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________________ ३२२ जैनहितैषी [भाग १३ करते समय त्रिशूल विद्या नष्ट हो गई, उसके एक दिन व्यास राजाके पुत्र पाण्डको स्थानमें ब्राह्मणी विद्याको सिद्ध करनेकी चेष्टा की वनमें क्रीडा करते हुए किसी विद्याधर की गई. विद्याकी विक्रिया, गधेका सिर हाथके चिपट ' काममुद्रिका ' नामकी एक अंगूठी मिली। जाना और फिर उसका वर्धमान स्वामी के चरण थोडी देरमें उस अंगठीका स्वामी चित्रांगद छने पर छूटना, इन सब बातोंका भी वहाँ काई नामका विद्याधर अपनी अंगूठीको ढूँढ़ता उल्लेख नहीं है । इनके स्थानमें लिखा है कि महा हुआ वहाँ आ गया। पांडुने उसे उसकी वह देव बड़ा कामी और व्यभिचारी था, वह अपनी विद्याके बलसे जिस किसीकी कन्या या स्त्रीसे अंगूठी दे दी। विद्याधर पांडुकी इसप्रकार निःस्पचाहता था विषय सेवन कर लेता था; लोग हता देखकर बन्धुत्वभावको प्राप्त हो गया और उसकी विद्याके भयसे कुछ बोल नहीं सकते थे। पाण्डुको कुछ विषण्णचित्त जानकर उसका जो कोई बोलता था उसे वह मार डालता था, . कारण पूछने लगा। इसपर पांडुने कुन्तीसे विवाह इत्यादि । अन्तमें यह भी लिखा है कि उमा करनेकी अपनी उत्कट इच्छा और उसके (पार्वती) एक वेश्या थी, महादेव उस पर मोहित न मिलनेको अपने विषादका कारण बतलाया। होकर उसीके घर रहने लगा था। और 'चंद्रप्रद्योत' यह सुनकर उस विद्याधरने पांडुको अपनी वह नामके राजाने, उमासे मिलकर और उसके द्वारा काममुद्रिका देकर कहा कि इसके द्वारा तुम यह भेद मालूम करके कि भोग करते समय कामदेवका रूप बनाकर कुन्तीका सेवन करो. महादेवकी समन्त विद्याएँ उससे अलग हो जाती पछि गर्भ रह जाने पर कुन्तीका पिता तम्हारे ही हैं, महादेवको उमासहित भोगमन्नावस्थामें अपने । । साथ उसका विवाह कर देगा। पाण्डु काम मुद्रि काको लेकर कुन्तीके धर गया और बराबर सुभटों द्वारा मरवा डाला था और इस तरह पर सात दिनतक कुंतीके साथ विषयसेवन करके नगरका उपद्रव दूर किया था । इसके बाद उसने उसे गर्भवती कर दिया। कुंतीकी माताको महादेवकी उसी भोगावस्थाकी पूजा प्रचलित होनेका कारण बतलाया है । इससे पाठक भले जब गर्भका हाल मालूम हुआ तब उसने गुप्त रूपसे प्रकार समझ सकते हैं कि पद्मसागरजी गणीका प्रसूति करा प्रसूति कराई और प्रसव हो जाने पर बालकको एक उपर्युक्त कथन श्वेताम्बर शास्त्रोंके इस कथनसे मंजूषामें बन्द करके गंगामें बहा दिया। गंगामें कितना विलक्षण और विभिन्न है और वे कहाँ बहता हुआ वह मंजूषा चंपापुरके राजा 'आदित्य, को मिला, जिसने उस मंजूषामेंसे उक्त बालकको तक इस धर्मपरीक्षाको श्वेताम्बरत्वका रूप निकालकर उसका नाम 'कर्ण' रक्खा, और देनेमें समर्थ हो सके हैं । गणीजीने विना सोचे अपने कोई पुत्र न होनेके कारण बडे ही हर्ष समझे ही यह सब प्रकरण दिगम्बर धर्मपरीक्षाके और प्रेमके साथ उसका पालन पोषण किया । १२ वें परिच्छेदसे ज्योंका त्यों नकल कर डाला है। सिर्फ एक पद्य नं०७८४ में पूर्वे' के स्थानमें आदित्यके मरने पर वह बालक चम्पापुरका 'वर्षे' का परिवर्तन किया है । अमितगतिने र राजा हुआ। चूंकि 'आदित्य ' नामके राजाने. ‘दशमे पूर्वे' इस पदके द्वारा महादेवको दशपू- क IN कर्णको पालनपोषण करके वृद्धिको प्राप्त किया का पाठी सचित किया था। परन्त पीजीको था इस लिए कण ' आदित्यज' कहलाता है. अमितगतिके इस प्रकरणकी सिर्फ इतनी ही बात वह ज्योतिष्क जातिके सूर्यका पुत्र कदापि पसंद नहीं आई और इसलिए उन्होंने उसे बदल नहीं है।" * डाला है। पद्मसागरजीका यह कथन भी श्वेताम्बर (९) पद्मसागरजी अपनी धर्मपरीक्षामें जैन- * यह सब कथन नं० १०५९ से १०९० तकके शास्त्रानुसार 'कर्णराज की उत्पत्तिका वर्णन करते पद्योंमें वर्णित है और अमितगति धर्मपरीक्षाके १५३ हुए लिखते हैं कि- ... उठाकर परिच्छेदसे रक्खा गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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