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________________ २९८ जैनहितैषी [भाग १३ बैठे देखा, पर वे अपने घमण्डमें इतने डूबे हुए थे था, कितनी प्रतीक्षाके बाद यह शुभ दिन कि इनके पासतक न आये। समझे कोई यात्री आया था, उसके उल्लासका कोई पारावार न था। होगा। हरदौलकी आँखोंने भी धोखा खाया। पर राजाके तीवर देखकर उसके प्राण सूख गये। वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझारसिंहके जब राजा उठ गये और उसने थालको देखा सामने आये और पूछना चाहते थे कि तुम तो कलेजा धकसे हो गया और पैरतलेसे मिट्टी कौन हो कि भाईसे आँख मिल गई । पहचानते ही निकल गई । उसने सिर पीट लिया। ईश्वर ! घोड़ेसे कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। आज रात कुशलपूर्वक कटे, मुझे शकुन अच्छे राजाने भी उठकर हरदौलको छातीसे लगाया। दिखाई नहीं देते। पर उस छातीमें अब भाईकी मुहब्बत न थी। राजा जुझारसिंह शीशमहल में लेटे। चतुर मुहब्बतकी जगह इर्षाने घेर ली थी, और केवल नाइनने रानीका शृंगार किया और मुसकुराकर इसी लिए कि हरदौल दूरसे नंगे पैर उनकी बोली, कल महाराजसे इसका इनाम लूंगी । यह तरफ न दौड़ा । उसके सवारोंने दूरहीसे कहकर वह चली गई । परंतु कुलीना वहाँसे न उनकी अभ्यर्थना न की। सन्ध्या होते होते दोनों उठी । वह गहरे सोचमें पड़ी हुई थी। उनके भाई ओरछे पहुँचे । राजाके लौटनेका समाचार सामने कौनसा मुँह लेकर जाऊँ । नाइनने नाहक पाते ही नगरमें प्रसन्नताकी दुदभी बजने लगी।हर मेरा शृंगार कर दिया। मेरा शृंगार देखकर वे जगह आनन्दीत्सव होने लगा और तुरताफुरती खुश भी होंगे ? मुझसे इस समय अपराध हुआ सारा शहर जगमगा उठा । आज रानी कुली- है, मैं अपराधिनी हूँ, मेर! उनके पास इस समय नाने अपने हाथोंसे भोजन बनाया। नौ बजे बनाव शृंगार करके जाना उचित नहीं । होंगे। लौंडीने आकर कहा-महाराज, भोजन नहीं, नहीं !! आज मुझे उनके पास भिखारीतैयार हैं। दोनों भाई भोजन करने गये । सोने- नीके भेषमें जाना चाहिए। मैं उनसे क्षमादान के थालमें राजा के लिए भोजन परोसा गया माँगूगी । इस समय मेरे लिए यही उचित है। और चाँदीके थालमें हरदौलके लिए । कुली- यह सोच कर रानी बड़े शीशेके सामने खड़ी हो नाने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे गई । वह अप्सरा मालूम होती थी। सुन्दरताथे, और स्वयं ही सामने लाई थी, पर दिनों का की कितनी ही तसबीरें उसने देखी थीं; पर उसे चक्र कहो, या भाग्यके दुर्दिन, उसने भूलसे सोने. इस समय शीशेकी तसबीर सबसे ज्यादा खूबका थाल हरदौलके आगे रख दिया और चाँदी- सूरत मालूम होती थी। का राजाके सामने । हरदौलने कुछ ध्यान न सुन्दरता और आत्मरुचिका साथ है । हल्दी दिया । वह वर्षभरसे सोनेके थालमें खाते विना रंगके नहीं रह सकती । थोड़ी देरके लिए खाते उसका आदी हो गया था, पर जुझारसिंह कुलीना सुन्दरताके मदसे फूल उठी । वह तलमला गये । जबानसे कुछ न बोले, पर तीवर तन कर खड़ी हो गई । लोग कहते हैं बदल गये और मुंह लाल हो गया। रानीकी कि सुन्दरतामें जादू है और वह जादू तरफ घूर कर देखा और भोजन करने लगे, पर जिसका कोई उतार नहीं । शर्मा और कर्म, तन ग्रास विष मालूम होता था । दो चार ग्रास खा- और मन, सब सुन्दरता पर न्योछावर हैं। मैं कर उठ आये । रानी उनके तीवर देखकर डर सुन्दर न सही, ऐसी कुरूपा भी नहीं हूँ। क्या गई। आज कैसे प्रेमसे उसने भोजन बनाया मेरी सुन्दरतामें इतनी भी शक्ति नहीं है कि म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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