्णासभंजणेण य अगहियपुणदिक्खओ जादो ॥ ३३ ॥ आसीत्कुमारसेनो नन्दितटे विनयसेनदीक्षितः । संन्यासभञ्जनेन च अगृहीतपुनीक्षो जातः ॥ ३३ ॥ अर्थ-नन्दीतट नगरमें विनयसेन मुनिके द्वारा दीक्षित हुआ कुमारसेन नामका मुनि था। उसने सन्याससे भ्रष्ट होकर फिरसे दीक्षा नहीं ली और परिवजिऊण पिच्छं चमरं चित्तूण मोहकलिएण। उम्मग्गं संकलियं बागडविसएसु सव्वेसु ॥ ३४ ॥ परिवर्ण्य पिच्छं चमरं गृहीत्वा मोहकलितेन । उन्मार्गः संकलितः बागड़विषयेषु सर्वेषु ॥ ३४ ॥ अर्थ-मयूरपिच्छिको त्यागकर तथा चँवर ( गौके बालोंकी पिच्छी ) ग्रहण करके उस अज्ञानीने सारे बागड़ प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया। इत्थीणं पुणदिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरियत्तं । कक्कसकेसग्गहणं छटुं च गुणव्वदं नाम ॥ ३५ ॥ स्त्रीणां पुनर्दीक्षा क्षुल्लकलोकस्य वीरचयत्वम् । ककेशकेशग्रहणं षष्ठं च गणव्रतं नाम ॥ ३५ ॥ आयमसत्थपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि । विरइत्ता मिच्छत्तं पवट्टियं मूढलोएसु ॥३६॥ आगमशास्त्रपुराणं प्रायश्चित्तं च अन्यथा किमपि । विरच्य मिथ्यात्वं प्रवर्तितं मूढलोकेषु ॥ ३६ ॥ अर्थ-उसने स्त्रियोंको दीक्षा देनेका, क्षुल्लकोंको वीरचर्याका, मुनियोंको कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका, और ( रात्रिभोजनत्याग नामक ) छ्ट्रे गुणवतका विधान किया। इसके सिवाय उसने अपने आगम, शास्त्र, पुराण और प्रायश्चित ग्रन्थोंको कुछ और ही प्रकारके रचकर मूर्ख लोगोंमें मिथ्यात्वका प्रचार किया। सो समणसंघवजो कुमारसेणो हु समयमिच्छतो। चत्तोवसमो रुद्दो कहं संघ परूवेदि ॥ ३७ ॥ स श्रमणसंघवर्यः कुमारसेनः खलु समयमिथ्यात्वी । त्यक्तोपशमो रुद्रः काष्ठासंघ प्ररूपयति ॥ २७ ॥ अर्थ-इस तरह उस मुनिसंघसे बहिष्कृत, समयमिथ्यादृष्टि, उपशमको छोड़ देनेवाले और रोग परिणामवाले कुमारसेनने काष्ठासंघका प्ररूपण किया । For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] दर्शनसार। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । णंदियडे वरगामे कट्ठो संघो मुणेयव्वो ॥ ३८ ॥ सप्तशते त्रिपञ्चाशति विक्रमराजस्य मरणप्राप्तस्य । नन्दितटे वरग्रामे काष्ठासंघो ज्ञातव्यः ॥ ३८ ॥ णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थविण्णाणी । कहो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥ ३९॥ नन्दितटे वरनामे कुमारसेनश्च शास्त्रविज्ञानी । ___ काष्ठः दर्शनभ्रष्टो जातः सल्लेखनाकाले ॥ ३९ ॥ . अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष बाद नन्दीतट ग्राममें काष्ठासंघ हुआ । इस नन्दीतट ग्राममें कुमारसेन नामका शास्त्रज्ञ सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट होकर काष्ठासंघी हुआ। माथुरसंघकी उत्पत्ति । तत्तो दुसएतीदे महुराए माहुराण गुरुणाहो । णामेण रामसेणो णिपिच्छं वणियं तेण ॥४०॥ ततो द्विशतेऽतीते मथुरायां माथुराणां गुरुनाथः । नाम्ना रामसेनः निष्पिच्छि वर्णितं तेन ॥ ४० ॥ अर्थ-इसके २०० वर्ष बाद अर्थात् विक्रमकी मृत्युके ९५३ वर्ष बाद मथुरा नगरीमें माथुर संघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने निःपिच्छिक रहनेका वर्णन किया। अर्थात् यह उपदेश दिया कि मुनियोंको न मोरके पंखोंकी पिच्छी रखने की आवश्यकता है और न बालोंकी । उसने पिच्छीका सर्वथा ही निषेध कर दिया। सम्मत्तपयडिमिच्छंतं कहियं जं जिणिंदविवेसु। अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ॥४१॥. सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वं कथितं यत् जिनेन्द्रबिम्धेषु । आत्मपरनिष्ठितेषु च ममत्वबुद्धया परिवसनम् ॥ ४१ एसो मम होउ गुरू अवरो णस्थित्ति चित्तपरियरणं । सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भंगकरणं च ॥४२॥ एष मम भवतु गुरुः अपरो नास्तीति चित्तपरिचलनम् । स्वकगुरुकुलाभिमान इतरेषु अपि भङ्गकरणं च ॥ ४२ ॥ अर्थ---उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित किये हुए जिनबिम्बोंकी ममत्व बुद्धिद्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा-वन्दना करने; मेरा गुरु यह है, दूसरा नहीं है, इस प्रकारके भाव रखने; १'कुमारसेणो हि णाम पन्वइओ' यह पाठ ख-ग पुस्तकोंमें मिलता है । 'पपइमो' की छाया 'प्रवर्तकः ' होती है। For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनहितैषी [ भाग १३ अपने गुरुकुल ( संघ ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मानभंग करनेरूप सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वका उपदेश दिया। जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥४३॥ , यदि पद्मनन्दिनाथः सीमन्धरस्वामिदिव्यज्ञानेन । न विवोधति तर्हि श्रमणाः कथं सुमार्ग प्रजानन्ति ॥ ४३ ॥ अर्थ-विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थकर सीमन्धर स्वामीक समवसरणमें जाकर श्रीपद्मनन्दिनाथ या कुन्दकुन्द स्वामीने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वे बोध न देते, तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ? । भूयबलिपुप्फयंता दक्खिणदेसे तहोत्तरे धम्म । जं भासंति मुणिंदा तं तचं णिवियप्पेण ॥ ४४ ॥ भूतबलिपुष्पदन्तौ दक्षिणदेशे तथोत्तरे धर्मम् । यं भाषेते मुनीन्द्रौ तत्तत्त्वं निर्विकल्पेन ॥ ४४ ॥ अर्थ---भूतबलि और पुष्पदन्त इन दो मुनियोंने दक्षिण देशमें और उत्तरमें जो धर्म बतलाया, धही बिना किसी विकल्पके तत्त्व है, अर्थात् धर्मका सच्चा स्वरूप है। भिल्लकसंघकी उत्पत्ति । दक्खिणदेसे विझे पुक्कलए वीरचंदमुणिणाहो । अद्वारसएतीदे भिल्लयसंघं परूवेदि ॥४५॥ दक्षिणदेशे विन्ध्ये पुष्कर वीरचन्द्रमुनिनाथः । अष्टादशशतेऽतीते भिल्लकसंघ प्ररूपयति ॥ ४५ ॥ सो णियगच्छं किच्चा पडिकमणं तह य भिण्णकिरियाओ। वण्णाचारविवाई जिणमग्गं सुट्ठ णिहणेदि ॥ ४६ ॥ स निजगच्छं कृत्वा प्रतिक्रमणं तथा च भिन्नक्रियाः । वर्णाचारविवादी जिनमार्ग सुष्ठ निहनिष्यति ॥ ४६॥ अर्थ-दक्षिणदेशमें विन्ध्यपर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द्र नामका मुनिपति विक्रमराजाकी मृत्यु १८०० वर्ष बीतने बाद मिल्लक संघको चलायगा । वह अपना एक जुदा गध बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमणविधि बनायगा, भिन्न क्रियाओंका उपदेश देगा, और वर्णाचा. रका विवाद खड़ा करेगा । इस तरह वह सच्चे जैनधर्मका नाश करेगा। १ श्रीलगुलमें विध्यगिरि और चन्द्रागिरि नामके दो पर्वत हैं । विन्ध्यसे प्रन्यकर्ताका भभिप्राय नहींके बिन्ध्या । दक्षिणमें और कोई विध्यपर्षत नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनसार । तत्तो ण कोवि भणिओ गुरुगणहरपुंगवेहि मिच्छत्तो। पंचमकालवसाणे सिच्छंताणं विणासो हि ॥४७॥ ततो न कोपि भणितो गुरुगणधरपुङ्गवैः मिथ्यात्वः । पञ्चमकालावसाने शिक्षकानां विनाशो हि ॥ ४७ ॥ अर्थ-इसके बाद गणधर गुरुने और किसी मिथ्यात्वका या मतका वर्णन नहीं किया। पंचमकालके अन्तमें सच्चे शिक्षक मुनियोंका नाश हो जायगा। एक्को वि य मूलगुणो वीरंगजणामओ जई होई। सो अप्पसुदो वि परं वीरोव्व जणं पवोहेइ ॥४८॥ एक अपि च मूलगुणः वीराङ्गजनामकः यतिः भविष्यति । स अल्पश्रुतोऽपि परं वीर इव जनं प्रबोधयिष्यति ॥ ४८ ॥ .. अर्थ-केवल एक ही वीरांगज नामका यति या साधु मूलगुणोंका धारी होगा, जो अल्पश्रुत ( शास्त्रोंका थोड़ा ज्ञान रखनेवाला ) होकर भी वीर भगवानके समान लोगोंको उपदेश देगा। ग्रन्थकर्ताका अन्तिम वक्तव्य । पुवायरियकयाई गाहाई संचि ऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ ४९ ॥ रइओ दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए। सिरि पासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥ ५० ॥ पूर्वाचार्यकृता गाथाः संचयित्वा एकत्र । श्रीदेवसेनगणिना धारायां संवसता ॥ ४९॥ रचितो दर्शनसारो हारो भव्यानां नवशते नवके । श्रीपार्श्वनाथगेहे सुविशुद्धे मावशुद्धदशम्याम् ॥ ५० ॥ अर्थ-श्री देवसेन गणिने माघ सुदी १० वि० संवत् ९०९ को धारानगरीमें निवास करते समय पार्श्वनाथ भगवानके मन्दिरमें पूर्वाचार्योंकी बनाई हुई गाथाओंको एकत्र करके यह दर्शनसार नामका ग्रन्थ बनाया, जो भव्यजीवोंके हृदयमें हारके समान शोभा देगा । रूसउ तूसउ लोओ सच्चं अक्खंतयस्स साहुस्स । किं जूयभए साडी विवज्जियव्वा णरिदेण ॥ ५१ ।। रुप्यतु तुप्यतु लोकः सत्यमाख्यातकस्य साधोः।। किं यूकाभयेन शाटी विवर्जितव्या नरेन्द्रेण ॥५१॥ . .. अर्थ-सत्य कहनेवाले साधुसे चाहे कोई रुष्ट हो और चाहे सन्तुष्ट हो । उसे इसकी परवा नहीं । क्या राजाको जूओंके भयसे वस्त्र पहनना छोड़ देना चाहिए ? कभी नहीं। For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनहितैषी - दर्शनसार - विवेचना | [ भाग १३ इस ग्रन्थके रचयिता या संग्रहकर्त्ता श्रीमान् देवसेनसूरि हैं । भावसंग्रह नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है, जो ९६० श्लोकों में पूर्ण हुआ है, जिसके मंगलाचरण और प्रशस्तिसे पता लगता है कि वह भी इन्हीं देवसेन सूरिका बनाया हुआ है और वे विमलसेन माणिके शिष्य थे । यथा:मं० पणमिय सुरसेणणुयं मुणिगणहरवंदियं महावीरं । घोच्छामि भावसंग मिणमो भव्वपत्रोहहुं ॥ १ ॥ अन्त-- सिरिविमलसेणगणहर सिस्सो णामेण देवसेणुत्ति । अबुहजणबोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥ ६७ ॥ 4 इसके सिवाय इनके विषयमें और कुछ मालूम नहीं हुआ। इनका संघ संभवतः मूलसंघ ही होगा। क्योंकि अन्य सब संघोंको इन्होंने जैनाभास बतलाया है। इनका बनाया हुआ 'आराधनासार' मामका एक ग्रन्थ माणिकचन्द ग्रन्थमालामें छप गया है। ' तत्वसार ' नामका एक और छोटासा ग्रन्थ है, जिसके छपानेका प्रबन्ध हो रहा है । इनके सिवाय ज्ञानसार, आदि और भी कई अन्थ देवसेन के बतलाये जाते हैं; पर मालूम नहीं वे इन्हीं देवसेन के हैं, या अन्य किसीके । इनकी सब रचना प्राकृत में ही है । इस ग्रन्थका सम्पादन इन्होंने विक्रम संवत् ९०९ की माप शुक्ला दशमीको किया है । उस समय ये धारानगरीके पार्श्वनाथके मन्दिरमें निवास करते थे । २ इस ग्रन्थकी पहली गाथाके 'जह कहियं पुत्र्वसूरीहिं ' ( जैसा पूर्वाचार्योंने कहा है ) पदसे और ४९ वीं गाथाके 'पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एत्थ ' ( पूर्वाचार्योंकी बनाई हुई गाथाओं को एकत्र संचित करके बनाया ) आदि पदसे मालूम होता है कि इस ग्रन्थकी अधि काश गाथायें पहलेकी बनी हुई होंगीं और वे अन्य ग्रन्थोंसे ले ली गई होंगीं। खासकर मतोंकी उत्पत्ति आदिके सम्बन्धकी जो गाथायें हैं वे ऐसी ही जान पड़ती हैं । काष्ठासंघकी उत्पत्ति के सम्बन्धकी जो गाथायें हैं उन्हें यदि ध्यान से पढ़ा जाय तो मालूम होता है कि वे सिलासिलेवार नहीं हैं, उनमें पुनरुक्तियाँ बहुत हैं । अवश्य ही वे एकाधिक स्थानोंसे संग्रह की गई हैं। ३ ग्रन्थकर्त्ताने दर्शनोंकी उत्पत्तिके क्रम पर भी ध्यान नहीं रक्खा है। यदि समय के अनुसार यह क्रम रक्खा गया होता तो वैनयिकों की उत्पत्ति बौद्धों से पहले, और मस्करीकी उत्पत्ति श्वेताम्बरोंसे पहले लिखी जानी चाहिए थी । मालूम नहीं, श्वेताम्बरोंको उन्होंने मस्कर से पहले और वैनायिकों को बौद्धों के बाद क्यों लिखा है । संभव है, 'एयंतं विवरयिं आदि गाथाके क्रमको ठीक रखने के लिए ऐसा किया गया हो । ४ इस पुस्तकका पाठ तीन प्रतियों के आधार से मुद्रित किया गया है। क प्रति श्रीमान् सेठ माणिकचन्द पानाचन्दजीके भण्डारकी है, जिस पर लिपिसमय नहीं लिखा है । इस पर कुछ टिप्पणियाँ भी दी हुई हैं । यह अधिक शुद्ध नहीं है । ख प्रति बम्बई के तेरहपंथी मन्दिरके कमसे कम ५०० वर्ष पहले के लिखे हुए एक गुटके पर लिखी हुई है, जो प्राय: बहुत ही शुद्ध है । अवस्य ही इसमें कई जगह काष्ठासंघकी जगह हड़ताल लगा-लगाकर मूलसंघ या मयूरसंघ लिख दिया है और यह करतूत काष्ठा संघी भट्टारक श्रीमान् श्रीभूषणजीकी है जो वि० संवत् १६३६ में अहमदाबादकी गद्दी पर विराजमान थे । इस विषय में हम एक लेख जैनहितैषकि ५ में भागके ८ वें अंक में प्रकाशित कर चुके हैं। तीसरी ग For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६) दर्शनसार विवेचना। २६३ NAHA.AAAAAAAAAAAAAAA... प्रति रायल एशियाटिक सुसाइटी ( बाम्बे बेंच ) जरनलके नं. १५ जिल्द १८ में छपी हुई है । यह बहुत ही अशुद्ध है । फिर भी इससे संशोधनमें सहायता मिली है। ५ इसमें सब मिलाकर १० मतोंकी उत्पत्ति बतलाई गई है । वे मत ये हैं-१ बौद्ध, २ श्वेताम्बर, ३ ब्राह्मणमत, ४ वैनयिक मत, ५ मंखलि-पूरणका मत, ६ द्राविडसंघ, ७ यापनीय संघ, ८ काष्ठासंघ, ९ माथुरसंघ, और १० भिल्लक संघ । इनमेंसे पहले पाँच तो कमसे एकान्त, संशय, विपरीत, विनयज, और अज्ञान इन पाँच मिथ्यात्वोंके भीतर बतलाये गये हैं, पर शेष पाँचको इन पाँच मिथ्यात्वोंमेंसे किसमें गिना जाय, सो नहीं मालूम होता। ३८ वी गाथामें काष्ठासंघके प्रवर्तक कुमारसेनको 'समयमिच्छत्तो' या समयमिथ्थाती विशेषण दिया है; संभव है कि काष्ठासंघके समान शेष चार मत भी समयमिथ्यातियोंके ही भीतर गिने गये हों। पर यदि ये समयमिथ्याती हैं, तो श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी क्यों न समयमिथ्याती गिना जाय ? अन्य लेखकोंने काष्ठासंघ आदिको 'जैनामास' बतलाया है; पर उन्होंने इनके साथ ही श्वेताम्बरोंको भी शामिल कर लिया है।यथाः गोपुच्छकः श्वेतवासो द्राविडो यापनीयकः। निःपिच्छिकश्चेति पञ्चैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः॥ -~~~-नीतिसार । । देवसेनके ही समान गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रने भी श्वेताम्बर सम्प्रदायको सांशयिक माना है; परन्तु यह बात समझमें नहीं आती कि श्वेताम्बर मत सांशयिक क्यों है। विरुद्धानेककोटिस्पर्शि ज्ञानको संशय माना है । अतएव संशयीका सिद्धान्त इस प्रकारका होना चाहिए. कि-न मालूम आत्मा है या नहीं, स्त्रियाँ मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं या नहीं, इत्यादि। परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायका तो ऐसा कोई सिद्धान्त मालूम नहीं होता। दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टि से उसके वस्त्रसहित मोक्ष मानना, स्त्रियोंको मोक्ष मानना, चाहे जिसके घर प्रासुक भोजन करना, आदि सिद्धान्त 'विपरीत' हो सकते हैं न कि — संशयमिथ्यात्व ' । इसके सिवाय 'स्त्रीमुक्ति' और 'केवलिभुक्ति ' ये दो बातें तो श्वेताम्बरोंके समान यापनीय सम्प्रदाय मी मानता है; पर वह ‘सांशयिक' नहीं, समयमिथ्याती ही बतलाया गया है। ६ तीसरी और चौथी गाथामें बतलाया है कि ऋषभदेवका पोता तमाम मिथ्यामतप्रवर्तकोमें प्रधान हुआ और उसने एक विचित्र मत रचा, जो आगे हानिवृद्धिरूप होता रहा । भगवज्जिनसेनके आदिपुराणसे मालूम होता है कि इस पोतेका नाम मरीचि था, जिसके विषयमें लिखा है: मरीचिश्च गुरोर्नप्ता परिव्राइभूयमास्थितः । मिथ्यात्ववृद्धिमकरोदपसिद्धान्तभाषितैः ॥ ६१॥ तदुपज्ञमभूद्योगशास्त्रं तंत्रं च कापिलम् ।। येनायं मोहितो लोकः सम्यग्ज्ञानपराङ्मुखः ॥ ६२॥ अर्थात् भगवान्का पाता मरीचि भी ( अन्यान्य लोगोंके साथ ) परिव्राजक हो गया था। उसने असत्सिद्धान्तोंके उपदेशसे मिथ्यात्वकी वृद्धि की। योगशास्त्र ( पतनलिका दर्शन ) और कापिल तंत्र ( सांख्यशास्त्र ) को उसीने रचा, जिनसे मोहित होकर यह लोक सम्यग्ज्ञानसे विमुख हुआ! आदिपुराणके इन श्लोकोंसे मालूम होता है कि सांख्य और योगका प्रणेता मरीचि है; परन्तु वास्तवमें सांख्यदर्शनके प्रणेता कपिल और योगशास्त्रके कर्ता पतअलि हैं । दर्शनसारकी चौथी गाथासे इसका समाधान इस रूपमें हो जाता है कि मरीचि इन शास्त्रोंका साक्षात् प्रणेता नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनहितषी [भाग १३ उसने अपना विचित्र मत बनाया था, उसीमें रद्दोबदल होता रहा और फिर वही सांख्य और योगके रूपमें एक बार व्यक्त हो गया । अर्थात् इनके सिद्धान्तोंके बीज मरीचिके मतमें मौजूद थे । सांख्य और योग दर्शनोंके प्रणेता लगभग ढाई हजार वर्ष पहले हुए हैं, पर ऋषभदेवको हुए जैनशास्त्रोक अनुसार करोड़ों ही नहीं किन्तु अर्बो खोंसे भी अधिक वर्ष बीत गये हैं । उनके समयमें सांख्य आदिका मानना इतिहासकी दृष्टि से नहीं बन सकता । श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थों में भी मरीचिको सांख्य और योगका प्ररूपक माना है। ७ पाँचवी गाथामें जो पाँच मिथ्यात्व बतलाये हैं, वे ही गोम्मटसारके जीवकाण्डमें भी दिये हैं:-- एयंतं विवरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं । वहाँपर इन पाँचोंके उदाहरण भी दिये हैं:-- एयंत बुद्धदरसी विवरीओ बंभ ताबसो विणओ। इंदो वि य संसइओ मक्काडेओ चेव अण्णाणी ॥ इसमें बौद्धको एकान्तवादी,ब्रह्म या ब्राह्मणोंको विपरीतमति, तापसोंको वैनयिक, इन्द्रको सांशयिक, और मंखलि या मस्करीको अज्ञानी बतलाया है । टीकाकार लोग इन्द्रका अर्थ इन्द्र नामक श्वेताम्बराचार्य करते हैं, पर इसके ठीक होनेमें सन्देह है । आश्चर्य नहीं, जो गोम्मटसारके कर्ताका इस इन्द्रसे और ही किसी आचार्यका अभिप्राय हो जो किसी संशयरूप मतका प्रवर्तक हो । क्यों कि एक तो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस नामका कोई आचार्य प्रसिद्ध नहीं है और दूसरे इस दर्शनसारमें भद्रबाहुके शिष्य शान्ताचार्यका शिष्य जिन चन्द्र नामका साधु श्वेताम्बरसम्प्रदायका प्रवर्तक बतलाया गया है। ८ छठी और सातवीं गाथासे मालूम होता है कि बुद्धकीर्ति मुनिने बौद्धधर्मकी स्थापना की। बुद्धकीर्ति शायद बुद्धदेवका ही नामान्तर है । इसने दीक्षासे भ्रष्ट होकर अपना नया मत चलाया, इसका अभिप्राय यह है कि यह पहले जैनसाधु था। बुद्धकीर्ति नाम जैनसाधुओं जैसा ही है। बुद्धकीर्तिको पिहितास्रव नामक साधुका शिष्य बतलाया है । स्वामी आत्मारामजीने लिखा है कि पिहितास्रव पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परामें था । श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे पता लगता है कि महावीर भगवानके समयमें पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परा मौजूद थी। बौद्धधर्मकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें माथुरसंघके सुप्रसिद्ध आचार्य अमितगति लिखते हैं कि:-- रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायनः । शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥६॥ शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् । अर्थात् पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परामें मौडिलायन नामका तपस्वी था । उसने महावीर भगवानसे रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा कहा । दर्शनसार और धर्मपरीक्षाकी बतलाई हुई बातोंमें विरोध मालूम होता है । पर एक तरहसे दोनोंकी संगति बैठ जाती है। महावग्ग आदि बौद्ध ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि मौडिलायन और सारीपुत्त दोनों बुद्धदेवके प्रधान शिष्य थे । ये जब बुद्धदेवके शिष्य होनेको जा रहे थे, तब इनके साथी संजय परिव्राजकने इन्हें रोका था। इससे मालूम होता है कि ये पहले जैन रहे होंगे और मौडिलायनका गुरु For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] दर्शनसार-विवेचना। अवश्य ही पार्श्वनाथकी परम्पराका कोई साध होगा। मौडिलायन बौद्धधर्मके प्रधान प्रचारकोंमें था, इस कारण ही शायद वह बौद्धधर्मका प्रवर्तक कह दिया गया है; परन्तु वास्तवमें वह शुद्धोदनसुत बुद्धका शिष्य और उन्हींके सिद्धान्तोंका प्रचारक था । अब उक्त दोनों ग्रन्थोंका सम्मिलित अभिप्राय यह निकला कि पार्श्वनाथके धर्मतीर्थमें पिाहतास्रव नामक जैनसाधुके शिष्य बुद्धदेव हुए और बुद्धदेवका शिष्य मौडिलायन हुआ, जो स्वयं भी पहले जैन था। ९ आठवींसे १० वीं गाथातक बौद्धधर्मके कुछ सिद्धान्त बतलाये गये हैं । पहला यह है कि मांसमें जीव नहीं है । बौद्धधर्ममें 'प्राणिवध ' का तो तीव्र निषेध है; परन्तु यह आश्चर्य है कि वह मरे हुए प्राणीके मांसमें जीव नहीं मानता । मद्यके पीनेमें दोष नहीं है ऐसा जो कहा गया है, सो ठीक नहीं मालूम होता । क्योंकि बौद्ध साधुओंको ‘विनयपिटक' आदि ग्रंथोंके अनुसार जो दशशील ग्रहण करना पड़ते हैं और जिन्हें बौद्धधर्मके मूल गुण कहना चाहिए उनमेंसे पाँचवाँ शील इन शब्दोंमें, ग्रहण करना पड़ता है-' मैं मद्य या किसी भी मादक द्रव्यका सेवन नहीं करूँगा।' ऐसी दशामें शराब पीनेकी आज्ञा बुद्धदेवने दी, यह नहीं कहा जा सकता। १० ग्यारहवीं और बारहवीं गाथामें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय और उसने उत्पादकका नाम बतलाया गया है। श्वेताम्बरके समान और और संप्रदायोंकी उत्पत्तिका समय भी इसमें बतलाया है। इस विषयमें यह बात विचारणीय है कि क्या किसी सम्प्रदायकी उत्पत्ति किसी एक नियत समयमें हुई, ऐसा कहा जा सकता है ? हमारी समझमें प्रत्येक सम्प्रदायकी उत्पत्ति लोगोंके मानसक्षेत्रोंमें बहुत पहलेसे हुआ करती है और वही धीरे धीरे बढ़ती बढ़ती जब खूब विस्तार पा लेती है तब किसी एक नेताके द्वारा प्रकट रूप धारण कर लेती है। अत एव किसी सम्प्रदायकी उत्पत्तिका जो समय बतलाया गया हो, समझना चाहिए कि उसके लगभग उस सम्प्रदायक विचार फैल रहे थे । ठीक उसी वर्षमें यह संभव हो सकता है कि उस सम्प्रदायके प्रधान पुरुषने कोई खास आदेश या उपदेश दिया हो, अथवा वह अपने अनुयायियोंको लेकर जुदा हो गया हो। ११ दर्शनसारमें श्वेताम्बरोंकी उत्पत्तिका जो समय (वि० संवत् १३६ ) बतलाया गया है, उससे बिलकुल मिलता हुआ समय श्वेताम्बरग्रन्थों में दिगम्बरोंकी उत्पत्तिका बतलाया है । यथाः-- छव्वाससहस्सेहिं नवुत्तरहिं सिद्धिं गयस्स वीरस्स। तो वोडियाण दिही रहवीरपुरे समुप्पन्ना ॥ . अर्थात् वीर भगवानके मुक्त होनेके ६०९ वर्ष बाद बोट्टिकों ( दिगम्बरों ) का प्रवर्तक स्थवीरपुरमें उत्पन्न हुआ । इसके अनुसार विक्रम संवत् १३९ में दिगम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई। दोनोंमें केवल ३ वर्षका अन्तर है । पर यह समय प्रामाणिक नहीं जान पड़ता । क्योंकि भद्रबाहु श्रुतकेवलीका समय श्रुतावतारादि अनेक ग्रन्थोंके अनुसार वीरनिर्वाणसंवत् १६२ के लगभग निश्चित है । १६२ में उनका स्वर्गवास हो चुका था । श्वेताम्बर गुर्वावलियोंमें बतलाया हुआ समय भी इसीके समीप है । उनके अनुसार वीर नि० संवत् १७० में भद्रबाहुका स्वर्गवास हुआ है । अर्थात् दोनोंके मतसे भद्रबाहुका समय मिल जाता है। भद्रबाहुके समयमें जो १२ वर्षका दुर्भिक्ष पड़ा था, उसका उल्लेख भी श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें है, जिसे दिगम्बर ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके होनेका एक मुख्य कारण माना है। अब यदि भद्रबाहुके शिष्य शान्त्याचार्य और उनके शिष्य जिनचन्द्र इन दोनोंके होनेमें ४० वर्ष मान लिये जायें तो दर्शनसारके अनुसार वीर निक संवत् २०० (वि० सं० ६७०) में जिनचन्द्राचार्यन श्वेताम्बर सम्प्रदायकी स्थापना की, ऐसा मानना For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ . जनहितैषी [ भाग १३ चाहिए। परन्तु नं० ११ की गाथामें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय विक्रम संवत् १३६ बतलाया गया है । अर्थात् दोनोंमें कोई ४५० वर्षका अन्तर है। यदि यह कहा जाय कि ये भद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली नहीं, किन्तु कोई दूसरे ही थे, तो भी बात नहीं बनती। क्योंकि भद्रबाहुचरित्र आदि ग्रन्थोंमें लिखा है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली ही दक्षिणकी ओर गये थे और राजा चन्द्रगुप्त उन्हींके शिष्य थे। श्रवणबेलगुलके लेखों में भी इस बातका उल्लेख है । दुर्भिक्ष भी इन्हींके सभ. यमें पड़ा था जिसके कारण मुनियोंके आचरणमें शिथिलता आई थी । अतएव भद्रबाहुके साथ विक्रम संवत् १३६ की संगति नहीं बैठती । भद्रबाहुचरित्रके कर्त्ता रत्ननन्दिने भद्रबाहुके और संवत् १३६ के बीचके अन्तरालको भर देने के लिए श्वेताम्बरसम्प्रदायके 'अर्ध फालक' और श्वेताम्बर इन दो भेदोंकी कल्पना की है, अर्थात् भद्रबाहुके समयमें तो 'अर्धफालक' या आधावस्त्र पहननेवाला सम्प्रदाय हुआ और फिर वहीं सम्प्रदाय कुछ समयके बाद वल्लभीपुरके ग़जा प्रजापालकी रानीके कहने से पूरा वस्त्र पहननेवाला श्वेताम्बर सम्प्रदाय बन गया। परन्तु इस कल्पनाम कोई तथ्य नहीं है। साफ मालूम होता है कि यह एक भद्दी गढ़त है। १२ श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें शान्त्याचार्यके शिष्य जिनचन्द्रका कोई उल्लेख नहीं मिलता, जो कि दर्शनसारके कथानुसार इस सम्प्रदायका प्रवर्तक था । इसके सिवाय यदि गोम्मटसारकी 'इंदो वि य संसइयो' आदि गाथाका अर्थ वही माना जाय, जो टीकाकारोंने किया है, तो श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक — इन्द्र' नामके आचार्यको समझना चाहिए । भद्रबाहुचरित्रके कर्ता इन दोनोंको न बतलाकर रामल्य स्थूलभद्रादिको इसका प्रवर्तक बतलाते हैं। उधर श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थों में दिगम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक ' सहस्रमल्ल ' अथवा किसीके मतसे 'शिवभूति' नामक साधु बतलाया गया है । पर दिगम्बर ग्रन्थोंमें न सहस्रमल्लका पता लगता है और न शिवभूतिका । क्या इसपरसे हम यह अनुमान नहीं कर सकते कि इन दोनों सम्प्रदायोंकी उत्पत्तिका मूल किसीको भी मालूम न था । सबने पीछेसे 'कुछ लिखना चाहिए इसी लिए कुछ न कुछ लिख दिया है। १३ दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो भेद कब हुए, इसका इतिहास बहुत ही गहरे अँधेरेमें छुपा हुआ है-इसका पता लगाना बहुत ही आवश्यक है। अभीतक इस विषय पर बहुत ही कम प्रकाश पड़ा है । ज्यों ही इसके भीतर प्रवेश किया जाता है, त्यों ही तरह तरहकी शंकायें आकर मार्ग रोक लेती हैं। हमारे एक मित्र कहते हैं कि जहाँसे दिगम्बर और श्वेताम्बर गुर्वावलीमें भेद पड़ता है, वास्तवमें वहींसे इन दोनों संघोंका जुदा जुदा होना मानना चाहिए। भगवानके निर्वाणके बाद गोतमस्वामी, सुधर्मास्वामी और जम्बूस्वामी बस इन्हीं तीन केवलज्ञानियोंतक दोनों सम्प्रदायोंकी 'एकता है । इसके आगे जो श्रुतकेवली हुए हैं, वे दिगम्बर सम्प्रदायमें दूसरे हैं और श्वेताम्बरमें दूसरे । आगे भद्रबाहुको अवश्य ही दोनों मानते हैं । अर्थात् जम्बूस्वामीके बाद ही दानों जुदा जुदा हो गये हैं । यदि ऐसा न होता तो भद्रबाहुके शिष्यतक, अथवा आगे चलकर वि० संवत् १३६ तक दोनोंकी गुरुपरम्परा एकसी होती । पर एक सी नहीं है । अतएव ये दोनों ही समय सशंकित हैं । एक बात और है । श्वेताम्बरसम्प्रदायके आगम या सूत्रग्रन्थ वीरनिर्वाण संवत् ९८० (विक्रम संवत् ५१० ) के लगभग वल्लभीपुरमें देवर्धिगणि क्षमाश्रमणकी अध्यक्षतामें संगृहीत होकर लिखे गये हैं और जितने दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थ उपलब्ध हैं और For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] दर्शनसार - विवेचना | २६७ जो निश्चयपूर्वक साम्प्रदायिक कहे जा सकते हैं वे प्राय: इस समय से बहुत पहले के नहीं हैं | अ एवं यदि यह मान लिया जाय कि विक्रम संवत् ४१० के सौ पचास वर्ष पहले ही ये दोनों भेद सुनिश्चित और सुनियमित हुए होंगे तो हमारी समझमें असंगत न होगा। इसके पहले भी भेद रहा होगा; परन्तु वह स्पष्ट और सुशृंखलित न हुआ होगा । श्वेताम्बर जिन बातोंको मानते होंगे उनके लिए प्रमाण माँगे जाते होंगे और तब उन्हें आगमोंको साधुओंकी अस्पष्ट यादगारी परसे संग्रह करके लिपिबद्ध करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई होगी। इधर उक्त संग्रह में सुश्रृंखलता प्रौढता आदि की कमी, पूर्वापरविरोध और अपने विचारोंसे विरुद्ध कथन पाकर दिगम्बरोंने उनको मानने से इनकार कर दिया होगा और अपने सिद्धान्तों को स्वतंत्ररूपसे लिपिबद्ध करना निश्चित किया होगा । आशा है कि विद्वानोंका ध्यान इस ओर जायगा ओर वे निष्पक्ष दृष्टिसे इस श्वेताम्बर - दिगम्बरसम्बन्धी प्रश्नका निर्णय करेंगे। १४ सोलहवीं और सत्रहवीं गाथामें जिस विपरीत मतकी उत्पत्ति बतलाई है, उसकी पद्मपुराणोक्त* कथासे मालूम होता है कि वह ब्राह्मणोंका वैदिक मत है, जो यज्ञमें पशुहिंसा करने में धर्मं समझता है । गोम्मटसार में 'एयंत बुद्धदरसी' आदि गाथा में विपरीत मतके उदाहरणमें जो 'ब्रह्म' शब्द दिया है, उसका भी अर्थ 'ब्राह्मणमत' है । पद्मपुराण के अनुसार मुनिसुव्रत तीर्थकर के और पर्वत आदि समयको लाखों वर्ष हो गये । अत एव यह कथा यदि सच मानी जाय तो वैदिक धर्म जितना पुराना माना जाता है उससे मी बहुत पुराना सिद्ध हो जायगा । हमारी समझमें तो स्वयं वेदानुयायी ही अपने धर्मको इतना पुराना नही मानते हैं । जैन विद्वानों के लिए यह सोचने विचारने की बात है । १५ बीसवीं से तेईसवींतक चार गाथाओं में अज्ञान मतका वर्णन है । इसके कर्त्ताका नाम मस्करिपूरन ' नामक साधु बतलाया गया है; परन्तु बौद्ध ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि मस्करि गोशाल और पूरन कश्यप ये दो भिन्न भिन्न व्यक्ति थे और दो जुदा जुदा मतों के प्रवर्तक थे । महापरिनिर्वाणसूत्र, महावग्ग, और दिव्यावदान आदि कई बौद्धग्रन्थोंमें बुद्ध देव के समसामयिक जिन छह तीर्थंकरोंका या मतप्रवर्तकों का वर्णन मिलता है, ये दोनों भी उन्हीं के अन्तर्गत हैं । ८ * क्षीरकदम्ब उपाध्यायके पास राजपुत्र वसु, नारद और उनका पुत्र पर्वत ये तीनों पढ़ते थे । क्षीरकदम्ब मुनि होकर तपस्या करने लगे । वसु राजा हो गया और राज कार्य करने लगा । पर्वत और नारदमें एक दिन ' अजैर्यष्टव्यं ' इस वाक्य पर विवाद हुआ । नारद इसका अर्थ करता था कि पुराने यवोंसे यजन करना चाहिए और पर्वत कहता था कि बकरोंसे । अर्थात् यज्ञमें पशुओंका आलभन करना चाहिए। दोनों अपने अपने अर्थको क्षीरकदम्बका बतलाया हुआ कहते थे । राजा वसु प्रसिद्ध सत्यवादी था । दोनोंने यह शर्त लगाई कि राजा वसु जिसके अर्थको सत्य अर्थात् क्षीरकदम्बके कथनानुसार बतलावे उसीकी जीत समझी - जाय और जो हारे उसकी जिह्वा छेदी जाय । दूसरे दिन इसका निर्णय होनेवाला था कि पहली रातको पर्व तकी माताने अपने पुत्रका पक्ष असत्य समझकर उसकी जिह्वा काटी जाने के डर से राजा वसु पर अनुचित दबाव डाला और उसे झूठ बोलने पर राजी कर लिया । दूसरे दिन सभा में राजःवमुने पर्वतके हो पक्षको सत्य बतलाया और इसका फल यह हुआ कि उसका सिंहासन लोगोंके देखते देखते जमीन के नीचे धँस गया । इसके बाद पर्वत अपने पक्षका समर्थन करता हुआ और यज्ञमें हिंसा करनेका उपदेश देता हुआ फिरने लगा । • यज्ञार्थ पशवः सृष्टः स्वयमेव स्वयंभुवा' आदि श्लोकका वह प्रचारक हुआ । आगे उसने राजा पुस्तके द्वारा एक बड़ा भारी यज्ञ कराया जिसका विध्वंस रावणने जाकर किया । For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितेषी [ भाग १३ पूरन कश्यपके विषयमें लिखा है कि यह एक म्लेच्छ स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न हुआ था। कश्यप इसका नाम था। इस जन्मसे पहले यह ९९ जन्म धारण कर चुका था । वर्तमान जन्ममें इसने शतजन्म पूर्ण किये थे, इस कारण इसको लोग 'पूरण-कश्यप' कहने लगे थे। इसके स्वामीने इसे द्वारपालक काम सोंपा था; परन्तु इसे वह पसन्द न आया और यह नगरसे भागकर एक वनमें रहने लगा । एव बार कुछ चोरोंने आकर इसके कपड़ेलत्ते छीन लिये, पर इसने कपड़ोंकी परवा न की, यह नग्न ही रह लगा। उसके बाद यह अपनेको पूरण कश्यप बुद्धके नामसे प्रकट करने लगा और कहने लगा कि मैं सर्वज्ञ हूँ । एक दिन जब यह नगरमें गया, तो लोग इसे वस्त्र देने लगे; परन्तु इसने इंकार कर दिया और कहा-" वस्त्र लज्जानिवारणके लिए पहने जाते हैं और लज्जा पापका फल है । मैं अर्हत हूँ, मैं समस्त पापोंसे मुक्त हूँ, अतएव मैं लज्जासे अतीत हूँ।” लोगोंने कश्यपकी उकिको ठीक मान ली और उन्होंने उसकी यथाविधि पूजा की। उनमें से ५०० मनुष्य उसके शिष्य हो गये । सारे जम्बू. द्वीपमें यह घोषित हो गया कि वह बुद्ध है और उसके बहुतसे शिष्य हैं; परन्तु बौद्ध कहते हैं कि वह अवीचिनामक नरकका निवासी हआ । सत्तपिटकके दीघनिकाय नामक भागके अन्तर्गत — सामनओ फलसुत्त ' में लिखा है कि पूरण कश्यप कहता था-' असत्कर्म करनेसे कोई पाप नहीं होता और सत्कर्म करनेसे कोई पुण्य नहीं होता ! किये हुए कर्मोंका फल भविष्यत्कालमें मिलता है, इसका कोई प्रमाण नहीं है ।' मस्करि गोशालका वर्णन श्वेताम्बर ग्रन्थों में विस्तारसे मिलता है । वे इसे मंखलि गोशाल कहते हैं ! श्वेताम्वरमुत्र ‘उवासकदसांग के मतसे वह श्रावस्तीके अन्तर्गत शरवणके समीप उत्पन्न हुआ था। उसके पिताको लोग 'मंखलि' कहा करते थे। पिता अपने हाथके चित्र दिखलाकर अपनी जीविका चलाता था। माताका नाम · भद्र।' था। एक दिन ये दोनों भ्रमण करते करते शरवणके निकट आये और कोई स्थान न मिलनेसे वर्षाके कारण एक ब्राह्मणकी गोशालामें जाकर ठहर गये । वहाँ भद्राने एक पुत्रको जन्म दिया और उसका नाम स्थानके नामके अनुसार गोशाला रक्खा गया। प्राप्तवयस्क होनेपर गोशाला भिक्षावृत्तिसे अपना निर्वाह करने लगा। इसी समय भगवान महावीरने भी ३० वर्षकी अवस्थामें जिनदीक्षा धारण की । ' मलिन्द-प्रश्न' नामक बौद्ध ग्रन्थमें लिखा है---" सम्राट मलिन्दने गोशालासे पूछा--"अच्छे बुरे कर्म हैं या नहीं? अच्छे बुरे कर्मों का फल भी मिलता है या नहीं ?" गोशालाने उत्तर दिया--" हे सम्राट, अच्छे बुरे कर्म भी नहीं हैं और उनके फल भी कुछ नहीं हैं । " बौद्ध कथाओंके अनुसार मंखलि गोशाल पर उसका मालिक एक गलतीके कारण बहुत ही अप्रसन्न हुआ था। जब उसने भागनेकी चेष्टा की तब मालिकने जोरसे उसके वस्त्र खींच लिये और वह नंगा ही भाग गया। इसके बाद वह साधु हो गया और अपनेको 'बुद्ध' कहके प्रसिद्ध करने लगा। उसके हजारों शिष्य हो गये । बौद्ध कहते हैं कि वह मरकर अवीचि नगरमें गया । उसके मतसे समस्त प्राणी विनाकारण ही अच्छे बुरे होते हैं। संसारमें शक्तिसामर्थ्य आदि पदार्थ नहीं हैं । जीव अपने अदृष्ट के प्रभावसे यहाँ वहाँ संचार करते हैं । उन्हें जो सुख दुख भोगना पड़ते हैं, वे सब उनके अदृष्ट पर निर्भर हैं । १४ लाख प्रधान जन्म, ५०० प्रकारके सम्पूर्ण और असम्पूर्ण कर्म, ६२ प्रकारके जीवनपथ, ८ प्रकारकी जन्मकी तहे, ४९०० प्रकारके कम, ४९०० भ्रमण करनेवाले संन्यासी, ३ हजार नरक और ८४ लाख काल हैं। इन कालोंके भीतर पण्डित और मूर्ख सबके कष्टोंका अन्त हो जाता है । ज्ञानी और पण्हित कर्मके हाथसे छुटकारा नहीं पा सकते। For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनसार-धिवेचना: जन्मकी गतिसे सुख और दुःखका परिवर्तन होता है। उनमें ह्रास और वृद्धि होती है। सिंहली भाषाके बौद्ध ग्रन्थोंके अनुसार इन दोनोंके अस्सी अस्सी हजार शिष्य थे । मंखलि गोशालके मतका नाम ' आजीवक ' था। इस आजीवक मतका उल्लेख अशोकके शिलालेखों में भी है। उपर्युक्त उल्लेखोंसे मस्करि और पूरण ये दो जुदे जुदे मतप्रवर्तक ही मालूम होते हैं। मालूम नहीं, दर्शनसारके कर्त्ताने इन दोनोंको एक क्यों मान लिया । इनके जो सिद्धान्त बतलाये हैं उनका भी मेल बौद्धादि ग्रन्थोंसे नहीं खाता है । अनेक जन्मोंका धारण करना ये दोनों ही मतवाले मानते हैं; परन्तु दर्शनसारमें इनका सिद्धान्त बतलाया है-पुनरागमनं भ्रमणं भवे भवे नास्ति जीवस्य। १६ आगे २४ वी गाथासे ४३ वीं तक द्राविड, यापनीय, काष्ठासंघ और माथुरसंघ इन चार संधोंकी उत्पत्ति बतलाई है। चारोंकी उत्पत्तिका समय इस प्रकार दिया है:----- द्राविड संघ .... ... ... ५२६ विक्रममृत्युसंवत् । यापनीय संघ.... ... ... ७०५ " " काष्टासंघ ... ... ... ७५३ " " माधुर संघ ... ... ... ९५३ " , अब यह देखना है कि उक्त समय कहाँतक ठीक हैं। सबसे पहले यह निश्चय करना चाहिए कि यह संवत् कौनसा है । बहुतोंका खयाल है कि वर्तमानमें जो विक्रम संवत् प्रचलित है, वह विक्रमके जन्मसे या राज्याभिषेकसे शुरू हुआ है; परन्तु हमारी समझमें यह मृत्युका ही संवत् है । इसके लिए एक प्रमाण लीजिए। सुभाषित-रत्नसंदोहको प्रशस्तिमें अमितगतिने लिखा है:- . . समारूढे पूतत्रिदशवसतिं विक्रम नृपे, सहस्रे वर्षाणां प्रभवति हि पश्चाशदधिके । समाप्तं पञ्चम्यामवति धरिणी मुअनृपतौ सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ॥ इसका अर्थ यह है कि विक्रमराजाके स्वर्गवास होनेके १०५० वर्ष बीतने पर राजा मुञ्जके राज्यमें यह शास्त्र समाप्त किया गया। इन्हीं अमितगतिने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ धर्मपरीक्षाके बननेका समय इस प्रकार लिखा है:-- संवत्सराणां विगते सहस्त्रे ससप्ततो विक्रम पार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समातं जैनेन्द्रधर्मामितयुक्तिशास्त्रम् ॥ अर्थात् विक्रमराजाके संवत्के १०७० वर्ष बीतने पर यह ग्रन्थ बनाया गया। इन दोनों श्लोकोंमें विक्रम संवत् ही बतलाया है, परन्तु पहलेमें 'विक्रमके स्वर्गवासका संवत् ' और दूसरेमें 'विक्रमराजाका संवत् ' इस तरह लिखा है और यह संभव नहीं कि एक ही ग्रन्थकर्ता अपने एक ग्रन्थमें तो मृत्युका संवत् लिखे और दूसरेमें जन्मका या राज्यका। और जब ये दोनों संवत् एक हैं, तब यह कहा जा सकता है कि विक्रमका संवत् या विक्रमसंवत् लिखनेसे भी उस समय विक्रमकी मृत्युके संवतका बोध होता था। अब रहा प्रश्न यह कि यदि उस समय जन्मका ही या राज्यका ही संवत् लिखा For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैनहितैषी [भाग १३ जाता रहा हो, केवल अमितगतिने ही मृत्युका संवत् लिखा हो, तो इसके विरुद्ध क्या प्रमाण है ! प्रमाण यह है कि राजा मुञ्जका समय सुनिश्चित है । अनेक शिलालेखोंसे और दानपत्रोंसे यह बात निश्चित हो चुकी है कि वे विक्रम संवत् १०३६ से १०७८ तक मालवदेशके राजा रहे हैं। १०३६ का उनका एक दानपत्र मिला है । उसके पहले भी वे कितने दिनोंतक राजा रहे, यह मालूम नहीं। १०७८ में कल्याणक राजा तैलिपदेवके द्वारा उनकी मृत्यु हुई थी और इसी वर्ष भोजका राज्याभिषेक हुआ था। अमितगतिने सुभाषितरत्नसंदोहके बननेका समय १०५० दिया है और उस समय मुन्न राज्य कर रहे थे, ऐसा लिखा है। अब यदि इस १०५० संवतको हम जन्मका संवत् बनावें, तो इसमें विक्रपकी उम्र जो ८० वर्ष कही जाती है जोड़नी चाहिए । अर्थात ११३० संवतक लगभग यह समय पहुँच जायगा; अथवा राज्याभिषेकका संवत् बनावें और अनुमानतः आभषेकके समयकी अवस्था २० वर्ष मान लें, और इसलिए ( ८०-२०-६० ) साठ वर्ष जोड़ें तो १११० के लगभग पहुँच जायगा। परन्तु इस समयतक मुञ्जके रहनेका कोई प्रमाण नहीं है। मुंजके उत्तराधिकारी भोजकी मृत्यु सं० १११२ के पूर्व हो चुकी थी और १११५ में उदयादित्यको सिंहासन मिल चुका था। इससे सिद्ध है कि विक्रमका वर्तमान संवत् उसकी मृत्युका ही संवत् है और दर्शनसारमें जो संवत् दिया गया है उसको और प्रचलित विक्रम संवतको एक ही समझना चाहिए। - इस विषयमें यह बात भी ध्यानमें रखने योग्य है कि संवत् एक स्मतिका चिह्न या यादगार है। इसका चलना मृत्युके बाद ही संभव है। जो बहुत प्रतापी और महान होता है उसको ही साधारण जनता इस प्रकारके उपायोंसे अमर बनाती है । सर्व साधारणके द्वारा राज्याभिषेकका संवत् नहीं चल सकता । क्योंकि सिंहासन पर बैठते ही यह नहीं मालूम हो सकता कि यह राजा अच्छा होगा। कोई कोई राजा लोग अवश्य ही अपने दानपत्रादिमें अपने राज्यका संवत् लिखा करते थे; परन्तु वह उन्हीं के जीवन तक चलता था । इसी तरह जन्मका संवत् भी नहीं चल सकता ।भगवान् महावीर, ईसा, मुहम्मद आदि सबके संवत् मृत्युके ही हैं । अब सब संघोंके समयकी जाँच की जानी चाहिए। सबसे पहले द्राविड संघको लीजिए। इसकी उत्पत्तिका समय है वि० संवत् ५२६ । इसका उत्पादक बतलाया गया हैं आचार्य पूज्यपादका शिष्य वज्रनन्दि । दक्षिण और कर्नाटकके प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो० के. बी. पाठकने किसी कनडी ग्रन्थके आधारसे मालूम किया है कि पूज्यपाद स्वामी दुर्विनीत नामके राजाके समयमें हुए हैं । दुर्विनीत उनका शिष्य था। दुर्विनीतने विक्रम संवत् ५३५ से ५७० तक राज्य किया है। वज्रनन्दि यद्यपि पूज्यपादका शिष्य था; फिर भी संभव है कि उसने उन्हींके समयमें अपना संघ स्थापित कर लिया हो । ऐसी दशामें ५२६ के लगभग उसके द्वारा द्राविडसंघकी उत्पत्ति होना ठीक जान पड़ता है। __इसके बाद यापनीय संघके समयका विचार कीजिए । हमारे पास जो तीन प्रतियाँ हैं, उनमें से दोके पाठोंसे तो इसकी उत्पत्तिका समय वि० सं० ७०५ मालूम होता है और तीसरी ग प्रतिके पाठसे वि० सं० २०५ ठहरता है । यद्यपि यह तीसरी प्रति बहुत ही अशुद्ध है, परन्तु ७०५ से बहुत पहले यापनीय संघ हो चुका था, इस कारण इसके पाठको ठीक मान लेनेको जी For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनसार-विवेचना। २७१ चाहता है । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हरिभद्र नामके एक बहुत प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं । विक्रम संवत् ५८५ में उनका स्वर्गवास हुआ है और उन्होंने अपनी 'ललितविस्तरा टीका' में यापनीय तंत्रका स्पष्ट उल्लेख किया है। इससे मालूम होता है कि ५८५ से बहुत पहले यापनीय संघका प्रादुर्भाव हो चुका था। इसके सिवाय रायल एशियाटिक सुसाइटी बाम्बे बेंचके जरनल की जिल्द १२(सन् १८७६)में कदम्बवंशी राजाओंके तीन दानपत्र प्रकाशित हुए हैं, जिनमेंसे तीसरेमें अश्वमेध यज्ञके हगनेवाले महाराज कृष्णवर्माके पुत्र देववर्माके द्वारा यापनीय संघके अधिपतिको मन्दिरके लिए कुछ जमीन वगैरह दान की जानेका उल्लेख है । चेरा-दानपत्रोंमें भी इसी कृष्णवर्माका उल्लेख है और उसका समय वि० संवत् ५२३ के पहले है । अतएव ऐसी दशामें यापनीय संघकी उत्पत्तिका समय आठवीं नहीं किन्तु छट्ठी शतब्दिके पहले समझना चाहिए । आश्चर्य नहीं जो ग प्रतिका २०५ संवत् ही ठीक हो । दर्शनसारकी अन्य दो चार प्रतियोंके पाठ देखनेसे इसका निश्चय हो जायगा। काष्ठासंघका समय विक्रम संवत् ७५३ बतलाया है; परन्तु यदि काष्ठासंघका स्थापक जिनसेनके सतीर्थ विनयसेनका शिष्य कुमारसेन ही है, जैसा कि ३०-३३ गाथाओंमें बतलाया है, तो अवश्य ही यह समय ठीक नहीं है । गुणभद्रस्वामीकी मृत्युके पश्चात् कुमारसेनने काष्ठासंघको स्थापित किया है और गुणभद्रस्वामीने महापुराण शक संवत् ८२० अर्थात् विक्रम संवत् ९५५ में समाप्त किया है। यदि इसी समय उनकी मृत्यु मान ली जाय, तो भी काष्ठासंघकी उत्पत्ति विक्रम संवत् ९५५ के लगभग माननी चाहिए; पर दर्शनसारके कर्ता ७५३ बतलाते हैं। ऐसी दशामें या तो यह मानना चाहिए कि गुणभद्रस्वामीके समसामयिक कुमारसेनके सिवाय कोई दूसरे ही कुमार सेन रहे होंगे, जिनका समय ७५३ के लगभग होगा, और जिनके नामसाम्यक कारण विनयसेनके शिष्य कुमारसेनको दर्शनसारके कर्त्ताने काष्ठासंघका स्थापक समझ लिया होगा, और या काष्ठासंघकी उत्पत्तिका यह समय ही ठीक नहीं है । अब रहा माथुरसंघ; सो इसे काष्ठासंघसे २०० वर्ष पीछे अर्थात् विक्रम संवत् ९५३ में हुआ बतलाया है; परन्तु इसमें सबसे बड़ा सन्देह तो यह है कि जब दर्शनसार संवत् ९०९ में बना है, जैसा कि इसकी ५० वीं गाथासे मालूम होता है तब उसमें आगे ४४ वर्ष बाद होनेवाले संघका उल्लेख कैसे किया गया । यदि यह कहा जाय कि दर्शनसारके बननेका जो संवत् है वह शक संवत् होगा, अर्थात् वह विक्रम संवत् १०४४ में बना होगा; परन्तु इसके विरुद्ध दो बातें कहीं जा सकती हैं । एक तो यह कि जब सारे ग्रन्थमें विक्रम संवत्का उल्लेख किया गया है, तब केवल अन्तकी गाथामें शक संवत् लिखा होगा, इस बातको माननेकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती, दूसरी यह कि धारानगरी मालवेमें हैं । मालवेका प्रधान संवत् विक्रम है । उस ओर शक संवतके लिखनेकी पद्धति नहीं है । इसके सिवाय ऐसा मालूम होता है कि माथुरसंघ सं० ९५३ से पहले ही स्थापित हो गया होगा। आचार्य आमितगति माथुर संघमें ही हुए हैं। उन्होंने विक्रम संवत् १०५० में 'सुभाषितरत्नसन्दोह ग्रन्थ रचा है । उन्होंने अपनी जो गुरुपरम्परा दी है, वह इस प्रकार है:- १ वीरसेन, २ देवसेन, ३ अमितगति ( प्रथम ), ४ नेमिषेण, ५ माधवसेन और ६ आमितगति । यदि यह माना जाय कि अमितगति १०५० के लगभग आचार्य हुए होंगे और उनसे पहलेके पाँच आचार्योंका समय केवल बीस ही बीस वर्ष मान लिया जाय, तो वीरसेन आचार्यका समय वि० संवत् ९५० For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैनहितेषी [भाग १३ के लगभग प्रारंभ होगा । परन्तु वीरसेन माथुरसंघके पहले आचार्य नहीं थे। उसके पहले और भी कुछ आचार्य हुए होंगे। यदि रामसेन इनसे दो तीन पीढ़ी ही पहले हुए हों तो उनका समय विक्रमकी नवीं शताब्दिका उत्तरार्ध ठहरेगा । गरज यह कि काष्ठासंघ और माथुरसंघ इन दोनों ही संघोंकी उत्पत्तिके समयमें भूल है । इन सब संघोंकी उत्पतिके समयकी संगति बिठानेका हमने बहुत ही प्रयत्न किया है, परिश्रम भी इस विषयमें खूब किया है; परन्तु सफलता नहीं हुई। १८ इन चार संघोंमेंसे इस समय केवल काष्ठासंघका ही नाम मात्रको आस्तित्व रह गया है--क्योंकि इस समय भी एक दो भट्टारक ऐसे हैं जो चमरकी पिच्छी रखते हैं और अपनेको काष्ठासंघी प्रकट करते हैं, शेष तीन संघोंक। सर्वथा लोप समझना चाहिए । माथुरसंघको इस ग्रन्थमें जुदा बतलाया है; परन्तु कई जगह इसे काष्ठासंघकी ही एक शाखा माना है। इस संघकी चार शाखाओंमेंसे-जो नगरों या प्रान्तोंके नामसे हैं-यह भी एक है । यथा:--- काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति वृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥१ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो बागड़ाभिधः । लाड़बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥२ अलग बतलानेका कारण यह मालूम होता है कि माथुरसंघमें साधुके लिए पिच्छि रखनेका विधान नहीं है और काष्ठासंघमें गोपुच्छकी पिच्छि रखते हैं । इसी कारण काष्ठासंघको · गोपुच्छक' और माथुरसंघको 'निःपिच्छिक ' भी कहते हैं । इन दोनोंमें और भी दो एक बातोंमें भेद होगा । काष्ठासंघका कोई भी यत्याचार या श्रावकाचार उपलब्ध नहीं है, इसलिए उसमें मूलसंघसे क्या अन्तर है, इसका निर्णय नहीं हो सकता; परन्तु माथुरसंघका अमितगति श्रावकाचार मिलता है । उससे तो मूलसंघके श्रावकाचारोंसे कोई ऐसा मतभेद नहीं है जिससे वह जैनाभास कहा जाय । जान पड़ता है केवल नि:पिच्छिक होनेसे ही वह जनाभास समझा गया है। काष्ठासंघके विशेष सिद्धान्त ३५ वीं गाथामें बतलाये गये हैं; परन्तु उनमेंसे केवल दो ही स्पष्ट होते हैं-एक तो कड़े बालोंकी या गायकी पूछके बालोंकी पिच्छी रखना और दूसरा क्षुल्लक लोगोंको वीरचर्या अर्थात् स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करना । पं० आशाधरने क्षुल्लकोंके लिए इसका निषेध किया है । शेष दो बातें अस्पष्ट हैं, उनका अभिप्राय समझमें नहीं आता। एक तो ' इत्थीणं पुणदिक्खा' अर्थात् स्त्रियोंको पुनः दीक्षा देना और दूसरी यह कि ' हा गुणवत' मानना । गुणवत तो तीन ही माने गये हैं, यदि यह कहा जाता कि चौथा गुणव्रत उसने और माना, तो ठीक भी होता, पर इसमें छठा गुणवत माननेको कहा है। क प्रतिकी टिप्पणीमें लिखा है कि रात्रिभोजनत्याग नामक छट्रे व्रतका विधान किया, पर यह भी अस्पष्ट है । इसके सिवाय यह भी लिखा है कि कुमारसेनने आगम, शास्त्र, पुराण प्रायश्चित्तादि ग्रन्थ जुदे बनाये और अन्यथा बनाये । द्राविड़ संघको 'द्रमिल संघ' भी कहते हैं । पुन्नाट संघ भी शायद इसीका नामान्तर है। हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन इसी पुन्नाट संघमें हुए हैं । नाट शब्दका अर्थ कर्णाट देश है, For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] दर्शनसार-विवेचना। : २७३ इस लिए पुनाट ' का अर्थ द्रविड़ देश होगा, ऐसा जान पड़ता है। हरिवंशपुराणके प्रारममें पूज्यपादस्वामीके बाद वज्रनन्दिकी भी इस प्रकार स्तुति की गई है: वज्रसूरेविचारण्यः सहेत्वोर्बन्धमोक्षयोः। प्रमाणां धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ॥ ३२ ॥ इसमें आचार्य वज्रनन्दिके किसी ग्रन्थको जिसमें बन्धमोक्षका सहेतुक वर्णन है, धर्मशास्त्रोंके वक्ता गणधरोंकी वाणीके समान प्रमाणभूत माना है । ये वज्रनन्दि पूज्यपादके शिष्य ही हैं जिन्हें देवसेनसूरिने द्राविड संघका उत्पादक बतलाया है । हरिवंशके कर्ता उन्हें गणधरके समान प्रमाणभूत मानते हैं, इसीसे मालूम होता है कि वे स्वयं द्राविड संघी थे। विद्यविश्वेश्वर श्रीपालदेव, वैयाकरण दयापाल, मतिसागर, स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरि आदि बड़े बड़े विद्वान् इस संघमें हुए है। हरिवंशपुराणके कर्ताने अपने पूर्वके आचायाँकी एक लम्बी नामावली दी है जिसमें कई बड़े बड़े विद्वान् जान पड़ते हैं। इस संघमें भी कई गण और गच्छ हैं । ' नन्दि' नामक अन्वयका, 'अरुङ्गल,' 'एरोगित्तर ' इन दो गणोंका और 'मूलितल्' नामक गच्छका यत्र तत्र उल्लेख मिलता है। मूलसंघके साथ इसका किन किन बातोंमें विरोध है, इसका उल्लेख २७-२८ गाथाओंमें किया गया है । परन्तु इस संघके आचारसम्बन्धी ग्रन्थोंका परिचय न होनेसे कई बातोंका अर्थ स्पष्ट समझमें नहीं आता । ग्रन्थकर्ताने उन्हें कहा भी बहुत अस्पष्ट शब्दोंमें है। लिखा है वह बीजोंमें जीव नहीं मानता और यह भी लिखा है कि वह प्रासुक नहीं मानता। बीजोंमें जीव नहीं मानता, इसका अर्थ ही यह है कि वह बीजोंको प्रासुक मानता है । वह सावद्य भी नहीं मानता । सावद्यका अर्थ पाप होता है, पर 'पाप' कुछ होता ही नहीं है, ऐसा कोई जैनसंघ नहीं मान सकता। गृहकल्पित अर्थको नहीं गिनता, इसका अभिप्राय बहुत ही अस्पष्ट है । २५ वीं गाथामें यापनीय संघका उल्लेख मात्र है, परन्तु उसके सिद्धान्त वगैरह बिलकुल नहीं बतलाये हैं। जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्ताको इस संघके सिद्धान्तोंका परिचय नहीं था। श्वेताम्बरसम्प्रदायमें श्रीकलश नामके आचार्य कोई हुए हैं या नहीं, जिन्होंने यापीय संघकी स्थापना की, पता नहीं लगा। अन्य ग्रन्थोंसे पता चलता है कि इस संघके साधु नग्न रहते थे; परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायको जो दो बातें मान्य नहीं हैं एक तो स्त्रीमुक्ति और दूसरी केवलिभुक्ति, उन्हें यह मानता शं । श्वेताम्बर सम्प्रदायके आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, आदि ग्रन्थोंको भी शायद वह मानता था, ऐसा शाकटायनकी अमोघ वृत्तिके कुछ उदाहरणोंसे मालूम होता है । आचार्य शाकटायन या पाल्यकीर्ति इसी संघके आचार्य थे। उन्होंने 'स्त्रीमुक्ति-केवलिभुक्तिसिद्धि' नामका एक ग्रन्थ बनाया था, जो अभी पाटणके एक भाण्डारमें उपलब्ध हुआ है । यापनीयको ' गोप्य ' संघ भी कहते हैं । आचार्य हरिभद्रकत षट्दर्शनसमुच्चयकी गुणरत्नकृत टीकाके चौथे अध्यायकी प्रस्तावनामें दिगम्बर सम्प्रदायके ( द्रविड संघको छोड़कर ) संघोंका इस प्रकार परिचय दिया है: “ दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिङ्गः पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा, काष्ठासंघ-मूलसंघगाथुरसंघ-गोप्यसंघभेदात् । काष्ठासंघे चमरीबालैः पिच्छिका, मूलसंघे मायूरपिच्छैः पिच्छिका, माथुरसंघे मूलतोऽपि पिच्छिका नाहताः, गोप्या मयूरपिच्चिकाः। आधा For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैनहितैषी - [ भाग १३ । स्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति । स्त्रीणां मुक्तिं केवलिनां भुक्ति सहतस्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते । गोप्यास्तु बन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति । स्त्रीणां मुक्ति केवलिनां भुक्तिं च मन्यन्ते । गोप्या यापनीय इत्यप्युच्यन्ते । सर्वेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्जनीयाः । शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वं श्वेताम्बरैस्तुल्यम् । नास्ति तेषां मिथः शास्त्रेषु तर्केषु परो भेदः । " 1 तथा अर्थात् “ दिगम्बर नग्न रहते हैं और हाथमें भोजन करते हैं । इनके चार भेद हैं । काष्ठासंघ, मूलसंघ, माथुर, गोप्य । इनमेंसे काष्ठासंघके साधु चमरीके बालोंकी और मूलसंघ तथा यापनीय संघके साधु मोरके पंखोंकी पिच्छिका रखते हैं; पर माथुरसंघके साधु पिच्छिका बिलकुल ही नहीं रखते हैं। पहले तीन बन्दना करनेवालेको ' धर्मवृद्धि ' देते हैं और स्त्रीमुक्ति, केवलिमुक्ति, वस्त्रसहित मुनिको मुक्ति नहीं मानते हैं । गोप्यसंघवाले ' धर्मलाभ ' कहते हैं और स्त्रीमुक्ति केवलि - भुक्तिको मानते हैं । गोप्य संघको यापनीय भी कहते हैं। चारों ही संघके साधु भिक्षाटन में और भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोंको टालते हैं । इसके सिवाय शेष आचारमें तथा देवगुरुके विषयमें ये सत्र श्वेताम्बरोंके ही तुल्य हैं । उनमें शास्त्रमें और तर्क में परस्पर और कोई भेद नहीं है । ” इस उल्लेखसे यापनीय संघ के विषय में कई बातें मालूम हो जाती हैं और दूसरे संघों में भी जो भेद हैं उनका पता लग जाता है। । इस विषय में हम इतना और कह देना चाहते हैं कि यापनीयको छोड़कर शेष तीन संघोंका मूल संघ से इतना पार्थक्य नहीं है कि वे जैनाभास बतला दिये जायँ, अथवा उनके प्रवर्तकों को दुष्ट, महामोह, जैसे विशेषण दिये जायँ । ग्रन्थकर्त्ताने इस विषय में बहुत ही अनुदारता प्रकट की है । १८ गाथा ४३ वीं से मालूम होता है कि कुंदकुंदस्वामी के विषय में जो यह किंवदन्ती प्रसिद्ध है कि वे विदेहक्षेत्रको गये थे और वहाँके वर्तमान तीर्थंकर सीमंधर स्वामी के समवसरण में जाकर उन्होंने अपनी शंकाओंका समाधान किया था सो विक्रमकी नौवीं दशवीं शताब्दिमें भी सत्य मानी जाती थी । अर्थात् यह किंवदन्ती बहुत पुरानी है । इसीकी देखादेखी लोगोंने पूज्यपाद के विषय में भी एक ऐसी ही कथा गढ़ली है । १९ गाथा ४५-४६ में ग्रन्थकर्ताने एक भविष्यवाणी की हैं। कहा है कि विक्रमके १८०० बीतने पर श्रवणवे गुलके पासके एक गाँव में वरिचन्द्र नामका मुनि भिल्लक नामके संघको चलायेगा | मालूम नहीं, इस भविष्यद्वाणीका आधार क्या है । कमसे भगवानकी कही हुई तो यह मालूम नहीं होती । क्योंकि इस घटना के समयको बीते १७४ वर्ष बीत चुके; पर न तो कोई इस प्रकारका वीरचन्द नामका साधु हुआ और न उसने कोई संघ ही चलाया । ग्रंथकर्ताकी यह खुदकी ही ' ईजाद ' मालूम होती है । हमारी समझ में इसमें कोई तथ्य नहीं है । इस प्रकारकी भविष्यवाणियों पर विश्वास करनेके अब दिन नहीं रहे । अन्य किसी प्रामाणिक ग्रंथ में भी इस संघके होने का उल्लेख नहीं पाया जाता । २० आगे ४८ वीं गाथा में भी एक भविष्यवाणी कहीं हैं। पंचमकालके अंत में वीरांगज नामक एक मूलगुणों का धारण करनेवाला मुनि होगा जो भगवान् महावरि के समान लोगोंको उपदेश देगा । त्रैलोक्यसार में भी इस बातका उल्लेख किया है । यथा:-- For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क५-६] दर्शनसार-विवेचना। इपि पडिसहस्सवस्सं वीसे कक्कीण दिक्कमे चरिमो। जलमंथणो भविस्सदि कक्की सम्मगमंथणओ ॥ ८४७॥ इह इंदरायसिस्सो वीरंगदसाहु चरिम सम्वसिरी । अज्जा अग्गिल सावय वर साविय पंगुसेणावि ॥ ८४८॥ पंचमचरिमे पक्खउ मास तिवासावसेसए तेण । मुणि पढमपिंडगहणे संणसणं करिय दिवस तियं ॥ ८४९॥ सोहंम्मे जायंते कतिय अमावासि सादि पुव्वण्हे । इगि जलहि ठिदी मुणिणो सेसतिये साहियं पल्लं ॥ ८५० ॥ तव्वासरस्स आदी मझते धम्म-राय-अग्गीणं । णासो तत्तो मणुसा णग्गा मच्छादिआहारा ॥ ८५१ ॥ अर्थ-" इस तरह प्रत्येक सहस्र वर्षमें एक एकके हिसाबसे बीस कल्कि होंगे। १९ कल्कि हो चुकने पर (पंचमकालके अन्तमें ) 'जलमंथन' नामका अन्तिम कल्कि सन्मार्गको मंथन करनेबाला होगा । उस समय इन्द्रराजके शिष्य वीरांगज नामके मुनि, सर्वश्री नामकी अर्जिका, अर्गल नामका श्रावक और पंगुसेना नामकी श्राविका ये चार जीव जैनधर्मके धारण करनेवाले बचेंगे । पंचमकालके अन्तिम महीनेके अन्तिम पक्षमें जब तीन दिन बाकी रह जायेंगे, तब मुनि श्रावकके यहाँ भोजन करने जायेंगे और ज्यों ही पहला कौर लेंगे, त्योंही कल्कि उसको छीन लेगा। इससे वे तीन दिनका संन्यास धारण करके कार्तिककी अमावास्याके पहले प्रहरके प्रारंभमें मृत्युको प्राप्त होकर सौधर्म स्वर्गमें एक सागर आयुवाले देव होंगे। आर्यिका, श्राविका और श्रावक भी सौधर्म स्वर्गमें कुछ अधिक एक पल्यकी आयु पावेंगे। इसके बाद उसी दिनके आदिमें, मध्यमें और अन्तमें क्रमसे धर्मका, राजाका और अग्निका नाश हो जायगा और लोग नंगे तथा कच्ची मछली आदिके खानेवाले हो जायँगे।" मालूम नहीं, इस भविष्यवाणीमें सत्यका अंश कितना है। आजकलकी श्रद्धाहीन बुद्धिमें ऐसी बातें नहीं आ सकतीं कि अग्नि जैसे पदार्थका भी संसारमेंसे या किसी क्षेत्रमेंसे अभाव हो सकता है। पर इन बातों पर विचार करनेका यह स्थल नहीं है। इस ग्रन्थके सम्पादनमें और विवेचन लिखनेमें शक्तिभर परिश्रम किया गया है; फिर मी साधनोंके अमावसे इसमें अनेक त्रुटियाँ रह गई हैं। प्रमादवश भी इसमें अनेक दोष रह गये होंगे । उन सबके लिए मैं पाठकोंसे क्षमा चाहता हुआ इस विवेचनाको समाप्त करता हूँ। यदि कोई सज्जन इसकी त्रुटियोंके सम्बन्धमें सूचनायें भेजेंगे, तो मैं उनका बहुत ही कृतज्ञ होऊँगा। चन्दाबाडी, बम्बई. श्रावण शुक्ल ४ सं० १९७४ बि. नाथूराम प्रेमी। ११-१२ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनहितैषी [भाग १३ श्रद्धा उठ गई। कि यह विकल होना भी कुछ महत्त्व रखता है या नहीं । विचार करनेसे इस भयानक आवाजको उतना भी महत्त्व नहीं दिया जा सकता, जितना (ले०--ब्र० भगवानदीनजी 1) एक बड़े प्रेमी पतिकी अपनी प्यारी पत्नीके विधवा श्रद्धा उठ गईकी गूंज इतनी मुद्दतसे और हो जानेकी खबर सुनकर विकल होनेकी बात "इस जोरशोरसे होती आ रही है कि सुनते पर दिया जाता है । यद्यपि समाज उटकर चली सुबते तबीयत ऊब गई है और कानकी झिल्लियाँ जानेवाली श्रद्धाके पीछे सिर पर पैर रख कर दौड़ा कमजोर हुई जाती हैं । पर जान पड़ता है कि जा रहा है; परन्तु जब आदमी कान न टटोलकर यह कभी बन्द होनेवाली नहीं । जबतक संसार कान ले जानेवाले कौएके पीछे दौड़ सकता है, है और मनुष्योंमें समझनेकी शक्ति है, तबतक यह तब समाजकी दौड़ धूपसे हमें क्यों आश्चर्यगँज जारी ही रहेगी। इतिहासके पृष्ठके पृष्ठ इस युक्त होना चाहिए ? इस दौड़नवाले और शोर 'श्रद्धा उठ गई' की कथाओंसे भरे हुए हैं। मचानेवाले समाजको यह भी तो मालूम नहीं है लोग यह चिल्लाते ही रहेंगे कि उठ गई; परन्तु कि हम कहाँ दौड़े जा रहे हैं, क्यों दौड़े जा रहे वह बैठी ही रहेगी ! यदि उठ गई होती तो शोर हैं और यह शोर क्यों मच रहा है । यह कोई बन्द हो गया होता; परन्तु ऐसा न कभी हुआ कल्पना, गढन्त या दिल्लगी नहीं है कि इस समा. और न होगा। यह आवाज अकेले जैन धर्मावला- जके अधिकांश लोगोंने समझ रखा है कि म्बियोंमें ही नहीं प्रत्येक धर्मके लोगोंमें सदासे श्रद्धा एक गठरी है, वह किसी श्रावककी थी; सुनी जाती रही है और आगे भी सुनी जाती उसको कोई चोर ले गया है और हम उसीकी रहेगी । यति, मुनि, पण्डित, मुल्ला, गुरु- खोजमें भागे जा रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं, साहब और पादरी सबको ही यह शोर मचाते नहीं जी, श्रद्धा छानको कहते हैं और वह रहना होगा । जब यह बात है तब सम्भव है यही उन्नतिका मंत्र हो । इसहीं में आपके पास उठाकर छत पर रख दी गई है । यह शोर क्या प्रमाण है, कि मर्गके बिना बाँग दिये भी उसाक लिए है । जब धर्मकी सभी बात अचरसूर्य निकल सकता है ? आप सर्वज्ञ तो हैं ही जोसे भरी होती हैं, तब यह भी साधारण क्यों हो! नहीं । इस बातकी नियमानुसार खोज भी कब एक समय था, जब मुसलमान लोग काफिकी गई है । कभी समवसरणसभामें भी तो यह रोंके पीछे इसी प्रकार दौड़ा करते थे। जहाँ प्रश्न उपस्थित नहीं किया गया । वास्तवमें यह यह खबर उड़ी कि काफिर आ गया, बस प्रश्न बड़े महत्त्वका है। इसे आप फुर्सतके वक्त फिर क्या था, लोग लाठी ले लेकर घरोंमेंसे विचारिए । यदि यह उन्नतिका मंत्र न होता तो निकल पड़ते थे और जिस पर उनके नेताने बड़े बड़े विद्वान् इसमें कदापि सम्मिलित न होते। हाथ उठा दिया उसी पर उनकी लाठियाँ चलने कुछ भी हो, समय युक्तियोंका है, गहरी खोजोंके लगती थीं । काफिरका पीछा करते समय यदि करनेका है, इस लिए हमको अपने लेखमें इन कोई उनसे पूछ बैठता था कि भाई काफिर क्या दोनों बातोंको एकत्र करना होगा, तभी लोग बला है, तो अपनी अपनी बुद्धिके अनुसार कोई हमारी बातको मानेंगे। उसको भूत बतलाकर, कोई शेर, शैतान आदि समाज इस आवाजको सुनकर बहुत ही विकल कहकर प्रश्नकर्ताका समाधान कर देते थे। हो रहा है । इसलिए पहले हम यह तो देख लें काफिरका साक्षात् हो जाने पर भी वे अपने For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ श्रद्धा उठ गई। २७७ सहधर्मियोंके सामने उसका बड़ा मयंकर पं0--दिगम्बरजैनधर्मसे। स्वरूप उपस्थित करते थे । क्या अचरज, जो हम-कौनसे दि० जैनधर्मसे । पक्षपातपूर्ण मनुष्योंको वास्तवमें ऐसा ही दीख पं०--तेरहपंथसे । पड़ता हो । साधारण गतानुगतिक जनता इसके हम- शुद्ध तेरहपंथसे या विशुद्धसे ? सिवाय धर्मकी गाढ़ श्रद्धाका और परिचय ही पं०-शुद्ध विशुद्ध क्या होता है ? क्या दे सकती है, और परमनिःस्वार्थी भग- हम-शद्ध तो वह, जिसमें भगवानकी प्रति-- वान् तीर्थंकरोंके गाढे भक्त बननेवाले समाजकै माका ही अभिषेक करनेकी आज्ञा है । अदरदर्शी नेताओंने उन बेचारोंके हाथम झाँझ पं०-और विशद्ध ? मैंजीरा पकड़ाकर रातभर 'मोहे तारो साँव हम--विशुद्ध वह, कि जिसमें प्रतिमाका स्नान लिया तारो, मेरे गुण अवगुण न विचारो' न कराके एक दूसरे पात्रमें जलधारा छोड़नेकी की धुनमें बिता देनेके सिवाय और सिख विधि है। या ही क्या है ? सोच समझकर कोई ' धर्मका काम करनेकी तो मानों प्रतिज्ञा दिला पं0---अजी इससे क्या मतलब ? श्रद्धा उठ रक्खी है । ऐसी दशामें क्या वे यह पूछकर गई धर्मसे ! धर्मसे ! धर्मसे ! कि श्रद्धा क्या चीज है, अपनी प्रतिज्ञा तोड हम--पं० जी, क्षमा कीजिए, आपकी बातका डालें और आखडी-भंगके पापसे करे कराये मतलब समझमें नहीं आया। पुण्यकार्यों पर पानी फेर दें। ___पं०-अजीक्यों चालें चलते हो। मैं तुम्हें पहपरन्तु पढ़ी-लिखी जनताको तो इस हुल्लड़का चानता हू। तुम उन्हाक साथी हो । तुम धर्मको साथ नहीं देना था, वह तो कुछ बुद्धि रखती डुबाकर रहोगे, विधवाविवाह चलाकर रहोगे, जाति पाँति मिटाकर रहोगे, जाओ मेरे सामनेसे है, उसे तो कुछ पूछताछ करनी थी-किसकी ' हट जाओ । तुम सर्वज्ञवचनोंके सामने मुँह श्रद्धा उठ गई, कैसे उठ गई, वह पागल तो नहीं खोलनेके योग्य हो गये ? जो भगवान तुम्हें हो गया, आदि; परन्तु पढ़ी-लिखी जनता तो खाना देते रहे हैं, उन्हींका धर्म बिगाड़ोगे ? यदि मूर्ख जनतासे भी शायद पीछे है, वह न हुल्लड़के कोई होता जैन राजा तो तुम्हारी जीभ निकइधर है और उधर । लवा ली जाती। अब रह गये, हम जैसे झक्की और पीछे ही हमने ऊपर जो कुछ लिखा है, उसमें जरा पड़ गये कि पण्डितजी, बताइए तो सही कि भी अत्युक्ति नहीं है। लोगोंने जराजरासी विचारकिसकी श्रद्धा उठ गई ? स्वाधीनता, क्रियास्वाधीनता और प्रश्नस्वाधीपण्डितजी-देवदत्तकी। नताका नाम नास्तिकता और श्रद्धान उठ जाना हम-किस चीजसे! रख छोड़ा है और उसीका यह शोर-शराबा मचा हुआ है। यद्यपि शोर मचानेवाले स्वयं ही पं०-धर्मसे। वैसे विचार करते, क्रिया करते, और प्रश्न भी हम-किस धर्मसे ? करते हैं, परन्तु उन्होंने अपनी रक्षाका एक पं०-जैनधर्मसे । और ही उपाय सोच रक्खा है। वे स्वयं भी उसी इम-किस जैनधर्मसे ? शोरमें शामिल हो जाते हैं । उदाहरण लीजिए। