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________________ ३२४ ] जैनहितैषी [ भाग १३ सका कि उपर्युक्त कथन तथा इन्हींके सदृश ग्रंथ रचता हूँ । इस प्रकार पद्मसागरजीने बड़े और दूसरे अनेक कथन श्वेताम्बर सम्प्रदायके अहंकारके साथ अपना ग्रंथकर्तृत्व प्रगट किया विरुद्ध हैं; और इस लिए आप उनको निकाल है। परन्तु आपकी इस कृतिको देखते हुए नहीं सके । जहाँ तक मैं समझता हूँ पद्मसागर- कहना पड़ता है कि आपका यह कोरा और जीकी योग्यता और उनका शास्त्रीय ज्ञान बहुत थोथा अहंकार विद्वानोंकी दृष्टिमें केवल हास्यासाधारण था। वे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें अपने स्पद होनेके सिवाय और कुछ भी नहीं है । यहां आपको विद्वान् प्रसिद्ध करना चाहते थे; और पाठकोंपर अमितगतिका वह पद्य भी प्रगट इस लिए उन्होंने एक दूसरे विद्वानकी कृतिको किया जाता है, जिसको बदलकर ही गणीजीने अपनी कृति बनाकर उसे भोले समाजमें प्रचलित . ऊपरके दो श्लोक (नं० ४-५ ) बनाये हैं:-- किया है । नहीं तो, एक अच्छे विद्वान्की ऐसे धर्मो गणेशेन परीक्षितो यः, .. जघन्याचरणमें कभी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। कथं परीक्षे तमहं जडात्मा। उसके लिए ऐसा करना बड़े ही कलंक और शर्म- शक्तो हि यं भक्तमिभाधिराजः, की बात होता है । पद्मसागरजीने यद्यपि यह पूरा स भज्यते किं शशकेन वृक्षः ॥ १५॥ ही ग्रंथ चुरानेका साहस किया है और इस लिए इस पद्यमें अमितगति आचार्य अपनी लघुता आप पर कविकी यह उक्ति बहुत ठीक घटित प्रगट करते हुए लिखते हैं कि-'जो धर्म गणहोती है कि 'अखिलप्रंबधं हर्ने साहस- धर देवके द्वारा परीक्षा किया गया है, वह मुझ कर्ने नमस्तुभ्यः' परन्तु तो भी आप शर्मको जडात्मासे कैसे परीक्षा किया जा सकता है ? जिस उतारकर अपने मुँह पर हाथ फेरते हुए बड़े वृक्षको गजराज तोड डालनेमें समर्थ है क्या अभिमानके साथ लिखते हैं किः-- उसे शशक भंग कर सकता है ?' इसके बाद दूसरे गणेशनिर्मितां धर्मपरीक्षां कर्तुमिच्छति। . पद्यमें लिखा है-'परन्तु विद्वान् मुनीश्वरोंने जिस -मादृशोऽपि जनस्तन्न चित्रं तत्कुलसंभवात् ॥ ४॥ धर्ममें प्रवेश करके उसके प्रवेशमार्गको सरल यस्तरुर्भज्यते हस्तिवरेण स कथं पुनः। कर दिया है उसमें मुझे जैसे मूर्खका प्रवेश हो कलभेनेति नाशंक्यं तत्कुलीनत्वशक्तितः॥ ५॥ सकता है। क्योंकि वज्रसूचीसे छिद्र किये जाने पर चक्रे श्रीमत्प्रवचनपरीक्षा धमेसागरैः। मुक्तामणीमें सूतका नरम डोरा भी प्रवेश करते वाचकेन्द्रस्ततस्तेषां शिष्येणैषा विधीयते ॥६॥ देखा जाता है । पाठकगण, देखा, कैसी अच्छी "अर्थात्-गणधरदेवकी निर्माण की हुई धर्म- उक्ति और कितना नम्रतामय भाव है । परीक्षाको मुझ जैसा मनुष्य भी यदि बनानेकी कहाँ मूलकर्ताका यह भाव, और कहाँ इच्छा करता है तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात उसको चुराकर अपना बनानेवालेका उपर्युक्त नहीं है; क्योंकि मैं भी उसी कुलमें उत्पन्न अंहकार ! मैं समझता हूँ यदि पद्मसागरजी इसी हुआ हूँ। जिस वृक्षको एक गजराज तोड प्रकारका कोई नम्र भाव प्रकट करते तो उनकी डालता है, उसे हाथीका बच्चा कैसे तोड डालेगा. शानमें कुछ भी फर्क न आता । परन्तु मालूम यह आशंका नहीं करनी चाहिए । क्योंकि होता है कि आपमें इतनी भी उदारता नहीं थी स्वकीय कुलशक्तिसे वह भी उसे तोड़ डाल और तभी आपने, साधु होते हुए भी, दूसरोंकी सकता है । मेरे गुरु धर्मसागरजी वाचकेन्द्रने कृतिको अपनी कृति बनानेरूप यह असाधु कार्य 'प्रवचनपरीक्षा' नामका ग्रंथ बनाया है और किया है । इत्यलम् । मैं उनका शिष्य यह 'धर्मपरीक्षा ' नामका बम्बई-ता०५-८-१७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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