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________________ २४२ जैसा कि जैनमत है । वह विकासवादी है। जहाँतक सगुणईश्वर नहीं माननेका सम्बन्ध हैं, वहाँतक जैनमत और सांख्यमतकी एक सम्मति है । यदि सूक्ष्म विचारसे देखा जाय तो जैन और सांख्यमत दोनों में ही निर्गुण ब्रह्मकी मानता है, यद्यपि यह मानता स्पष्ट शब्दों में नहीं कही गई है । जब जैनधर्म जीवको अजर, अमर और अव्यय मानता है और मुक्त जीवको सर्वज्ञ और अमर बताता है; तो जैनमतको अनीश्वरवादी नहीं कह सकते हैं । क्योंकि वेदान्त सांख्य आदि शास्त्रोंमें ईश्वरका निर्गुण रूप ही माना है । ईश्वरको संसारकर्त्ता स्पष्ट शब्दों में नहीं कहा है। जैनमतको नास्तिक मत भी नहीं कह सकते हैं; क्योंकि नास्तिक तो न जैनहितैषी - मानता है और न ईश्वरको । जिस मतमें जीवको अजर, अमर और अनादि मानकर, उसकी सिद्ध अवस्थातक मानी है, जो ईश्वर अवस्थाके बराबर ही है, तो वह मत अनीश्वरवादी अथवा नास्तिक मत कैसे हो सकता है? इतना अवश्य कह सकते हैं कि जो ईश्वरकी परि भाषा हिन्दू धर्म में है, वह जैन धर्ममें नहीं है । यदि शकरको एक मनुष्य शकर कहे और दूसरा उसे किसी और नामसे कहे तो शकर पदार्थ में कोई भेद नहीं हो जाता है - केवल नामों की भिन्नता रहती है । इसी तरह यदि एक ही वस्तुको हिन्दूधर्मवाले ब्रह्म अथवा ईश्वर कहें और जैनमतवाले सिद्ध अथवा शुद्ध जीव कहें, तो उसमें कोई अन्तर नहीं आता है। यदि जैन मतवाले इस वस्तुको ही नहीं मानते होते तो अवश्य मतभेद होता । यदि जैनमतवालोंका यही कहना है कि ईश्वर जगतका कर्ता नहीं है, और न कमका फलदाता हैं, तो ऐसा तो वेदान्त और सांख्यशास्त्रका भी मत मालूम होता हैं । इतना ही कह सकते हैं कि ईश्वर विषय में जैनमतवालोंकी न्याय और वैशेषिक मत वा Jain Education International [ भाग १३ लॉसे मतभिन्नता है - हिन्दू धर्मके अन्य दार्शनिक विचारोंवालोंसे नहीं । इस सम्बन्ध में यह कहना भी आवश्यक है। आधुनिक पाश्चात्य विद्वानोंने संसारकी उत्पत्ति विकासवाद द्वारा मानी है - परमाणुवाइद्वारा नहीं । संसारकी प्रलय भी मानी है । संसारको व्यक्त रूपसे अनादि नहीं माना है । संसारकी रचना में किसी चेतनशक्तिका होना माना है । किसीने इस शक्तिको अज्ञेय कहा है, और किसीने इसे किसी दूसरे नामसे पुकारा है । वेदान्तने इस शक्तिको ब्रह्म कहा है और संसारोत्पत्तिको माया विका सद्वारा माना है । इस मायानिर्मित संसारकी प्रलय भी मानी है । इन अंशोंमें पाश्चात्योंके दार्शनिक विचार वेदान्तमतविचारोंसे बहुत कुछ मिलते हैं । जैन धर्म के तीन साधन अर्थात ज्ञान, दर्शन और चारित्र हिन्दूधर्मके ज्ञान, भक्ति और कर्म मार्गों से मिलते हैं । दार्शनिक विषयोंकी विवेचना करते समय यह भी कहना आवश्यक है कि जैनधर्मका सप्तभङ्गीनय हिन्दू शास्त्रोंके मतसे नही मिलता है । यह जैनशास्त्रोंका विल क्षण नय है 1 जैनमतके तीर्थंकर वे महान पुरुष हैं, जो अनेकानेक जन्मोंमें मुक्तिप्राप्तिकी चेष्टा करते रहे हैं, और जिन जन्मोंमें वे तीर्थंकर पदवीको पहुँचे हैं उनमें उन्होंने शरीर के रहते ही मुक्तः अवस्था प्राप्त कर ली है, अर्थात जिनके कर्म न हो गये हैं और जिन्हें आगे के लिए भी कर्मचक्र नहीं रहा है। ऐसी अवस्थामें ये सभी जीवोंको सम दृष्टि से देखते हैं। उनके लिए शत्रु, मित्र, ब्राह्मण, चांडाल, स्त्री, पुरुष, सन एक ही हैं । वे संसारमें तो अवश्य रहते हैं, परन्तु कोई कर्म उन्हें नहीं लगता है। जब तीर्थकर देह त्याग कर देते हैं तो वे सिद्ध हो जाते हैं; अर्थान ईश्वरावस्थाको रह जाते हैं । तीर्थकरों के ही समान सामान्यकेवली भी होते हैं, जिनके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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