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैनहितैषी - कुछ पण्डित महाशयोंने यह चर्चा उपस्थित की थी कि - हरी काटने, छेदने, उबालने, पीसने आदि अचित्त हो जाती है । अतएव भुने या उबले हुए आलू, सूखी सोंठ और हल्दी आदिके खाने में कोई दोष नहीं है । यद्यपि यह चर्चा शास्त्रानुसार की गई थी, बड़े बड़े ग्रन्थोंके प्रमाण दिये गये थे और कोई इस बातका खण्डन भी नहीं कर सका था; फिर भी लोगोंने हुल्लड़ मचाया था । यह हुल्लड़ बहुत बड़ा । एक सुप्रसिद्ध पण्डितजी - जो इस चर्चा के अगुओंमें थे- कुछ सोच समझकर और अपनेको मुकाबलेके योग्य न पाकर स्वयं ही इस हुल्लड़ में शामिल हो गये । उन्होंने अपनी सरंक्षकतामें चलनेवाली संस्थामें तुरन्त ही एक नियम बना दिया कि उसके रसोईघरमें ( बाहर कोई हर्ज नहीं और नदी के किनारे तो बिलकुल हर्ज नहीं ) आलू न बनने पावें । विषस्य विषमौषधम् । शोरकी दवा शोर । यह शोर शान्त हो गया और इस तरह एक संस्था से श्रद्धा उठती उठती रह गई । इस तरह बीसों उदाहरण दिये जा सकते हैं; परन्तु उनके लिए इस लेखमें स्थान नहीं । 1 यह ८ आओ, अब खोज करें कि वास्तवमें श्रद्धा उठ गई' का लड़ उठता कहाँसे है । भोले भाले अपढ़ लोग तो केवल अनुकरण करना जानते हैं । वे बुरी से बुरी बात को भी धर्म समझ बैठते हैं । आप शास्त्रकी गद्दी पर बैठकर उन्हें चाहे जो समझा दीजिए । हाँ, रूढियों के विरुद्ध कहनेके लिए सर्वज्ञ भगवान् भी आ जावें, तो भी वे उनकी बात न मानेंगे। साथ ही जिन पर उनकी श्रद्धा है और जो समाजमें बड़े आदमी समझे जाते हैं, यदि वे किसी रूढीको तोड़ डालें तो फिर उन्हें रोक भी नहीं सकते । अर्थात् वे तो केवल मेशीन हैं नकी कल साधारणतः उनके तंग करनेवालों । [ भाग १३ के ही हाथमें है । अतः सोतेका स्थान यहाँ नहीं, उसकी खोज किसी दूसरी ओर ही करनी होगी। नदी, तालाब, कुएँ आदिमें इसका पता नहीं चलेगा । इन पहाड़ों को देखिए । इन्होंने कितने बड़े बड़े पत्थर अपने चारों ओर इकट्ठे कर रक्खें हैं जिनके बीचमें इतना अन्तर है कि पानीक तो बात ही क्या हम लोग भी घुस सकते हैं। वर्षाका पानी भी ये हजम कर जाते हैं । बस, हुलड़का सोता आपको यहीं मिलेगा। अच्छा तो अब पता लगाओ कि बड़े बड़े ग्रन्थोंको उनका भाव समझे विना रट जानेवाले और समाजकी शिक्षाका कार्य अपने हाथ में ले रखनेवाले कौन कौन हैं। उनकी भी खोज करो जो अयोग्य होते हुए भी बड़े बड़े पद पा चुके हैं और शायद इसी लिए समाजकी बागडोर उनको पकड़ा दी गई है। बस, वहीं हुल्लड़का सोता मिलेगा। यह देखो, वहींस पानीका प्रवाह वह रहा है। लो सुनो, उस आवाजको '१४ वर्षकी और कुमारी ! ' एक और लो-' जैन जातियों में परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार ! सब एकाकार ! ' इधर की भी सुनिए - ' पूजामें सचित्त फल फूल !" अररर ' श्रुतकेवलियोंके ग्रन्थोंकी समालोचन! !' हाय हाय ! ' म्लेच्छ भाषामें जैन ग्रन्थ ! कान फूटे, भागो ! ऐसा ही समुदाय समाजसुधारक के पीछे खुफिया पुलिसकी तरह लगा रहता है । धर्मवृद्धि और प्रभावना समाजसुधार पर ही निर्भर है । एक दुखियाको क्या, यदि तुमने मन्दिर में भगवानकी मूर्तिके आगे एक गिन्नी चढ़ा दी ? उसको तो तुम दुःखमें तड़फता ही छोड़ गये । और इससे भी तुमको क्या सरोकार कि वह गिनी कितने गरीबोंका पेट काटकर लाई गई है ! तुम्हारी असूर्यम्पश्या कुलीन महिलायें भ्रूणहत्यायें करें और इससे दूसरे लोग तुम्हारे ब्रह्मचारि For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] श्रद्धा उठ गई। २७९ थोंको, नेताओंको व्यभिचारी कहें, तो हम किस और तुमहीको नीचा देखना पड़ेगा। समाजमें मुंहसे उन्हें उत्तर दें ? यह सब धर्मकी अप्रभा- जो प्रातष्ठित और पूज्य समझे जाते हैं, वे सुधावना नहीं तो और क्या है ? चारित्रको आपने रमें रोड़ा अटकावेंगे ही; क्यों कि परिवर्तनके ऊपरी क्रियाकाण्ड या खानपान ही समझ पश्चात् निश्चय नहीं कि किसको उच्चासन मिलेगा। रक्खा है । हृदयकी स्वच्छता, जो उसका प्राण है वे अपनी प्रतिष्ठा स्थिर रखना चाहते हैं, और इसी उससे आपका मानों कोई सरोकार ही नहीं है। कारण विरोध करते हैं। यही कारण है कि सुधारको ___ अच्छा, तो फिर ये लोग सुधार क्यों नहीं विरोधके दाँतों से होकर निकलना पड़ता है। होने देते? सुधारोंमें बहुतसे शास्त्रानुकूल हैं, उन्हें सुधारसे साधारण जनताको बहुत लाभ होता . भी नहीं होने देते और जिनके लिए शास्त्रोंमें है। जिस धर्ममें साधारण जनता सुखी रहती है आज्ञा नहीं है उनके लिए तो मालूम नहीं ये वही धर्म फूलता फलता है और सब लोग कितनी उछल कूद मचावेंगे । परन्तु सुधार उसीको सच्चा समझते हैं । धर्म चीज ही ऐसी है सब ही होंगे, रुक नहीं सकते । शास्त्रोंमें केवल कि जो उसको धारण करे उसीका दुःख दूर हो टंग मिलेगा, नाम नहीं मिल सकते । तुम तो जाय । परन्तु धर्मके पास धरा ही क्या है । उसके जलेबी बनानेकी रीति और सुपारी तरा- अस्त्र-शस्त्र, रुपया-पैसा, फौज-फाँटा सब धार्मिक शनेकी तरकीब भी शास्त्रोंमेंसे खोजना ही तो हैं। उन्हींको चाहिए कि उस धर्मके चाहते हो । पर यह तो कहो कि रेलमें धारण करनेवाले किसी भी व्यक्तिको किसी बैठते समय भी किसीने शास्त्र खोलकर प्रकारका दुःख न होने दें। उनकी वासनाओंको देखे थे ? और म्लेच्छ साहबोंसे हाथ मिला- केवल दबाना ही न चाहिए, किन्तु उनको एक नेकी आज्ञा भी किसी वर्णाचारके ग्रन्थसे उचित सीमाके भीतर चरितार्थ होने देनेका भी ले ली थी ? यदि भगवान् अकलंक भट्ट इन प्रबन्ध करना चाहिए । यही बुद्धिमत्ता है। हल्लह मचानेवालोंकी परवा करते, तो क्या वे मनुष्य पशु नहीं, जो लाठीसे हाँके जावें । उनकी बौद्ध गुरुओंके पास जाकर पढ़ सकते या जिन- इच्छाओंका भी ध्यान रखना होगा । भूखेको प्रतिमाके ऊपर होकर कूद जाते ? लोग देवद- यह कह देनेसे ही काम न चलेगा कि सब्र करो, र्शनके लिए ही हाय हाय मचा रहे हैं। सुधार- या अभी रात है । उसको पहले खाना देना कोंको प्रतिमायें लॉधनी पड़ेंगी यदि धर्म कायम होगा, पीछे धर्मका उपदेश । में उसको सच्चा रखना है तो। द्रव्य, क्षेत्र, काल, मावका भी साधु समझता हूँ, जो एक मनुष्यको करोड़पती शास्त्रोंमें वर्णन है। इसीसे सुधारकोंकी छाती बननेकी विद्या सिखलाकर और उसे वैसा ही डेढ डेढ़ गजकी हो रही है । सुधार तो कोई बनाकर फिर त्यागी बननेका उपदेश देता है। रुकता नहीं । क्यों कि वह समयकी पुकार है। भुखमरों और नंगोंको त्यागी बनाना या त्याग उसको रोकना मानों ऋतुपरिवर्तनके सिद्धान्तको करनेका उपदेश देना मूर्खता ही नहीं, अन्याय है। लात मारकर अपनी हँसी कराना है। चारपाईको एक करोड़पतीके त्यागी बननेसे समाजकी दरिद्रता, भीगनेसे बचानेके लिए मेहको रोकनेकी कोशिश मूर्खता, स्वार्थान्धता, आदि अनेक आपत्तियाँ मत करो। चारपाईको ही उठाकर अन्दर क्यों दूर हो सकती हैं । परन्तु भुक्कड़ोंको त्यागी नहीं रख देते ? मेहके बन्द हो जाने पर उसे बनानेसे धर्मको लजानेके सिवा और कोई लाम फिर बाहर ले आना और आरामसे हवामें सोना। नहीं हो सकता, जैसा कि प्रत्यक्ष देखनेमें आ सुधार होने दो। यदि रोकोगे तो देर लगेगी रहा है। For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितेषी [भाग १३ __ अब हम कहते हैं कि श्रद्धा नहीं उठी। दादा भाई नौरोजी । तुम धड़ाधड़ समाजसुधारका काम करो। पाण्डित, त्यागी, प्रतिष्ठाप्राप्त लोग अभी तुम्हारा साथ नहीं देंगे। इनकी चाल ही सुस्त है । ये चलेंगे ( लेखक-पं० ज्वालादत्त शर्मा । ) जरूर, परन्तु तुम्हारे पीछे पछेि। इनके भरोसे न , रहो। ये सदासे ठण्डे लोहेमें हथौड़ा मारते रहे भारतके आदि उपकारक, राजनीतिक प्रथम , हैं और इसी कारण असफल होते रहे हैं। तुम ऋषिकल्प दादाभाई अब इस संसारमं नहीं है । गत 'प्रचारक, वर्तमान आन्दोलनके दीक्षागुन गर्म लोहे पर चोट मारो और अपने कामकी चीज बना डालो । मिनिट मिनिटकी देरी मुसाफिरको । ". जूनके अन्तिम दिनकी शामको इस महापुरुषने रेल न मिलने देगी । तुम पहले ही बहुत पीछे "" इह-लोक-त्याग किया । मृत्युके समय दादाउठे हो । अब भागकर चलनेसे काम चलेगा। M भाईकी अवस्था ९२ वर्ष ९ मास और २६ दिन आज एक सुधार तो कल दसरा। इसमें तम्हारा था । इस समय अप्राप्य इस लंबी आयमें आपनं लाभ तो है ही, पर साथ ही इन पण्डितोंको भी देश-हितसे सम्बन्ध रखनेवाले अनेक काम किये ! लाभ होगा। जैसे इस समय ये बगलमें छपी हुई जिस बीजको आपने अपने अदम्य उत्साह पोथियाँ दबाने लगे हैं और उन्हींको प्रमाणमें और अनथक परिश्रमसे भारतके विस्तृत क्षेत्र पेश करने लगे हैं, उसी प्रकार एक दिन होगा सबसे पहले बोया था, उसे अपनी आँखों से उगा, कि ये ही पण्डित लोग होंगे और इनका उपदेश बढ़ा, फूला और किसी किसी अंशमं फला हो रहा होगा कि अपनी जातिमें विवाह करना देखकर भारतके पितामह नाराजीन शान्तचित्तसे महापाप है जैसे कि आजकल एक गोतमें करना। इहलोक-लीला समाप्त की। जो सदा पीछे चलते रहे हैं, यदि उन्हें आगे करक बाल्यकालमें ही पिताका देहान्त हो जानसे चलनेके भरोसे रहे, तो कभी एक पग भी आगेन बालक नौरोजीकी शिक्षाका दायित्व उनकी बढ़ा सकोगे। ये अपनी प्रतिष्ठाके लिए सारे ग्रन्थों पर स्वनामधन्या माताके ऊपर आ पड़ा था ! स्नहपानी फेर देंगे, रूढियोंको ही ग्रन्थ मानते रहेंगे, ", मयी पर बुद्धमती माताने पुत्र नौरोजीको शिक्षा की कभी तुमको सच्चे साफ रास्ते पर नहीं चलने देंगे। इस दिलानेमें-और उस समय जब कि लम्बईमें तुम इनके साथकी परवा मत करो। न तुमको नरक जाना पड़ेगा और न निगोदमें। क्योंकि शिक्षाप्राप्तिका मार्ग कण्टकाकीर्ण था-सती तुम्हारा आशय दूसरोंको पापसे बचाना है और माताकी तरह — यत्परो नास्ति' प्रयत्न किया । उनकी बेलगाम वासनाओंको एक सीमाके भीतर संसारके प्रायः सभी महापुरुषोंकी तरह नौरोजीके नियंत्रित करना । छुपकर एकबार हुक्का पीने- हृदयमें भी देशोपकार और जातिसुधारका अंकुर वालेको खुल्लमखुल्ला पाँच बार पीने दो। हुक्का माताके सुकोमल उपदेशोंसे ही जमा । वितेकापीना छुडानेका यही उपाय है । छुपकर पाप नन्दकी तरह नौरोजी भी अपनी उन्नतिका कारण करना एक पाप नहीं रहता, वह १०० गुना अपनी माताको ही समझते थे। पिताको मृत्यु न हो जाता है । बीजके दबनेसे या छुपनेसे ही । उसमें अंकर फूटते हैं, खले पडे रहनेसे नहीं। १ होने पर बहुत सम्भव था !क नौरोजी भारतके अभी पापका पेड़ छोटा है। उसको उखाड़कर पितामह बननेकी बजाय केवल पारसियोंके बड़े फेंक दो, नहीं तो फिर कछ न होगा। काम पुरोहित बन जाते; किन्तु प्रकृतिने भारतकी किये जाओ और कहनेवालोंको कहे जाने दो उन्नति के सूत्रपात के लिए आपको जन्म दियः कि, श्रद्धा उठ गई-श्रद्धा उठ गई। था-उसका अबाध विधान दूसरा ही था । For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] दादा भाई नौरोजी। २८१ जो किसी देशके उन्नति-विधानके लिए जन्म प्राप्त करके उन्होंने विद्यादानद्वारा उस ऋणको लेते हैं वे प्रायः गरीबी, दुःख और निरा- ही पहले चुकाया था । शिक्षा प्राप्त करके सन् शाके झुण्डमें ही पैदा होते हैं । इन तापोंमें १८५० ई० में २५ वर्षकी अवस्थामें आप ऐलतपकर ही कोई मनुष्य देशोपकार जैसी कठिन फिंस्टन कालेजमें पहले असिस्टेण्ट और फिर तपश्चर्या करनेका अधिकारी होता है । महा- प्रोफेसर नियुक्त हुए थे । वहाँ आपने गणित मना नौरोजीको भी इन परीक्षाओंमें किन्तु और प्राकृतिक विज्ञान जैसे गम्भीर विषयोंकी सफलतापूर्वक निकलना पड़ा था । स्वयं गरीबीमें कई वर्षोंतक शिक्षा दी । अर्थशास्त्रके भी आप विद्याभ्यास करके उन्होंने शिक्षाप्राप्तिके समय प्रकाण्ड पण्डित थे । आपके लिखे हुए प्रायः गरबिॉके मार्गमें जो अनेक अन्तराय उपस्थित सभी ग्रन्थोंसे इस बातका पता चलता है। होते हैं उनका अच्छी तरह अनुभव कर लिया बम्बईके सुप्रसिद्ध वयोवृद्ध विद्वान सर रामकृष्ण था। देशवासियोंकी दयनीय दशाको देखकर भाण्डारकर आपके शिष्योंमेंसे ईशकृपासे आज उन्होंने उसी समय देशसेवाका पवित्र सङ्कल्प भी अवशिष्ट हैं । चन्दावरकर, मुधोलकर और किया था। उनकी देशसेवा शौक या 'दिस- गोखले भाण्डारकरके शिष्य होनेकी हैसियतसे म्बरके अन्तिम सप्ताह ' की चीज न थी, वह आपके प्रशिष्य हैं । शिक्षा विषयको छोड़कर उनके मनकी चीज़ थी, आत्माकी चीज़ थी, राजनीतिमें तो भारतके सभी नेता आपको अपना और इसीलिए जीवनकी चीज़ थी। गुरु ही नहीं, परात्पर गुरु समझते थे और ___ उनका कार्यक्षेत्र भारतसे अधिक इंग्लैंडमें समझते हैं । आपहीके उद्भावित सूत्रों पर आज रहा, भारतकी भलाईके लिए प्रयत्न करनेमें कल राजनीतिकी चर्चा की जा रही है। आप उन्होंने घर और बाहर जैसा अनथक और अनेक पहले भारतीय थे, जिन्होंने भारतकी भलाईके युगव्यापी परिश्रम किया, वैसा अनेक कारणोंसे लिए अनेक विषयोंको आन्दोलनके लिए चुना और विशेषतः स्वास्थ्याभावके कारण और किसी था। इसके लिए आपको जितना अध्ययन, मनन नेतास अबतक न बन पड़ा। और अनुशीलन करना पड़ा था, वह आपहीके ___ नौरोजी आदर्श नेता थे। वे सदाचारकी तो लिए सम्भव था । क्योंकि प्रकृतिने सूक्ष्म बुद्धि मानो मूर्ति ही थे। लंदनमें व्यवसाय करते समय और प्रखर प्रतिभाके साथ ही आपको काम करजब उन्हें कई लाखका घाटा हुआ था, उस समय नेके लिए स्वास्थ्य और समय भी अच्छे परिवे जरा भी विचलित नहीं हुए थे । आपकी माणमें प्रदान किया था। ईमानदारी और सज्जनता पर विश्वास करके यों तो आपने अनेक संस्थायें स्थापित की; इंग्लैंडके सबसे बड़े बैंकने आपका सब ‘देना' किन्तु भारतकी जातीय महासभा-जिसका चुका दिया था । नौरोजी महाशयने कई वर्ष विदेशी नाम 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' देशके पढ़े घोर परिश्रम करके बैंकका कुल रुपया सूद सहित लिखे हर एक युवकके जिह्वान पर है-आप और देकर प्रत्यागमन किया था। इस घटनासे इंग्लैं- आपके कुछ सहयोगियोंके ही परिश्रमका फल है । डके व्यवसायि-मण्डलमें उनकी बड़ी साख हो इस महती सभाके सभापतिके पद पर-जिसकी गई थी। प्राप्ति नेता बननेका पूरा सर्टीफिकेट है-आप पितामह नौरोजी पहले प्रोफेसर नौरोजीके एक दो बार नहीं, तीन बार देशवासियोंकी नामसे प्रसिद्ध थे । देशके धनसे पहले शिक्षा प्रबल इच्छासे प्रतिष्ठित हुए । लाहोरकी कांग्रे For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ जैनहितैषी [भाग १३ .......... समें सभापति बननेके लिए जब आप आये थे, stands alone, with only one rote, when ever he is able to bring forward any aspiतब उपकृत देशवसियोंने आपका बड़ा भारी ration, and is supported by just and proस्वागत किया था। कहा जाता है कि उस- per reasous, he will find a large number यात्रामें ही स्टेशन पर भारी भीड होनेके कारण of other members from both sides of the House ready to support him and give him . रात भर आपको सोना नसीब न हुआ । कलकत्ते the justice he asks. This is the conviction में भी तीसरी बार कांग्रेसके सभापतिकी हैसिय- which permeates the whole thinking and तसे सन् educated classes of India. It is that con viction that enables us to work on, day स्वागत हुआ था। वहाँ जिस शानसे आपकी after day, without digmay for the removal सवारी निकली थी, वह बाबू सुरेन्द्रनाथ बनर्जीके of a grievance. कथनानुसार बादशाहोंके लिए भी इर्ष्या करने कुछ समय तक आप बडोदेके दीवान भी रहे वाली तो जरूर थी, किन्तु सम्भव न थी! इसी थे। वहाँ रहकर आपने अनेक सुधारके काम किये। कांग्रेसमें स्वराज्यका मूल मंत्र सबसे पहले आप- वर्तमान बढ़ोदा-नरेशके पितासे-जो उस समय ने ही देशवासियोंके कानमें फँका था। सिंहासनाधिरूढ थे-सुधारसम्बन्धी किसी बात इंग्लैंडकी महती सभा पार्लमेंटमें प्रवेशकी पर आपकी अनबन हो गई । एक लाख रुपये प्रतिष्ठा भी सबसे पहले आपहीको प्राप्त हुई। सालकी तनख्वाहका आपने जरा भी लोभ द एकबार चेष्टा करने पर आप विफल हुए थे, किन्त किया और तत्काल आप वहाँसे चले आये ! किसी कार्य में विफल मनोरथ होकर चपटना तत्कालीन भारत सचिव लार्ड सैलिसबरीने उस तो आप जानते ही न थे । दूसरी बार सन् यी। वर्तमान बडोदानरेश पिछले दश वर्षांसे समय आपके प्रबन्ध-आदिकी बड़ी प्रशंसा की १८९२ ई० में आपने पार्लमेंटमें प्रविष्ट होकर ही कल ली । वहाँ आपने दीन भारतकी बहुत - आपको ३०० ) मासिक पेंशनके तौर पर दे ही अमूल्य सेवा की। पार्लमेंटके प्रथम भाषणों रहे थे । इसी आयसे आपका खर्च चलता था। ही आपने नीचे लिखे गम्भीर अर्थयुक्त शब्द आपने आधी शताब्दीसे अधिक देशहितके कहे थे। लिए अनवरत प्रयत्न किया । सिविल सर्विसमें भारतियोंको स्थान दिलानेसे लेकर स्त्री-शिक्षा* The glory and credit of this great event-by which India is thrilled from पर्यन्त राजनैतिक सामाजिक और ( अपनी ore end to the other-of the new like, the जातिमें ) धार्मिक अनेक महत्त्वपूर्ण कार्योंके joy, the ecstasy of India at the present लिए आपने चेष्टायें की। यद्यपि देशके दुर्भाwoment, are all your own; it is the spirit of British institutions and the love of ju. ग्यसे उनका जैसा चाहिए वैसा फल नहीं हुआ. stice and treedom in British instincts फिर भी अनेक अंशोंमें अनेक सुधारोंका सूत्रwhich has produced this extraordinary traordinary पात उन्हींके अदम्य उत्साहद्वारा अनुष्टित अनेक result, and I stand here in the name of कार्योंसे हुआ। India to thank the British people that they have made it all possible for an In- दादाभाईने सर फीरोजशाह मेहता, सर dian to occupy this posision, and to speak वाचा और सरकी उपाधिको त्यागनेवाले freely in the English language of any grievance which India may be suffering स्वनामधन्य मिस्टर गोखलेका बचपन, जवानी ander, with the conviction that though he और बुढ़ापा देखा । उन्हें राजनीतिकी दीक्ष For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] दादा भाई नौरोजी। २८३ दी । समय समय पर अपनी सम्मति देकर लेनेके लिए गये। पर वहाँका जघन्य दृश्य देखकृतार्थ किया । प्रयागके यथार्थनामा दैनिक कर आपको शराबसे ऐसी घिन हुई कि फिर जीवपत्र लीडर ) के सम्पादक 'मालूमातकी नभर शराबको न छुआ । भोजन भी आप बहुत चलती फिरती इंसाइक्लोपेडिया' माननीय सी० सादा करते थे। एकबार आपने पूछने पर अपने वाई. चिन्तामणि महोदय सन् १९१५ ई० दीर्घजीवन और स्वस्थ जीवनका कारण मद्यरहित में बम्बईकी कांग्रेस देखकर यथानियम सादे भोजन और नियमित प्रवृत्तियोंको ही दादाभाईके दर्शनार्थ वर्मोवा-जहाँ दादाभाई बतलाया था । १०-११ वर्षोंसे एकान्त और शान्त जीवन दादाभाईने अनेक पुस्तकें लिखी हैं । अनेक व्यतीत कर रहे थे-गये थे । यद्यपि उस कमीशनोंके सामने दी हुई देशभक्तिपूर्ण आपकी समय उनकी अवस्था ८० वर्षसे ऊपर थी; अनेक गवाहियाँ भी राजनितिके हिसाबसे स्थायी किन्तु अपने संयमयुक्त सरल जीवनके कारण साहित्यसे किसी अंशमें कम नहीं हैं । आपकी वे खूब स्वस्थ थे । आप घंटों कांग्रेस और सबसे प्रसिद्ध पुस्तक Poverty and Un लीग-संक्रान्त विषयों पर चिन्तामणिजीसे Britiah rule in India है । बातचीत करते रहे । समुद्रतट पर बसे हुए दादा भाईमें सभी अवगणों की तरह लोभ भी वर्मोवा नगरको दादाभाईके कारण तीर्थकी नामको न था । जब आप विलायतसे लौटे थे, पदवी प्राप्त हो गई थी। बम्बईके अनेक गवर्न तब आपकी आर्थिक अवस्था बहुत शोचनीय थी। रोंकी अनेक भेटोंके सिवा भारतके भूतपूर्व भारतमें आते ही यहाँके कुछ सज्जनोंने ३००००) प्रजाप्रिय और नीतिज्ञ वाइसराय लार्ड हार्डिंजने की एक थैली भेंट की थी। उस आवश्यकताके भी दादाभाईके शान्तिनिकेतन पर उपस्थित समयमें भी आपने इस रकममेंसे एक पैसा भी होकर अपनी गुणज्ञताका परिचय दिया था। अपने खर्च में नहीं उठाया । यह रुपया देशहित__ साठ वर्षसे अधिक कर्मठ जीवन व्यतीत सम्बन्धी कामोंमें खर्च किया गया। करके दादाभाई पिछले १०-११ वर्षोंसे एकान्त भारतीय राजनीतिके प्रथम प्रचारक, कांग्रेसके जीवन व्यतीत कर रहे थे । कोई दो वर्ष हुए - मूलस्तम्भ दादाभाई नौरोजीने पार्लमेण्टकी बम्बई यूनिवर्सिटीने आपको एल एल० डी० की उपाधि देकर अपनेको गौरवान्वित किया था। मम्बरा, बड़ादका दावाना, बम्बइका लाजस्लाटव उससमय आप इस डिग्रीको ग्रहण करनेके लिए और कारपोरेशनकी मेम्बरी और वेल्बी कमीशनकी बम्बई गये थे । बम्बईवासियोंने आपका जुलूस अन्यतम सभासदी आदि अनेक प्रतिष्ठित पदोंनिकाला था। जिन्होंने वह जलस देखा है, वे कहते पर अपनी योग्यता, सज्जनता, सरलता, और हैं कि सात दिनमें आठ जलस निकलनेकी भमि सत्यप्रियतासे प्रेरित होकर जो असाधारण कार्य बम्बईमें वैसा जुलूस अबतक नहीं निकला। किये हैं, वे भारतके इतिहासमें जहाँ स्वर्णाक्षरों में दादाभाई देशके सच्चे दादा (पितामह ) लिखे रहेंगे वहाँ भारतीयोंकी बड़े आदर और और भाई थे । आपका जीवन बडा सादा गौरवकी चीज होंगे। . या। शुरू जवानीमें आप रातको सोते समय यही कारण है कि दादा भाईकी मृत्यु पर थोड़ी सी शराब पिया करते थे। एकदिन घरमें आज भारतमें शोककी गहरी घटा छाई हुई है। शराब न थी, आप कलवारकी दूकान पर शराब उनकी अरथीके साथ बम्बईमें ७५००० से For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैनहितैषी [भाग १३ आधिक मनुष्य थे। गोखलेके शोककी तरह वहाँकी स्त्रियोंकी यदि हम अपनी स्त्रियोंसे उनकी शवक्रिया भी भारतमें अनुपम हुई। तुलना करें और यह विचारें कि उनकी योग्यता गोखलेके उद्गारोंके साथ ही अब इस अल्प लेखको तक पहुँचनेके लिए कितना समय लगेगा तो यहीं समाप्त किया जाता है, यह प्रश्न हमारे समाजमें उपहासके योग्य समझा जायगा । इसी लिए यह प्रश्न न ___Mr. Naoroji has attained in the hearts उठाकर यूरोपकी दशापरसे हम विचार करेंगे कि of millions of his countrymen, without वहाँ स्त्रियोंके सम्बन्धमें पहले क्या विचार थे distinction of race or creed, a place which rulers of men might enyy, and which in और अब उनके परिवर्तन होकर क्या दशा हई its character is more like the influence है और अब भी उनकी पराधीनता यदि बनी है which great teachers of humanity have तो कितनी और किन कारणोंसे ? exercised on those whose thoughts and hopes and lives they have litted to a hig. यूरोपनिवासी भी स्त्रियोंको हमारे देशी her plane. The life of such a man, is one तरह अपने भोग विलासकी एक सामग्री समझते of the most perfect examples of the highest type of patriotism that any country थे। अतएव बाल्यावस्थासे ही कन्याओंकी शिक्षा has ever produced. और रहन सहनका प्रबंध बालकोंकी अपेक्षा भिन्न प्रकारका हुआ करता था। स्त्रियोंकी रहनसहन स्त्रियोंकी पराधीनता। अथवा चालचलन या कार्यप्रणाली परुषोंसे भिन्न रहे, ऐसा प्रबंध आरम्भसे ही वहाँ किया स . जाना था। इसका परिणाम यह होता था कि ( लेखक-श्रीयुत ठाकुर सूर्यकुमार वर्मा ) बाल्यावस्थासे ही स्त्रियोंके मत और विचार ऐसे आजसे नहीं, अनेक वर्षों से, इस प्रश्न पर संकुचित हो जाते थे कि उनको यह सोचनेका संसारके सभी देशोंमें वादविवाद चल अवसर ही नहीं मिलता था कि ईश्वरीय नियमा. रहा है कि स्त्रियाँका स्थान मानव समाजमें ठीक नुसार प्राकृतिक रूपसे पुरुष और स्त्रियोंमें क्या तौर पर स्थिर कर दिया जावे । परन्तु यह प्रश्न अन्तर है । स्त्रियोंकी यह मानसिक पराधीनता इतना कठिन है कि इसे सलझाने के लिए जितना आजकी नहीं है। पुरुषोंने यह पराधीनताकी बेड़ी अधिक प्रयत्न किया जाता है उतना ही अधिक आज हजारों वर्षोसे उनके पैरोंमें डाल रक्खी है। उलझता जाता है । आज हम यहाँ भारतीय स्वेच्छापूर्वक कार्य, आत्मसंयम और स्वावलम्बन स्त्रियोंकी बात न कहकर उस सभ्य देशकी चर्चा इन गुणोंका विकाश होना तो दूर रहा, ये हैं करना चाहते हैं, जहाँपर स्त्रियोंको पुरुषोंने अपने क्या और इन गुणविशेषोंसे स्त्रियोंको भी कुछ समान अनेक अधिकार दे दिये हैं। आज यरो- प्रयोजन है या नहीं, यह बात भी वंशपरम्पराकी रोपमें करीब तीन चारसौ वर्षसे, या यों कहिए प्रवृत्ति के कारण उनमें इतनी मन्द हो गई कि वहाँजबसे यूरोपमें आधुनिक उन्नतिने लहरें मारनी तक उनके विचार ही नहीं उठने पाते थे। आरम्भ की हैं तब से, स्त्री-पुरुषोंके सम्बन्धमें, जिस मनुष्यको अपने स्वतः उठनका कोई बराबर वादविवाद होता आ रहा है; और बहुत मार्ग सूझ ही नहीं पड़ता वह जानता ही नहीं कि से उदारहृदय महात्माओंके प्रयत्नसे स्त्रियोंकी हमें किस मार्गसे कहाँ जाना चाहिए अब वह पराधीनताकी बेड़ी कुछ हलकी हुई है। उस प्रयत्नकी ओर ही नहीं झुकता । पुरुषोंकी For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] शिक्षा और परस्पर व्यवहारके साँचे में ढलकर स्त्रियोंकी दशा यहाँतक शोचनीय हो गई कि पुरुषोंके आधीन रहना ही उनका मुख्य कर्तव्य है, यह विश्वास उनके हृदयमें इतना दृढ़ होगया कि अब इस पर विचार करने के लिए यदि कोई उनसे विचार करने के लिए कहे या आग्रह करे तो भी वे तैयार नहीं हैं । इस परिपाटी के अनुसार ही धर्मशास्त्र, लोकव्यवहार, लोकविचार आदि सबकी भव्य इमारत इतनी मजबूत बना डाली गई कि जिससे स्त्रियोंको पराधीनताके पंजेसे छुड़ाने में कोई भी समर्थ न हो । और इन सब का यह परिणाम निकला कि स्त्रियोंको सदा पुरुषोंके अधीन रहना चाहिए । इस प्रकार स्त्रियोंको पराधीनताकी जंजीरमें जकड़कर उनके राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सत्र अधिकारों पर पुरुषोंने अधिकार जमा लिया । और फिर कहा जाने लगा कि स्त्रियाँ स्वाभाविक तौरसे ही पुरुषोंके आधीन हैं। पति के ऊपर ही स्त्रीका सारा दारोमदार है। उसका सुख - दुःख, मानापमान इत्यादि सब कुछ पतिकी इच्छा पर ही छोड़ दिया गया । अपने जन्मको सफल करने, संसारमें अपने मानापमानकी रक्षा और वृद्धि करने, संसारमें अपने लिए यश सम्पादन करने, ये सब बातें उन्हें अकेले प्राप्त कर लेने का कोई अधिकार नहीं । यदि वे उपर्युक्त बातोंको प्राप्त करना चाहें तो पतिकी सहायता बिना यह साध्य नहीं । यदि पति अनुकूल मिल गया और उसकी प्रसन्नता सम्पादन कर पाई तो ' येन केन प्रकारेण ' वह अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत कर सकती है । यदि ऐसा न हुआ तो उसे अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए मुँह से एक भी शब्द कहनेका अधिकार नहीं । 1 स्त्रियोंकी पराधीनता । इस व्यवस्था के प्रभावसे स्त्रियोंका जीवन पुरुषों के स्वाधीन होगया । वह जैसा चाहें उनके २८५ साथ व्यवहार करें, कोई रोक टोक नहीं । इस पराधीनताने स्त्रियोंको विवश किया कि वे विवाहबंधन में बँधकर पुरुषों के अधीन रहकर अपना जीवन व्यतीत करें। संस्कृत के किसी कविने इसी कारण शायद यह कह डाला कि “विना-ऽऽश्रयाः न तिष्ठन्ति पण्डिता वनिता लताः " अर्थात् विना आश्रयके पंडित, स्त्री और लता-वेल ठहर नहीं सकती । यद्यपि स्त्रीपुरुषकी उत्पत्ति, लय, स्वरूप, गुण, कर्म, स्वभावमें नाम मात्रका भेद है; परन्तु तो भी समानता के होते हुए भी उनके अधिकार समान नहीं रक्खे गये । इसका परिणाम यह हुआ कि स्त्रीजाति बिलकुल पराधीन होगई और उसकी भलाई बुराईके रक्षक पुरुष बन बैठे । परन्तु यदि इतना ही होता तो भी कुछ ठीक था, उन्हें दूषणोंकी खान समझा गया, गुसांई तुलसीदासजी ने जो परमभक्त और मनुष्यमात्र के साथ सहानुभूति और प्रेम रखते थे उन्होंने भी स्पष्ट कहा है कि: " ताहि स्वभाव सत्य कवि कहीं । अवगुण आठ सदा उर रहहीं ॥ " अर्थात स्त्रियोंमें तो आठ अवगुण सदा रहा करते हैं । परन्तु पुरुष सदा गुणयुक्त होते हैं ! महात्मा कवियोंने भी पुरुष जातिके अन्याययुक्त वंशपरम्परागत विचारों पर विचार करना उचित न समझा, जो प्रथा प्रचलित हो गई थी, जो रूढ़ी पड़ गई थी, उसीको वे भी दुहराते गये । परिणाम यह निकला कि अब यदि कोई यह कहे कि स्त्रियों को भी स्वाधीनता चाहिए, उन्हें भी मानव समाजमें पुरुषोंके समान अधिकार मिलना चाहिए, उनकी पराधीनता नष्ट होनी चाहिए, तो लोग उसे या तो ' बहका हुआ कहते हैं या 'पागल' समझते हैं। और हमारे यहाँ हिन्दूसमाजमें तो इसकी चर्चा होना लोग धर्मविरुद्ध कार्य समझते हैं, धर्म की " For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैनहितैषी [ भाग १३ दुहाई देते हुए, उसे बुरा भला कहने में भी किसी प्रदान की उन्होंने स्त्रियोंको ही उन्नत प्रकारका संकोच नहीं करते। नहीं किया है, सारे यूरोपकी उन्नतिका भी यही इस प्रकार पराधीनताकी बेड़ी पहनकर कारण हुआ । शिक्षाकी स्वतंत्रता पाकर स्त्रियोंस्त्रियाँ पुरुषोंकी आज्ञानुसार अपना जीवन ने पुरुषोंको संसारोपयोगी शिक्षासम्बन्धी कामों व्यतीत करने लगीं। परन्तु जब यूरोपमें स्वाधी- में सहायता दी । धार्मिक स्वतंत्रता पाकर उन्होंने नताकी लहरें हिलोरें मारने लगी तब वहाँ पुरुषोंके धर्मविश्वासको दृढ़ किया, विचारपुरुषोंने अपने राजनैतिक अधिकार प्राप्त करनेके स्वातंत्र्यसे उच्च विचारोंके कर्मों में उन्हें सहायता लिए आन्दोलन आरम्भ किया । यूरोपके मध्यम पहुँचाई । इस प्रकार जितना पुरुषोंने उन्हें दिया कालका इतिहास बिना पढ़े न तो इंग्लैंड निवा- उससे कई गुणा अधिक उन्होंने वापस भी कर सियोंकी राजनैतिक अधिकारप्राप्ति की कथा दिया । परन्तु यह सब कुछ होने पर भी जो जानी जा सकती है और न झांसकी राज्य- आनुवंशिक विचारक्रमका अंग-मैल जमा हुआ क्रान्तिका पता चल सकता है और न जर्मन- था वह दूर न हुआ और स्त्रियोंको पुरुषोंके साम्राज्यके संगठनसे ही परिचय कराया जा समान अधिकार दिलाने चाहिए, यह कहते हुए सकता है। यह बात केवल एक बात कहनेसे भी बराबरीका वर्ताव करनेमें लोग हिचकिचाते समझाई जा सकती है कि यूरोपनिवासियोंने ही रहे ।और यह बात मान ली गई कि ईश्वरीय जहाँ अपने राजनैतिक अधिकार प्राप्त करके नियमके अनुसार उनमें भिन्नता है और प्राकृअपनी भौतिक उन्नति के साधनोंको इकट्रा करना तिक भिन्नता हमारे बराबरीके अधिकार दे देने आरम्भ किया वहाँ उन्हें यह भी मालूम हुआ पर भी बनी ही रहेगी। अर्थात् स्त्रियाँ पराधीन हैं कि यह उन्नति तबतक अधूरी रहेगी जबतक और सदा पराधीन बनी रहेंगी । यह विचार अब स्त्रियोंका भी समाजमें कोई स्थान न होगा। जिन भी सदयसे हटाये नहीं जासके । स्त्रियाँ पुरुषोंके महात्माओंने यह सोचा उन्होंने अनेक प्रकारकी समान युद्ध कर सकती हैं, परन्तु उन्हें सेनापति उन्नतियों के साथ साथ अपनेसे निकट सहयोगी, बनानेका किसीको साहस नहीं होता । स्त्रियाँ स्त्रीजातिकी उन्नतिका भी प्रयत्न आरम्भ उच्च राजनैतिक विचार प्रगट कर सकती हैं, किया। परन्तु उन्होंने भी स्त्रियोंकी सहयोगिता परन्तु वे प्रधान सचिव नहीं बनाई जा सकती। और अपनेसे बराबरीका विचार तो किया, परन्तु स्त्रियाँ घरमें अच्छी सलाह देकर अच्छी शिक्षा पराधीनताकी जंजीरसे छुड़ानेके लिए वे प्रयत्न- देकर पुरुषोंको प्रधान सचिव बना देनेकी एक वान् न हुए । स्त्रियोंकी मानसिक और नैतिक योग्य मशीन समझी जाती हैं, परन्तु वे स्वयं उस उन्नतिके लिए उन्होंने जो प्रयत्न किये वे बहुत पद पानके योग्य नहीं । इतना ही नहीं, वे कुछ फलीभूत हुए । वहाँ स्त्रियोंने अच्छी उन्नति राजकार्यमें राय देनेका भी अधिकार नहीं पा की । शिक्षा, विचार, विज्ञान, धर्म आदि कर्मोंमें सकतीं । यह अन्याय, यह विचारस्वातंत्र्यकी उन्होंने जो उन्नति की उससे यूरोपको एक नया भिन्नता अब भी यूरोपमें बनी हुई है और स्वरूप प्राप्त होगया । यदि स्त्रियोंकी सहयोगिता स्त्रियोंकी पराधीनता कम हो जाने पर भी नष्ट न होती तो आज यूरोपका जो उत्कर्ष हो रहा नहीं की जा सकी। है शायद वह दिखाई न पड़ता। जिन महा- यूरोपमें स्त्रियोंको बहुत कुछ स्वतंत्रता प्रदान माओंने यूरोपकी स्त्रियोंको कुछ स्वतंत्रता की गई है, पुरुष उनका बहुत कुछ आदर गान For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६ ] करते हैं, उनके विचारोंसे लाभ भी उठाते हैं; परन्तु उन्हें अपने समान अधिकार देनेके पक्षपाती नहीं हैं । उन्हें अभी वहाँके विज्ञ लोग भी पराधीनता की जंजीरसे जकड़े रखना चाहते हैं । सामाजिक अधिकार तो बहुत कुछ दिये जा चुके हैं, परन्तु राजनैतिक अधिकार देनेकी ओर अभी विचार कम पहुँचा है । हाँ, यह अवश्य है कि इस ओरसे न तो वहाँकी स्त्रियाँको बेफिकरी है और न पुरुष ही ऐसे हैं जिन्हें इसकी चिन्ता न हो । उदार दलके कई नेता पहले भी इसके पक्षपाती थे और अब भी हैं । वहाँकी स्त्रियाँ अब इस योग्य बना दी गई हैं अथवा विद्या पाकरके ऐसी बन गई है कि वे स्वयं अपना अधिकारप्राप्तिका आन्दोलन करती रहती हैं । यूरोपके वर्तमान युद्ध के आरम्भ होनेसे पहले वोट प्राप्तिके लिए इंग्लैण्ड की स्त्रियोंने बड़ा आन्दोलन मचाया था । परन्तु अबतक उन्हें सफलता नहीं मिली । * सफलता न प्राप्त होने से वे हतोत्साह नहीं हुई हैं। उन्हें अवसर मी अच्छा प्राप्त हो गया है । वर्तमान युद्ध में स्त्रियों द्वारा जो सहायता युद्धकार्य में रही है, यह इस बातका एक प्रत्यक्ष प्रमाण है कि यूरोपनिवासिनी महिलायें, इस योग्य हो गई हैं कि उनकी पराधीनताकी बेड़ी बिलकुल काट दी जावे । स्त्रियोंकी योग्यता उनका परिश्रम और अध्यवसाय, उनकी कार्यदक्षता, अब इतनी अधिक बढ़ी हुई है कि यूरोपनिवासी पुरुष अब बहुत कुछ नम्र दिखाई पड़ते हैं और जो भाव वे व्यक्त करते हैं, उनसे स्त्रियोंका भविष्यत् बहुत कुछ उज्ज्वल दिखाई पड़ रहा मिल प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं? * नहीं, सफलता मिलगई । इंग्लैंडकी ३० वर्ष से अधिक उम्रकी स्त्रियोंको 'वोट' देनेका अधिकार मिल चुका ! यह लेख इससे बहुत पहलेका लिखा हुआ है ! २८७ है । परन्तु हमारी स्त्रियोंकी दशा ? अभी दिल्ली बहुत दूर है ! हम किसी अगले अंक में भारतीय स्त्रियोंकी पराधीनताका इतिहास अपने पाठक और पाठिकाओंके सामने उपस्थित करनेका उद्योग करेंगे । ( चान्दसे उद्धृत । ) प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं? ( लेखक - श्रीयुत J. S. ) स्वीकार यह तो अब प्रायः निश्चित हो गया है कि जैनधर्ममें प्रारम्भ हीसे मूर्ति-पूजा को किया गया है । बहुतसे विद्वानोंका यह भी खयाल है कि वैदिक और बौद्ध धर्ममें भी जो मूर्ति पूजाको स्वीकार किया गया है वह जैनधर्महीका अनुकरण है । इस पिछले कथनमें कहाँतक सत्यता है इसकी मीमांसा करने का यह स्थल नहीं है, इस लिए चाहे यह कथन कैसा ही हो; परंतु इतना तो सिद्ध है कि भार तके उपर्युक्त दोनों ही जैनेतर महान् धर्मोकी अपेक्षा जैनधर्म की मूर्तिपूजा कुछ प्राचीन अवश्य है । जैनधर्म बहुत समय से श्वेताम्बर और दिगम्बर ऐसे दो विशिष्ट विभागोंमें विभक्त है ! यद्यपि तत्त्वज्ञान और मूल मन्तव्यों में ये दोनों संप्रदाय प्राय: समानता ही धारण करते हैं तो भी क्रियाकाण्ड और तद्विषयक विचारों में कुछ भिन्नता अवश्य दिखाई देती है और इसी कारण, मूर्तिपूजाका स्वीकार दोनों संप्रदायों में एकसा होने पर भी मूर्तियों के आकार में और उनकी पूजन - विधिमें भी कुछ अन्तर है। वर्त्तमान समयमें श्वेताम्बर संप्रदायकी जितनी जिनमूर्तियाँ कही जाती या मानी जाती हैं उन पर यथास्थान वस्त्रका - सम्पादक । आकार बना हुआ होकर गुह्य प्रदेश अदृश्य होता For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैनहितैषी - । है; परन्तु दिगम्बर-संप्रदाय में इससे विपरीत प्रकार देखा जाता है । दिगम्बर मूर्तियाँ संप्रदाय के नामानुसार सर्वथा दिगम्बर नग्न ही होती हैं । इस भिन्नताका कारण स्पष्ट और सुप्रसिद्ध ही है इन दोनों संप्रदायोंका परस्पर सबसे बड़ा मन्तव्यविरोध है वही इन प्रतिमाओंकी भी भिन्नताका कारण है । श्वेताम्बरोंकी मानतानुसार तीर्थकर और उनके स्थविर - श्रमण सदा वस्त्र धारण किये रहते हैं और दिगम्बरोंके कथनानुसार वे दीक्षाकालसे लेकर आजीवन केवल दिशारूप वस्त्रके सिवा और कोई दूसरा वस्त्र नहीं रखते, अर्थात् वे सदैव नग्न ही रहते हैं । यही मतभेद इन दोनों संप्रदायोंके भिन्नत्वका मूल और मुख्य कारण है और इसी कारण दोनों संप्रदायोंकी जिनमूर्तियों में भी भेद-भाव है । श्रमण भगवान् महावीरोपदिष्ट अविभक्त जैनधर्ममें इस प्रकारका द्वैधीभाव कब उत्पन्न हुआ और इस द्वैधीभावके उत्पन्न होने के पूर्व में उस अविभक्त जैनदर्शनका स्वरूप, इन दोनों संप्रदायों से किसके साथ विशेष मेल रखता था, इस गहन ग्रन्थिके खोलने का मार्ग आधुनिक ऐतिहासिकोंको अद्यापि ठीक ठीक नहीं मिला है । यद्यपि दोनों संप्रदायोंके साहित्यमें इस विषयका जिकर और निर्णय अपने अपने पक्षानुकूल बहुत कुछ किया गया है, परंतु इस समय के तत्त्वमीमांसकों और इतिहासान्वेषकों को उससे सन्तोष नहीं होता है । और इसी लिए वे प्रश्न करते हैं कि- “ प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ "कैसी थी ?” अर्थात् पूर्वकालमें जब कि जैनधर्म अविभक्त रूपमें था, या भेदकी मात्राने जबतक उग्र रूप नहीं धारण किया था तब जो जिनप्रतिमायें होती थीं वे श्वेताम्बरोंके मतानुकूल वखाकारसहित गुह्यप्रदेशावच्छन्न होती थीं या दिगम्बरों के वक्तव्यानुसार प्रकट नग्न ही होती थीं ? [ भाग १३ श्वेताम्बरसम्प्रदाय के तपागच्छ नामक मुख्य समुदायमें, धर्मसागर उपाध्याय नामके एक प्रसिद्ध विद्वान् विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दीके पूर्वभाग में हो गये हैं । ये उन सुप्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरिके गुरुभ्राता और सहाध्यायी थे जिनको मुगल सम्राट् अकबर बादशाहने 'जगगुरु' की उपाधि समर्पित की थी; जिनके शुभ प्रयत्नसे अकबर जैसे मुसलमान बादशाह के उतने बड़े साम्राज्य में महीनोंतक जीवहिंसा-प्राणिवध करनेके लिए मनाईके हुक्म जारी किये गये थे । उपाध्याय धर्मसागरजी बड़े प्रतिभाशाली ग्रन्थकार थे, परंतु स्वभाव आपका बड़ा उम और स्वसंप्रदायका असीम पक्षपाती था । दूसरे संप्रदायोंके साथ झगड़ने में और कटोरशब्दप्रयुक्त खण्डन- मण्डन विषयक ग्रंथ लिखने में आपकी उत्कट अभिरुचि थी । आपने अपनी इस अभिरुचिको जैनसाहित्य में 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ ' प्रकट रखने के लिए कई बड़े बड़े ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें आपके भावका अच्छा प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्बित है । आपकी ग्रन्थसन्ततिमें से एक बड़ा और प्रतिष्ठित ग्रंथ है, जिसका नाम ' कुपक्षकौशिक - सहस्रकिरण अथवा ' प्रवचनपरीक्षा ' है । ग्रंथका मूल प्राकृत गाथाबद्ध है और उसे विस्तृत स्वोपज्ञ वृत्तिसे विभूषित किया गया है । सारा ग्रंथ कोई १५,००० श्लोक प्रमाण है ! इस ग्रन्थ में उपाध्यायजीने अपने संप्रदाय को छोड़कर बाकी सब ही जैनधर्म के प्रसिद्ध प्रसिद्ध संप्रदायोंके सिद्धान्तों- मन्तव्यों की समालोचना की है। ( यहाँ पर समालोचनासे मतलब सिर्फ खण्डनहीका समझिए मुझे खण्डन' शब्द से प्रेम नहीं है इस कारण मैंने यह आधुनिक सभ्य शब्द प्रयुक्त किया है ।) समालोचित संप्रदायोंकी संख्या १० हैं जिनमें एक तो समुच्चय 6 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी था ? २८९ दिगंबर संप्रदाय है और बाकी ९ श्वेताम्बरसंप्र- अहवा सव्वपसिद्धं सित्तुंजय-उज्जयतं-तित्थदुर्ग । दायके अंतर्गत गच्छ- समुदाय हैं । इन दशोंका जस्म्य तं आयत्तं सो संघो वीरजिणतित्थं ॥ १॥ उर्जितगिरिविवाए सासणसुरि कहणमित्थसंजायं । नामोल्लेख ग्रन्थारम्भमें इस एक 'गाथा द्वारा जो मण्णइ नारीणं मुत्तिं तस्सेव तित्थमिणं ॥२॥ किया गया है तत्तो विसन्नचित्ता खमणा पासंडिआ विगयआसा । __ + खवणयं-पुण्णिम-खरयएँ-पलॅषिया निय निय ठाणं पत्ता पन्भठा दाणमाणेहिं ॥ ३ ॥ मा पडिमाणविवाओ होहीत्ति विचिंतिऊण सिरि संघो। सड्डपुण्णिमा-गमिआ। पंडिमा मुणिअरि कासी पल्लवचिंधं नवाण पडिमाणपयमूले ॥ ४॥ वैज्झा पासो पुणसंपइ दसमो॥ तं सोऊणं म्हो दुट्ठो खमणोवि कासि नगिणतं । ___ इन दशों मतों या संप्रदायोंकी एक एक प्रक- निअपडिमाणं जिणवर विगोविणं सोवि गयसत्तो ॥५॥ रण द्वारा क्रमशः समालोचना की गई है और तेण संपइ-पमुहपडिमाणं पल्लवंकणं नथि। अत्थि पुण संपईणप्पडिमाणं विवायकालाओ ॥ ६ ॥ इस तरह यह सारा ग्रथं १० प्रकरणोंमें समाप्त । किया गया है । पहले प्रकरणमें दिगम्बर संप्रदा-. पुब्धि जिणपडिमाणं नगिणतं नेव नवि अ पल्लवमओ। यके सिद्धान्तों या विचारोंकी समालोचना है तेणं नागाटेणं भेओ उभएसि संभूओ ॥ ७ ॥ और उसमें स्त्रीमुक्ति केवलीमुक्ति आदि सुप्रसिद्ध इन गाथाओंका तात्पर्यार्थ यह है किमतभेदोंकी मीमांसा की गई है। यह मीमांसा “ सर्वप्रसिद्ध ऐसे जो शत्रुजय और उज्जयंत कैसी है ?-इस विषयका उत्तर देनेकी यहाँ आ- (गिरनार ) नामक तीर्थ हैं वे जिस संप्रदायके वश्यकता नहीं । उपाध्यायजीने इस मीमांसाके आधीन हो वही संप्रदाय-संघ वीरजिनका यथार्थ अंतमें 'श्वेताम्बर प्राचीन है या दिगम्बर ?-' अनुगामी हो सकता है-दूसरा नहीं । यह एक नया ही प्रश्न खड़ा करके उसका वि. पहले ( कब ?-इसका पता नहीं ) चित्र ढंगसे समाधान करनेका प्रयत्न किया है। जब उज्जयंत गिरिके वारेमें दिगम्बर और श्वेतायह बात पूर्वके किसी ग्रंथमें उपलब्ध नहीं होती, म्बरोंमें परस्पर झगड़ा हुआ तब शासन देवताने इस लिए इसके आविष्कारका मान इन्हींको आकर कहा कि जो संप्रदाय स्त्रीको ( उसी मिलना चाहिए। भवमें ) मुक्ति मानता है, उसीका यह तीर्थ है।' , इस वचनको सुनकर दिगम्बर पाखंडी खिन्न दिगम्बरसम्प्रदायको आप ' तीर्थबाह्य । - चित्त हो गये और विगताशा होकर अपने अपने उहराते हुए कहते हैं कि 'अय प्रकारान्तरेणापि स्थान पर चले गये और उस समय श्रीसंघ तथा दर्शयितुं युक्तिमाह;'- अब और प्रकारसे (श्वेताम्बर संप्रदाय) ने सोचा कि भविष्यमें भी दिगम्बर संप्रदायको तीर्थबाह्य दिखानेके लिए प्रतिमाओंके वारेमे कोई झगड़ा न होने पावे, युक्ति कही जाती है।' इस प्रकार अवतरण इस लिए अब जो कोई नई जिनप्रतिमायें बनाई देकर आपने निम्न लिखित गाथायें दी हैं: जायँ उनके पादमूलमें वस्त्रका चिह्न बना ४ अर्थात्-१ क्षपणक, (दिगम्बर ), २ पौर्णि. दिया जाय । इस बातको सुनकर दिगम्बमीयक, ३ खरतर, ४ आंचलिक, ५ सार्ध पौर्णमीयक, रोको क्रोध आ गया और उन्होंने अपनी प्रति६ आगमिक, ७ प्रतिमारि (लुंपाक ), मुनि अरि माओंको स्पष्ट नन बनाना शुरू कर दिया। (कटक ), ९ वभ्य (बीजामति ) और १० पार्श्व. यही कारण है कि संप्रति ( अशोकका पौत्र ) बन्द्रीय। आदिकी बनाई हुई प्रतिमाओं पर वस्त्रलांछन नहीं For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० है और आधुनिक प्रतिमाओं पर है । पूर्वकालीन प्रतिमाओं पर वस्त्रलांछन भी नहीं है और स्पष्ट नम्रत्व भी नहीं है । ” जैनहितैषी - सांप्रदायिक दृष्टि से यह कथन कितना युक्तिसङ्गत या असङ्गत है, इसका यहाँ पर मैं नाम भी नहीं लेना चाहता हूँ। क्योंकि यहाँ पर मुझे केवल ऐतिहासिक विचार करना है । उपाध्यायजीके इस कथन में, लेखनिर्दिष्ट मुख्य बातके सिवा नीचे लिखी बातों पर प्रकाश पड़ता है । १ - दोनों संप्रदायोंमें जिस तरह आज कल तीर्थोंके अधिकारके वारेमें झगड़े हो रहे हैं, वैसे पहले भी होते थे। परंतु उनके फैसले आजकलकी तरह अदालतों द्वारा न होकर किसी और ही प्रकार से किये जाते थे । २ - उज्जयंत ( गिरिनार ) के बारेमें विवाद होनेका उल्लेख और भी एक दो श्वेताम्बर ग्रंथोंमें मिलता है दिगम्बर ग्रन्थोंमें भी इस बातका जिक्र है, इसलिए इस कथनमें कुछ ऐतिहासिक सत्यका होना अवश्य पाया जाता है - जो अभी तक हमें अज्ञात है । ३ श्वेताम्बरोंमें कई स्थानोंकी प्रतिमाओं को संप्रति राजाकी बनवाई हुई मानते हैं । यह मानता तीन सौ चार सौ वर्ष पहले भी इसी तरह प्रचलित थी और अच्छे अच्छे विद्वान भी इस पर श्रद्धा रखते थे । अब मूल और मुख्य बातकी तरफ ध्यान देना चाहिए । उपाध्यायजीके कथनका रहस्यार्थ यह निकलता है, कि दोनों सम्प्रदायोंमें जब तक अधिक मतभेद या विशेष विरोध न होने पाया था तब तक दोनों में एक ही आकारवाली प्रतिमायें पूजी जाती थीं । मतभेदकी मात्राके बढ़ जानेसे और आपसमें वैर - विरोधकी भावना के प्रज्वलित हो जाने से वर्तमान समय में दिखाई देनेवाले चिह्नभेदों की सृष्टि हुई है । मेरी समझमें उपाध्यायजीके इस कथनमें कुछ न कुछ तथ्य [ भाग १३ अवश्य संगृहीत है । यह कथन कुछ तो उन्हों स्वयं अन्वेषण और विचार करके लिखा होगा और कुछ परंपरागत श्रवण करके । I अब इसमें विचारने की बात यह है कि-“ पुव्विं जिणपडिमानं नगिणत्वं नेव नवि पल्लवओ; पहले जिनप्रतिमायें न नग्न हीं थीं और न वस्त्रचिह्नयुक्त | यह जो कथन हैं सो किस प्रकारकी प्रतिमाओं को उद्दिष्ट कर के है ? जैन मूर्तियाँ दो प्रकारकी होतीं हैं - एक तो पद्मासनस्थ बैठी हुई और दूसरी ऊर्ध्वदेहाकार कायोत्सर्गस्थ - खड़ी हुई । तो क्या उपाध्यायजी - का जो कथन है वह पद्मासनस्थ प्रतिमाओंके लिए हैं या ऊर्ध्वदेहस्थ प्रतिमाओंके लिए ? अथवा दोनोंही के लिए ? जहाँ तक मैने सोचा और विचारा है उससे पद्मासनस्थ प्रतिमा के बारे में तो यह कथन सङ्गत हो सकता है। क्योंकि पलथी मार कर बैठनेवाला मनुष्य जिस तरह वस्त्रके न रखने पर भी उचित प्रयत्न से खुल्लमखुल्ला नग्न नहीं दिखाई दे सकता है, वैसे ही पद्मासनस्थ प्रतिमाओंके विषयमें भी शिल्पीके चातुर्यसे नग्नत्वके दर्शनका अभाव हो जानेपर भी मूर्तिके यथोचित आकार दर्शनमें और भव्य - त्वमें किसी प्रकारकी क्षति नहीं आ सकती ! मैंने स्वयं ऐसी बहुत सी मूर्तियाँ देखी हैं जिनके पादमूलमें उपाध्यायजी के कथना.... नुसार न पल्लवका चिन्ह है और न स्पष्ट नम है । परंतु ऊर्ध्वदेहाकार प्रतिमाओंके वारे में यह कथन असंदिग्ध नहीं मालूम देता कि वे भी इस प्रकार - न नग्न और न सवस्त्र - होती थीं। शंका होती है कि जब इन दोनों प्रकारों का उनमें अभाव था तो फिर वे थीं किस प्रकारकी ? और इस प्रकार स्पष्ट रूपसे आकार के दर्शनाभाव में वे आकृतिसे रमणीय भी कैसे लगती होगी ? अभी तक कहीं पर भी ऐसी विलक्षण मूर्ति देखने सुननेमें नहीं आई है। इससे तो यह अनु For Personal & Private Use Only ܕ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ५-६] प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं? मंदिर मान होता है कि धर्मसागरजीका यह कथन ये दो ही अवस्थायें हो सकती हैं । या तो वस्त्रामुख्यतः पद्मासनस्थ प्रतिमाओंके बारेमें ही ठीक वस्था होगी (बल्कल और चर्म भी उपलक्षणसे है। ऊर्ध्वदेहस्थ प्रतिमाओंके लिए या तो उन्होंने इसीमें आ जाते हैं)-या नग्नावस्था होगी। इनके जाँच नहीं की, या पद्मासनस्थकी अपेक्षा उनकी व्यतिरिक्त कोई तीसरी अवस्था नहीं हो सकती। बहुत ही अल्पता होनेसे उपेक्षा कर दी, अथवा ऐसी दशामें मनुष्य जब कभी किसी देहधाउनका निर्माण विवाद कालसे अर्वाचीन माना हो। रीकी मूर्ति या चित्र निर्माण करेगा, तब इन अव___ यहाँ तक तो सब कथन एकट्टष्टिसे हुआ है, स्थाओंहीमेंसे किसी एक अवस्थासे युक्त करेगा। अर्थात् उपाध्यायजीके कथनमें कुछ सत्यांशका अभीतक क्या भारतवर्षमें और क्या अन्यत्र, स्वीकार करके यह विचार किया गया है। परंतु जितना मातया उपलब्ध हुई है अथव इसमें हेतु और परीक्षाकी दृष्टिसे भी विचार कर. और विहारादि स्थानोंमें स्थित हैं, वे सब इन दो नेकी आवश्यकता है । उपाध्यायजीके कथनमें ही अवस्था से किसी एक अवस्थावाली हैं। इतना तो सत्यांश सभी दृष्टिसे सिद्ध होता है कि उपाध्यायजीके कथनानुसार 'न नागी और मूर्तियोंमें जो साप्रदायिक भेदके चिह्न दिखाई न ढंकी' तो कहीं दृष्टिगोचार नहीं होती। देते हैं उनकी उत्पत्ति दिगम्बरश्वेताम्बरगत दिगम्बर संप्रदायमें तीर्थकरोंको सर्वथा मतभेदके प्रबल हो जाने बाद किसी न निथ-निर्वस्त्र होना माना है. इस लिए उस किसी एक खास निमित्तसे हुई है । क्यों कि विचारसे, उनकी मूर्तियाँ भी वैसी ही निर्वस्त्र यह तो सर्वानुभवसिद्ध ही है कि जब तक होनी चाहिएँ, और श्वेताम्बर संप्रदायमें तीर्थसंप्रदायभेद नहीं होने पाया था तब तक मूर्तिगत करोंको सर्वथा निर्वस्त्र नहीं माना है-निर्वस्त्रावभेदका अभाव स्वतःसिद्ध था। परंतु इस प्रकार स्थामें भी वे अपने अतिशयसे सर्वसाधारणको भेद होनेमें जो कारण ऊपर दी गई गाथाओं- सवस्त्र ही दृष्टिगोचर होते थे, इस कारण इस में,-उज्जयंतपर्वतपरका विवाद-बताया गया विचारानुसार उनकी प्रतिमायें सवस्त्रांकित है, उसकी सत्यताके स्वीकारनेमें कोई पुष्ट प्रमाण होनी चाहिए। यह हेतु युक्तियुक्त और बुद्धिग्राह्य या ऐतिहासिक अनुसन्धान उपाध्यायजीके है । इस लिए यदि तीर्थकर दिगम्बर सिद्धावाक्योंमें नहीं मिलता । उज्जयंतगिरिवाले वृत्तांत. न्तानुसार निर्वस्त्र---नग्न ही रहते होंगे तो उनकी की टीकामें उन्होंने लिखा है कि यह बात संप्र- मूर्तियाँ भी उसी कालसे नग्न ही बनती चली आनी दायगत चली आती है। परंतु संप्रदायगत चली चाहिए और श्वेताम्बर मन्तव्यके अनुसार 'चीवर आनेवाली तो हजारों ही बातें आज अनैतिहा- धारी होत्था' अर्थात् सवस्त्र रहते होंगे, तो मूर्ति सिक और निर्मल सिद्ध होती चली जा रही हैं! भी यथान्याय वस्त्रचिह्नांकित बनती हुई चली सिवाय किस समय यह विवाद हुआ और किन आनी चाहिए। उपपत्तिसे तो यही कथन सिद्ध आचार्योंने इस भेदसूचक पल्लवचिह्नका प्रादु- होता है। "पुविं जिणपरिमाणं नागणतं नेव नवि भीव किया, इसका कोई नामोल्लेख ही नहीं किया अ पल्लवओ” वाले अव्यक्त कथनमें तो कोई भी गया है जिससे कुछ थोड़ा बहुत भी इस कथनको हेतु नहीं प्रतीत होता। विचाराह समझा जाय। ___ इतना होने पर भी उपाध्यायजीके इस कथएक बात और है-'पूर्वकालीन जिनप्रतिमायें नका एक प्रमाण अवश्य उपलब्ध होता है और न नग्न थीं और न वस्त्रचिह्नांकित' इस प्रकार जो ऊपर लिखा भी चुका है कि पद्मासनस्थ प्रतिअव्यक्त रूपके होने में कोई हेतु या मनुष्य- माओंमें कितनी एक ऐसी भी प्राचीन प्रतिमायें स्वभाव नहीं प्रतीत होता । बल्कि हेतु और दृष्टिगोचर होती हैं जिनका पादमूलमें, जैसा युक्तिसे तो, इन दो प्रकारोंमेंसे किसी एक प्रका• कि उपाध्यायजीने लिखा है, पल्लव-चिह्न भी रके होनेकी अत्याव।कता सिद्ध होती है। नहीं है, और स्पष्ट नग्नपना भी नहीं है। अर्वाचीन क्यों कि प्रकृतिके नियम नुसार मनुष्यकी केवल मूर्तियोंमें वह बात नहीं है । श्वेताम्बर मूर्तियों के १३-१४ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैनहितैषी [भाग १३ पैरोंके नीचे प्रत्यक्ष वस्त्राकार खुदा हुआ रहता है को श्वेताम्बरसंप्रदायकी बतलाते हैं-दिगम्बर और दिगम्बर मूर्तियोंमें दिगम्बरत्व । इस लिए संप्रदायकी नहीं ! इसी पुस्तकके पृष्ठ ४१ पर इस भिन्नता और निलांछनताका कारण जो एक और विलक्षण मूर्त्तिचित्र है, जो आजतक उपाध्यायजी लिखते हैं, वास्तवमें वही है या और मिली हुई सभी मूर्तियोंसे विचित्र है । यह पद्माकोई, इसकी निष्पक्षभावसे मीमांसा कर ऐति- सनस्थ या बैठी हुई प्रतिमा है । आसपास दो हासिक तत्त्वज्ञोंको, वस्तुस्थितिके स्वरूपको मनुष्य हाथ जोडे खड़े हैं । प्रतिमाके नीचे भी उद्घाटित करना चाहिए। तीन स्त्रियाँ और शायद दो पुरुष इसी तरह हाथ जिन सज्जनोंको इस विषयमें विशेष खोज जोड़कर खड़े हैं । मध्यकी जो पद्मासनस्थ मर्ति करनेकी या जाननेकी जिज्ञासा हो उनके लिए, है वह अन्यान्य जैनमूर्तियोंके ही समान है; प्राचीन और विश्वस्त साधनों से, मथुराके कंकाली परंतु विलक्षणता उसमें यह है कि उसके सर्वांग पीलेमेंसे, गवर्नमेण्टके ऑर्किओलॉजिकल सर्वे पर वस्त्र पहराये गये हैं। वस्त्र साफ साफ़ उत्कीर्ण डिपार्टमेण्टकी तरफसे खुदाई करनेपर जो जैन- किये गये हैं; मस्तक पर भी कुछ मुकुट जैसी मूर्तियाँ निकलीं हैं और जो बहुत करके लख वस्तु है । डा० फुहरर इसे वर्धमान स्वामीकी नऊके अजायबघरमें रक्खी हुई हैं बहुत कामकी पतु हैं । इस विषयका विचार करनेमें उनसे बहत मूर्ति बतलाते हैं । मि० मुकरजी, इसे जैनअच्छी सहायता मिल सकेगी। उनकी प्राचीनता प्रतिमा न मानकर विष्णु-कृष्णकी प्रतिमा बतअसन्दिग्ध है । उनमेंसे कई पर ब्राह्मी लिपिमें लाते हैं । क्योंकि अभीतक ऐसी कोई भी जैनलेख भी खुदे हुए हैं । The jain stupa प्रतिमा या बौद्धप्रतिमा नहीं मिली है; परंतु साथ and other Antiquities_of mathura ही यह शंका वहाँ पर भी आ खड़ी होती नामकी एक पुस्तक सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ " है कि कृष्णकी मूर्ति भी तो ऐसी कहीं नहीं Vincent A. Smith ने प्रकट की है, जिसमें - मिली ! बल्कि जैनप्रतिमाओंके साथ तो इसका मथुरावाली इन सब प्रतिमाओंके तथा अन्याय : थोड़ा बहुत सादृश्य है; कृष्णकी प्रतिमाके साथ शिल्पकामवाले पाषाणखण्डोंके चित्र प्रकट किये . तो किंचित् मात्र भी मेल नहीं खाता । कृष्णकी गये हैं। कुछ लेख और उन पर साइबने अपनी ना प्रतिमा जैन या बौद्ध प्रतिमाके सदृश एलथी मार। टीका भी साथमें प्रकट की है। एपिग्राफिया इंडि कर और दोनों हाथ खोलेमें रखकर ध्यानारूढ काके प्रथम दो भागोंमें तथा और भी कुछ .. हुई कहीं भी नहीं देखी सुनी गई । 'कर्मण्येवाधिपुस्तकोंमें इस विषयकी सामग्री संपादित की कारः । वाले कर्मयोगीय उद्गारोंके निकालनेवाले हुई है । इन साधनोंद्वारा, इस विषय पर बहुत । कुछ प्रकाश पड़ सकता है। विन्सेण्ट ए. स्मिथ कृष्णकी मूर्ति इस प्रकार उदासीनता कब धारण साहबवाली रिपोर्ट में बहुतसी जिनप्रतिमाओंके भी कर सकती है ? संसारके सन्तापोंसे संतप्त हो- चित्र दिये हुए हैं, जिनमें कुछ बैठी मूर्तियाँ हैं और कर, उसके संसर्गका सर्वथा ही त्यागकर गिरि कुछ खड़ी हैं। बैठी हुई मूर्तियों पर वस्त्र या नग्न- गुहाओंमें प्रविष्ट होकर महीनोंतक आँखकी ताका कोई चिह्न नजर नहीं आता; परन्तु खड़ी पलक न मारनेवाले बुद्ध या महावीर जैसे परम सर्तियाँ स्पष्ट नग्नाकृतिवाली हैं । परंतु आश्चर्य निविण परुषोंहीकी ऐसी मार्तयाँ हो सकती हैं। यह है कि इन पर जो लेख खुदे हुए हैं, और उनमें जिन गण, शाखा, कुल और , । यह लिखनेका तात्पर्य केवल इतना ही है कि सभागादिके नाम हैं वे श्वेताम्बरोंके सुप्रसिद्ध 'प्राचीन कालमें जिनमूर्तियाँ कैसी थीं?" इस ग्रंथ कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमें दिये हुए नामों- शंकाके समाधानार्थ प्रयत्न करनेवाले मनुष्यको में से हैं । इस लिए डा० बुल्हर इन प्रतिमाओं- पहले इसी दिशामें प्रयाण करनेकी जरूरत है। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः। तेरहवाँ भाग। अंक ७ जैनहितैषी। आषाढ़, २४४३. जुलाई, १९१७. न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ राजा हरदौल। अवसर मिला। सफरकी तैयारियाँ होने लगी। तब राजाने अपने छोटे भाई हरदौलसिंहको बुलाकर कहा-" भैया मैं तो जाता हूँ। अब (ले०-श्रीयुत प्रेमचन्दजी।) यह राजपाट तुम्हारे सुपुर्द है । तुम भी जीसे चन्देलखण्डमें ‘ओरछा ' पुराना राज्य है। उसे प्यार करना । न्याय ही राजाका सबसे बड़ा इसके राजा बुन्देले हैं। इन बुन्देलोंने पहा- सहायक है । न्यायकी गढ़ीमें कोई शत्रु नहीं डोंकी घाटियोंमें अपना जीवन बिताया है । एक घुस सकता, चाहे वह रावणकी सेना या इन्द्रका समय ओरछेके राजा जुझारसिंह थे। ये बड़े बल लेकर आवे । पर न्याय वही सच्चा है, जिसे साहसी और बुद्धिमान थे। शाहजहाँ उस समय प्रजा भी न्याय समझे। तुम्हारा काम केवल दिल्लीके बादशाह थे। जब खानजहाँ लोदीने न्याय करना न होगा, बल्कि प्रजाको अपने बलवा किया और वह शाही मुल्कको लटता न्यायका विश्वास भी दिलाना होगा । और मैं पाटता ओरछेकी ओर आ निकला, तब राजा तुम्हें क्या समझाऊँ तुम स्वय समझदार हो ।” जुझारसिंहने उससे मोरचा लिया । राजाके इस यह कहकर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और कामसे शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुए। क्योंकि वे हरदौलसिंहके सिरपर रख दी । हरदौल रोता मनष्पके गणों की परख करनेवाले थे । उन्होंने हुआ उनके पैरासे लिपट गया। तुरन्त ही राजाको दक्खिनके काम सौंपे । उस इसके बाद राजा अपनी रानीसे बिदा होनेके दिन ओरछे में बड़ा आनन्द मनाया गया । शाही लिए रनवास आये । रानी दरवाजे पर खड़ी सफीर, खिलत और सनद लेकर राजाले - रो रही थी। उन्हें देखते ही पैरों पर गिर पड़ी। आया । जुझारसिंहको बड़े कर उसे छातीसे लगाया और For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जैनहितैषी [भाग १३ कहा-" प्यारी ! यह रोनेका समय नहीं है। अपने राजाके किसी गुण पर इतना नहीं रीझती बुन्देलोंकी स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर रोया नहीं जितना उसकी वीरता पर। हरदौल अपने गुणोंसे करतीं। ईश्वरने चाहा, तो हम तुम जल्द मिलेंगे। अपनी प्रजाके मनका भी राजा हो गया, जो मझ पर ऐसी ही प्रीति रखना। मैंने राजपाट मल्क और माल पर राज करनेसे भी कठिन हरदौलको सौंपा है; वह अभी लड़का है । उसने अभी दुनिया नहीं देखी है । अपनी सलाहोंसे र है। इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। उधर दक्खिउसकी मदद करती रहना।” रानीकी जबान नमें जुझारसिंहने अपने प्रबन्धसे चारों ओर बन्द हो गई । वह अपने मनमें कहने लगी- शाही दबदबा जमा दिया । इधर ओरछेमें हर"हाय यह कहते हैं, बुन्देलोंकी स्त्रियाँ ऐसे अव- दौल ने प्रजापर मोहनी मंत्र फूंक दिया । सरों पर रोया नहीं करतीं । शायद उनके हृदय फागुनका महीना था, अबीर और गुलानहीं होता, या अगर होता है तो उसमें प्रेम न लसे जमीन लाल हो रही थी । कामदेवका होगा।" रानी कलेजे पर पत्थर रखकर आँसू प्रभाव लोगोंको भड़का रहा था, रबीने पी गई और हाथ जोड़कर राजाकी ओर मुस- खेतोंमें सुनहला फर्श बिछा रखा था और कुराती हुए देखने लगी; पर क्या वह मुसकुरा-खलिहानोंमें सुनहले महल उठा दिये थे। सन्तोष हट थी ? जिस तरह घुप्प अन्धेरे मैदानमें मशा- इस सुनहले फर्श पर अठलाता फिरता था और 'लकी रोशनी अन्धेरेको और भी अथाह कर देती निश्चिन्तता इस सुनहले महल में तानें अलाप है उसी तरह रानीकी मुसकुराहट उसके मनके रही थी। इन्हीं दिनोंमें दिल्लीका नामवर फेकैत अथाह दुःखको और भी प्रकट कर रही थी। कादिरखाँ ओरछे आया । बड़े बड़े पहेलवान ___ जुझारसिंहके चले जाने के बाद हरदौल- उसका लोहा मान गये थे। दिल्लीसे ओरछे तक सिंह राज करने लगे। थोड़े ही दिनों उनके मर्दानगीके मदसे मतवाले उसके सामने आये, न्याय और प्रजावात्सल्यने प्रजाका मन हर लिया। पर कोई उससे जीत न सका। उससे लड़ना ___ लोग जुझारसिंहको भूल गये । जुझारसिंह- भागसे नहीं, बल्कि मौतसे लड़ना था । वह के शत्र भी थे और मित्र भी । पर हरदौलसिंहका किसी इनामका भूखा न था; जैसा ही दिलका कोई शत्रु न था। सब मित्र ही थे । वह ऐसा दिलेर था, वैसा ही मनका राजा था । ठीक हँसमुख और मधुरभाषी था कि उससे जो ही होलीके दिन उसने धूम धामसे ओरछेमें सूचना दो बातें कर लेता, वही जीवनभर उसका भक्त दी कि “ खुदाका शेर, दिल्लीका कादिरखाँ बना रहता । राजभरमें ऐसा कोई नहीं था, जो ओरछे आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान भारी उसके पासतक न पहुँच सकता हो । रात दिन हो आकर अपने भागका निपटेरा करले।" उसके दरबारका फाटक सबके लिए खुला ओरछेके बड़े बड़े बुन्देले सुरमा यह घमण्डारी रहता था । आरेछेको कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा वाणी सुनकर गरम हो उठे । फाग और उफकी नसीब न हुआ था। वह उदार था, न्यायी था, तानके बदले ढोलकी धीरध्वनि सुनाई देने विद्या और गुणका ग्राहक था । पर सबसे बड़ा लगी । हरदौलका अखाड़ा ओरछेके पहलवानोंगुण जो उसमें था वह उसकी वीरता थी। उस- और फेकैतोंका सबसे बड़ा अड्डा था । सन्ध्याका यह गुण हद दर्जको पहुँच गया था। जिस को यहाँ सारे शहरके सूरमा जमा हुए। कालदेव जातिके जीवनका अवलम्ब तलवार पर है, वह और भारदेव लन्देलोंकी नाक थे । सैकड़ों For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] राजा हरदौल। मैदान मारे हुए, यही दोनों पहलवान कादिर- गर्दनें आप ही आप उठ जातीं, पर किसीके मुँहसे खाँका घमण्ड चर करनेके लिए चुने गये। एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़ेके दूसरे दिन किलेके सामने तालाबके किनारे अन्दर तलवारोंकी खींचतान थी; पर देखनेबड़े मैदानमें ओरछेके छोटे बड़े जमा हुए। वालोंके लिए अखाड़ेके बाहर मैदानमें इससे भी कैसे कैसे सजीले अलबेले जबान थे-सिरपर बढ़ कर तमाशा था, बार बार जातीय प्रतिष्ठाके खुशरंग बाँकी पगड़ी, माथे पर चन्दनका तिलक, विचारसे मनके भावोंको रोकना और प्रसन्नता आँखोंमें मर्दानगीका सरूर, कमरोंमें तलवार । या दुःखका शब्द मुँहसे बाहर न निकलने देना और कैसे कैसे बूढ़े थे तनी हुई मूंछे, सादी तलवारोंकी वार बचानेसे अधिक कठिन काम पर तिरछी पगड़ी, कानोंसे बँधी हुई दाढ़ियाँ, था। एकाएक कादिरखाँ ( अल्लाहो अकबर ' देखने में तो बूढ़े पर काममें जवान, किसीको चिल्लाया, मानों बादल गरजा उठा और उसके कुछ न समझनेवाले । उनकी मर्दाना चालढाल गरजते ही कालदेवके सिर पर बिजली गिर पड़ी। नौजवानोंको लजाती थी । हरएकके मुँहसे कालदेवके गिरते ही बुन्देलोंको सब न रहा, वीरताकी बातें . निकल रही थीं। नौजवान कहते हर एक चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए थे देखें आज ओरछेकी लाज रहती है या नहीं। घमण्डकी तसबीर खिंच गई । हजारों आदमी पर बूढे कहते थे कि ओरछेकी हार कभी नहीं जोशमें आकर अखाड़े पर दौड़े, पर हरदौलने हुई और न होगी। वीरोंका यह जोश देखकर कहा 'खबरदार! अब कोई आगे न बढ़े ।' इस राजा हरदौलने बड़े जोरसे कह दिया था, आवाजने पैरोंके साथ जंजीरका काम किया। “खबरदार, बुन्देलोंकी लाज रहे या न रहे, दर्शकोंको रोककर जब वे अखाड़ेमें गये और पर उनकी प्रतिष्ठामें बल न पड़ने पावे । यदि कालदेवको देखा, तो आँखोंमें आँसू भर आये। किसीने औरोंको यह कहने का अवसर दिया कि जखमी शेर जमीन पर पड़ा तड़प रहा था । उस ओरछेवाले तलवारसे न जीते, तो धाँधली कर के जीवनकी तरह उसके तलवारके दो टुकड़े बैठे, वह अपनेको जातिका शत्रु समझे । ” हो गये थे। आजका दिन बीता । रात आई । सूर्य निकल आये थे । एकाएक नगाड़े पर पर बुन्देलोंकी आँखोंमें नींद कहाँ ? लोगोंने करचोब पड़ी और आशा तथा भयने लोगोंके वटें बदलकर रात काटी । जैसे दुःखित मनुष्य मनको उछालकर मुँहतक पहुँचा दिया । बिकलतासे सुबहकी वाट जोहता है, उसी तरह कालदेव और कादिरखाँ दोनों लंगोट कसे शेरोंकी बुन्देले रह-रहकर आकाशकी तरफ देखते और तरह अखाड़में उतरे और गले मिल गये। उसकी धीमी चाल पर झुंझलाते थे । उनके तब दोनों तरफसे तलवारें निकलीं और दोनोंके जातीय घमण्ड पर गहरा घाव लगा था । दूसरे बगलोंमें चली गई। फिर बादलके दो टुकड़ोंसे दिन ज्योंही सूर्य निकला, तीन लाख बुन्देले बिजलियां निकलने लगीं । पूरे तीन घण्टेतक तालाबके किनारे पहुँचे। जिस समय भालदेव शेरकी यही मालूम होता था कि दो अँगारे हैं । हज़ारों तरह अखाडेकी तरफ़ चला, दिलोंमें धड़कआदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदानमें नसी होने लगी। कल जब कालदेव अखाड़ेमें आधीरातका सा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब उतरा था बुन्देलोंके हौसले बढ़े हुए थे, पर कभी कालदेव कोई गिरहदार हाथ चलाता या आज बह बात न थी। हृदयोंमें आशाकी जगह कोई पेचदार बार बचा जाता, तो लोगोंकी डर घुसा हुआ था । जब कादिरखाँ कोई चुटीला For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी __ [भाग १३ ॥ वार करता तो लोगोंके दिल उछल कर होठोंतक कुलीना--"क्या भालदेव मारा गया ?" आ जाते थे । सूर्य्य सिरपर चढ़ा आता था और हरदौल-" नहीं, जानसे तो नहीं, पर लोगोंके दिल बैठे जाते थे। इसमें कोई सन्देह नहीं हार हो गई।" कि भालदेव अपने भाईसे फुर्तीला और तेज था। कुलीना -“ तो अब क्या करना होगा ?" उसने कई बार कादिरखाँको नीचा दिखलाया, हरदौल-" मैं स्वयं इसी सोचमें हूँ । पर दिल्लीका निपुण पहलवान हर वार सम्हल आजतक ओरछेको कभी नीचा न देखना पड़ा जाता था। पूरे तीन घंटेतक दोनों बहादुरोंमें था। हमारे पास धन न था, पर अपनी वीरतलवारें चलती रहीं । एकाएक खट्टाकेकी ताके सामने हम राज और धनको कोई चीज आवाज़ हुई और भालदेवकी तलवारके दो नहीं समझते थे । अब हम किस मुँहसे अपनी टुकड़े हो गये । राजा हरदौल अखाड़ेके सामने वीरताका घमण्ड करेंगे-ओरछेकी और बुन्देखड़े थे। उन्होंने भालदेवकी तरफ तेजीसे अपनी लोंकी लाज अब जाती है !" तलवार फेंकी। भालदेव तलवार लेनेके लिए कुलीना--" क्या अब कोई आस नहीं है?" झुका ही था कि कादिरखाँकी तलवार उसकी गर्द- हरदौल-“ हमारे पहलवानोंमें वैसा कोई नपर आ पड़ी । घाव गहरा न था, केवल एक नहीं है, जो उससे वाजी ले जाय । भालदेवकी ' चरका' था, पर उसने लड़ाईका फैसला हारने बुन्देलोंकी हिम्मत तोड़ दी है । आज कर दिया। सारे शहरमें शोक छाया हआ है। सैकडों घरोंमें .. हताश बुन्देले अपने अपने घरोंको लौटे। यद्य- आग नहीं जली । चिराग रोशन नहीं हुआ । पि भालदेव अब भी लड़नेको तैयार थे, पर हर- हमारे देश और जातिकी वह चीज अब अन्तिम दौलने समझाकर कहा कि, “भाइयो ! हमारी स्वाँस ले रही है, जिससे हमारा मान था । मालहार उसी समय हो गई, जब हमारी तलवारने देव हमारा उस्ताद था। उसके हार चुकनेके जवाब दे दिया। यदि हम कादिरखाँकी जगह बाद मेरा मैदानमें आना धृष्टता है, पर बुन्देलोंहोते तो निहत्थे आदमी पर वार न करते । और की साख जाती है तो मेरा सिर भी उसके साथ जबतक हमारे शत्रुके हाथमें तलवार न आ जायगा। कादिरखाँ बेशक अपने हुनरमें एक ही जाती हम उस पर हाथ न उठाते; पर कादिर- है, पर हमारा भालदेव कभी उससे कम नहीं। खामें यह उदारता कहाँ ? बलवान शत्रका साम- उसकी तलवार यदि भालदेवके हाथमें होती ना करनेमें उदारताको ताक पर रख देना पड़ता तो मैदान ज़रूर उसके हाथ रहता । ओरछेमें है । तो भी हमने दिखा दिया है कि तलवारकी केवल एक तलवार है, जो कादिरखाँकी तलवारलड़ाईमें हम उसके बराबर हैं और अब हमको का मुँह मोड़ सकती है । वह भैय्याकी तलवार यह दिखाना रहा है कि हमारी तलवारमें भी है। अगर तुम ओरछेकी नाक रखना चाहती वैसा ही जौहर है। " इसी तरह लोगोंको तस. हो तो उसे मुझे दे दो। यह हमारी अन्तिम ल्ली देकर राजा हरदौल रनवासको गये। चेष्टा होगी; यदि अबके भी हार हुई तो ओर'कुलीनाने पूछा-" लाला ! आज दङ्गालका छेका नाम सदैवके लिए डूब जायगा।" क्या रंग रहा ?” कुलीना सोचने लगी। तलवार इनको दूं या ___ हरदौलने सिर झुकाकर जवाब दिया- न हूँ। राजा रोक गये हैं। उनकी आज्ञा थी " आज भी वही कलकासा हाल रहा।" कि किसी दूसरेकी परछाहीं भी उस पर न पड़ने For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] राजा हरदौल। २९७ are... .. पावे । क्या ऐसी दशामें मैं उनकी आज्ञाका था। हजारों आदमियों पर वीरताका नशा छा उल्लंघन करूँ तो वे नाराज होंगे ? कभी नहीं । गया। तलवारें स्वयं म्यानसे निकल पड़ी, भाले जब वे सुनेंगे कि मैंने कैसे कठिन समयमें तलवार चमकने लगे। जीतकी खुशीमें सैकड़ों जानें निकाली है, तो उन्हें सच्ची प्रसन्नता होगी। भेंट हो गई । पर जब हरदौल अखाड़ेसे बाहर बुन्देलोंकी आन किसको इतनी प्यारी है ? उनसे आये और उन्होंने बुन्देलोंकी ओर तेज निगाज्यादा ओरछेकी भलाई चाहनेवाला कौन होगा? होंसे देखा तो आनकी आनमें लोग सम्हल इस समय उनकी आज्ञाका उल्लंघन करना ही गये । तलवारें म्यानोंमें जा छिपी । खयाल आ आज्ञा मानना है । यह सोचकर कुलीनाने तल- गया। यह खुशी क्यों ? यह उमङ्ग क्यों और वार हरदौलको दे दी। यह पागलपन किस लिए ? बुन्देलोंके लिए यह ___ सबेरा होते ही यह खबर फैल गई कि राजा कोई नई बात नहीं हुई । इस विचारने लोगोंका हरदौल कादिरखाँसे लड़नेके लिए जा रहे हैं। दिल ठंडा कर दिया । हरदौलकी इस वीरताने इतना सुनते ही लोगोंमें सनसनी सी फैल गई उसे हरएक बुन्देलेके दिलमें मान-प्रतिष्ठाकी उस और वे चौंक उठे। पागलोंकी तरह लोग अखाड़ेकी ऊँची जगह पर जा बिठाया जहाँ न्याय और ओर दौड़े। हरएक आदमी कहता था कि, जबतक उदारता भी उसे न पहुँचा सकती थी । वह हम जीते हैं हम महाराजको लड़ने नहीं देंगे। पहलेहीसे सर्वप्रिय था; और अब वह अपनी पर जब लोग अखाड़ेके पास पहुँचे तो देखा कि जातिका वरिवर और बुन्देला दिलावरीका सिरअखाडमें बिजलियाँ सी चमक रही हैं। बुन्दे- मौर बन गया। लोंके दिलों पर उस समय जैसी बीत रही थी, राजा जुझारसिंहने भी दक्षिणमें अपनी योग्यउसका अनुमान करना कठिन है । उस समय ताका परिचय दिया । वे केवल लड़ाईमें ही वीर उस लम्बे चौड़े मैदानमें जहाँतक निगाह न थे, बल्कि राज्यशासनमें भी अद्वितीय थे। जाती थी आदमी ही आदमी नजर आते थे। उन्होंने अपने सुप्रबन्धसे दक्षिण प्रान्तको बलवान् पर चारों तरफ सन्नाटा था। हर एक आँख राज्य बना दिया और वर्षभरके बाद बादशाहसे अखाड़ेकी तरफ लगी हुई थी और हर एकका आज्ञा लेकर वे ओरछेकी तरफ चले। ओरछेकी दिल हरदौलकी मङ्गलकामनाके लिए ईश्व- याद उन्हें सदैव बेचैन करती रही। आह ओरछा! रका प्रार्थी था। कादिरखाँका एक एक वार वह दिन कब आवेगा कि फिर तेरे दर्शन होंगे। हजारों दिलोंके टुकड़े कर देता था और राजा मंजिलें मारते चले आते थे। न भूख थी, हरदौलकी एकएक काटसे मनोंमें आनन्दकी न प्यास, ओरछेवालोंकी मुहव्वत खींचे लिये लहरें उठती थीं । अखाड़ेमें दो पहलवानोंका आती थी । यहाँतक कि ओरछेके जंगलोंमें सामना था और अखाड़े के बाहर ' आशा और आ पहुँचे। साथके आदमी पीछे छूट गये । निराशा' का। आखिर घड़ियालने पहला पहर दो पहरका समय था । धूप तेज थी । बजाया और हरदौलकी तलवार बिजली बनकर वे घोड़ेसे उतरे और एक पेड़की छाँहमें जा बैठे। कादिरके सिर पर गिरी। यह देखते ही बुन्देले भाग्यवश आज हरदौल भी जीतकी खुशीमें मारे आनन्दके उन्मत्त हो गये । किसीको शिकार खेलने निकले थे । सैकड़ों बुन्देला किसीकी सुधि न रही । कोई किसीसे गले सरदार उनके साथ थे। सब अभिमानके नशेमें मिलता, कोई उछलता और कोई छलाँगे भरता चूर थे । उन्होंने राजा जुझारसिंहको अकेले For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जैनहितैषी [भाग १३ बैठे देखा, पर वे अपने घमण्डमें इतने डूबे हुए थे था, कितनी प्रतीक्षाके बाद यह शुभ दिन कि इनके पासतक न आये। समझे कोई यात्री आया था, उसके उल्लासका कोई पारावार न था। होगा। हरदौलकी आँखोंने भी धोखा खाया। पर राजाके तीवर देखकर उसके प्राण सूख गये। वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझारसिंहके जब राजा उठ गये और उसने थालको देखा सामने आये और पूछना चाहते थे कि तुम तो कलेजा धकसे हो गया और पैरतलेसे मिट्टी कौन हो कि भाईसे आँख मिल गई । पहचानते ही निकल गई । उसने सिर पीट लिया। ईश्वर ! घोड़ेसे कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। आज रात कुशलपूर्वक कटे, मुझे शकुन अच्छे राजाने भी उठकर हरदौलको छातीसे लगाया। दिखाई नहीं देते। पर उस छातीमें अब भाईकी मुहब्बत न थी। राजा जुझारसिंह शीशमहल में लेटे। चतुर मुहब्बतकी जगह इर्षाने घेर ली थी, और केवल नाइनने रानीका शृंगार किया और मुसकुराकर इसी लिए कि हरदौल दूरसे नंगे पैर उनकी बोली, कल महाराजसे इसका इनाम लूंगी । यह तरफ न दौड़ा । उसके सवारोंने दूरहीसे कहकर वह चली गई । परंतु कुलीना वहाँसे न उनकी अभ्यर्थना न की। सन्ध्या होते होते दोनों उठी । वह गहरे सोचमें पड़ी हुई थी। उनके भाई ओरछे पहुँचे । राजाके लौटनेका समाचार सामने कौनसा मुँह लेकर जाऊँ । नाइनने नाहक पाते ही नगरमें प्रसन्नताकी दुदभी बजने लगी।हर मेरा शृंगार कर दिया। मेरा शृंगार देखकर वे जगह आनन्दीत्सव होने लगा और तुरताफुरती खुश भी होंगे ? मुझसे इस समय अपराध हुआ सारा शहर जगमगा उठा । आज रानी कुली- है, मैं अपराधिनी हूँ, मेर! उनके पास इस समय नाने अपने हाथोंसे भोजन बनाया। नौ बजे बनाव शृंगार करके जाना उचित नहीं । होंगे। लौंडीने आकर कहा-महाराज, भोजन नहीं, नहीं !! आज मुझे उनके पास भिखारीतैयार हैं। दोनों भाई भोजन करने गये । सोने- नीके भेषमें जाना चाहिए। मैं उनसे क्षमादान के थालमें राजा के लिए भोजन परोसा गया माँगूगी । इस समय मेरे लिए यही उचित है। और चाँदीके थालमें हरदौलके लिए । कुली- यह सोच कर रानी बड़े शीशेके सामने खड़ी हो नाने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे गई । वह अप्सरा मालूम होती थी। सुन्दरताथे, और स्वयं ही सामने लाई थी, पर दिनों का की कितनी ही तसबीरें उसने देखी थीं; पर उसे चक्र कहो, या भाग्यके दुर्दिन, उसने भूलसे सोने. इस समय शीशेकी तसबीर सबसे ज्यादा खूबका थाल हरदौलके आगे रख दिया और चाँदी- सूरत मालूम होती थी। का राजाके सामने । हरदौलने कुछ ध्यान न सुन्दरता और आत्मरुचिका साथ है । हल्दी दिया । वह वर्षभरसे सोनेके थालमें खाते विना रंगके नहीं रह सकती । थोड़ी देरके लिए खाते उसका आदी हो गया था, पर जुझारसिंह कुलीना सुन्दरताके मदसे फूल उठी । वह तलमला गये । जबानसे कुछ न बोले, पर तीवर तन कर खड़ी हो गई । लोग कहते हैं बदल गये और मुंह लाल हो गया। रानीकी कि सुन्दरतामें जादू है और वह जादू तरफ घूर कर देखा और भोजन करने लगे, पर जिसका कोई उतार नहीं । शर्मा और कर्म, तन ग्रास विष मालूम होता था । दो चार ग्रास खा- और मन, सब सुन्दरता पर न्योछावर हैं। मैं कर उठ आये । रानी उनके तीवर देखकर डर सुन्दर न सही, ऐसी कुरूपा भी नहीं हूँ। क्या गई। आज कैसे प्रेमसे उसने भोजन बनाया मेरी सुन्दरतामें इतनी भी शक्ति नहीं है कि म For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] राजा हरदौल। २९९ हाराजसे मेरा अपराध क्षमा करा सके। ये “ क्या इस लिए कि आज मेरी भूलसे ज्योनाबाहुलतायें जिस समय उनके गलेका हार होंगी, रके थालोंमें उलट फेर हो गया ?" ये आँखें जिस समय प्रेमके मदसे लाल होकर राजा-" नहीं! इस लिए कि हरदौलने देखेंगी, तब क्या मेरे सौन्दर्यकी शीतलता उनकी तुम्हारे प्रेममें उलट फेर कर दिया।” क्रोधाग्निको ठंडा न कर देगी ! पर थोड़ी देरमें जैसे आगकी आँचसे लोहा लाल हो जाता रानीको ज्ञान हुआ ! आह ! यह मैं क्या स्वप्न . है, वैसे ही रानीका मुँह लाल हो गया। क्रोधकी देख रही हूँ ! मेरे मनमें ऐसी बातें क्यों आती अग्नि सद्भावोंकी भस्म कर देती है, प्रेम और हैं ? मैं अच्छी हूँ, या बुरी हूँ उनकी प्रतिष्ठा, दया और न्याय, सब जलके राख हो चेरी हूँ ! मुझसे अपराध हुआ है, मुझे उनसे जाते हैं । एक मिनिटतक रानीको ऐसा मालूम क्षमा माँगनी चाहिए । यह शृंगार और बनाव हुआ, मानों दिल और दिमाग दोनों खौल रहे इस समय उपयुक्त नहीं है। यह सोचकर रानीने हैं। पर उसने आत्मदमनकी अन्तिम चेष्टासे सब गहने उतार दिये । इतरमें बसी हुई हरे रेश- अपनेको सम्हाला, केवल इतना बोली-“ हरदौप्रकी साड़ी अलग कर दी। मोतियोंसे भरी माँग लको मैं अपना लड़का और भाई समझती हूँ।” खोल दी और खूब फूट फूटकर रोई। हाय ! यह राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वरसे बोलमिलापकी रात बिछुड़नकी रातसे भी विशेष दुःख- “ नहीं-हरदौल लड़का नहीं है, लड़का में दाई है । भिखारिनीका भेष बनाकर रानी शीश- हूँ, जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया । महलकी ओर चली ! पैर आगे बढ़ते थे, पर कुलीना ! मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मन पीछे हटा जाता था । दरवाजेतक आई; मुझे तुम्हारे ऊपर घमंड था, मैं समझता था पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा, चाँद सूर्य टल सकते हैं, पर तुम्हारा दिल नहीं ऐसा जान पड़ा मानों उसके पैर थर्रा रहे हैं। टल सकता । पर आज मुझे मालूम हुआ कि, राजा जुझाराहि बोले-" कौन है ?-कुलीना? यह मेरा लड़कपन था । बड़ोंने सच कहा है भीतर क्यों नहीं आ जाती ?" कि, स्त्रीका प्रेम पानीकी धार है, जिस ओर __ कुलीनाने जी कड़ा करके कहा-"महाराज! ढाल पाता है उधर ही बह जाता है ।--सोना कैसे आऊँ ? मैं अपनी जगह क्रोधको बैठा हुआ ज्यादा गर्म होकर पिघल जाता है ।" पाती हूँ।" कुलीना रोने लगी । क्रोधकी आग पानी बनराजा---" यह क्यों नहीं कहतीं कि मन कर आँखोंसे निकल पड़ी। जब आवाज वशमें दोषी है, इस लिए आँखे नहीं मिलाने देता।" हुई, तो बोली-" मैं आपके इस सन्देहको कैसे कुलीना--" निस्सन्देह मुझसे अपराध हुआ राजा--" हरदौलके खूनसे।" है, पर एक अबला आपसे क्षमाका दान। ___ रानी-“ मेरे खूनसे दाग न मिटेगा ?" पाँगती है।" राजा-“ तुम्हारे खूनसे और पक्का हो राजा--..." इसका प्रायश्चित्त करना होगा।" जायगा !" कुलीना-"क्योंकर ?” रानी;" और कोई उपाय नहीं है ? " राजा-" हरदौलके खूनसे !" राजा-“ नहीं।" कलीना सिरसे पैरतक काँप गई । बोली- रानी-" यह आपका अन्तिम विचार है ?" " दर कम For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनहितैषी [भाग १३ राजा--" हाँ; यह मेरा अन्तिम विचार है। से उसका सिर नहीं काटते ? मुझसे वह काम देखो, इस पानदानमें पानका बीड़ा रखा है। करनेको कहते हो। तुम खूब जानते हो मैं नहीं तुम्हारे सतीत्वकी परीक्षा यही है कि तुम हरदौ- कर सकती । यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया लको इसे अपने हाथसे खिला दो। मेरे मनका है, यदि मैं तुम्हारी जानकी जंजाल हो गई हूँ भ्रम उसी समय निकलेगा, जब इस घरसे हर- तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो । मैं बेखटके दौलकी लाश निकलेगी।" चली जाऊँगी । पर ईश्वर के लिए मेरे सिर इतना रानीने घृणाकी दृष्टि से पानके बीड़ेको देखा बड़ा कलंक न लगने दो। पर मैं जीवित ही क्यों और वह उलटे पैर लौट आई। रहूँ ? मेरे लिए अब जीवनमें कोई सुख नहीं है। रानी सोचने लगी, क्या हरदौलके प्राण लूँ ? अब मेरा मरना ही अच्छा है । मैं स्वयं प्राण निर्दोष, सच्चरित्र, वीर हरदौलकी जानसे अपने दे दूँगी, पर यह महापाप मुझसे न होगा । सतीत्वकी परीक्षा दूँ ? उस हरदौलके खूनसे विचारोंने फिर पलटा खाया । तुमको यह पाप अपना हाथ काला करूँ जो मुझे बहन समझता करना ही होगा । इससे बड़ा पाप शायद है ? यह पाप किसके सिर पड़ेगा ? क्या एक आजतक संसार में न हुआ हो । पर यह निर्दोषका खून रंग न लायेगा । आह ! अभागी पाप तुमको करना होगा । तुम्हारे पतिव्रत पर कुलीना ! तुझे आज अपनी सतीत्वकी परीक्षा सन्देह किया जा रहा है और तुम्हें इस सन्देहको देनेकी आवश्यकता पड़ी है और वह ऐसी मिटाना होगा । यदि तुम्हारी जान जोखिममें कठिन । नहीं, यह पाप मुझसे न होगा । यदि होती, तो कुछ हर्ज न था। अपनी जान देकर राजा मुझे कुलटा समझते है तो समझें, उन्हें हरदौलको बचा लेती । पर इस समय तुम्हारे मुझपर सन्देह है तो हो । मुझसे यह पाप न पातिव्रत पर आँच आ रही है । इस लिए तुम्हें होगा। राजाको ऐसा सन्देह क्यों हुआ? क्या यह पाप करना ही होगा । और पाप करनेके केवल थालोंके बदल जानेसे ? नहीं, अवश्य बाद हँसना और प्रसन्न रहना होगा । यदि कोई और बात है । आज हरदौल उन्हें जंगलमें तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि मिल गया था। राजाने उसकी कमरमें तलवार तुम्हारा मुखड़ा जरा भी मध्यम हुआ, तो देखी होगी। क्या आश्चर्य है, हरदौलसे कोई इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम सन्देह मिटाअपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है ? नेमें सफल न होगी। तुम्हारे जी पर चाहे जो मुझ पर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है ? बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा । परंतु केवल थालोंके बदल जानेसे । हे ईश्वर ! मैं कैसे होगा ? क्या मैं हरदौलका सिर उतारूँगी ? किससे अपना दुःख कहूँ ? तूही मेरा साक्षी है। यह सोचकर रानीके शरीरमें कँपकँपी आ गई ! जो चाहे सो हो, पर मुझसे यह पाप न होगा। नहीं; मेरा हाथ उस पर कभी नहीं उठ सकता : ___ रानीने फिर सोचा, राजा, क्या तुम्हारा हृदय प्यारे हरदौल ! मैं तुम्हें विष नहीं खिला सकती ! ऐसा ओछा और नीच है ? तुम मुझसे हरदौल- मैं जानती हूँ, तुम मेरे लिए आनन्दसे विषका की जान लेनेको कहते हो ? यदि तुमसे उस- बीड़ा खा लोगे । हाँ, मैं जानती हूँ, तुम नाहीं न का अधिकार और भान नहीं देखा जाता तो करोगे। पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता ! क्यों साफ साफ ऐसा नहीं कहते ? क्यों मरदों- एक बार नहीं, हजार बार नहीं हो सकता। की लड़ाई नमि उड़ते ? क्या स्वयं अपने हाथ- हरदौलको इन बातोंकी कुछ भी खबर न For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] राजा हरदौल। ३०१ थी। आधीरातको एक दासी रोती हुई उसके प्राण देकर उनके इस सन्देहको दूर कर दूं पास गई और उससे सब समाचार अक्षर उनके मनमें यह दुखानेवाला सन्देह उत्पन्न अक्षर कह सुनाया । वह दासी पानदान लेकर करके यदि मैं जीता ही रहूँ और अपने मनकी रानीके पीछे पीछे सेजमहलके दरवाजेतक गई पवित्रता जनाऊँ तो मेरी ढिठाई है। नहीं, इस थी और सब बातें सुनकर आई थी । हरदौल भले काममें अधिक आगा पीछा करना अच्छा राजाका ढंग देखकर पहले ही ताड़ गया था कि नहीं । मैं खुशीसे विषका बीड़ा खाऊँगा। इससे राजाके मनमें कोई न कोई काँटा अवश्य खटक बढ़कर शूरवीरकी मृत्यु और क्या हो सकती है ? रहा है। दासीकी बातोंने उसके सन्देहको और क्रोधमें आकर, मारूके मन बढ़ानेवाले शब्द भी पक्का कर दिया। उसने दासीसे कड़ी मनाही सुनकर रणक्षेत्रमें अपनी जानको तुच्छ समझना कर दी कि सावधान ! किसी दूसरेके कानोंमें इतना कठिन नहीं है । आज सच्चा वीर हरदौल इन बातोंकी भनक न पड़े और वह स्वयं मरनेके अपने हृदयके बढ़प्पन पर अपनी सारी वीरता लिए तैयार हो गया। और साहस न्यौछावर करनेको उद्यत है । ___ हरदौल बुन्देलोंकी वीरताका सूरज था। दूसरे दिन हरदौलने खूब तड़के स्नान किया। उसके भौंहोंके तनिक इशारेसे तीन लाख बुन्देले बदन पर अस्त्रशस्त्र साजे और मुसकुराता हुआ मरने और मारनेके लिए इकडे हो सकते थे। राजाके पास गया । राजा भी सोकर तुरंत ही ओरछा उस पर न्यौछावर था । यदि जुझारसिंह उठे थे, उनकी अलसाई हुई आँखें हरदौलकी खुले मैदान उसका सामना करता, तो अवश्य मूर्तिकी ओर लगी हुई थीं। सामने सङ्गमर्मरकी मुँहकी खाता । क्योंकि हरदौल भी बुन्देला था चौकीपर विष मिला पान सोनेकी तश्तरीमें रक्खा और बन्देला अपने शत्रके साथ किसी प्रकारकी हआ था। राजा कभी पानकी ओर ताकते और मुहँदेखी नहीं करते, मरना मारना उनके जीवनका कभी मूर्तिकी ओर, शायद उनके विचारने इस एक अच्छा दिल बहलाव है। उन्हें सदा इसकी विषकी गाँठ और उस मूर्ति में एक सम्बन्ध पैदा लालसा रहती है कि कोई हमें चुनौती दे, कर दिया था। उससमय जो हरदौल एकाएक कोई हमें छेड़े। उन्हें सदा खूनकी प्यास रहती घरमें पहुँचे, तो राजा चौंक पड़े और सम्हल है और वह प्यास कभी नहीं बुझती । परंतु उस कर पूछा, “ इस समय कहाँ चले ?" समय एक स्त्रीको उसके खूनकी जरूरत थी हरदौलका मुखड़ा प्रफुल्लित था । वह हँसकर और उसका साहस उसके कानोंमें कहता था बोला,-" कल आप यहाँ पधारे हैं, इसी खुशीमें कि एक निर्दोष और सती अबलाके लिए अपने मैं आज शिकार खेलने जाता है। आपको शरीरका खून देनेमें मुँह न मोड़ो । यदि भैयाको ईश्वरने अजीत बनाया है, मुझे अपने हाथसे यह सन्देह होता कि-"मैं उनके खूनका प्यासा विजयका बीड़ा दीजिए।" हूँ और उन्हें मारकर राज पर आधिकार करना यह कहकर हरदौलने चौकीपरसे पानदान चाहता हूँ" तो कुछ हर्ज न था। राजके लिए उठा लिया और उसे राजाके सामने रखकर कतल और खून, दगा और फरेब सब उचित बीड़ा लेने लिए हाथ बढ़ाया । हरदौलका खिला समझा गया है। परंतु उनके इस सन्देहका मुखड़ा देखकर राजाकी ईर्षाकी आग और र्भा निपटेरा मेरे मरनेके सिवा और किसी तरह नहीं भड़क उठी । दुष्ट ! मेरे घाव पर नमक छिड़हो सकता । इस समय मेरा धर्म है कि, अपना कने आया है? मेरे मान और विश्वासको मिट्टी For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ में मिलाने पर भी तेरा जी न भरा ? मुझसे विजयका बीड़ा माँगता है ? हाँ, यह विजयका बीड़ा है । पर तेरी विजयका नहीं, मेरी विजयका | जैनहितैषी - इतना मनमें कहकर जुझारसिंहने बीड़ेको हाथमें उठाया । एक क्षणतक कुछ सोचता रहा, फिर मुसकुराकर हरदौलको बीड़ा दे दिया । हरदौल सिर झुकाकर बीड़ा लिया, उसे माथे पर चढ़ाया। एक बार बड़ी ही करुणा के साथ चारों ओर देखा और बीड़े को मुँहमें रख लिया। एक सच्चे राजपूतने अपना पुरुषत्व दिखा दिया । विष हालाहल था; कंठ के नीचे उतरते ही हरदौल - के मुखड़ेपर मुर्दनी छा गई और आँखें बुझ गई । उसने एक ठण्डी साँस ली और दोनों हाथ जोड़कर जुझारसिंहको प्रणाम किया और जमीन पर बैठ गया । उसके ललाट पर पसी । की ठण्डी ठण्ढी बूँदें दिखाई दे रही थीं और साँस तेजी से चलने लगी थी । पर चेहरे पर प्रसन्नता और सन्तोषकी झलक दिखाई देती थी जुझारसिंह अपनी जगह से जरा भी न हिला उसके चेहरे पर वीर - ईर्षा से भरी हुई मुसकुराहट छाई हुई थी, पर आँखों में आँसू भर आये थे । उजेले और अँधेरेका मिलाप हो गया था । । गोलमालकारिणी सभा । समाज इस समय बड़ी उलझनों में पड़ा हुआ "है । बेचारा एक उलझन मेंसे निकल नहीं पाता हैं कि दूसरीमें गढ़प ! यह देखकर समाज के कुछ शुभचिंतकोंने एक नई सभा स्थापित की है। स्थापकों का सिद्धान्त है कि कोई उलझन कभी सुलझती नहीं । लोग व्यर्थ ही सिरखप्पी किया करते और रागद्वेष बढ़ाया करते हैं । इन उलझनों को सुलझाने में जितना वक्त और बल लगाया [ भाग १३ जाता है उसका सौवाँ हजारवाँ हिस्सा भी यदि गोलमाल करनेमें लगाया जाय तो समाज उलझनोंके दुःखको एकदम भूल जाय । उलझनोंके विषदन्त उखड़ जायँ, वे किसीको सता ही न सकेँ । अतएव गोलमाल करना इस सभाका मुख्य उद्देश्य है और इसी कारण इसका अन्वर्थक नाम भी गोलमालकारिणी सभा रक्खा गया है । मैं श्रीगड़बड़ानन्द शास्त्री बहुसम्मति से इस सभा आनरेरी सैक्रेटरी बनाया गया हूँ । केवल परोपकारके लिए ही मैं इस सभा की रिपोर्ट जैनहितैषीके द्वारा प्रकाशित किया करूँगा । हितैषीके सम्पादकने मेरा चित्र और चरित्र प्रकाशित करनेका वादा करके मुझे रिपोर्ट भेजते रहने के लिए राजी कर लिया है । सभाका पहला जल्सा बड़ी धूमधाम से हुआ । सभासदों का उत्साह उमड़ा आता था । एक सज्जनने ब्रह्मचारी गोलमालानन्दजीको सभापति बनाने का प्रस्ताव उपस्थित किया और कहा कि गोलमाल करनेमें जितने सिद्धहस्त आप हैं, उतना इस समय कोई भी नजर नहीं आता । आप अपनी इस विद्याके बलसे पण्डित और बाबू, तेरहपंथी और बीसपंथी, छापिया और गैर छापिया, सबको ही वशमें रख सकते हैं। एक ही साथ आप सबके शुभचिन्तक हैं । सारी संस्थाओंकी पोलोंको आप अपने विस्तृत पर फैलाकर उसी तरह ढँके रहते हैं जिस तरह मुर्गी अपने अण्डों को। क्या मजाल जो उन्हें हवा लग जाय । यदि कोई जरा भी उनके विरुद्ध चूँ चरा करे, तो आप उस पर दो चार चोंचें जमा देने को भी तैयार रहते हैं । दूसरे सज्जनने इस प्रस्तावका अनुमोदन करते हुए कहा कि सबसे बड़ी बात यह है कि गोलमालानन्दजी अपने श्रद्धानको दिनों दिन शुद्ध करते जाते हैं और कुछ लोगोंने आपको जो 'सुधारक' के नाम से प्रसिद्ध कर रक्खा था उसे धोकर साफ करते जाते हैं । अब I For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] गोलमालकारिणी सभा। ३०३ आप जैनधर्मकी प्रत्येक बातपर अगाध श्रद्धा हुआ है और इसके लिए मैंने सामायिकके बाप्रकट करते हैं । भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यके दके पूरे दो घण्टे खर्च किये हैं। क्या आप ग्रन्थोंको आप जिस पूज्य दृष्टिसे देखते हैं, उससे मेरे गहरे आत्मानन्दको छलका देनेवाले ' अहः' भी तिलभर अधिक दृष्टि से भद्रबाहुसंहिताके कर्ता- 'ओह' आदि शब्दोंसे भी नहीं समझ सकते को देखते हैं । विधवाविवाहके पक्षपाती भी कि यह मेरी ही चीज है ? चक्रवर्तियोंकी एक अब आप नहीं हैं। आपने तमाम जैन पण्डि- हजार रानियोंवाली कथा पर विश्वास न करने तोंसे इसके विरोधमें लेख लिखनेका आग्रह किया वालोंका मुँह बन्द करनेके लिए मैंने जो सैकड़ों है । एक और सेठजीने इसका समर्थन करते हुए गायोंका स्वामी बनकर रहनेवाले साँड़का बेकहा कि आप इतिहासके भी अच्छे जानकार हैं। जोड़ दृष्टान्त ढूंढ़ निकाला है, वह भी तो इस आप तमाम पट्टावलियों, कथाओं और किंवदान्ति- व्याख्यानमें मौजूद है; जिससे आपको इसके योंको सोलह आनासच समझते हैं। जिस प्रतिमापर मेरे लिखे होने में कोई शंका न होनी चाहिए। कोई सन् संवत् न हो, उसे आप चौथे कालकी आपके व्याख्यानसे लोग तन्मय हो गये बनी हुई समझते हैं। यह आपकी खास खोज और सभामें बैठे बैठे ही झुकझुककर अनुभवानन्द है। आपने अपने किसी सहधर्मीकी लिखी हुई करने लगे । जब एक बड़ी तोंद और विस्तृत एक यात्रापुस्तकको किसी भण्डारमेंसे 'खोज पगड़ीवाले सज्जनने भीमगर्जनसे बोलना शुरू निकाली है और उसे छपाकर प्रकाशित भी कर किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि रातकी दिया है। और और लोग तो उसे किसी अफी- सब्जैक्ट कमेटीमें तय किये हुए प्रस्ताव पेश मचीकी लिखी हुई गहरी गप्प समझते हैं, परन्तु किये जा रहे हैं और तब बिचारोंको आँखें आपने उसे बिलकुल सच समझा है और उसके खोल देनी पड़ी । नीचे लिखे प्रस्ताव यथा अनुसार आप एक बड़े संघके साथ एक दुर्गम नियम उपस्थित किये गये और अनुमोदनादिके तीर्थकी यात्राके लिए जाना चाहते हैं। आपने बाद पास किये गये। एक बार प्रकट किया था कि जर्मन आदि १ त्रिवर्णाचार, भद्रबाहुसंहिता आदिके परी. देशोंने जो विज्ञानके बड़े बड़े आविष्कार किये क्षकोंकी बुद्धि पर सभा शोक प्रकाशित करती है हैं, वे सब हमारे ग्रन्थोंको ही पढ़कर किये हैं। जो जरूरतसे ज्यादा सत्यवक्ता बन रहे हैं भला ऐसी ऊँची समझ रखनेवाला सभापति और जैनविद्वानोंसे प्रार्थना करती है कि वे आपको और कौन मिलेगा ? उन्हें जिनवाणीनिन्दाके महान् पापसे बचानेके तालियोंकी प्रचण्ड गडगडाट के बीच श्री. लिए जीजानसे उद्योग करें। गोलमालानन्दजीने सभापतिका आसन स्वीकार १ जैनमित्र संपादक महाशयको सभा इस किया और अपना विस्तृत व्याख्यान पदमा लिए धन्यवाद देती है कि उन्होंने भद्रबाहुसंहिशुरू किया । उसे सुनकर कुछ श्रोता कानाफूसी ताकी परीक्षाको जैनमित्रमें उद्धृत नहीं किया और करने लगे कि यह आपका लिखा हुआ नहीं है। न उसके अनुकूल अपनी सम्मति प्रकाशित की। यह देखकर आपने कहा कि यद्यपि जैनोंके इस प्रशंसनीय कार्यसे सभा आपका वह अपराध सभापतियोंको अपना व्याख्यान दूसरोंसे लिख- क्षमा कर देती है जो आपने उमास्वामी श्रावकावानेका बहुत पुराना अधिकार है; परन्तु मैं उसे चारादिकी परीक्षाको जैनमित्रमें उद्धृत करके काममें नहीं लाया हूँ। यह मेरा खुदका लिखा किया था। For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनहितैषी [भाग १३ ३ दिगम्बरजैनशास्त्रीयपरिषत्का काम बड़े ७ इन्दौरके धन कुबेर सेठ हुकुमचन्दजीने प्रकट जोरशोरसे चल रहा है। थोड़े ही समयमें किया है कि यदि मेरी धर्मपत्नी डेड़ वर्षके भीतर यह अनुभव होने लगा है कि शास्त्रीगण नीरोग हो जायेंगी तो मैं एक लाख रुपये भरकी लोगोंके प्रश्नोंका उत्तर समय पर नहीं देते। चाँदीकी तीन प्रतिमायें बनवाकर विराजमान करादे भी नहीं सकते। क्योंकि काम दिनपर दिन ऊँगा।