SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अङ्क ५-६] ___ जैनधर्म और हिन्दूधर्म। २४३ गर्भ, जन्म, तप आदिके 'कल्याणक ' नामक सकते हैं कि जैनमतके तीर्थंकरोंकी संख्या तो उत्सवविशेष नहीं होते हैं । ऐसी अवस्था- हिन्दूधर्मके अवतारोंकी संख्यासे मिलती है, और वालोंको हिन्दूमतमें जीवन्मुक्त कहा है। राजा उनका मनुष्ययोनिसे ईश्वर पदवी पर पहुँचना, जनक, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुकदेव आदि जीव- जीवन्मुक्तोंसे । न्मुक्त थे । ये महान् पुरुष सब चराचर संसारको हिन्दुधर्ममें जीवन्मुक्त पुरुषोंकी मूर्तियाँ एक दृष्टिसे ही देखते थे। इनके विषयमें निम्न मन्दिरों में नहीं स्थापित की गई हैं। अवतारोंकी लिखित श्लोक सत्य कह सकते हैं: मूर्तियाँ ही मन्दिरों में स्थापित हुई हैं। इन्हींकी मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । पूजा होती है और समय समय पर इन्हींके आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति ॥ उत्सव भी बड़े समारोहसे होते हैं। सभी सामान्य __ अथवा हिन्दू इन्हींको ईश्वर मानकर पूजते हैं और भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ . इन्हींकी भक्ति करते हैं । हिन्दू धर्मके ख्यालसे पर्वोक्त विचारसे हम यह कह सकते हैं कि अवतारोंकी महिमा जीवन्मुक्त पुरुषों की अपेक्षा जिनको जैनधर्म, तीर्थकर और सामान्य केवली अधिक है; इसलिए अवतारोंके ही मन्दिर बनाये मानता है उन्हें हिन्दूधर्म जीवन्मुक्त कहता गये हैं-जीवन्मुक्तोंके नहीं । जैनधर्ममें हिन्दू है। हिन्द ओंमें जिस तरह जीवन्मक्तोंकी कोई धर्मके समान अवतार और जीवन्मुक्त दो पृथक्संख्या नहीं, उसी तरह जैनधर्ममें भी नहीं है। पृथकरूप नहीं हैं-केवलजीवन्मुक्त ही हैं, जिन्हें हाँ, जिस तरह हिन्दुओंमें अवतारोंकी संख्या तीर्थंकर कहते हैं । इन तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ २४ मानी है, उसी तरह जैनधर्ममें भी प्रत्येक मन्दिरोंमें स्थापित कर पूजी जाती हैं और समय चतर्थकालमें तीर्थंकरोंकी संख्या २४ मानी है। समय पर उनके उत्सव होते हैं । सभी सामान्य अवतार और जीवन्मुक्तमें यह अन्तर है जैन इन्हें ही ईश्वरसमान मानकर पूजते हैं कि अवतार तो जन्मसे ही सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ और उन्हींकी भक्ति करते हैं। आदि विशेषणोंसे युक्त होता है। वह वास्तवमें जैनधर्ममें साधुओंके मुख्य धर्म पाँच हैंईश्वरका अवतार किसी विशेष कार्य करने के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । होता हैपर जीवन्मुक्त मनुष्य ही होते हैं। ये इन्हींको पाँच महाव्रत कहते हैं । इनका पालन अनेकानेक जन्मोंसे मुक्ति प्राप्त करनेकी चेष्टा करना साधुओंका मुख्य धर्म है । इन्हीं पाँच करते रहते हैं और अपने तप और परिश्रमसे व्रतोंको हिन्दूधर्ममें यम कहा है । देखिए:-- किसी जन्ममें जीवन्मुक्त हो जाते हैं । जैन- 'अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य्यापरिग्रहौ ।' धर्मके तीर्थकरोंकी और सन्मान्य केवलियोंकी अहिंसा धर्मको इस तरह कहा हैः-- तुलना हिन्दूधर्मके जीवन्मुक्त पुरुषोंसे हो सकती कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। है । तीर्थंकरों और अवतारोंकी तलना उचित अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः ।। नहीं मालम होती है। इन दोनों में केवल संख्या अर्थ-कर्मसे, बचनसे, मनसे, सब प्राणिमात्रका ही सादृश्य है । तीर्थकरों और जीव- योंमें कभी भी क्लेश नहीं पहुँचाना, अहिंसा है। म्मुक्तोंमें बहुतसी बातें मिलती हैं, जिनमें मुख्य इसी तरह सत्यके लिए कहा है:ये हैं-ये दोनों मनुष्ययोनिसे अपने ही तप सत्येन सर्वमाप्नोति सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम् । और शानद्वारा, ईश्वरपदवीको पहुँचते हैं। यह कह यथार्थकथनाचारः सायं प्रोक्तं द्विजातिनाम् ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy