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________________ जैनहितैषी [ भाग १३ : शाह अर्थ--सत्यसे सभी चीजोंकी प्राप्ति होती है। बताये हैं वे सब उनमें गर्भित हो जाते हैं। सत्यमें ही सबकी प्रतिष्ठा है । जैसा हो वैसा ही नियम ये हैं:कहना और आचरण करना सत्य है। अस्तेय तपः स्वाध्याय सन्तोषौ शौचमीश्वरपूजनम् ।। धर्मको देखो, उसकी यह परिभाषा है:-- अर्थ-तप, स्वाध्याय, सन्तोष, शौच और परद्रव्यापहरणं चौर्यादथ बलेन वा। ईश्वरपूजा । x उपवासादिसे शरीर शोषण स्तेयं तस्यानाचरणादस्तेयं धर्मसाधनम् ॥ करना तप है । जितना मिल जाय उसी पर . अर्थ-दूसरेकी द्रव्यको चोरी अथवा बलसे प्रसन्न रहना संतोष है । शौच दो तरहका है-- ले लेना स्तेय कहलाता है, और स्तेयका नहीं भीतरी और बाहरी । बाहरी शौच मट्टी और जलसे करना अस्तेय धर्म है। ब्रह्मचर्यको इस तरह होता है और भीतरी शौच मनकी शुद्धिसे । मनकी कहा है: शुद्धि सत्यसे होती है, बुद्धिकी ज्ञानसे और कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा । आत्माकी तप और विद्यासे । मन, वचन, काय सर्वत्र मैथुनत्यागं ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ॥ और कर्म, इन चारोंके द्वारा स्तुति करना, अर्थ-कर्मसे मनसे और वचनसे सब अव- स्मरण करना और पूजा करना, ईश्वरपूजन स्थाओंमें हमेशा और सब जगह मैथुन त्याग कहलाता है। यम और नियम मिलकर दस करना ब्रह्मचर्य है । परिग्रहकी यह परिभाषा है:- धर्म होते हैं। इनके अन्तर्गत और सब धर्म द्रव्याणामप्यनादानमापद्यपि तथेच्छया । आजाते हैं। अपरिग्रहमित्याहुस्तं प्रयत्नेन पालयेत् ॥ इस लेखमें मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार, जैन अर्थ-द्रव्योंका आपत्तिमें भी इच्छासे नहीं और हिन्द धर्मोकी समानता दिखानेकी चेष्टा की ग्रहण करना अपरिग्रह है । इन पाँचों धर्माका वि- है। यदि इसमें कोई त्रुटि या भूल हो, तो आशा स्तारपूर्वक वर्णन हिन्दूशास्त्रांम भी है और जैन- है कि दोनों धर्मावलम्बी ही क्षमा करेंगे । मेरा शास्त्रोंमें भी। जैनसाधुके मूलधर्म ये ही हैं। अभिप्राय किसी मत पर आक्षेप करना नहीं हैमनवचनकाय तीनोंसे इनका पालन करना केवल उनके तात्त्विक अंशोंकी समानता दिखाना दोनों ही धर्मों में बताया है । इन महावतोंके है जिससे परस्पर प्रेम और श्रद्धाकी वृद्धि हो । सिवा और जो कुछ साधन कहे हैं, उनमें भी " बहुत कुछ सादृश्य है । अतः साधु धर्म विषयों सम्पादकीय वक्तव्य-लेखक महाशयने भी जैनमतके मूल नियम हिन्दू धर्मके मूल इस लेख में बहुत मोटी मोटी और बाहरी बातोंको नियमोंसे मिलते हैं। लेकर दोनों धर्मीकी समानता दिखलाई है-सूक्ष्म __गृहस्थधर्मके भी ये ही पाँच मूलाधार नियम और भीतरी बातों पर विचार करनेकी कृपा नहीं हैं। इनमें नीचे लिखे ७त्रत और जोड़कर १२ ---- त माने हैं:- ६ दिगवत, ७ भोगोपभोग- हमारी समझमें इन पाँच नियोका मिलाना परिमाण, ८ अनर्थदंडत्याग, ९ सामायिक, १०, जैनधर्मके षट्कर्मोंसे किया जाय तो अच्छा हो। देशवत, ११ प्रोषधोपवास और १२ अतिथि देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और - और दान ये षट्कर्म हैं। नियमोंका मिलान सात व्रतोंके साथ नहीं हो सकता। उनमेंसे दिग्जत, देशसिवा, उसके पाँच नियमों पर भी ध्यान दिया व्रत और अनर्थदण्डविरति ये तीन तो किसी भी जाय तो मालूम होगा कि जो गृहस्थके धर्म नियमके अन्तर्गत नहीं आसकते । सम्पादक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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