मालूम नहीं, जिनेन्द्रदेवके दरबार में इस बड़ी बढना जाता है। ऐसी दशामें परिषत्को चाहिए भारी रिश्वत पर कुछ खयाल किया जायगा या कि जो प्रश्न उनके पास निर्णयके लिए भेजे नहीं । वहाँ जिस तरहका अधेर और लापरजायँ उनके साथ प्रति प्रश्न पाँच रुपयाके हिसा- वाही सुनी जाती है, यदि वह सच हो तो इस बसे दक्षिणा भेजी जाय और डाँकखर्च जुदा। समयकी 'धर्मप्रभावना' की गाड़ी अधिक यदि काम थोड़ा हो, तो भी दक्षिणा अवश्य दी दिनोंतक न चल सकेगी। इस लिए गोलमालकाजानी चाहिए । इस समय धर्मकार्यमें भी रिणी सभाकी राय है कि इस विषयमें किसी दक्षिणा लेना जायज है। वकील लोग जब धर्मके शासनरक्षक देवकी मार्फत एक 'मेमोरियल' मुकद्दमोंमें फीस लेते हैं, तब पण्डित लोगोंको भेजा जाना चाहिए, जो भगवान्के चित्तको इस दक्षिणा क्यों न दी जाय ? इस दक्षिणाके कार्यमें ओर आकर्षित करे। उसमें लिखा जाय कि जो कुछ खर्च होगा, उसका प्रबन्ध गोलमाल- यह रकम मामूली नहीं है । डेड वर्षकी मोहलत कारिणी सभा करेगी। भी काफी है। सेठजी करोड़पति हैं । उन्होंने ४ तीर्थक्षेत्रकमेटीके महामंत्री लाला प्रभुद- एक करोड़ रुपया युद्धऋणमें दिया है। यदि यालजीका स्तीफा मंजूर हो गया, यह जानकर उनका भी खयाल न किया जायगा तो फिर सभा कमेटीको प्रेरणा करती है कि वह उनको काहेको कोई आपकी सेवा करेगा ? यदि आप उनके कामका एक सर्टिफिकेट देवे और उन पर दस कमेटीका जो लगभग चार हजार रुपया निक- सेठजी भी आपके बड़े काम आयेंगे । आश्चर्य लता है उसे प्रसन्नतापूर्वक माफ कर देवे। नहीं, जो वे अबकी वार आपके लिए एक चाँदीका ५ श्रीयुक्त पं० पन्नालालजी वाकलीवालको उनके नित्य प्रतिके नियम परिवर्तन करने, एक मन्दिर ही बनवा दें। आपकी इन चाँदीकी । प्रतिमाओंकी सच्ची शोभा तो तभी होगी । इत्यादि। ग्रन्थों का मूल्य बराबर बदलते रहने और नये नये प्रात विभाग तथा मण्डलियाँ स्थापित करनेके उपलक्ष्यमें पं० उदयलालजी काशलीवालने एक वर्षसे सभा धन्यवाद देती है । इस प्रकारके कार्य अधिक हुआ, लेखादि लिखना बन्द कर दिया गोलमालकारिणी सभाके उद्देश्यों के पोषक हैं। है। इसके लिए गोलमालकारिणी सभा उन्हें ६ जनहितैषीमें प्रकाशित हुई जैनसिद्धान्तभा- धन्यवाद देती है। आशा है कि अब आगे उनके स्करकी समालोचनासे सेठ पदमराजजी रानीवा- द्वारा 'मेरी दक्षिणकी यात्रा' 'अप्रतिष्ठित प्रतिमायें लेको जो दुःख हुआ है, उसके प्रति सभा समवे. पूज्य है या नहीं' जैसे गोलमालविरोधी लेख दना प्रकट करती है और सम्मति देती है कि वे नहीं लिखे जायेंगें।.. समालोचकको और उसके साथियों को विधवा- येसन प्र ये विवाहका प्रचारक बतलाकर इस बहानेसे उन्हें ख़ब गालियाँ दे लें और इस तरह अपने दिलके । । सभापतिको धन्यवाद देकर सभा विसर्जित हुई। फफोडोंको फोड़ लें। जैनसमाजके पत्र आपके दूसरा अधिवेशन शीघ्र ही होनेवाला है । उसकी गालिदाता लेखोंको जदा जदा नामों से बड़ी प्रति- रिपोर्ट भी शीघ्र भेजी जायगी। छाके साथ छापनेको तैयार हैं। श्रीगड़बडानन्द शास्त्री। प.पगमग एन. पाटाp८५मजार पर 21 UTTTTTTTTTTTTT मप्रतिसे पास - For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] विविध प्रसङ्ग। ३०५ विविध प्रसङ्ग। वालोंके साथमें बैठकर मी अपने धर्मको ‘बरकरार' बनाये रख सकते हैं। इनका सुकुमार धर्म ऐसा छुईमुईका झाड़ है कि दूसरोंका स्पर्श होते ही कुम्हला जायगा । इसी लिए ये १संयुक्त जैनपुस्तकालयका विराधा उसे दूसरोंकी छायासे बचाये रखना चाहते हैं । सन्दौरकी गत ' महावीर जयन्ती ' पर एक पर धर्म इस तरह डिब्बीमें बन्द करके रखनेकी महावीरजैनपुस्तकालयके स्थापित करनेका चीज नहीं है । उसे विशाल विश्वमें अपने सहप्रस्ताव हुआ था, और उसमें वहाँके धनकुबेर योगियोंके साथ निःसंकोच भावसे खडा होने सेठ हुकमचन्दजीने तथा अन्यान्य धनिकाने देना चाहिए । इसके लिए विशाल हृदय चाहिए। सहायता देनेका वचन दिया था । महावीर ये सार्वजनिक पुस्तकालयकी स्थापनाके कार्य पुस्तकालयमें तीनों सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंका बड़ा ज्ञानवृद्धिकी विश्वव्यापिनी भावनाके वशवर्ती भारी संग्रह रहेगा, जिससे जैनधर्मके जिज्ञासुओं- होकर किये जाते हैं । किसी मतकी निन्दा को-जैनों और अजैनों दोनोंको लाभ होगा। इस या प्रशंसाके तुच्छ विचार उनके स्थापकोंके प्रकारके एक नहीं अनेक पुस्तकालयोंके स्थापित हृदयमें स्थान नहीं पाते । हमारे मन्दिरों और करनेकी आवश्यकता है और इन पुस्तकाल- मठोंमें जो बड़े बड़े प्राचीन भण्डार हैं, उनमें योंकी उपयोगिताको इस समयका धर्मान्धसे भी हजारों जैनेतर ग्रन्थोंका संग्रह पाया जाता है और धर्मान्ध पुरुष स्वीकार करता है । परन्तु जैन- अजैनोंके पुस्तकालयोंमें सैकड़ों जैनग्रन्थ पाये गजटके धर्ममर्मज्ञ सम्पादक इसका घोर विरोध जाते हैं । यदि हमारे प्राचीन आचार्योंके भी करते हैं और सेठजीको शिक्षा देते हैं कि आप ऐसे ही तुच्छ विचार होते, तो वे अपने ग्रन्थोंमें महासभाके सभापति हैं, शुद्ध तेरहपंथी हैं, दूसरे मतोंकी उत्कृष्ट आलोचना कैसे कर पाते ? आपको ऐसी उदारता नहीं दिखलानी चाहिए हमारे कई आचार्य 'स्वसमयपरसमयवेदी ' थी । आप भारतजैनमहामण्डलके भक्तोंकी कहलाते थे, सो वे क्या दूसरोंके ग्रन्थोंको अपने बातोंमें आ गये हैं । तीनों सम्प्रदायके ग्रन्थ भण्डारोंमें रक्खे विना ही 'परसमयवेदी' हो संग्रह करनेके कार्यमें अमूढदृष्टि अंगका पालन गये थे ? और महावीर पुस्तकालयमें सेठजीके नहीं होगा । दिगम्बरजैनग्रन्थोंके अतिरिक्त धनसे जो ग्रन्थ रक्खे जायँगे, सो आपने यह और सब ग्रन्थ दुःश्रुति हैं। उनका संग्रह कर- कैसे जान लिया कि वे उन्हें परमाराध्य और नेमें मिथ्यात्वके अनुमोदनका दोष लगेगा। प्रमाणभूत मानकर ही रक्खेंगे जिससे कि जैनासेठजीको इसका विचार कर लेना चाहिए । भासोंके प्रशंसक कहलायँगे ? इसके सिवाय इत्यादि । जिस तरह आषाढके अन्धेको हरा ही क्या उनकी और कोई मानता ही नहीं हो सकती हरा सूझा करता है, उसी तरह इन धर्ममर्म- है ? ' तीनों सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंको लोग पढ़ें, ज्ञोंको इस समयका प्रत्येक कार्य मिथ्यात्वके मनन करें और देखें कि उनमें कौनसा सत्य है, गहरे रंगसे रँगा हुआ दिखलाई देता है । इनके मुझे अपने सम्प्रदाय पर पूरा विश्वास है, अवश्य हृदय इतने छोटे हैं कि उनमें दूसरोंके लिए ही उन्हें मेरा ही सम्प्रदाय सत्य मालूम होगा,' जरा भी स्थान नहीं । ये इसका विचार भी नहीं इस तरहकी भावनासे भी तो वे तीनों सम्प्रदाकर सकते कि हम दूसरे मतों या सम्प्रदाय - योंके ग्रन्थोंके लिए धन दे सकते हैं। इसके For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनहितैषी [भाग १३ सिवाय यह पुस्तकालय केवल जैनोंके ही लिए तो सुदूरविश्रुत नृत्य कराये और कोट्यावधि जनखुलता नहीं है, प्रो० जौहरी जैसे अन्यधर्मी संहारक युद्धके चन्देमें जैनोंने लाखों रुपये विद्वानोंकी जिज्ञासाको शान्त करनेके मुख्य सहायतार्थ दे दिये। ऐसी दशामें यदि सेठ उद्देश्यसे ही इसकी स्थापनाका विचार हुआ है हुकमचन्दजी और उनके भाई तीनों सम्प्रदायके और ऐसे लोगोंको जैनधर्मका तुलनात्मक पद्ध- एक पुस्तकालयके लिए दशपच्चीस हजार रुपये तिसे अध्ययन करनेके लिए, उसके स्याद्वाद, दे देंगे, तो कौनसा बड़ा अनर्थ हो जायगा ? कर्मवाद, अहिंसावाद, अनीश्वरवाद आदि पर इसमें हम आपका दोष नहीं समझते। जिसिद्धान्तोंका रहस्य समझनेके लिए तीनों सम्प्र. नके मनोंमें रातदिन तीनों सम्प्रदायोंको आपयोंके ग्रन्थ उपयोगी हो सकते हैं और इस समें लड़ानेकी भावनायें उठा करती हैं और जो दृष्टिसे जैनधर्मके तीनों सम्प्रदायोंमें सामान्यतः इसी कार्यके लिए लोगोंको दान करनेकी प्रेरणा एकरूपसे मानी हुई उक्त बातोंका बोध अन्य• करते हैं, वे तीनों सम्प्रदायोंमें सौहार्द बढ़ानेधर्मियोंको हो सकता है और यह जैनधर्मका वाले ऐसे पुण्यकार्योंमें धन कैसे लगने देंगे ? साधारण उपकार नहीं है। अवश्य ही इससे ___२ आत्मघातसे सोलहवें सेठजी मिथ्यात्वके पोषक नहीं किन्तु निषेधक , बन सकते हैं। और इस पुस्तकालयमें सेठजीके स्वर्गकी प्राप्ति । सिवाय अन्य सम्प्रदायके लोग भी तो सहायता ज्येष्ठ सुदी १ के जैनगजटमें पद्मिनीजीके नाम देंगे । आपने यह कैसे समझ लिया कि केवल एक 'खुली चिट्ठी' प्रकाशित हुई है और उसमें सेठजीका ही धन लगेगा जिस पर कि आपने अपने राजपूतरानी पद्मिनीको ‘सोलहवाँ स्वर्गनिवासी तेरहपंथका एकाधिपत्य स्थिर कर रक्खा है ? अच्युतेन्द्र ' प्रकट किया है। चिटीके लेखक और महाराज, यह भी तो सोचिए कि जिन अपना नाम प्रकट नहीं किया है, इस लिए क्या सेठोंको आप इस ज्ञानवृद्धिके कामसे रोकते हैं, हम जैनगजटके धर्ममर्मज्ञ सम्पादक महाशयसे पूछ उनका धन क्या केवल सम्यक्वकी ही वृद्धिमें सकते हैं कि आप तो बिना शास्त्रप्रमाणके कोई बात खर्च होता रहा है ? जिस समय आपके इन्हीं तेरा ही नहीं करते हैं, अपने प्रत्येक ही लेखमें मौके बेपंथी सेठोंने इन्दौरके किंग एडवर्ड हास्पिटलको मौके जरूरत-गैरजरूरत गोम्मटसार आदिकी दुहाई लगभग दो लाख रुपयोंका दान किया था, उस दिया करते हैं; फिर यह पद्मिनीके सोलहवें समय आप कहाँ गये थे ? सेठ कल्याणमलजीने स्वर्गकी बातको आपने किस शास्त्रके आधारसे (आपकी दृष्टिसे) मिथ्यात्ववर्द्धक अँगरेजीका ठीक समझा है ? पद्मिनी मेवाड़के राणा भीमसिंहाईस्कुल खोला, खुर्जावाले सेठोंने एक ईसाईके हकी रानी थी, वह वीरपत्नी अवश्य थी; परन्तु द्वारा चलनेवाला अनाथालय खोला, न जाने जैनधर्मकी धारण करनेवाली नहीं थी। उसका कितने रायबहादुरसेठोंने अपने गौरांग प्रभुओंकी विश्वास उस धर्म पर था जिसे आप' मिथ्यात्व' आज्ञानुसार पब्लिकके अनेक कामों में लाखों के नामसे पुकारते हैं । उसके सिवाय वह तीत्र रुपये दिये, उधानभोज कराये और डालियाँ मोहके वशीभूत होकर आगमें जल गई थीलगवाई, आपके लाला जम्बूप्रसादजी जैसे दूसरे शब्दोंमें उसने आत्महत्या की थी और धर्ममूर्तियोंने मुकद्दमे जीतनेकी खुशियोंमें तथा 'गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते' के दमरी खुशियोंमें गौहरजान और उसकी बहनोंके अनुसार लोकमूढताका अनुसरण किया था। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७ ] क्या उसके ये कार्य सोलहवें स्वर्गके अच्युतेन्द्र होनेके योग्य हो सकते हैं ? जैनधर्म हिन्दुओकी सतीदाहप्रथाका सदासे विरोधी रहा है; पर यह खुली चिट्ठी उसको उलटी उत्तेजना देती है - आत्महत्याको पुण्य बतलाती है । इस बात को तो हम मान सकते हैं कि पद्मिनी आदि स्त्रियाँ श्रेष्ठ पतिव्रता थीं; उनकी वह एकनिष्ठता और पतिभक्ति साधारण नहीं थी, जिसके वश होकर उन्होंने अपने प्राणों को भी तुच्छ समझा था, परन्तु आग में जलकर वे ' अच्युतेन्द्र ' हो गई होंगी और अब वहाँसे चयकर शायद आगामी कालमें तीर्थकर पद पालेंगी, इस बात को आप और आपके धर्मसे अविरुद्ध लिखनेवाले लेखक ही सत्य बतला सकते हैं । विविध प्रसङ्ग । " ३ सम्पादकों का अपमान । गत २४ जूनको 'जैनसिद्धान्तविद्यालय ' के सम्बन्धमें इंदौर में जो सभा हुई थी, उसकी कुछ ऐसी बातोंको जैनपत्रोंने दबा दिया है जिन पर चर्चा होनेकी बहुत बड़ी आवश्यकता थी । इन्दौर के सहयोगी मल्लारिमार्तण्डविजय ' ने उन पर प्रकाश डालने की कृपा की है । वह लिखता है-“ जैनसमाज कितना पिछड़ा हुआ है और उसके कुछ लोग सभ्यतासे कितनी दूर रहते हैं यह बात बड़े दुःखके साथ उस दिन देखी गई । समाजसुधारकी चर्चा अभी कुछ ही दिनोंसे जैनों में होने लगी है । इस समाज के कुछ सुशिक्षित नवयुवक अन्तर्जातीय विवाह और विधवाविवाह आदि पर अपने स्वतंत्र विचार प्रकाशित करने हैं और परम्परागत कुरीतियों के खिलाफ जोरोंसे आवाज उठाने लगे हैं । जातीय उत्थानके ये शुभ चिह्न हैं । जैन समाज धनमें अग्रसर होने पर भी विद्यामें पिछड़ी हुई है । उसमें रूढियोंके ही भक्त विशेषतासे मिलेंगे । सुधारकोंका अपमान करनेमें-उनके पथमें काँटे विछानेमें ये 'बाबा वाक्यं प्रमाणं ' माननेवाले लोग कोई कसर नहीं ३०७ उठा रखते। उस दिन जैन मित्र के सम्पादक श्रीयुत शीतलप्रसादजी ब्रह्मचारीका भर सभा में ऐसे ऐसे कुशब्दों द्वारा अपमान किया गया कि जिस मनुष्यमें जरा भी मनुष्यत्व है, वह ऐसे शब्दोंको अपनी जबान पर नहीं ला सकता । ब्रह्मचारीजीका अपराध जहाँतक हम समझते हैं, केवल यही था कि उन्होंनें एक दफा जैनों के अन्दर अन्तर्जातीय विवाह पर अपनी अनुकूल सम्मति प्रकाशित की थी । जैनप्रभातके सम्पादक बाबू सूरजमलजीका भी ऐसा ही हाल हुआ । वृद्धविवाह के विरुद्ध जोशीले लेख लिखने के बदले और एक वृद्धविवाह पर कड़ी टीका करनेके बदले दो एक मनुष्य - नामधारियोंने अपने मुँह से ऐसे ऐसे जौहर निकाले जो उन्हीं के लिए शोभास्पद कहे जा सकते हैं । सभ्य मनुष्यकी ताकत नहीं कि वे ऐसे शब्दोंको काममें लावें । ” इसके बाद उक्त पत्र लिखता है कि 4 66 करना इस सभा सभापति दानवीर सेठ हुकमचन्दजीने इन लोगों को समझानेकी चेष्टा करते हुए कहा कि हमें अपनी कमजोरियों को सुनने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए । अगर अखबार हमें अपने दुर्गुण बतलावे तो हमें इसके लिए उनपर नाराज होनेके बदले अपने दुर्गुण निकालने का प्रयत्न चाहिए । मैंने अपने पुत्रके विवाह में नृत् कराया था। इस पर समाचारपत्रोंने मुझ पर कड़ी टीका की । मैं इस पर कुछ नाराज नहीं हुआ । आज मैं इस सभामें सबके सामने वैश्यानृत्य न करानेकी कसम खाता हूँ। इन बातोंके साथ साथ सेठ हुकमचन्दजीने एक ऐसी बात कह डाली - जो उन जैसे जवाबदार और बुद्धिमान सज्जनके लिए योग्य नहीं कही जा सकती । आपने कहा कि अखबारवालोंका क्या ? जो आदमी उन्हें पाँच दस रुपया दे देता है, उसीके पक्षमें वे लिख देते हैं ।.... सेट For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ जीने जैनपत्रोंके जिन सम्पादकोंको लक्ष्य कर दिया और शेष सब पत्रोंको दश दश पाँच पाँच यह बात कही है जहाँ तक हम जानते हैं वे पत्र रुपयोंके लोभमें चाहे जिसके पक्षमें लिख देनेवाला बड़ी निर्भीकतासे चलाये जाते हैं और जो संपादक बना दिया, तो हमें आश्चर्य न मानना चाहिए। रिश्वत लेते हैं वे उतनी निर्भीकतासे नहीं लिख पत्रसम्पादकोंका यह घोर अपमान है। उनका सकते । हमें आशा है कि सेठ साहब अपने इन इससे और अधिक अपमान नहीं हो सकता । वचनोंको वापस लेंगे।" हमने जब इस समाचार- मालूम होता है कि सेठजी इस समय धनके मदसे पर विचार किया तो हमें मालूम हुआ कि उक्त उन्मत्त हो रहे हैं, इसी कारण उनके मुंहसे इस तरह सभामें ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीका और बाबू बेलगाम बातें निकल जाती हैं, और इधर सूरजमलजीका जो अपमान हुआ था, वह सेठजी- अधिकांश समाचारपत्र-विशेष करके हमारे को यथेष्ट नहीं मालूम हुआ-इस लिए उन्होंने सारे जैनपत्र दुर्बल, निःसत्व और घनियोंकी कृपाके ही सम्पादकोंका अपमान करके उसकी पूर्ति कर आधारसे चल रहे हैं । यदि ऐसा न होता तो डाली । ऊपराऊपरी विचार करनेवाले यही समझेंगे इस समय सेठजीको मालूम हो गया होता। कि उन्होंने अपमान करनेवालोंको समझाया; परन्तु वे जान जाते कि पत्रोंकी शक्ति कितनी वास्तवमें वे समझनेके लिए नहीं समझाये गये, होती है। जैनपत्रोंकी इससे अधिक दुर्बलता और किन्तु इसलिए समझाये गये कि उस समझानेके स्वात्मगौरवशून्यता क्या हो सकती है कि वे इस भीतर उन्हींकी बात प्रकारान्तरसे पुष्ट कर दी घोर अपमानको पानीके चूंट पी गये। दो महीनेसे जाय । जैसा कि उक्त सहयोगी लिखता है और आधिक होनेको आये, पर उनमेंसे किसीने भी जैसा कि हमने उक्त सभाके दर्शकोंके मुँहसे चूँ न की, बल्कि इसी बीचमें एक पत्रने तो सुना है, ब्रह्मचारीजीका अपमान इतना असह्य उनका दर्शनीय चित्र भी प्रकाशित कर डाला! था कि यदि उसे सेठजी सचमुच ही अपमान पत्रोंकी प्रतिष्ठाका श्राद्ध कर डाला !! समझते, तो वे उसका यह इलाज न करते; पर सेठजीके कथनमें सत्यताका भी कुछ केवल समझा ही न देते, अपमान करनेवालोंको अंश है, इस बातको हमें अवश्य स्वीकार करना धक्के देकर सभासे अलग करवा देते; परन्तु ऐसा होगा। जैनसमाजमें आधिकांश पत्र ऐसे ही हैं, तो तब किया जाता जब सेठजीकी नजरमें ब्रह्म- जो धनियोंके इशारों पर नाचा करते हैं। इन्हें चारीजीका या दूसरे सम्पादकोंका कुछ मूल्य होता। न अपनी प्रतिष्ठाका खयाल है, न अपने कर्तउनके हृदयमें तो उलटी एक अस्पष्ट आनन्दकी व्यका ज्ञान है, और न समाजकी भलाई बुरालहर उठ रही होगी; क्योंकि इसी वृद्धविवाहके ईका। बड़े आदमियोंको तो इन्होंने उनकी सम्बन्धमें जिसके कि कारण ब्रह्मचारीजी और प्रशंसा कर-करके बहुत ही बिगाड़ दिया है। ये सूरजमलजीका अपमान किया गया है, स्वयं सेठ- लोग ऐसे ऐसे धनियोंके भी चित्र और चरित्र जी पर भी तो सख्त टीका की गई थी। इस प्रकाशित करनेमें संकोच नहीं करते, जिनकी वृद्धविवाहके सौदेके १५०० ) रुपये सेठजीकी प्रशंसा करना तो दूर रहा, जिनकी निन्दा न दूकान पर ही जमा कराये गये थे और इस करना पाप है ! पर इससे इन्हें क्या सरोकार । कारण जातिप्रबोधक आदि पत्रोंने सेठजीको चित्र बनवाने और छपानेका खर्च भर इन्हें मिल बच आड़े हाथों लिया था । ऐसी दशामें यदि जाना चाहिए। चित्र जिसका है, वह नरकका सेठजीने दो सम्पादकोंका प्रत्यक्ष अपमान होने कीड़ा हो तो क्या और स्वर्गका देव हो तो क्या ? For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] विविध प्रसङ्ग। ऐसी दशामें यदि सेठजीने यह कह दिया कि- धमें लेख लिखे जावें। हम समझते थे कि इस “दश पाँच रुपये जो कोई इन्हें दे देता है, ये प्रस्तावसे कमसे कम यह लाभ अवश्य होगा कि उसीके पक्षमें लिख देते हैं " तो हमारी समझमें विधवाविवाहके विरुद्धमें कुछ नई युक्तियाँ पढ़सर्वथा असत्य तो नहीं हुआ। हमको मालूम है नेको मिलेंगी; परन्तु देखते हैं कि लोग लेख कि स्वयं सेठजीके चित्र कई पत्रों में इसी तरह तो लिखते हैं, पर युक्तियोंके खोजनेकी झंझप्रकाशित हुए हैं और उनका खर्च सेठजीकी टमें नहीं पड़ना चाहते । वे युक्तियोंका स्थान दूकानसे दिया गया है। गालियोंसे भर देनेमें ही अपनेको सिद्धहस्त पर सेठजी साहब, सभी पत्र ऐसे नहीं हैं। सिद्ध कर रहे हैं । सुगमता भी इसीमें है। आप यदि सभी ऐसे होते तो वेश्यानृत्य करानेके उप- अबतकके निकले हुए उक्त सब लेखोंको पढ लक्ष्यमें आप पर बेशुमार धिक्कार और तिर- जाइए, उनमें आपको युक्तियोंके स्थानमें क्या स्कारोंकी वृष्टि न होती और न आपको इस मिलेगा--हाय हाय ! बड़ा गजब हो रहा है। सभामें उसके त्यागकी प्रतिज्ञा करनी पड़ती। जो देश ऐसा पवित्र था, जहाँकी स्त्रियाँ ऐसी ऐसे भी कई पत्र मौजूद हैं, जिन पर न किसी सती थीं, जहाँकी स्त्रियाँ पतियों के साथ जलकर धनी मानीकी कृपा है और न जिनकी आर्थिक मर जाती थीं, उसी देशमें अब विधवाविवाहअवस्था अच्छी है। फिर भी वे धनियोंके अन्यायों की चर्चा करनेवाले कुपत पैदा हो गये हैं ! हे और अत्याचारों को नि:शंक होकर प्रगट कर- पथ्वी. त घस क्यों नहीं जाती ! इन पापियोंकी नेके लिए सदा सन्नद्ध रहते हैं और आपके दश जीभ निकलकर बाहर क्यों नहीं गिर पड़ती ! न पाँच नहीं, दश पाँच लाख-रुपयोंको भी उसी हुआ कोई जैनराजा, नहीं तो इनको मालुम हो दृष्टिसे देखते हैं, जिस दृष्टिसे आप पत्रसम्पा- जाता । जो इस विषयकी चर्चा करते हैं, वे दकोंको देखते हैं। व्यभिचारी हैं, अपनी विषयवासनायें इससे __हम नहीं चाहते कि आप अपने शब्दोंको चरितार्थ करना चाहते हैं और स्वार्थान्ध हैं । वापस लौटावें । नहीं, आप पत्रसम्पादकोंका कुछ बातें युक्तियाँ कहकर पेश की जाती हैं, इससे भी अधिक अपमान करें, जिसकी लज्जासे पर उनमें सार कछ नहीं होता जैसे-'विधवाये अपने आत्मगौरवकी रक्षा करनेमें और अपना विवाह ' यह शब्द ही नहीं बन सकता। कर्तव्य समझने में कुछ तो सावधान हो जायँ। क्योंकि विवाह कन्याका होता है और विधवा ४ विरोधी लेखों पर विचार । कन्या नहीं। मानों शब्दशास्त्रमें कोई ऐसी बड़ी ___ इधर कई महीनोंसे कुछ जैनपत्रोंमें-विशेष शक्ति है जो विधवाको किसीकी पत्नीही न करके जैनगजटमें ऐसे लेखोंकी बाढ़ आ रही है, बनने देगी। अरे भाई, 'विधवाविवाह ' मत जिनमें हम पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे आक्रमण कहो, इसे 'धरेजा' आदि और ही कुछ कहलो किये जा रहे हैं और हम पानी पी-पीकर कोसे जिसमें आपके व्याकरणके नियमका भंग जा रहे हैं । चाहे जिस लेखको आप उठा न हो जाय । स्त्रियोंको अधिकार नहीं लीजिए, उसका प्रधान भाग यही 'गालिप्रदान' है, आदि बातें भी ऐसी ही कही जाती है । होगा । गाली भी कैसी, जिनका सहन करना हितैषीमें कुछ लेख, ग्रन्थोंकी परीक्षा सबका काम नहीं । दाहोदकी सभामें यह आदिके सम्बन्धमें निकले हैं और कुछमें यह प्रस्ताव पास हुआ था कि विधवाविवाह के विरो- लिखा गया है कि अमुक ग्रन्थके 'कर्ता दिगजर For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैनहितैषी - । नहीं वेताम्बर हैं, अथवा जैनोंमें अमुक बातें अमुक समय में दाखिल हुई हैं । इनको लक्ष्य करके भी कुछ आक्षेपयुक्त लेख लिखे गये हैं इस विषय में उनकी युक्तियाँ इस ढँगकी हैं:ये धर्मको डुबा देने के लिए तैयार हुए हैं। इन्हें धर्मशास्त्रों पर श्रद्धा नहीं है । ये अपनेको अवतर समझते हैं । ये श्वेताम्बरी हो गये हैं । इन्हें दिगम्बर धर्म पर श्रद्धा नहीं है । बस, इसी तरह के लेखोंसे हमारे समाजके वे लोग भड़काये जा रहें हैं, जिनमें स्वयं कुछ सोचने-विचारनेकी शक्ति नहीं है जो केवल दूसरोंके इशारों पर चलते हैं और दुर्भाग्य से समाजमें ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है । पर हमें इसकी परवा नहीं। हम जो कुछ कर रहे हैं, वह जनसाधारणकी सच्ची कल्याण कामनासे कर रहे हैं । सत्यको छुपाने को हम • अधर्म समझते हैं और सत्यको प्रकाशित करना - चाहे वह अप्रिय ही क्यों न हो - परम धर्म । ऐसी गालियोंसे हम डरनेवाले होते, तो इस मार्ग में पैर ही नहीं रखते । ग्रन्थ छपाने के काममें हमने जो गालियाँ और जो अपमान सहे हैं, वे इनसे किसी कदर कम नहीं थे । जब उन्हें हम सहन कर चुके हैं, तब इन्हें भी विजयके साथ सहन कर लेंगे, इसमें हमें जरा भी सन्देह नहीं है । कोई कितना ही समाजको भड़कावे, पर उससे हमारा सदभिप्राय छुप नहीं सकता। विधवाविवाह के विषय में हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं और अब भी लिखते हैं कि हमने इस विषयको केवल विचार करने के लिए - sant Hit और बुरी दोनों बाजुओंको प्रकाशमें लाने के लिए उठाया है । हम इसे कोई धर्म भी नहीं समझते । पातिव्रतकी अपेक्षा यह सदैव नीचा समझा जायगा, नीचा है भी; पर गुप्त पापों भ्रूणहत्याओं और रातदिनके मानसिक व्यभिचारोंसे हजार दर्जे अच्छा है । जो विधवायें अपने शीलकी रक्षा नहीं कर सकती हैं, [ भाग १३ वासनाओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती हैं, उन्हें जबर्दस्ती रोकना और गुप्त व्यभिचार करने के लिए मजबूर करना सामाजिक पवित्रताका मूल्य नहीं समझना है | हमारे विरोधी इन सब बातोंको भूल जाते हैं और पुरानी पवित्रताकी गाथायें गा-गा कर जिनका मूल प्रश्नसे कोई सम्बन्ध ही नहीं है, हमें व्यभिचारके प्रचारक बतलाते हैं । ग्रन्थपरीक्षादि लेखोंके द्वारा हम अपने समाज में सदसद्विवेक बुद्धि उत्पन्न करना चाहते हैं जिसका कि इस समय सर्वथा अभाव हो रहा है । ग्रन्थों के नामसे इस समय शिथिलाचारी, स्वार्थी और धूर्तों के भी ग्रन्थ पुज रहे हैं और उन्हें लोग भगवान् जिनेन्द्रदेवकी वाणी समझ रहे हैं। इनके विरुद्ध कुछ सोचने विचारने और धर्मका सच्चा स्वरूप समझने की ओर उनकी प्रवृत्ति ही नहीं होती है । ग्रन्थपरीक्षा जैसे लेखों को पढ़कर लोग यह समझने लगेंगे कि किसी दिगम्बर जैनाचार्य या विद्वानकी छाप लगी हुई होनेसे ही किसी ग्रन्थको मस्तक पर चढ़ा लेना जोखिमका काम है । हमारा यह काम नया भी नहीं है । जयपुरके तेरहपंथी विद्वानोंने इस ओर बहुत कुछ प्रयत्न किया था । उन्हें अच्छी तरह विश्वास हो गया था कि बहुतसे भट्टारक नामधारी धूर्तोंने जैनधर्मको गेंदला कर दिया है, इसलिए किसी ग्रन्थको बुद्धिकी कसौटी पर चढ़ाये विना नहीं मानना चाहिए | विद्वज्जनबो - धक आदि ग्रन्थ इसके साक्षी हैं | तेरहपंथी उत्पत्ति ही इसी कारणसे हुई थी और हमें यह न भूल जाना चाहिए कि यदि तेरहपंथकी महान् ज्योतिका प्रकाश न हुआ होता, तो दिगम्बर सम्प्रदायका अब तक गला ही घुट गया होता - भट्टारक नामधारी साधुओंने इसे अभी तक न जाने किस ' किम्भूत किमाकार ' रूपमें खड़ा कर दिया होता। यहाँ हम यह भी कह देना चाहते हैं कि जिन आचार्योंको लोग अभी For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क विविध प्रसङ्ग । तक २८ मूल गुणोंके धारी परम दिगम्बर मुनि ५ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी समझ रहे हैं, उनमेंसे भी बहुतसे भट्टारक नहीं चरणपादुका। जो भट्टारकोंसे मिलते जुलते अवश्य थे और उन्होंने भी बहुतसे गोलमाल किये हैं । इन सब रायचूरके पं० चोलप्पा जैनब्राह्मणका एक कारणोंसे हम जैनधर्मको इस समयमें जिस स्वरू- पत्र हमारे पास आया है । उससे मालूम हुआ चमें देख रहे हैं उसमें उसका असली रूप छप कि रायचूर (निजाम स्टेट) स्टेशनसे पश्चिमकी गया है-उसपर भट्टारकों और उनके भाइयोंका ओर और रायचूर नगरसे ईशानकी ओर श्रीमगहरा रंग चढ़ा हुआ है । अत एव त्कुन्दकुन्दाचार्यकी तपोभूमि है । फ्राम रोडसे तुलनात्मक पद्धतिसे तमाम ग्रन्थोंकी छानबीन नगरमें जानेके समय पूर्व दिशामें एक तालाब की जायगी और इन सब छानबीनोंसे धीरे धीरे दिखलाई देगा, जिसका नाम आम्र सरोवर है । हम उस वास्तविक जैनधर्मके स्वरूपको प्रत्यक्ष इस तालाबसे लगे हुए दो तीन छोटे छोटे पहाड कर सकेंगे, जिसका निरूपण भगवान् कुन्दकुन्द हैं। इनमेंसे आग्नेय दिशाकी ओरके पहाड पर आदि आचार्योंने किया है। यह स्थान है। वहाँ पर उक्त आचार्यके चरण अब रहा यह कि हम किसी दिगम्बर ग्रन्थको प्रतिष्ठित हैं। उन पर कनडी लिपि और कनड़ी श्वेताम्बर बतलाते हैं; सो इसे तो हम कोई सम्प्र- भाषामें लिखा हुआ एक शिलालेख है । वह इस दायका प्रश्न नहीं समझते हैं । यह तो 'सत्य' प्रकार हैका प्रश्न है। यदि किसी श्वेताम्बर ग्रन्थको " श्रीश्रतयो भव्याजीवं...दानाततं जबर्दस्ती दिगम्बर कहते जाना ही 'दिगम्बरत्व' श्रीकोंडकुंदमुनिपदयुग्मं स्तुति गैचि सलहै, तो ऐसे दिगम्बरत्वको नमस्कार ! हम रीद श्रतकीर्ति यतीश नेसगि सुकृतमनातं ऐसे मूर्खतापूर्ण अन्धविश्वाससे आक्रान्त नहीं है हैं, जो यह कहता है कि दिगम्बर विद्वानोंमें कोई श्रीकोंडकुंदमुनिपं भूकांति य नंदु नाल काइ वेरल नितं सोंक दे धरि यो ल रसीयनेकांचोर हुए ही नहीं हैं। हमारा सीधा सादा विश्वास स तमतके कडे य चारणनादं श्री..." यह है कि बुरे और भले सर्वत्र होते हैं। इन सब बातोंको लेकर हमें कोई कितना ही . इसका तात्पर्य उक्त चोलप्पाजीने इस प्रकार बदनाम क्यों न करे, पर हम अपना प्रयत्न न लिखकर भेजा हैछोडेंगे और हमें विश्वास है कि इस कार्य में हमें “ शास्त्रप्रधान श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके चरणऔर हमारे मित्रोंको सफलता मिले बिना कमलोंकी स्तुति, वन्दन और पूजन करके नहीं रहेगी। श्रीश्रुतकीर्ति यतीश कहते हैं कि मैं सुकृत यहाँ हम यह भी प्रकट कर देना चाहते हैं करनेका अधिकारी हुआ हूँ। कुन्दकुन्दाचार्य कि हमारा कोई 'दल' नहीं है। हम यह चाहते भूमिसे चार अंगुल ऊपर अधर रहते थे।...... भी नहीं है कि जैनसमाजमें कोई स्वतंत्र 'दल' ये अन्तिम चारण परमेष्ठी थे।" मालूम नहीं, खड़ा किया जाय । इस तरहके भाव रखनेवालेको लेखकी कापी कहाँतक ठीक हुई है और उसका हम समाजका घोर अशुभचिन्तक समझते हैं। यह अर्थ वास्तविक है या नहीं। श्रुतकीर्ति नामके हम केवल यह चाहते हैं कि लोग अपना हिता- किसी आचार्यने उक्त चरणोंकी स्थापना की होगी, हित समझने लगे और वे और और बातोंके ऐसा मालूम होता है । श्रुतकीर्ति नामके एक समान बुद्धिक विषयमें भी दूसरोंके गुलाम न रहें। आचार्यकी मृत्यु शक संवत् १३६५ ( वि० For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैनहितैषी - संवत् १५००) में हुई थी और उनकी उसी समय एक निषिया मनाई गई थी । मंगराज नामक कविका रचा हुआ एक शिलालेख उक्त निषया पर लगा है । आश्चर्य नहीं जो वे ही श्रुतकीर्ति कुन्दकुन्दाचार्यकी चरणपादुकाओंके स्थापक हों । ६ एक और चोरी पकड़ी गई । अन्यत्र श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी के लिखे हुए ' धर्मपरीक्षा ' शीर्षक लेखको पाठक पढ़ेंगे । उससे मालूम होगा कि यदि कुछ दिगम्बर विद्वानोंने विवेकविलासादि श्वेताम्बर ग्रन्थोंको अपना बना लिया तो श्वेताम्बर विद्वान् भी इस कर्ममें दिगम्बरोंसे पीछे नहीं रहे। उन्होंने मी अमितगतिकृत धर्मपरीक्षा के "समान और न जाने कितने ग्रन्थोंको छील छालकर अपना बना लिया है । पर हमारा श्वेतांबर ग्रंथोंसे अधिक परिचय नहीं है, इस कारण हमें ऐसी चोरियाँ पकड़नेका सुभीता कम रहा है और इल एक ही चोरीका माल ‘ बरामद’कर पाये हैं। पर हमारा विश्वास है कि इस ओर प्रयत्न किया जायगा, तो ऐसी बहुतसी चीजें मिलेंगी । बात यह है कि पिछले कई सौ वर्षोंमें हमारे यहाँ—दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में वास्तविक विद्वान् बहुत ही कम हुए हैं । जिन्हें हम मुनि और आचार्य जैसी परमपूज्य पदवियोंसे विभूषित हुए मान रहे हैं, उनमेंसे अधिकांश जन कषायों के पु झूठी प्रशंसा के अभिलाषी, अतिशय अनुदार, अपनेसे अन्य सम्प्रदायोंकी निन्दा करनेमें मन रहनेवाले और वास्तविक जैनधर्मका श्राद्ध करनेवाले हुए हैं। ऐसी दशा में उनसे इससे अधिक आशा और क्या रक्खी जा सकती है ? उन्होंने अपनी रचना में एक चोरी ही क्यों, जो अन्याय न किये हों सो थोड़े हैं । सूक्ष्मदृष्टिसे अध्ययन करने पर उन सब अन्यायोंका हमें इसी तरह धीरे धीरे पता लगता जायगा और एक दिन [ भाग १३ आयगा, जब हम मालूम कर लेंगे कि हमारे यहाँ वास्तविक विद्वान् कितने हुए हैं। दोनों ही सम्प्रदायके विद्वानोंको अंधविश्वासको भगाते हुए निर्भय होकर इस दिशा में प्रयत्न करनः चाहिए । ७ दर्शनसार - विवेचनाका शेषांश । दर्शनसार के सम्बन्ध में नीचे लिखा अंश छपनेको रह गया है " तेईसवीं गाथा में ' णिञ्चणिगोपत्ता इस वाक्यसे यह प्रकट किया गया है कि आजीवक मतका प्रवर्तक मस्करि - पूरण साधु नित्यनिगोदको प्राप्त हुआ । परन्तु यह सिद्धान्तविरुद्ध कथन है । तीनों प्रतियों में एकसा पाठ है, इस कारण इसका कोई दूसरा अर्थ भी नहीं हो सकता । नित्य निगोद उस पर्यायका नाम है, जिसे छोड़कर किसी जीवने अ नादि कालसे कोई भी दूसरी पर्याय न पाई हो, अर्थात जो व्यवहारराशि पर कभी चढ़ा ह हो । इस लिए जो जीव एकबार नित्य निगोदसे निकलकर मनुष्यादि पर्याय धारण कर लेते हैं वे ' इतर निगोद में जाते हैं; नित्य निगोदमें नहीं जाते । जान पड़ता है ' मस्करी ? को महान् पापी बतलाने की धुन में ग्रन्थकर्ता इस सिद्धान्तका खयाल ही नहीं रख सके । ” ८ चार साँकोंका विवाह । हमें समाचार मिला है कि सागर के श्रीयुत भूरेलालजी सिंगईका ब्याह नरावलीमें नन्दलाल मोदीकी लड़की के साथ चार साँकोंमें हुआ हैं। और इस विवाह में श्रीयुत मोदी धर्मचन्दजी, सिंगई रज्जीलालजी, बड़कुर जगन्नाथजी आदि परवार जातिके कई मुखिया सज्जन भी शामिल हुए थे । हम मुखियों के इस सत्साहसकी प्रशंसा करते हैं और आशा करते हैं कि अब वे अपनी जातिमें चार साँकोंके ब्याहको जायज ठहर For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७ ] देंगे । आठ साँकोंके मारे लोग बहुत ही तंग हैं। जब खण्डेलवाल, अग्रवाल आदि किसी भी जातिमें चार से ज्यादा साँकें नहीं मिलाई जाती हैं और फिर भी वे जातियाँ छोटी नहीं कह लातीं, तब परवार जातिको इससे अपने छोटे हो जानेके डरको चित्तसे निकाल ही देना चाहिए । ९ समैया और परवारांका सम्बन्ध | विविध प्रसङ्ग । परवार जातिके कुछ भाई तारनस्वामी के पंथको मानते हैं, इस कारण वे ' समैया ' कहलाते हैं। इनमें और परवारों में कोई भेद नहीं है । मूर गोत आदि सब दोनोंके एकसे हैं । दोनोंका भोजनव्यवहार भी होता है । बहुतसे समैया भाई ऐसे भी हैं, जो परवारोंके मन्दिरों में जाते और पूरा दिगम्बर सम्प्रदाय पालते हैं और इस पर भी उनका जो समैया भाइयोंसे बेटीव्यबहार है, उसमें अन्तर नहीं आता। समैया भाइयोंके घर बहुत थोड़े हैं, इसलिए अब उनका विवाहसम्बन्ध होना बहुत ही कठिन हो गया है, उन्हें लड़कियाँ नहीं मिलती हैं। ऐसी दशामें अब वे चाहते हैं कि हमारा परवार भाइयोंसे बेटीव्यवहार होने लगे। इसके लिए कोई कोई भाई तो अपना पन्थ छोड़ने तकको तैयार हैं । अन्यत्र छपे C कन्याकी आवश्यकता' शीर्षक विज्ञापनमें पाठकों को इस बातकी साक्षी · मिलेगी । हमारी समझमें परवार भाइयोंको इस संकट के समयमें अपने इन बिछुड़े भाइयोंको सहायता देनी चाहिए | चाहिए तो यह कि समैया भाई जबर्दस्ती अपने पंथको छोड़नेके लिए लाचार न किये जायँ; परन्तु यदि इतनी उदारता न दिखलाई जा सके, तो उन्हें अपना सम्प्रदाय स्वीकार कराके ही उनके साथ बेटीव्यवहार शुरू कर देना चाहिए । जहाँतक हम जानते हैं, परवार जातिके मुखियों को भी इसमें ३१३ कोई आपत्ति न होगी । गत वर्ष महाराजपुर ( सागर ) के सिंगई हजारीलालजीने, जो देवरी इलाके के मुखिया समझे जाते हैं - हमसे कहा था कि हम समैयोंसे सम्बन्ध करनेके लिए राजी हैं, यदि वे अपना पंथ छोड़ देवें तो । हमको आशा है कि हमारे और और परवार भाई भी इस ओर ध्यान देंगे और चार साँकोंके सम्बन्धके समान इस सम्बन्धको भी शीघ्र ही जायज ठहरा देंगे । १० कठनेरा जातिकी दुर्दशा | होशंगाबाद, भोपाल, मूँगावलीकी ओर 'कठनेरा ' नामकी एक दिगम्बर जैन जाति है । इसके सब मिलाकर कोई २०० घर होंगे । इस जातिके एक सज्जनके पत्र से मालूम हुआ कि उन्होंने कुछ गाँवोंके अपनी जातिके लोगों की गणना सर्वत्र घूमकर की थी, जिसके अनुसार इस समय विवाहयोग्य कुमारों की संख्या ७८ और कुमारियोंकी ४६ है, अर्थात् कुमारियोंकी संख्या कुमारोंसे ३२ कम हैं; इतने पर भी १४ पुरुष ऐसे हैं जिनकी एक एक दो दो शादियाँ हो चुकी हैं और स्त्रियोंके मरजाने के कारण फिर शादी करने के लिए तैयार हैं। नई उम्रकी विधवाओंकी संख्याजो दो चार छह वर्ष के भीतर ही विधवा हुई हैं और व्यभिचारमें प्रवृत्त हैं - १० है । इनमें ६ विधवायें इसी वर्ष में जातिसे च्युत कर दी गई हैं । शेष जो हैं, वे भी बहुत समयतक कुशलतापूर्वक नहीं रह सकतीं । जो लोग जैनोंकी अन्तर्गत जातियों में परस्पर विवाह नहीं होने देना चाहते और जो विधवाविवाह नामसे भड़क उठते हैं, उन्हें ऐसी जातियों की अवस्था पर विचार करना चाहिए । ९२ पुरुष तो विवाह करने के लिए उत्सुक हैं, पर कन्यायें कुल ४६ ही हैं । अर्थात् आधे पुरुषों को सदा अविवाहित रहना पड़ेगा और संयमहीन पापपूर्ण For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जीवन व्यतीत करना होगा । उधर विधवायें पाप करेंगी और धीरे धीरे जाति से च्युत होती जायँगी । इस तरह ऐसी जातियोंका क्षय अवयंभावी है । जैनहितैषी - धन्यवाद । गत अंक में हमने इशारा किया था कि जैनहितैषी में पिछले वर्ष लगभग २०० ) का घाटा रहा है। उसे पढ़कर जैनहितैषी के सच्चे शुभचिन्तक और विशेष लेखक श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तारने २५ ) पच्चीस रुपये मनी - आर्डर द्वारा सहायतार्थ भेजे हैं, जो उनके अतिशय आग्रहके कारण धन्यवादपूर्वक स्वीकार किये जाते हैं । ग्रन्थपरीक्षा लेखमाला | जैनहितैषीमें प्रकाशित हुए ग्रन्थपरीक्षा-विषयक लेखक हम पुस्तकाकार छपवा रहे हैं । इनका एक भाग भद्रबाहु -संहिताकी परीक्षा छप चुका है। दूसरा भाग छप रहा है, जिसमें उमास्वामिश्रावकाचार, कुन्दकुन्द श्रावकाचार और जिन - सेन त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थोंके परीक्षालेख रहेंगे । मूल्य लागत मात्र रक्खा जायगा । सिर्फ ५०० कापियाँ छपवाई जा रही हैं। जो धर्मात्मा सज्जन भट्टारकी साहित्यकी पोल खोलना चाहते हैं, भट्टारकोंके शिथिलाचारपोषक ग्रन्थोंसे समाजकी रक्षा करना चाहते हैं, उन्हें इन दोनों पुस्तकों की दश दश बीस बीस कापियाँ बाँटनेके लिए अवश्य मँगा लेना चाहिए । दशलक्षण पर्व में ये पुस्तकें प्रत्येक मन्दिर में पढ़ी जानी चाहिएँ । [ भाग १३ धर्मपरीक्षा । ( ग्रंथ - परीक्षा लेखमालाका पाँचवा लेख | ) [ लेखक - श्रीयुत बाबू जुगल किशोरजी मुख्तार । ] कृत्वा कृतीः पूर्वकृताः पुरस्तात्प्रत्यादरं ताः पुनरीक्षमाणः तथैव जल्पेदथयोन्यथा वा स काव्यचोरोस्तु स पातकी चा --सोमदेवः । " श्वेताम्बर जैनसम्प्रदाय में, श्रीधर्मसागर महोपाध्यायके शिष्य पद्मसागर गणीका बनाया हुआ धर्मपरीक्षा' नाम का एक संस्कृत ग्रंथ है, जिसे कुछ समय हुआ, सेठ देवचन्दलालभाईके जैनपुस्तकोद्धार फंड बम्बईने छपाकर प्रकाशित भी किया है । यह ग्रंथ संवत् १६४५ का बना हुआ है। जैसा कि इसके अन्तमें दिये हुए निम्नपयसे प्रगट है:-- तद्राज्ये विजयिन्यनन्यमतयः श्रीवाचकाग्रेसरा द्योतन्ते भुवि धर्मसागरमहोपाध्यायशुद्धा धिया । तेषां शिष्यकणेन पंचयुगषट् चंद्रांकिते (१६४५ ) वत्सरे वेलाकूलपुरे स्थितेन रचितो ग्रन्थोऽयमानन्दतः॥ १४८३ दिगम्बर जैनसम्प्रदाय में भी ' धर्मपरीक्षा ' नामका एक ग्रंथ है जिसे श्री माधवसेनाचार्य के शिष्य ' अमितगति' नामके आचार्यने विक्रमसंवत् १०७० में बनाकर समाप्त किया है । यह ग्रंथ भी छपकर प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रंथका रचना - संवत् सूचक, अन्तिम पद्य इसप्रकार है: संवत्सराणां विगते सहस्रे, सप्ततौ १०७० विक्रमपार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समाप्तं, जिनेन्द्रधर्मामितयुक्तिशास्त्रम् ॥ २० ॥ इन दोनों ग्रंथोंका प्रतिपाद्य विषय प्रायः एक है । दोनोंमें 'मनोवेग' और 'पवनवेग' की प्रधान कथा और उसके अंतर्गत अन्य अनेक उपकथाओंका समान रूपसे वर्णन पाया जाता है; बल्कि For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] धर्मपरीक्षा। ३१५ एकका साहित्य दूसरेके साहित्यसे यहाँतक अनुष्टुप् छंदका रूप न देसकने आदि किसी मिलता जुलता है कि एकको दूसरेकी नकल कहना कारणविशेषसे, ज्योंका त्यों भिन्न भिन्न छंदोंमें कुछ भी अनुचित न होगा। श्वेतांबर 'धर्मपरीक्षा' भी रहने दिया है; जिससे अन्तमें जाकर ग्रंथका जो इस लेखका परीक्षाविषय है, दिगम्बर अनुष्टुप्छंदी नियम भंग हो गया है । अस्तु; 'धर्मपरीक्षा ' से ५७५ वर्ष बादकी बनी हुई है। इन पाँचों पद्योंमेंसे पहला पद्य नमूनेके तौरपर इस लिए यह कहनेमें कुछ भी संकोच नहीं हो इस प्रकार है:राकता कि पद्मसागर गणीने अपनी धर्मपरीक्षा 'इदं व्रतं द्वादशभेदभिन्नं, अमितगतिकी 'धर्मपरीक्षा ' परसे ही बनाई है यः श्रावकीयं जिननाथदृष्टम् । और वह प्रायः उसकी नकल मात्र है । इस नक- करोति संसारनिपातभोतः लमै पद्मसागर गणीने अमितगतिके आशय, ढंग प्रयाति कल्याणमसौ समस्तम् ॥ १४७६ ॥ (शैली) और भावोंकी ही नकल नहीं की, बल्कि यह पद्य अमितगति-धर्मपरीक्षाके १९ वें परिउसके अधिकांश पद्योंकी प्रायः अक्षरशः नकल च्छेदमें नं० ९७ पर दर्ज है । इस पथके बाद कर डाली है और उस सबको अपनी कृति बनाया एक पा और इसी परिच्छेदका देकर तीन पद्य है, जिसका खुलासा इस प्रकार है-पद्मसागर २० वें परिच्छेदसे उठाकर रक्खे गये हैं, जिनके गणीकी धर्मपरीक्षामें पद्योंकी संख्या कुल १४८४ नम्बर उक्त परिच्छेदमें क्रमशः ८७, ८८ और है । इनमेंसे चार पद्य प्रशस्तिके और छह पद्य ८९ दिये हैं । इस २०वें परिच्छेदके शेष सम्पूर्ण मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञाके निकालकर शेष १४७४ पयोंको, जिनमें धर्मके अनेक नियमोंका निरूपद्यों से १२६० पद्य ऐसे हैं, जो अमितगतिकी पण था, ग्रंथकर्ताने छोड़ दिया है। इसी प्रकार धर्मपरीक्षासे ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे गये हैं। दूसरे परिच्छेदोंसे भी कुछ कुछ पय छोड़े गये वाकी रहे २१४ पद्य, वे सब अमितगतिके पद्यों परसे हैं, जिनमें किसी किसी विषयका विशेष कुछ परिवर्तन करके बनाये गये हैं। परिवर्तन वर्णन था। अमितगति-धर्मपरीक्षाकी पद्यसंख्या प्रायः छंदोभेदकी विशेषताको लिये हुए है। कल १९४१ है जिसमें २० पद्योंकी प्रशस्ति अमितगतिकी धर्मपरीक्षाका पहला परिच्छेद और भी शामिल है, और पद्मसागर-धर्मपरीक्षाकी शेष १९ परिच्छेदोंके अन्तके कुछ कुछ पद्य पद्यसंख्या प्रशस्तिसे अलग १४८० है; जैसा अनुष्टुप छन्दमें न होकर दूसरेही छंदोंमें रचे गये कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है। इसलिए हैं। पद्मसागर गणीने उनमेंसे जिन जिन पद्योंको संपूर्ण छोड़े हुए पद्योंकी संख्या लगभग ४४० लेना उचित समझा है, उन्हें अनुष्टुप् छन्दमें बदल- समझनी चाहिए। इस तरह लगभग ४४० पद्योंको कर रख दिया है, और इस तरहपर अपने ग्रंथमें निकालकर, २१४ पयोमें कुछ छंदादिकका अनुष्टप् छंदोंकी एक लम्बी धारा बहाई है । इस परिवर्तन करके और शेष १२६० पयोंकी ज्याकी धारामें आपने परिच्छेद भेदको भी बहा दिया त्यों नकल उतारकर ग्रंथकर्ता श्रीपद्मसागर गणीने है; अर्थात् अपने ग्रन्थको परिच्छेदों या अध्यायोंमें इस ‘धर्भपरीक्षा' को अपनी कृति बनानेका विभक्त न करके उसे बिना हालटिंग स्टेशन पुण्य संपादन किया है । जो लोग दूसरोंकी वाली एक लम्बी और सीधी सहकके रूपमें बना कृतिको अपनी कृति बनाने रूप पुण्य संपादन दिया है । परन्तु अन्तमें पाँच पद्योंको, उनकी करते हैं उनसे यह आशा रखना तो व्यर्थ रचनापर मोहित होकर अथवा उन्हें सहजमें है कि वे उस कृतिके मूल कर्ताका आदर For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ जैनहितैषी [भाग १३ पूर्वक स्मरण करेंगे, प्रत्युत उनसे जहाँतक २-त्यक्तबाह्यान्तरपथो निःकषायो जिद्रियः । बन पड़ता है, वे उस कृतिके मूलकर्ताका परीषहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः ॥१८-७६। नाम छिपाने या मिटानेकी ही चेष्टा किया इस पद्यमें अमितगतिने साधुका लक्षण करते हैं । ऐसा ही यहाँपर पद्मसागर गणीने 'जातरूपधरः' अर्थात् नग्नादगम्बर बतलाया भी किया है । अमितगतिका कृतज्ञतापूर्वक है । साधुका लक्षण नग्नदिगम्बर प्रतिपादन करस्मरण करना तो दूर रहा, आपने अपनी नेसे कहीं दिगम्बर जैनधर्मको प्रधानता प्राप्त न शक्तिभर यहाँ तक चेष्टा की है कि ग्रंथभरमें हो जाय, अथवा यह ग्रंथ किसी दिगम्बर जैनअमितगतिका नाम तक न रहने पावे और न की कृति न समझ लिया जाय, इस भयसे गणीदूसरा कोई ऐसा शब्द ही रहने पावे जिससे यह जी महाराजने इस पद्यकी जो कायापलट की ग्रंथ स्पष्ट रूपसे किसी दिगम्बर जैनकी कृति है वह इस प्रकार है:समझ लिया जाय । उदाहरणके तौरपर यहाँ त्यक्तबाह्यान्तरो ग्रंथो निष्कियो विजितेंद्रियः । इसके कुछ नमूने दिखलाये जाते हैं:- परीषहसहः साधुभवाम्भोनिधितारकः ॥१३-७६॥ १-श्रुत्वा वाचमशेषकल्मषमुषां साधोर्गुणाशंसिनी। यहाँ 'जातरूपधरो मतः ' के स्थानमें 'भनत्वा केवलिपादपंकजयुगं मामरेन्द्रार्चितम् ॥ वाम्भोनिधितारकः ' ( संसारसमुद्रसे पार करआत्मानं व्रतरत्नाभूषितमसौ चक्रे विशुद्धाशयो। नेवाला) ऐसा परिवर्तन किया गया है । साथ भव्यःप्राप्य यौगिरोऽमितगतर्व्यर्थाःकथं कुर्वते॥१०१॥ ही. 'निःकषायः' की जगह निष्क्रियः' ___ यह पद्य अमितगतिकी धर्मपरक्षिाके १९ वें भी बनाया गया है जिसका कोई दूसरा ही परिच्छेदका अन्तिम पद्य है। इसमें मुनिमहा- रहस्य होगा। राजका उपदेश सुनकर पवनवेगके श्रावक व्रत ३-कन्ये नन्दासुनन्दाख्ये कच्छस्य नृपतेर्वृषा । धारण करनेका उल्लेख करते हुए, चौथे चरणमें जिनेन योजयामास नीतिकीर्ती इवामले।।१८.२४१ लिखा है कि 'भव्यपुरुष अपरिमित ज्ञानके धारक दिगम्बर सम्प्रदायमें, ऋषभ देवका विवाह मुनिके उपदेशको पाकर उसे व्यर्थ कैसे कर राजा कच्छकी नन्दा और सुनन्दा नामकी सकते हैं। ' साथ ही इस चरणमें अमितगतिने दो कन्याओंके साथ होना माना जाता अन्यपरिच्छेदोंके आन्तिम पद्योंके समान युक्तिपूर्वक है । इसी बातको लेकर अमितगतिने. गुप्तरीतिसे अपना नाम भी दिया है । पद्मसागर उसका ऊपरके पद्यमें उल्लेख किया है। परन्तु गणीको अमितगतिका यह गुप्त नाम भी असह्य श्वेताम्बर सम्प्रदायमें, ऋषभदेवकी स्त्रियोंके नाहुआ और इस लिए उन्होंने अपनी धर्मपरीक्षामें, मोमें कुछ भेद करते हुए, दोनों ही स्त्रियोंको राजा इस पद्यको नं०१४७७ पर, ज्योंका त्यों उद्धृत कच्छकी पुत्रियें नहीं माना है । बल्कि सुमंगलाकरते हुए, इसके अन्तिम चरणको निम्न प्रकारसे को स्वयं ऋषभदेवके साथ उप्तन्न हुई उनकी बदल दिया है: सगी बहन बतलाया है और सुनन्दाको एक दूसरे "मित्रादुत्तमतो न किं भुवि नरः प्राप्नोति सद्वस्त्वहो।" युगलियेकी बहन बयान किया है जो अपनी ___ इस तबदीलीसे प्रगट है कि यह केवल अमि- बहनके साथ खेलता हुआ अचानक बाल्यावतगतिका नाम अलग करनेकी गरज़से ही की स्थामें ही मरगया था । इसलिए पद्मसागरजीने गई है, अन्यथा इस परिवर्तनकी यहाँपर कुछ अमितगतिके उक्त पद्यको बदलकर उसे नीचेका भी जरूरत न थी। रूप दे दिया है, जिससे यह ग्रंथ दिगम्बर For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] धर्मपरीक्षा। ग्रंथ न समझा जाकर श्वताम्बर समझ लिया चिल्ला उठना और कहना कि स्कंदने मेरे पिताको जाय:-- मार डाला है । ऐसा करनेपर राजा स्कंदद्वारा " सुमंगलसुनन्दाख्ये कन्ये सह पुरंदरः। मुझे मरा जानकर स्कंदको दंड देगा जिससे वह जिनेन योजयामास नीतिकर्तीि इवामले ।। १३४७ पुत्रसहित मरजायगा । इत्यादि। इस प्रकरणके इन प्रकार, यद्यपि ग्रंथकर्ता महाशयने अमि- तीन पद्य इस प्रकार हैं:तगतिकी कृतिपर अपना कर्तृत्व और स्वामित्व एष यथा क्षयमेति समूलं कंचन कर्म तथा कुरु वत्स । येन स्थापित करने और उसे एक श्वेताम्बर ग्रंथ वसामि चिरं सुरलोके हृष्टमनाः कमनीयशरीरः ॥८॥ बनानेके लिए बहुत कुछ अनुचित चेष्टाएँ की क्षेत्रममुष्य विनीय मृतं मां यष्टि निषष्णतनुं सुत कृत्वा। हैं परन्तु तो भी वे इस (धर्मपरीक्षा ) ग्रंथको गौमहिषीहयवृन्दमशेषं सस्य समूहविनाशि विमुंचा८९॥ पूर्णतया श्वेताम्बर ग्रंथ नहीं बना सके। बल्कि वृक्षतृणान्तरितो मम तोरे तिष्ठ निरीक्षितुमागतिमस्य । अनेक पद्योंको निकाल डालने, परिवर्तित कर कोपपरेण कृते मम घाते पूरकुरु सर्वजनश्रवणाय ॥ ९०॥ देने तथा ज्योंका त्यों कायम रखनेकी वजहसे इन तीनों पद्योंके स्थानमें पद्मसागर गणीने उनकी यह रचना कुछ ऐसी विलक्षण और अपनी धर्मपरीक्षामें निम्नलिखित दो पय अनुष्टुप् दोषपूर्ण हो गई है, जिससे ग्रंथकी चोरीका छंदमें दिये हैं:सारा भेद खल जाता है। साथ ही, ग्रंथकर्ताकी समूलं क्षयमेत्येष यथा कर्म तथा कुरु । योग्यता और उनके दिगम्बर तथा श्वेताम्बर धर्म- वसामि यत्स्फुरदेहः स्वर्ग हृष्टमनाः सुखम् ॥ २८३ ॥ सम्बंधी परिज्ञान आदिका भी अच्छा परिचय वृक्षाद्यन्तरितस्तिष्ठ त्वमस्यागतिमीक्षितुम् । मिल जाता है। पाठकोंके संतोषार्थ यहाँ इन्हीं आयातेऽस्मिन्मृतं हत्वा मो पूत्कुरु जनश्रुतेः ॥ २४॥ सब बातोंका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है:- इन पद्योंका अमितगतिके पद्योंके साथ मिला (१) अमितगति-धर्मपरीक्षाके पाँचवें परि- न करनेपर पाठकोंको सहजहीमें यह मालूम हो च्छेदमें वक' नामके द्विष्ट पुरुषकी कथाका वर्णन जायगा कि दोनों पद्य क्रमशः अमितगतिके पद्य करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि जिस समय नं०८८ और ९० परसे कुछ छील छालकर बनाये ‘वक' मरणासन्न हुआ तन उसने अपने गये हैं। इनमें अमितगतिके शब्दोंकी प्रायः नकल ‘स्कंद ' नामक शत्रुका समूल नाश करनेके पाई जाती है । परन्तु साथही उन्हें यह जाननेमें लिए, पुत्रपर अपनी आन्तरिक इच्छा प्रगट की भी विलम्ब न होगा कि अमितगतिके पद्य नं० और उसे यह उपाय बतलाय कि ' जिस ८९ को पद्मसागरजीने बिलकुल ही छोड़ दिया समय मैं मर जाऊं उस समय तुम मुझे मेरे है-उसके स्थानमें कोई दूसरा पद्य भी बनाशत्रुके खेतमें ले जाकर लकड़ीके सहारे खड़ा कर कर नहीं रक्खा । इसलिए उनका पद्य नं. देना । साथ ही अपने समस्त गाय, भैंस तथा २८४ बड़ा ही विचित्र मालूम होता है। उसमें घोड़ोंके समूहको उसके खेतमें छोड़ देना, जिससे उस उपायके सिर्फ उत्तरार्धका कथन है, जो वक्रवे उसके समस्त धान्यका नाश कर देवें। और ने मरते समय अपने पुत्रको बतलाया था । उपातुम किसी वृक्ष या घासकी ओटमें मेरे पास यका पूर्वार्ध न होनेसे यह पद्य इतना असम्बद्ध बैठकर स्कंदके आगमनकी प्रतीक्षा करते रहना। और बेढंगा हो गया है कि प्रकृत कथनसे उसकी जिस वक्त वह क्रोधमें आकर मुझ पर प्रहार कुछ भी संगति नहीं बैठती। इसी प्रकारके पद्य करे तब तुम सब लोगोंको सुनानेके लिए जोरसे और भी अनेक स्थानों पर पाये जाते हैं, जिनके For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैनहितैषी [भाग १३ पहलेके कुछ पद्य छोड़ दिये गये हैं और इस " द्रौपद्याः पंच भर्तारः कथ्यन्ते यत्र पाण्डवाः । लिए वे पर कटे हुए कबूतरकी समान लँडूरे मालूम जनन्यास्तव को दोषस्तत्र भर्तृदयेसति ॥ ९७९ ॥ होते हैं। ____ इस श्लोकमें द्रौपदीके पंचभर्तार होनेकी बात (२) अमितगतिने अपनी धर्मपरीक्षाके . कटाक्ष रूपसे कही गई है। जिसका आगे प्रति १५ वें परिच्छेदमें, 'युक्तितो घटते यन्न' इत्यादि बाद होनेकी जरूरत थी और जिसे गणीजीने पद्य नं० ४७ के बाद, जिसे पद्मसागरजीने भी नहीं किया । यदि गीजीको एक स्त्रीके अनेक अपने ग्रंथमें नं० १०८९ पर ज्योंका त्यों उध्दृत पति होना अनिष्ट न था तब आपको अपने ग्रंथमें किया है, नीचे लिखे दो पद्योंद्वारा एक स्त्रीके यह श्लोक भी रखना उचित न था और न इस पंच भर्तार होनेको अति निंद्य कर्म ठहराया है; विषयकी कोई चर्चा ही चलानेकी जरूरत थी। और इस तरहपर द्रौपदीके पंचपति होनेका परन्तु आपने ऐसा न करके अपनी धर्मपरीक्षामें निषेध किया है। वे दोनों पद्य इस प्रकार हैं:- उक्त श्लोक और उसके सम्बंधकी दूसरी चर्चाको, सम्बंधा भुवि विद्यन्ते सर्वे सर्वस्य भूरिशः। विना किसी प्रतिवादके, ज्योंका त्यों स्थिर * भर्तृणां क्वापि पंचानां नैकया भार्यया पुनः ॥ ४८॥ रक्खा है, इस लिए कहना पड़ता है कि आपने सर्वे सर्वेष कुर्वन्ति संविभागं महाधियः। ऐसा करके निःसन्देह भारी भूल की है । और इससे महिलासंविभागस्तु निन्द्यानामपि निन्दितः॥४९॥ आपकी योग्यता तथा विचारशीलताका भी बहुत पद्मसागरजीने यद्यपि इन पद्योंसे पहले और कुछ परिचय मिल जाता है। पीछेके बहुतसे पद्योंकी एकदम ज्योंकी त्यों । (३) श्वेताम्बर धर्मपरीक्षा में, एक स्थाननकल कर डाली है, तो भी आपने इन , पर, ये तीन पद्य दिये हैं:दोनों पद्योंको अपनी धर्मपरीक्षामें स्थान नहीं 'विलोक्य वेगतः खर्या क्रमस्योपरिमे क्रमः । दिया। क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें, हिन्दु भन्नो मुशलमादाय दत्तनिष्ठुरघातया ॥ ५१५ ॥ ओंकी तरह, द्रौपदीके पंचभर्तार ही माने जाते हैं। अथैतयोर्महाराटिः प्रवृत्ता दुर्निवारणा। पाँचों पांडवोंके गलेमें द्रौपदीने वरमाला डाली लोकानां प्रेक्षणी भूता राक्षस्योरिव रुष्टयोः ॥५१६॥ थी और उन्हें, अपना पति बनाया था; ऐसा अरे । रक्षतु ते पादं त्वदीया जननी स्वयम् । कथन श्वेताम्बरोंके ' त्रिशष्ठिशलाकापुरुषच रुष्टखा निगद्येति पादो भन्नो द्वितीयकः ॥५१॥ रित ' आदि अनेक ग्रंथोंमें पाया जाता है । उक्त ____ इन पद्योंमेंसे पहला पद्य ज्योंका त्यों बही दोनों पद्योंको स्थान देनेसे यह ग्रंथ कहा है जो दिगम्बरी धर्मपरीक्षाके ९ वें परिच्छेदमें श्वेताम्बर धर्मके अहातेसे बाहर न निकल जाय, नं० २७ पर दर्ज है। दूसरे पद्यमें सिर्फ इसी भयसे शायद गणीजी महाराजने उन्हें 'इत्थं तयोः । के स्थानमें ' अथैतयोः ' का स्थान देनेका साहस नहीं किया । परन्तु पाठ- और तीसरे पद्यमें 'बोडे' के स्थानमें 'अरे' और कोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि गणीजीने । 'रुष्टया ' के स्थानमें ' रुष्टखर्या ' का परिवअपने ग्रंथमें उस श्लोकको ज्योंका त्यों रहने । रहन र्तन किया गया है । पिछले दोनों पद्य दिगम्बरी दिया जो आक्षेपके रूपमें ब्राह्मणोंके सम्मुख । धर्मपरीक्षाके उक्त परिच्छेदमें क्रमशः नं० ३२ उपस्थित किया गया था और जिसका प्रतिवाद करनेके लिए ही अमितगति आचार्यको उक्त और ३३ पर दर्ज हैं। इन दोनों पद्योंसे पहले दोनों पद्योंके लिखनेकी जरूरत पड़ी थी। वह अमितगतिने जो चार पद्य और दिये थे और श्लोक यह है: जिनमें कक्षी तथा खरी नामकी दोनों स्त्रियोंके 7. . For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] धर्मपरीक्षा। वाग्युद्धका वर्णन था उन्हें पद्मसागरजीने अपनी उपाय करनेके लिए दो मुर्दे लानके विषयमें थी) धर्मपरीक्षासे निकाल दिया है । अस्तु; और सब बड़ी प्रसन्नताके साथ पालन किया, सच है कामी बातोंको छोड़कर यहाँ पाठकोंका ध्यान उस परि- पुरुष ऐसे कार्योंमें दुष्प्रबोध नहीं होते। अर्थात् वर्तनकी ओर आकर्षित किया जाता है, जो वे अपने कामकी बातको कठिनतासे समझनेवाले. 'रुष्टया ' के स्थानमें 'रुष्टखर्या' बनाकर, न होकर शीघ्र समझ लेते हैं । पद्मसागरजीने किया गया है । यह परिवर्तन वास्तवमें बड़ा ही यही पद्य अपनी धर्मपरीक्षामें नं० ३१५ पर विलक्षण है । इसके द्वारा यह विचित्र अर्थ घटित दिया है परन्तु साथ ही इसके उत्तरार्धको निम्न किया गया है कि जिस खरी नामकी स्त्रीने प्रकारसे बदलकर रक्खा है:- . पहले कक्षीके उपास्य चरणको तोड़ डाला था “न जाता तस्य शंकापि दुष्प्रबोधा हि कामिनः॥" उसीने ऋक्षीको यह चैलेंज देते हुए कि 'ले! इस परिवर्तनके द्वारा यह सूचित किया गया है अब तू और तेरी मा अपने चरणकी रक्षा कर' कि 'उस बटकको उक्त आज्ञाके पालनमें शंका स्वयं अपने उपास्य दूसरे चरणको भी तोड़ भी नहीं हुई, सच है कामी लोग कठिन डाला ! परन्तु खरीको अपने उपास्य चरण पर तासे समझनेवाले होते हैं । परन्तु बटुकने क्रोध आने और उसे तोड़ डालनेकी कोई वजह तो यज्ञाकी आज्ञाको पूरी तौरसे समझकर न थी । यदि ऐसा मान भी लिया जाय तो उक्त उसे विना किसी शंकाके प्रसन्नताके साथ तुरन्त चैलेंजमें जो कुछ कहा गया है वह सब व्यर्थ पालन किया है तब वह कठिनतासे समझनेवाला पडता है। क्योंकि जब खरी कक्षीके उपास्य 'दुष्प्रबोध' क्यों ? यह बात बहुत ही खटकनेचरणको पहले ही तोड़ चुकी थी, तब उसका वाली है; और इस लिए ऊपरका परिवर्तन बडाकक्षीसे यह कहना कि, ले ! अब तु अपने ही बेढंगा मालम होता है। नहीं मालम ग्रंथचरणकी रक्षा कर, मैं उस पर णाक्रमण करती हूँ, कर्ताने इस परिवर्तनको करके पद्यमें कौनसी. बिलकुल ही भद्दा और असमंजस मालूम होता खुबी पैदा की और क्या लाभ उठाया । इस है। वास्तवमें दूसरा चरण कक्षकि द्वारा, अपना प्रकारके व्यर्थ परिवर्तन और भी अनेक स्थानों बदला चुकानेके लिए तोड़ा गया था और उसीने पर पाये जाते हैं जिनसे ग्रंथकर्ताकी योग्यता खरीको ललकार कर उपर्युक्त वाक्य कहा था। और व्यर्थाचरणका अच्छा परिचय मिलता है। ग्रंथकाने इसपर कुछ भी ध्यान न देकर विना सोचे समझे वैसे ही परिवर्तन कर डाला है, जो वताम्बर-शास्त्रविरुद्ध कथन । बहुत ही भद्दा मालूम होता है। (५) पद्मसागर गणीने, अमितगतिके पद्यों(.४ / आमितगाति-धर्मपरीक्षाक' छठे परि- बीज्योंकी त्यो नकल करते हुए एक स्थान पर च्छेदमें, 'यज्ञा' ब्राह्मणी और उसके जारपति ये दो पद्य दिये हैं। ‘बटुक' का उल्लेख करते हुए, एक पद्य इस "क्षुधा तृष्णा भयद्वेषौ रागो मोहो मदो गदः। प्रकारसे दिया है-- चिन्ता जन्म जरा मृत्युवि दो विस्मयो रतिः ॥८९२॥ प्रपेदे स वचस्तस्या निःशेष हृष्टमानसः । खेदः स्वेदस्तथा निद्रा दोषाः साधारणा इमे।। जायन्ते नेदृशे कार्ये दुष्प्रबोधा हि कामिनः ॥४४॥ अष्टादशापि विद्यन्ते सर्वेषां दुःखहेतवः ॥ ८९३ ॥" इस पयमें लिखा है कि 'उस कामी बटुकने इन पद्योंमें उन १८ दोषोंका नामोल्लेख है, यज्ञाकी आज्ञाको (जो अपने निकल भागनेका जिनसे दिगम्बर लोग अर्हन्त देवोंको रहित For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ दाप मानते हैं। उक्त दोषोंका, २१ पद्योंमें, कुछ विवरण रति, भीति (भय), निद्रा, राग और द्वेष ये पाँच देकर फिर ये दो पद्य और दिये हैं:- दोष तो ऐसे हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों एतैर्ये पीडिता दोषैस्तैर्मुच्यन्ते कथं परे। सम्प्रदायोंमें समान रूपसे माने गये हैं। शेष सिंहाना हतनागानां न खेदोस्ति मृगक्षये ॥ ९१५॥ दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तसर्वे रागिणि विद्यन्त दोषा नात्रास्ति संशयः। राय, उपभोगान्तराय, हास्य, अरति, जुगुप्सा, रूपिणीव सदा द्रव्ये गन्धस्पर्शरसादयः ॥ ९१६ ॥ शोक, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान और विरति ___ इन पद्योंमें लिखा है कि 'जो देव इन क्षुधादिक नामके १३ दोष दिगम्बरोंके माने हुए दोषोंसे पीडित हैं, वे दूसरोंको दुःखोंसे मुक्त कैसे क्षुधा, तृषा, मोह, मद, रोग, चिन्ता, जन्म, कर सकते हैं ? क्योंकि हाथियोंको मारनेवाले जरा, मृत्यु, विषाद, विस्मय, खेद और स्वेद सिंहोंको मृगोंके मारनेमें कुछ भी कष्ट नहीं होता। नामके दोषोंसे भिन्न है । इस लिए गणीजीका जिस प्रकार पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस और गंधा- उपर्युक्त कथन श्वेताम्बर शास्त्रोंके विरुद्ध है। दिक गुण हमेशा पाये जाते हैं, उसी प्रकार ये सब मालूम होता है कि अमितगतिधर्मपरीक्षाके दोष भी रागी देवोंमें पाये जाते हैं।' इसके १३ वें परिच्छेदसे इन सब पद्योंको ज्योंका त्यों बाद एक पद्यमें ब्रह्मादिक देवताओं पर कुछ आक्षेप उठाकर रखनेकी धुनमें आपको इस विरुद्धताका करके गणीजी लिखते हैं कि : सूर्यसे अंधकारके कुछ भी भान नहीं हुआ। समूहकी तरह जिस देवतासे ये संपूर्ण दोष नष्ट (६) एक स्थान पर, पद्मसागरजी लिखते हैं हो गये हैं, वही सब देवोंका अधिपति अर्थात् कि 'कुन्तीसे उत्पन्न हुए पुत्र तपश्चरण करके देवाधिदेव है और संसारी जीवोंके पापोंका मोक्ष गये और मद्री के दोनों पुत्र मोक्षमें न जाकर नाश करनेमें समर्थ है, यथाः- सर्वार्थसिद्धिको गये। यथाःएते नष्टा यतो दोषा भानोरिव तमश्चयाः। “कुन्तीशरीरजाः कृत्वा तपो जग्मुः शिवास्पदम् । स स्वामी सर्वदेवानां पापनिर्दलनक्षमः ॥ ९१८॥ मद्रीशरीरजौ भन्यो सर्वार्थसिद्धिमीयतुः ॥ १०९५॥ ___इस प्रकार गणीजी महाराजने देवाधिदेव , यह कथन यद्यपि दिगम्बरसम्प्रदायकी दृष्टिसे अर्हन्त भगवान्का १८ दोषोंसे रहित वह सत्य है और इसी लिए अमितगतिने अपने स्वरूप प्रतिपादन किया है, जो दिगम्बरसम्प्रदाय- ग्रंथके १५वें परिच्छेदमें इसे नं० ५५ पर दिया में माना जाता है। परंतु यह स्वरूप श्वेताम्बर है। परन्तु श्वेताम्बरसम्प्रदायकी दृष्टिसे यह कथन सम्प्रदायके स्वरूपसे विलक्षण मालूम होता भी विरुद्ध है । श्वेताम्बरोंके 'पांडवचरित्र' आदि है; क्योंकि श्वेताम्बरोंके यहाँ प्रायः दूसरे ही ग्रंथों में 'मद्री' के पुत्रोंका भी मोक्ष जाना प्रकारके १८ दोष माने गये हैं। जैसा कि मुनि लिखा है और इस तरह पर पाँचोंही पाण्डवोंके आत्मारामजीके ' तत्त्वादर्शमें । उल्लिखित नीचे लिए मुक्तिका विधान किया है। लिखे दो पद्योंसे प्रगट है: (७) पद्मसागरजीने, अपनी धर्मपरीक्षामें, अंतरायदानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः। एक स्थान पर यह पद्य दिया है:--- हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्साशोक एव च ॥१॥ चार्वाकदर्शनं कृत्वा भूपी शुक्रबृहस्पती । कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा च विरतिस्तथा। प्रवृत्तौ स्वेच्छया कर्तुं स्वकीयेन्द्रियपोषणम् ॥१३६५॥ रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाऽप्यमी ॥ २॥ इसमें शुक्र और बृहस्पति नाम राजाइन पद्योंमें दिये हुए १८ दोषोंके नामों से ओंको 'चार्वाक ' दर्शनका चलाने लिखा For Personal & Private Use Only ' Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७] धर्मपरीक्षा। है । परन्तु मुनि आत्माराम ने अपने तो उसे प्रतिमाके स्थान पर एक चतुर्मुखी मनुष्य 'तत्त्वादर्श' ग्रंथके ४ थे परिच्छेदमें ' शील- दिखलाई पड़ा, जिसके मस्तक पर गधेका सिर तरंगिणी' नामक किसी श्वेताम्बरशास्त्रके था। उस गधेके सिरको बढ़ता हुआ देखकर - उसने शीघ्रताके साथ उसे काट डाला । परन्तु आधार पर, चार्वाक मतकी उत्पत्तिविषयक . वह सिर महादेवके हाथको चिपट गया, नीचे जो कथा दी है, उससे यह मालूम होता है कि नहीं गिरा। तब ब्राह्मणी विद्या महादेवको साधनाचार्वाक मत किसी राजा या क्षत्रिय पुरुषके द्वारा को व्यर्थ करके चली गई । इसके बाद रात्रिको, न चलाया जाकर केवल बृहस्पति नामके एक महादेवने श्री वर्धनमानस्वामीको स्मशानभूमिमें ब्राह्मणद्वारा प्रवर्तित हुआ है; जो अपनी बालविधवा ध्यानारूढ देखकर और उन्हें विद्यारूपी मनष्य बहनसे भोग करना चाहता था ! और इस लिए समझकर उन पर उपद्रव किया। प्रातःकाल जब बहनके हृदयसे पाप तथा लोकलज्जाकाभय निकाल- उसे यह मालूम हुआ कि वे श्रीवर्धमानजिनेंद्र थे, तब उसे अपनी कृति पर बहुत पश्चात्ताप कर अपनी इच्छा पूर्तिकी गरजसे ही उसने इस मतके • हुआ। उसने भगवान्की स्तुति की और उनके सिद्धान्तोंकी रचना की थी। इस कथनसे पद्म- चरण छए । चरणोंको छते ही उसके हाथमें सागरजीका उपर्युक्त कथन भी श्वेताम्बर शास्त्रोंके चिपटा हुआ वह गधेका सिर गिर पड़ा।" । विरुद्ध पड़ता है। ___यह सब कथन श्वेताम्बर शास्त्रोंके बिल(८) इस श्वेताम्बर 'धर्मपरीक्षा' में, पद्य नं० कुल विरुद्ध है । श्वेताम्बरोंके ‘आवश्यक' सूत्रमें ७८२ से ७९९ तक, गधेके शिरच्छेदका इति- महादेवकी जो कथा लिखी है और जिसको मुनि हास बतलाते हुए, लिखा है कि " आत्मारामजीने अपने 'तत्वादर्श' नामक ग्रंथके “ज्येष्ठाके गर्भसे उत्पन्न हुआ शंभु (महादेव) , १२ वे परिच्छेदमें उद्धृत किया है, उससे यह सब कथन बिलकुल ही विलक्षण मालूम होता सात्यकिका बेटा था । घोर तपश्चरण करके उसने है। उसमें महादेव ( महेश्वर ) के पिताका बहुतसी विद्याओंका स्वामित्व प्राप्त किया था। नाम 'सात्यकि ' न बतलाकर स्वयं महादेवका विद्याओंके वैभवको देखकर वह दसवें वर्षमें भ्रष्ट ही असली नाम ‘सात्यकि' प्रगट किया है हो गया। उसने चारित्र (मुनिधर्म) को छोड़कर और पिताका नाम 'पेढाल' परिव्राजक बतविद्याधरोंकी आठ कन्याओंसे, विवाह किया। लाया है। लिखा है कि, पेढालने अपनी विद्यापरन्तु वे विद्याधरोंकी आठों ही पुत्रियाँ महादेवके साथ रतिकर्म करनेमें असमर्थ होकर मर गई। तब * ओंका दान करनेके लिए किसी ब्रह्मचारिणीसे एक । तब पुत्र उत्पन्न करनेकी जरूरत समझकर 'ज्येष्ठा' महादेवने पार्वतीको रतिकर्ममें समर्थ समझकर उस- नामकी साध्वीसे व्यभिचार किया और उससे की याचना की और उसके साथ विवाह किया। एक सात्याक नामके महादेव पुत्रको उत्पन्न करके दिन पार्वतके साथ भोग करते हुए उसकी उसे अपनी संपूर्ण विद्याओंका दान कर दिया। 'त्रिशल ' विद्या नष्ट हो गई। उसके नष्ट होने- साथ ही यह भी लिखा है कि, वह सात्यकि पर वह ‘ब्राह्मणी' नामकी दसरी विद्याको नामका महेश्वर महावीर भगवान्का अविरत सिद्ध करने लगा। जब वह 'ब्राह्मणी' वि- . सम्यग्दृष्टि श्रावक था । इस लिए उसने किसी द्याकी प्रतिमाको सामने रखकर जप कर रहा रण किया और उससे भ्रष्ट हुआ, इत्यादि बातों चारित्रका पालन किया, मुनिदीक्षा ली, घोर तपश्चथा, तब उस विद्याने अनेक प्रकारकी विक्रिया का उसके साथ कोई सम्बंध नहीं है । महादेवने करनी शुरू की। उस विक्रियाके समय जब विद्याधरोंकी आठकन्याओंसे विवाह किया, वे महादेवने एक बार उस प्रतिमा पर दृष्टि डाली, मर गई, तब पार्वतीसे विवाह किया। पावतीसे भोग For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैनहितैषी [भाग १३ करते समय त्रिशूल विद्या नष्ट हो गई, उसके एक दिन व्यास राजाके पुत्र पाण्डको स्थानमें ब्राह्मणी विद्याको सिद्ध करनेकी चेष्टा की वनमें क्रीडा करते हुए किसी विद्याधर की गई. विद्याकी विक्रिया, गधेका सिर हाथके चिपट ' काममुद्रिका ' नामकी एक अंगूठी मिली। जाना और फिर उसका वर्धमान स्वामी के चरण थोडी देरमें उस अंगठीका स्वामी चित्रांगद छने पर छूटना, इन सब बातोंका भी वहाँ काई नामका विद्याधर अपनी अंगूठीको ढूँढ़ता उल्लेख नहीं है । इनके स्थानमें लिखा है कि महा हुआ वहाँ आ गया। पांडुने उसे उसकी वह देव बड़ा कामी और व्यभिचारी था, वह अपनी विद्याके बलसे जिस किसीकी कन्या या स्त्रीसे अंगूठी दे दी। विद्याधर पांडुकी इसप्रकार निःस्पचाहता था विषय सेवन कर लेता था; लोग हता देखकर बन्धुत्वभावको प्राप्त हो गया और उसकी विद्याके भयसे कुछ बोल नहीं सकते थे। पाण्डुको कुछ विषण्णचित्त जानकर उसका जो कोई बोलता था उसे वह मार डालता था, . कारण पूछने लगा। इसपर पांडुने कुन्तीसे विवाह इत्यादि । अन्तमें यह भी लिखा है कि उमा करनेकी अपनी उत्कट इच्छा और उसके (पार्वती) एक वेश्या थी, महादेव उस पर मोहित न मिलनेको अपने विषादका कारण बतलाया। होकर उसीके घर रहने लगा था। और 'चंद्रप्रद्योत' यह सुनकर उस विद्याधरने पांडुको अपनी वह नामके राजाने, उमासे मिलकर और उसके द्वारा काममुद्रिका देकर कहा कि इसके द्वारा तुम यह भेद मालूम करके कि भोग करते समय कामदेवका रूप बनाकर कुन्तीका सेवन करो. महादेवकी समन्त विद्याएँ उससे अलग हो जाती पछि गर्भ रह जाने पर कुन्तीका पिता तम्हारे ही हैं, महादेवको उमासहित भोगमन्नावस्थामें अपने । । साथ उसका विवाह कर देगा। पाण्डु काम मुद्रि काको लेकर कुन्तीके धर गया और बराबर सुभटों द्वारा मरवा डाला था और इस तरह पर सात दिनतक कुंतीके साथ विषयसेवन करके नगरका उपद्रव दूर किया था । इसके बाद उसने उसे गर्भवती कर दिया। कुंतीकी माताको महादेवकी उसी भोगावस्थाकी पूजा प्रचलित होनेका कारण बतलाया है । इससे पाठक भले जब गर्भका हाल मालूम हुआ तब उसने गुप्त रूपसे प्रकार समझ सकते हैं कि पद्मसागरजी गणीका प्रसूति करा प्रसूति कराई और प्रसव हो जाने पर बालकको एक उपर्युक्त कथन श्वेताम्बर शास्त्रोंके इस कथनसे मंजूषामें बन्द करके गंगामें बहा दिया। गंगामें कितना विलक्षण और विभिन्न है और वे कहाँ बहता हुआ वह मंजूषा चंपापुरके राजा 'आदित्य, को मिला, जिसने उस मंजूषामेंसे उक्त बालकको तक इस धर्मपरीक्षाको श्वेताम्बरत्वका रूप निकालकर उसका नाम 'कर्ण' रक्खा, और देनेमें समर्थ हो सके हैं । गणीजीने विना सोचे अपने कोई पुत्र न होनेके कारण बडे ही हर्ष समझे ही यह सब प्रकरण दिगम्बर धर्मपरीक्षाके और प्रेमके साथ उसका पालन पोषण किया । १२ वें परिच्छेदसे ज्योंका त्यों नकल कर डाला है। सिर्फ एक पद्य नं०७८४ में पूर्वे' के स्थानमें आदित्यके मरने पर वह बालक चम्पापुरका 'वर्षे' का परिवर्तन किया है । अमितगतिने र राजा हुआ। चूंकि 'आदित्य ' नामके राजाने. ‘दशमे पूर्वे' इस पदके द्वारा महादेवको दशपू- क IN कर्णको पालनपोषण करके वृद्धिको प्राप्त किया का पाठी सचित किया था। परन्त पीजीको था इस लिए कण ' आदित्यज' कहलाता है. अमितगतिके इस प्रकरणकी सिर्फ इतनी ही बात वह ज्योतिष्क जातिके सूर्यका पुत्र कदापि पसंद नहीं आई और इसलिए उन्होंने उसे बदल नहीं है।" * डाला है। पद्मसागरजीका यह कथन भी श्वेताम्बर (९) पद्मसागरजी अपनी धर्मपरीक्षामें जैन- * यह सब कथन नं० १०५९ से १०९० तकके शास्त्रानुसार 'कर्णराज की उत्पत्तिका वर्णन करते पद्योंमें वर्णित है और अमितगति धर्मपरीक्षाके १५३ हुए लिखते हैं कि- ... उठाकर परिच्छेदसे रक्खा गया है। For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ७ धर्म-परीक्षा। शास्त्रों के प्रतिकूल है । श्वेताम्बरों के श्रीदेव- होगी । इस लिए सूर्यका दिया, हुआ होनेसे विजयगणिीवरचित 'पांडवचरित्र में पांडुको बालकका दूसरा नाम सूर्यपुत्र भी रक्खा गया । राजा विचित्रवीर्यका पुत्र लिखा है और श्वेताम्बरीय पांडवचरित्रके इस संपूर्ण कथनसे उसे 'मुद्रिका ' देनेवाले विद्याधरका नाम 'वि- पद्मसागरजीके पूर्वोक्त कथनका कहाँतक मेल है शालाक्ष ' बतलाया है । साथ ही यह भी और वह कितना सिरसे पैर तक विलक्षण है, लिखा है कि वह विद्याधर अपने किसी शत्रुके इसे पाठकोंको बतलानेकी जरूरत नहीं है । वे द्वारा एक वृक्षक नितम्बमें लोहेकी कीलोंसे कीलि- एक नजर डालते ही दोनोंकी विभिन्नता मालूम तथा। पांडुने उसे देखकर उसके शरीरसे वे लोहेकी कर सकते हैं । अस्तु; इसी प्रकारके और भी कीलें खींचकर निकाली; चंदनादिकके लेपसे अनेक कथन इस धर्मपरीक्षामें पाये जाते हैं जो उसे सचेत किया और उसके घावोंको अपनी दिगम्बरशास्त्रोंके अनुकूल तथा श्वेताम्बरमुद्रिकाके रत्नजलसे धोकर अच्छा किया । इस शास्त्रों के प्रतिकूल हैं और जिनसे ग्रंथकर्ताकी. उपकारके बदलेमें विद्याधरने पांडुको उसकी साफ चोरी पकडी जाती है। ऊपरके इन सब चिन्ता मालूम करके, अपनी एक अंगूठी दी विरुद्ध कथनोंसे पाठकोंके हृदयोंमें आश्चर्यके और कहा कि, यह अंगूठी स्मरण मात्रसे सब मनोवांछित कार्योंको सिद्ध करनेवाली है। इसमें साथ यह प्रश्न उत्पन्न हुए विना नहीं रहेगा कि 'जब गणीजी महाराज एक दिगम्बर ग्रंथको अदृश्यीकरण आदि अनेक महान् गुण हैं। जब गणाजा पाण्डने घरपर आकर उस अंगठीसे प्रार्थना श्वेताम्बरग्रंथ बनानेके लिए प्रस्तुत हुए थे तब की कि 'हे अंगठी, मझे कन्तिके पास ले चल.' आपने श्वेतांबरशास्त्रोंके विरुद्ध इतने अधिक अगूठीने उसे कुन्तीके पास पहुंचा दिया। उस कथनोंको उसमें क्यों रहने दिया ? क्यों उन्हें समय कुन्ती, यह मालूम करके कि उसका विवाह दूसरे कथनोंकी समान, जिनका दिग्दर्शन इस पाण्डुके साथ नहीं होता है, गलेमें फाँसी डाल- लेखके शुरूमें कराया गया है, नहीं निकाल दिया कर मरनेके लिए अपने उपवनमें एक अशोक या नहीं बदल दिया । उत्तर इस प्रश्नका सीधा .वृक्षके नीचे लटक रही थी। पांडने वहाँ पहँचते सादा यही हो सकता है कि या तो गणीजीको ही गलेसे उसकी फाँसी काट डाली और कंतीके श्वेताम्बरसम्प्रदायके ग्रंथों पर पूरी आस्था ( श्रसचेत तथा परिचित हो जानेपर उसके साथ द्धा) नहीं थी, अथवा उन्हें उक्त सम्प्रदायके भोग किया। उस एक ही दिनके भोगसे कुन्तीको ग्रंथोंका अच्छा ज्ञान नहीं था । इन दोनों गर्भ रह गया। बालकका जन्म होने पर धात्रीकी बातोंमेंसे पहली बात बहुत कुछ संदिग्ध मालूम सम्मतिसे कुन्तीने उसे मंजूषामें रखकर गंगामें होती है और उसपर प्रायः विश्वास नहीं बहा दिया । कुन्तीकी माताको कुन्तीकी आकृति किया जासकता । क्योंकि गणीजीकी यह आदि देखकर पूछनेपर पीछेसे इस कृत्यकी खबर कृति ही उनकी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-भक्ति हुई । वह मंजषा · अतिरथि ' नामके एक और साम्प्रदायिक मोहमुग्धताका एक अच्छा सारथिको मिला जिसने बालकको उसमेंसे निका- नमूना जान पड़ती है; और इससे लकर उसका नाम 'कर्ण' रक्खा । चूंकि उस आपकी श्रद्धाका बहुत कुछ पता लगजाता सारथिकी स्त्रीको, मंजूषा मिलेनेके उसी दिन है। इस लिये दूसरी बात ही प्रायः सत्य मालूम प्रातः काल, स्वममें आकर सूर्यने यह कहा था होती है । श्वेताम्बर ग्रंथोंसे अच्छी जानकारी न कि हे वत्स आज तुझे एक उत्तम पुत्रकी प्राप्ति होनेके कारण ही आपको यह मालूम नहीं हो For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] जैनहितैषी [ भाग १३ सका कि उपर्युक्त कथन तथा इन्हींके सदृश ग्रंथ रचता हूँ । इस प्रकार पद्मसागरजीने बड़े और दूसरे अनेक कथन श्वेताम्बर सम्प्रदायके अहंकारके साथ अपना ग्रंथकर्तृत्व प्रगट किया विरुद्ध हैं; और इस लिए आप उनको निकाल है। परन्तु आपकी इस कृतिको देखते हुए नहीं सके । जहाँ तक मैं समझता हूँ पद्मसागर- कहना पड़ता है कि आपका यह कोरा और जीकी योग्यता और उनका शास्त्रीय ज्ञान बहुत थोथा अहंकार विद्वानोंकी दृष्टिमें केवल हास्यासाधारण था। वे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अपने स्पद होनेके सिवाय और कुछ भी नहीं है । यहां आपको विद्वान् प्रसिद्ध करना चाहते थे; और पाठकोंपर अमितगतिका वह पद्य भी प्रगट इस लिए उन्होंने एक दूसरे विद्वानकी कृतिको किया जाता है, जिसको बदलकर ही गणीजीने अपनी कृति बनाकर उसे भोले समाजमें प्रचलित . ऊपरके दो श्लोक (नं० ४-५ ) बनाये हैं:-- किया है । नहीं तो, एक अच्छे विद्वान्की ऐसे धर्मो गणेशेन परीक्षितो यः, .. जघन्याचरणमें कभी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। कथं परीक्षे तमहं जडात्मा। उसके लिए ऐसा करना बड़े ही कलंक और शर्म- शक्तो हि यं भक्तमिभाधिराजः, की बात होता है । पद्मसागरजीने यद्यपि यह पूरा स भज्यते किं शशकेन वृक्षः ॥ १५॥ ही ग्रंथ चुरानेका साहस किया है और इस लिए इस पद्यमें अमितगति आचार्य अपनी लघुता आप पर कविकी यह उक्ति बहुत ठीक घटित प्रगट करते हुए लिखते हैं कि-'जो धर्म गणहोती है कि 'अखिलप्रंबधं हर्ने साहस- धर देवके द्वारा परीक्षा किया गया है, वह मुझ कर्ने नमस्तुभ्यः' परन्तु तो भी आप शर्मको जडात्मासे कैसे परीक्षा किया जा सकता है ? जिस उतारकर अपने मुँह पर हाथ फेरते हुए बड़े वृक्षको गजराज तोड डालनेमें समर्थ है क्या अभिमानके साथ लिखते हैं किः-- उसे शशक भंग कर सकता है ?' इसके बाद दूसरे गणेशनिर्मितां धर्मपरीक्षां कर्तुमिच्छति। . पद्यमें लिखा है-'परन्तु विद्वान् मुनीश्वरोंने जिस -मादृशोऽपि जनस्तन्न चित्रं तत्कुलसंभवात् ॥ ४॥ धर्ममें प्रवेश करके उसके प्रवेशमार्गको सरल यस्तरुर्भज्यते हस्तिवरेण स कथं पुनः। कर दिया है उसमें मुझे जैसे मूर्खका प्रवेश हो कलभेनेति नाशंक्यं तत्कुलीनत्वशक्तितः॥ ५॥ सकता है। क्योंकि वज्रसूचीसे छिद्र किये जाने पर चक्रे श्रीमत्प्रवचनपरीक्षा धमेसागरैः। मुक्तामणीमें सूतका नरम डोरा भी प्रवेश करते वाचकेन्द्रस्ततस्तेषां शिष्येणैषा विधीयते ॥६॥ देखा जाता है । पाठकगण, देखा, कैसी अच्छी "अर्थात्-गणधरदेवकी निर्माण की हुई धर्म- उक्ति और कितना नम्रतामय भाव है । परीक्षाको मुझ जैसा मनुष्य भी यदि बनानेकी कहाँ मूलकर्ताका यह भाव, और कहाँ इच्छा करता है तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात उसको चुराकर अपना बनानेवालेका उपर्युक्त नहीं है; क्योंकि मैं भी उसी कुलमें उत्पन्न अंहकार ! मैं समझता हूँ यदि पद्मसागरजी इसी हुआ हूँ। जिस वृक्षको एक गजराज तोड प्रकारका कोई नम्र भाव प्रकट करते तो उनकी डालता है, उसे हाथीका बच्चा कैसे तोड डालेगा. शानमें कुछ भी फर्क न आता । परन्तु मालूम यह आशंका नहीं करनी चाहिए । क्योंकि होता है कि आपमें इतनी भी उदारता नहीं थी स्वकीय कुलशक्तिसे वह भी उसे तोड़ डाल और तभी आपने, साधु होते हुए भी, दूसरोंकी सकता है । मेरे गुरु धर्मसागरजी वाचकेन्द्रने कृतिको अपनी कृति बनानेरूप यह असाधु कार्य 'प्रवचनपरीक्षा' नामका ग्रंथ बनाया है और किया है । इत्यलम् । मैं उनका शिष्य यह 'धर्मपरीक्षा ' नामका बम्बई-ता०५-८-१७ । For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे छपाये हुए नये ग्रन्थ । वृन्दावन कृत चौवीसी पाठ बम्बईका छपा हुआ । यह ग्रन्थ बम्बई के सुन्दर टाइपमें अच्छे कागजों पर फिरसे छपाया गया है । छपा भी शुद्धतापूर्वक है । जिन्हें और कहींकी छपाई पसन्द नहीं उन्हें अब इस बम्ब छपे हुए विधानको या पूजा पाठको अवश्य मँगा लेना चाहिए । मूल्य १०) जैनपदसंग्रह | कविवर दौलतराम कृत संग्रह फिरसे छपाये गये हैं भागका 17 ) दूसरेका । ) । पहला भाग और भागचन्दजी कृत दूसरा भाग पद। बहुत दिनोंसे ये मिलते नहीं थे । मूल्य पहले बुध सतसई । अर्थात् बुधजनजीके उपदेश, नीति, सुभाषित आदि सम्बन्धी ७०० दोहे यह पुस्तक दुबारा छपाई जा रही है । १५-२० दिनमें तैयार हो जायगी । जैनवालबोधकके दोनों भाग । श्रीयुत पं० पन्नालालजी के ये दोनों भाग जैनपाठशालाओं में बहुत ही प्रचलित । रहे हैं । बहुत दिनोंसे समाप्त हो गये थे, अब फिरसे छपाये गये हैं । पहले भागसे असंयुक्त और संयुक्त अक्षरोंके शब्दोंका शुद्ध शुद्ध लिखना पढ़ना अच्छी तरह आ जाता है । दूसरे भाग में धार्मिक कथाओंके और धर्मतत्त्वोंके अच्छे अच्छे पाठ हैं । मूल्य पहले भागका ।) और दूसरे भागका ।। ) । दर्शनसार । आचार्य देवसेनसूरिका यह एतिहासिक ग्रन्थ मूल, संस्कृतच्छाया, हिन्दी अर्थ और विस्तृत विवेचन सहित हाल ही छपकर हुआ तैयार है। इसका सम्पादन जैनहितैषी सम्पादकने किया है। इसमें बौद्ध, आजीवक, श्वेताम्बर, काष्ठासंघ, द्राविडसंघ, यापनीयसंघ, माथुरसंघ आदि अनेक धर्मसम्प्रदायोंका इतिहास और उनकी मानतायें बतलाई हैं । विवेचन बहुत ही परिश्रम से लिखा गया है । प्रत्येक इतिहासप्रेमीको यह पुस्तक मँगाकर पढ़ना चाहिए । मूल्य 1) 1 रत्नकरण्डश्रावकाचार पद्यानुवाद | पं० गिरिधर शर्माकृत । खड़ी बोली के सुन्दर पद्योंमें रत्नकरण्डका सुन्दर सरल अनुवाद | जैनपाठशालाओंमें पढ़ाये जाने योग्य । मूल्य =) माणिकचन्द ग्रन्थमालाके ग्रन्थ । सब ग्रन्थ ठीक लागतके मूल्य पर बेचे जाते हैं । सबसे सस्ते हैं । प्रत्येक मंदिर में इनकी एक एक प्रति अवश्य रखना चाहिए और संस्कृतके पण्डितोंको वितरण करना चाहिए" For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सागारधर्मामृत सटीक आइ.(धर कृत ।) ६ प्रद्युम्नचरित महासेनाचार्यकृत ॥) २ लघीयस्त्रयादिसंग्रह अकलंभट्टकृत ) ७ आराधनासार सटीक देवसेनाचार्य कृत ।।। ३ पार्श्वनाथचरित वादिराजसूरि कृत ॥) ८ जिनदत्तचरित्र, गुणभद्र कृत )॥ ४ विक्रान्त कौरवीय नाटक हस्तिमल्ल कृत।) ९ चारित्रसार चामुण्डराय कृत ५ मैथिलीपरिणय नाटक , ।) १० प्रमाणनिर्णय वादिराजसूरि कृत (छप रहा है ) बच्चोंके सुधारनेके उपाय । इसमें बच्चोंकी आदतें सुधारने, उन्हें सदाचारी और विनयशील बनाने, बुरेसे बुरे स्वभावके लड़कोंको अच्छे बनाने, उपद्रवियों और चिड़चिड़ोंको शान्त शिष्ट बनानेके अमोघ उपाय बतलाये गये हैं । प्रत्येक माता पिताको इसे पढ़ डालना चाहिए । इसके अनुसार चलतेसे उनका घर स्वर्ग बन जायगा। मू० ॥ कोलम्बस । - अमेरिका खण्डका पता लगानेवाले असम साहसी कर्मवीर कोलम्बसका आश्चर्यजनक और शिक्षाप्रद जीवनचरित । अभी हाल ही छपकर तैयार हुआ है । नवयुवाओंका अवश्य पढ़ना चाहिए । मूल्य ।।।) मानवजीवन। सदाचार और चरित्रसम्बन्धी अनेक अँगरेजी, मराठी, गुजराती, बंगला पुस्तकोंके आधारसे यह ग्रन्थ रचा गया है। सदाचारकी शिक्षा देनेके लिए और सच्चे मनुष्योंकी सृष्टि करनेके लिए यह ग्रन्थ बहुत अच्छा है। इस ग्रन्थके बिना कोई घर, कोई पुस्तकालय, और कोई मन्दिर न रहना चाहिए । भाषा बहुत ही सरल और स्पष्ट है । मूल्य १-) कपड़ेकी जिल्दका १॥)। मैनेजर, जैनग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, गिरगांव-बम्बई. उदासीके समय मन प्रसन्न करना हो; और घर बैठे बिठाये मनोरंजक; चित्ताकर्षक, हास्यो. त्पादक चित्र व लेख देखने व पढ़नकी इच्छा हो तो ‘जैन संसार' मँगवाइए। जातीय कुरीतियाँ समझनी हों; उनसे छूटनेका प्रयत्न करना हो; और अपने देशके, समाजके । और धर्मके पूज्य पुरुषोंके दर्शन करने हों तो तत्काल ही २) रु. का मंनिआर्डर भेज दीजिएं अथवा २७) की वी. पी. भेजनेकी सूचना दीजिए. जैनसंसारका खास अंक । लगभग डेढ सौ पेजका होगा । अंदर आठ दस जैन समाजके मुख्य २ महात्माओंके और नेताओंके चित्र होंगे। साथ ही हास्योत्पादक और मनमोहक चित्र भी होंगे । एक प्रतिका मूल्य-) होगा; परन्तु जो संसारके ग्राहक होंगे उनको यह अंक मुफ्तमें मिलेगा। ग्राहकोंको एक सुभीता यह भी होगा, कि निम्नलिखित पुस्तकें हरेक ग्राहकको आधे मूल्य में मिलेंगी। पूरा मूल्य इस प्रकार है। १ महेन्द्र कुमार;-) २ दलजीतसिंह; ॥) ३ राजपथका पथिक; ।) १ चम्पा ) ____ मैनेजर, जैनसंसार, जुबिलीबाग ताडदेव, बम्बई । For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर-सीरीज। हमारे यहाँसे उक्त नामकी एक ग्रन्थमाला निकालती है जिसमें बहुत उच्च श्रेणीके उत्तमोत्तम ग्रन्थ निकलते हैं । स्थायी ग्राहकोंको सीरीजके तमाम ग्रन्थ पौनी कीमतमें दिये जाते हैं । स्थायी ग्राहक बननेकी प्रवेश फीस आठ आने हैं । अबतक नीचे लिखे ग्रन्थ निकल चुके हैं:१-२ स्वाधीनता २) १३ अन्नपूर्णाका मन्दिर ( उपन्यास ) |) ३ प्रतिभा उपन्यास) १) १४ स्वावलम्बन १) ४ फूलोंका गुच्छा ( गल् )।-) १५ उपवासचिकित्सा ) ५ आँखकी किरकिरी (उपन्यास ) १॥) १६ सूमके घर धूमः ( प्रहसन)) ६ चौबेका चिहा ॥) . १७ दुर्गादास (नाटक) =) ७ मितव्ययता ) १८ बकिम निबंधावली ॥) ८ स्वदेश ॥1) १९ छत्रसाल ( उपन्यास ) १॥) ९ चरित्रगठन और मनोबल ।) २० प्रायश्चित्त ( नाटक)।) १० आत्मोद्धार १) २१ अब्राहिम लिंकन ॥1) ११ शान्तिकुटीर (उपन्यास) ॥) २२ मेवाड पतन ( नाटक ) ॥=) १२ सफलता और उसकी साधनाके २३ शाहजहाँ ( नाटक ) ॥=) उपाय ॥=) २४ मानवजीवन १-) हमारी अन्यान्य पुस्तकें। .. १ बूढेका ब्याह ।) १० मणिभद्र ( उपन्यास ) =) २ ब्याही बहू ) ११ अच्छी आदतें डालनेकी शिक्षा =)॥ ३ कनकरेखा ( गल्पसंग्रह ) ॥) १२ लन्दनके पत्र ) ४ व्यापारशिक्षा ॥) १३ विद्यार्थिजीवनका उद्देश्य -) ५ युवाओंका उपदेश ॥७) ६ शान्तिवैभव ।) १४ संतानकल्पद्रुम ॥) ७ पिताके उपदेश -) १५ भाग्यचक्र ) . ८ वीरों की कहानियाँ ।) १६ बच्चोंको सुधारनेके उपाय : ९ दियातले अँधेरा -)॥ १७ कोलम्बस ॥) औरोंकी पुस्तकें। १ गल्पपंचदशी ॥) ५ स्वदेशाभिमान ।) २ सप्तसरोज ( गल्में ) ॥) ६ गृहिणीकर्तव्य १॥) ३ स्त्रियोंकी पराधीनता ॥) ७ आरोग्यदिग्दर्शन ॥5) ४ विवेकानन्द नाटक १) ८ मि० ह्यूम ॥) नोट:-बाहरकी और भी अच्छी अच्छी पुस्तकें हम रखते हैं । सूचीपत्र मँगाकर देखिये। मैनेजर-हिन्दीग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हरािबाग पोरगाव-बम्बई । For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) आरंभसिद्धि सटीक । पंडित श्रीहंसरत्नगणी विरचित (गद्यात्मक) (जैन ज्योतिषनो अपूर्व ग्रन्थ।) श्रीशत्रुजयमाहात्म्यम्. आ महान् ग्रंथ पंदर अधिकरामा बहेंचायेलो छे. आ ग्रन्थना कर्ता उदयप्रभदेवसूरि वस्तुपाळ मंत्री- तेमां दस हजार लोको आपेलाछे, आ ग्रंथना कर्तानी ... समयमां थएला छे आ ग्रन्थमां-तिथि १, वार २, शैली अद्भुत घणी प्रशंसनीय छे. तीर्थराजनी अद्भुत .क्षत्र ३, योग ४, राशि ५, गोचर ६, कार्य ७, शोभा तथा तेमनां दर्शन अने श्रवणर्नु महद् पुन्य, गमन (प्रयाण)८, वास्तु ९, विवाह १० अने निवृतिना समयमा प्राप्त करवा सरखुं छे. पंडितश्रीए मिश्र ११. आ अग्यार द्वार (वियोग) लोधा छे. प्रत्येक अधिकारमा सृष्टि अने प्रकृतिना सौंदर्यनं अप्र. दरेक विषय सांगोपांग कहेला होवाथी कोडपण विषय तिम वर्णन करेलुं छे. संस्कृत शुद्ध अने सरल भाषा शरभातना अभ्यासीओने बहु उपयोगी छे, सुंदर जाडा माटे ग्रन्थान्तरना अवलोकननी जरूर रहेती नथी. आ एन्टीक पेपर उपर छपायेलो छे. कीमत रु०१०-०-० ग्रन्थ ऊपर वाचनाचायें श्रीहेमहंसगणीए टीका करेली टपाल खर्च जर्ट *छे. तेमा मूळ ग्रन्यनुं स्पष्ट स्पष्टीकरण करवा उपरांत शाह पुरुषोत्तम गीगामाई. तेति स्थळे स्वमत तथा अन्य मतना प्राचीन ज्यो- ___ 'जैनशासन ' पत्रना मालेक, भावनगर । तिष अन्धनी साक्षी आपी दरेक विषयो सुदृढ कर्या कन्याकी जरूरत । छे. तेमज मूळ ग्रन्थनी अपूर्णता पण स्वपर ग्रन्थोंना पाटो लखीने पूर्ण करी छे. अर्थात् आ एकज ग्रन्थ हमें अपने लड़केका विवाह करना है। हम समैया ऐहिक तथा पारलौकिक सर्व शुभ कार्यों माटे अति परवार ( तारनपंथी ) है; परन्तु हमारे यहाँ लड़ कियोंका अभाव हो रहा है। थोड़े घर होनेसे हमारी उपयोगी छे. कीमत रु. पांच. ( टपाल खर्च भिन्न.) विरादरीमें बीसों जवान लड़के कुंआरे मारे मारे फिर श्रीसिद्धर्षिगणि रचित रहे हैं, उन्हें लड़कियाँ नहीं मिलती। इस लिए हम परवारोंमें सम्बन्ध करना चाहते हैं। इसके लिए यदि - उपमितिभवप्रपञ्चाकथा । हमें अपना तारनपंथ छोड़ देना पड़े तो हम उसे छोड़ नेके लिए भी तैयार हैं । कन्यावाले जिस तरह राजी [वीश हजार श्लोकनो साहित्यसागर । ] हों हम उसी तरह अपनी व्यवस्था कर सकते हैं। आ ग्रन्थनी प्रशंसा करवी ते कस्तुरीनी सुगंध अने लडकेकी उम्र २७ वर्षकी है। कुँआर वदी १२ सं० सुवर्णनी कान्तिनां प्रशंसापत्रो मेळववा श्रम सेववा सरखू ४६ का जन्म है । राशिका नाम 'डिगम्बर' है। छे. अद्भुत कल्पना करवानी प्रतिभा शक्तिवाळा आ सकि नीचे लिखे अनुसार है। चार सांकें सुलझाकर प्रन्थमा विद्वान कर्तानी शैली अने कथाना रूपमा अद्भुत अथवा आठ सांके सुलझाकर दोनों तरहसे हम सम्बन्ध करनेके लिए राजी हैं:करुपना योजवाना सामर्थ्यथी वक्ता अने श्रोताओने अ. १ प्रथम मूर गोलाडिम फरस्या गोत । पूर्व आनंद प्रकट थाय छे. आ ग्रन्थ त्रण भागमा वहेंची २ लड़काके मामा लूटा । नाखवामां आव्यो छे. पहेला भागमा त्रण प्रस्ताव, ३ बापके मामा षाटे। बीजा भागमा चारथी छ प्रस्ताव अने त्रीजा भागमा ४ मतारीके मामा रकिया। सातथी आठ प्रस्ताव समाववामां आव्या छे. छुटक ५ आजेके मामा उजिया। भागो खरीद करनार पासेथी पहेला, बीजा अने त्रीजा ६ आजीके मामा बहुरिया । ७ नानाके मामा खोना। भागना रु.६-०-०, ६-०-० अने रु. ४-०-० ८ नानीके मामा वैशाखिया। लेवामा आवशे, अने संपूर्ण ग्रन्थ एकी साथे लेनार । नीचे लिखे ठिकानेसे पत्र व्यवहार करना चाहिए। पासेथी० १२-०-० लेवामा आवे छे. ग्राहकनी हमारे यहाँ बजाजी और लेन देनका धंदा होता है । इच्छा संपूर्ण प्रन्थ लेवानी हशे तो प्रथम भाग साथेज हम मध्यम स्थितिके गृहस्थ हैं। त्रणे भागनुं मुल्य लेवामा आवशे. प्रथम भाग बहार नन्हेलाल मन्नूलाल परवार बजाज । पड़ी चुक्यो छे। . .. इंटार्सी (होशंगाबाद)। For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only जैनभ्रातृ- समाज कार्य्यालय, इटावा | श्रीमान् ! जुहारु । अब आपको इस बातके बतानेकी आवश्यकता नहीं रही है। कि जैनशास्त्रोंके अनुसार जैनोंकी सब जातियोंमें पारस्पारिक रोटी बेटीका व्यवहार होना जैनसमाजकी उन्नतिका इस समय एक मुख्य कारण है। इसमें जैनसमाजके सब नेता और विद्वान् सहमत समाज में अब हमको इसकी आवश्यकता भी प्रतीत होती है । बिना इसके हैं। जैन अब हमारे समाजकी रक्षा होना असम्भव है । अतः इसके प्रचारार्थ " जैन भ्रातृसमाज " नामकी एक संस्था स्थापित की गई है। और इसमें सबसे प्रथम आप लोगों की सम्मति एकत्रित करना निश्चित हुआ है। अतः आपकी सेवामें इस पत्र के साथ जो कागज्रका अंश है उसको भर कर हमारे पास भेजने की कृपा कीजिये । आशा है कि आप शीघ्र ही इस कार्य्यको करके इस समाजोत्थानकार्य में सहायक होकर पुण्यके भागी होंगे। प्रार्थी चन्द्रसेन जैन वैद्य, मंत्री जैनभ्रातृसमाज—चन्द्राश्रम, इटावा आपका पत्र आया । मैं आपके उद्देश्य से सर्वथा सहमत हूं । और सहर्ष सम्मति देता हूं कि जैनों में पारस्परिक रोटी बेटीका व्यवहार अवश्य होना चाहिये ! नाम जाति ( इतने अंशको फाड़कर और अपने नाम आदि मरकर भेज दीजिए । ) श्रीयुत मंत्री जैन भ्रातृसमाज, जुहारु । पोष्ट तारीख हस्ताक्षर ग्राम... " जिला । १९१ S Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशी, पवित्र, स्वादिष्ट, पाचक दवाइयोंका अपूर्व संग्रह दिलबहार चूरन (खाना शीघ्र हजम करने व भूख बढ़ाने वाला) किसी भी उत्तम चूर्णमें तीन गुण होना आवश्यक है ( १ ) स्वादिष्ट यानी जायकेदार (२) पाचन करनेवाला और ( ३ ) भूख बढ़ानेवाला । हर्ष है कि इस चूर्णमें ये तीनों गुण भरपूर हैं । बहुतसे लोगोंको रोज़ चूरन खानेकी आदत होती है उनके लिये भी यह बड़े कामकी चीज है । इसकी खुराक १॥ माशे की है, परन्तु जायकेदार होनेसे अगर थोड़ा ज्यादा भी खा लिया जावे तो गर्मी वगैरह कोई हानि नहीं करता है । क्योंकि चूर्ण होनेपर भी हमने इसमें किसी तीक्ष्ण चीजका प्रयोग नहीं किया है। सब दवाइयां मादिल गणवाली हैं, इसलिये बीमार आदमी भी खुशीसे खा सकते हैं। पवित्र औषधियोंके सम्मेलनके कारण सभी सम्प्रदायवाले बेखटके खा सकते हैं। हम बहुत बढ़कर बात नहीं कहना चाहते हैं । इसमें स्वादिष्ट खाना जल्द हजम करना, भूख बढ़ाना तीन विशेष गुण हैं, उनके लिये हम दावेके साथ कहते हैं कि इन बातोमें आपको कभी धोखा नहीं होगा तिसपर भी आपके विश्वासके लियेहमने इसके एक २ तोलेके नमूनेके पैकेट बनाकर रक्खे हैं। यदि आप इस चूर्णकी परीक्षा करना और इससे लाभ उठाना चाहते हैं तो एक कार्ड भेजकर बिना डांक वर्चके एक पैकेट मंगाकर परीक्षा कर लीजिये, फिर आपका. मन भरे तो पूरी शीशी मंगाकर लाभ उठाइये । बस इस से अधिक हम और कुछ भी नहीं कह सकते हैं। फी शीशी चार औंस ( करीव आध पाव ) वाली की कीमत १) डांक खर्च ।), तीन शीशी २॥ डाक खर्च ।) आना। मिलने का पता:चन्द्रसेन जैन वैद्य, चन्द्राश्रमा इटावह यू. पी.। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । PustaniusmasteeuideutastostumerateJaslestanAsadassistearstoneMISLANDastanatomer -- सुगंधी धूप। इस धूपको नित्य व्यवहार कीजिये । हरेक पूजा अनुकुष्ठान आदि पवित्र अवसरोंपर इसे व्यवहार करके देखिये । है इसकी सुगंधी मनको मोहित करती है । सब तरहकी खराब हुँ हवाको दूर कर स्वास्थ्यप्रद वायु प्रदान करती है । एक वार व्यवहार करनेसे फिर आप बाजारी धूप कभी नहीं खरीदेंगे। यह धूप ज्यादह दिन पड़ी रहनेसे खराब नहीं होती है। ई २५ तोलेका बक्स मूल्य सिर्फ १) डॉकमहसूल )। छोटी डिब्बीका -), नमूना मुप्त । हु मिलनेका पता-कपूरचन्द जैन, किनारी बाजार आगरा। 430 andecu8080PunaulouTUUUURaditadiuouteutatussasuuuuuuuuuSUBAStaviraitadiuestudies.com Rulesiasti - ห आढ़तका काम । बंबईसे हरकिस्मका माल मँगानेका सुभीता। हमारे यहां से बंबईका हरकिस्मका माल किफायतके साथ भेजा जाता है। तांबें व पीतलकी है चहरे, सब तरहकी मशीनें, हारमोनियम, ग्रामोफोन, टोपी, बनियान, मोजे, छत्री, जर्मनसिलवर है और अलूमिनियमके बर्तन, सब तरहका साबुन, हरप्रकारके इत्र व सुगन्धी तेल, छोटी बड़ी घड़ियाँ, कटलरी का सब प्रकारका सामान, पेन्सिल कागज, स्याही, हेण्डल, कोरी कापी, है स्लेट, स्याहीसोख, ड्राइंगका सामान, हरप्रकारकी देशी और विलायती दवाइयाँ, काँचकी छोटी बड़ी शीशियोंकी पेटियाँ, हरप्रका का देशी विलायती रेशमी कपड़ा, सुपारी, इलायची, मेवा, है है कपूर आदि सब तरहका किराना, बंबईकी और बाहरकी हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी पुस्तकें, जैन हे पुस्तकें, अगरबत्ता, दशांगधूप, केशर, चंदन आदि मंदिरोपयोगी चीजें, तरह तरहकी छोटी बड़ी है रंगीन तसबीरें, अपने कामकी अथवा अपनी दूकानके नामकी मुहरें कार्ड, चिट्ठी, नोटपेपर, है मुहूर्तकी चिट्ठीयाँ (कंकुपत्रिका) आदि । हरकिस्मका माल होशयारीके साथ वी. पी. से रवाना किया जाता है। एक बार व्यवहार करके देखिये।आपको किसी तरहका धोका न होगा । हमारा सुरमा और नमकसुलेमानी अवश्य मॅगाइहुए । बहुत बढिया हैं। पता-पूरणचंद नन्हेलाल जैन । co जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगांव, बम्बई। •អ្នកលក់ ឡូតរូតខ្លួនអ្នក นองตนขึ้นเนิรนานนนนน Presearsdasteeutastushastrikesidiarikestaurusteedsarita s ke For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थनायें / भारतविख्यात ! हजारों प्रंशसापत्र प्राप्त ! 1. जनहितैषी किसी स्वार्थबद्धिसे प्रेरित होकर निजी अस्सी प्रकारके बात रोगोंकी एकमात्र औषधि लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय महानारायण तैल। और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे हमारा महान विचारोंके प्रचारके लिए / अतः इसकी उन्नतिमें की पीड़ा, पक्षाघात, (लकवा, फालिज गठिया हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। सुन्नवात, कंपवात, हाथ पांव आदि अगोका 2. जिन महाशयोंको इसका कोई लेख अच्छा मालूम जकड़ जाना, कमर और पीठकी भयानक पीड़ा, हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको पुरानीसे पुरानी सूजन, चोट, हड्डी या रगका वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें। दबजाना, पिचजाना या टेढ़ी तिरछी होजाना 3. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध और सब प्रकारकी अंगोंकी दुर्बलता आदिमें मालूम हो तो केवल उसीके कारण लेखक या बहुत बार उपयोगी साबित होचुका है। : सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करनेके लिए सवि. मूल्य 20 तोलेकी शीशीका दो रुपया : या निवेदन है। डा० म० // ) आना। . लेख भेजनेके लिए सभी सम्प्रदायके लेखकोंको वैद्य भामंत्रण है। -सम्पादक / सर्वोपयोगी मासिक पत्र / - जैनकोंधक मासिकपत्र. यह पत्र प्रतिमास प्रत्येक घरमें उपस्थित होकर एक वैद्य या डाक्टरका काम करता है। इसमें स्वास्थ्य. वर्षारंभ श्रावण शुद्ध 5 पासून सुरु. जैनांतील रक्षाके सुलभ उपाय, आरोग्य शास्त्रके नियम, सर्वात जुने मराठी मासिक पत्र. जुन्या व नव्या ग्राह. प्राचीन और अर्वाचीन वैछकके सिद्धान्त, भारतीय कांस जैनधर्मादर्श एक रुपया किंमतीचे पुस्तक भेट वनौषधियोंका अन्वेषण, स्त्री और बालकोंके कटिन दिले जाईल. वार्षिक वर्गणी 1 // रुपया भेटीच्या रागोंका इलाज आदि अच्छे 2 लेख प्रकाशित होते पुस्तकास 2 आणे फक टपाल खर्च घेऊ. प्राहकांनी / : है। इसकी वार्षिक फीस केवल 1). मात्र है। नांवें नोंदवावी. नमूना मुफ्त मंगाकर देखिये। जीवराज गोतमचंद दोशी पता-वैद्य शङ्करलाल हरिशङ्कर संपादक जैनबोधक, सोलापूर. ___ आयुर्वेदोद्धारक-औषधालय, मुरादाबाद। शीघ्र ग्राहक हो जाइये / आगामी आक्टोबरकी 1 तारीखसे, जैनसाहित्य, इतिहास, धर्म और प्राचीन शोध खोजसे संबन्ध रखनेवाले, एतद्देशीय और पाश्चात्य विद्वानोंके लिखे हुए हिन्दी, गजराती और अँगरेजी भाषाके लेखोंसे सुसीजत 'धर्माभ्युदय' नामका मासिक पत्र प्रकाशित होगा। शीघ्र ग्राहकोंकी लिस्टमें नाम लिखवाइए / विज्ञापन देनेवाले पत्रव्यवहार करें / वार्षिक मूल्य सिर्फ 2 रुपये / पता: मैनेजर / धर्मभ्युदय' Co सेट लक्ष्मीचंद्रजी जैनलायब्रेरी, बेलनगंज आगरा-सिटी. Printed by Chintaman Sakhoram Deole, at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandh'irst Road, Girgaon, Bombay. Publ Nathuram Premi, Proprietor, Jain-Granth-Rapital Karyalaya Ilirabag, Bombay. For Personal & Private Use Only