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________________ adaare | श्रीवीरनाथतीर्थे बहुश्रुतः पार्श्वसंघगणिशिष्यः । मस्करि - रि- पूरनसाधुः अज्ञानं भाषते लोके ॥ २० ॥ अर्थ - महावीर भगवानके तीर्थमें पार्श्वनाथ तीर्थंकरके संघके किसी गणीका शिष्य मस्करी अङ्क ५०-६०] पूरन नामका साधु था । उसने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया । अण्णाणादो मोक्खो णाणं णत्थीति मुत्तजीवाणं ॥ पुणरागमनं भमणं भवे भवे णत्थि जीवस्स ॥ २१ ॥ अज्ञानतो मोक्षो ज्ञानं नास्तीति मुक्तजीवानाम् । पुनरागमनं भ्रमणं भवे भवे नास्ति जीवस्य ॥ २१ ॥ अर्थ - अज्ञानसे मोक्ष होता है। मुक्त जीवोंको ज्ञान नहीं होता । जीवोंका पुनरागमन नहीं होता, अर्थात् वे मरकर फिर जन्म नहीं लेते और उन्हें भवभवमें भ्रमण नहीं करना पड़ता । एक्को सुद्धो बुद्धो कत्ता सव्वस्स जीवलोयस्स । सुण्णज्झाणं वण्णावरणं परिसिक्खियं तेण ॥ २२ ॥ एकः शुद्धो बुद्धः कर्त्ता सर्वस्य जीवलोकस्य । शून्यध्यानं वर्णावरणं परिशिक्षितं तेन ॥ २२ ॥ अर्थ – सारे जीवलोकका एक शुद्ध बुद्ध परमात्माकर्ता है शून्य या अमूर्तिक रूप ध्यान करना चाहिए, और वर्णभेद नहीं मानना चाहिए, इस प्रकारका उसने उपदेश दिया । जिणमग्गबाहिरं जं तच्चं संदरसिऊण पावमणो । णिच्चणिगोयं पत्तो सत्तो मज्जेसु विविहेसु ॥ २३ ॥ २५५ जिनमार्गबाह्यं यत् तत्वं संदर्य पापमनाः । नित्यनिगोदं प्राप्तः सक्तो मद्येषु विविधेषु || २३ || अर्थ - और भी बहुतसा जैनधर्मसे बहिर्भूत उपदेश देकर और तरह तरहकी शराबोंमें आसक्त रहकर वह पापी नित्यनिगोदको प्राप्त हुआ । द्राविडसंघकी उत्पत्ति । सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्तो ॥ २४ ॥ अप्पासुयचणयाणं भक्खणदो वज्जिदो मुणिंदेहिं । परिरइयं विवरीयं विसेसियं वग्गणं चोज्जं ॥ २५ ॥ जुम्मं । श्री पूज्यपादशिप्यो द्राविड संघस्य कारको दुष्टः । नाम्ना वज्रन्दि: प्राभृतवेदी महासत्त्वः ॥ २४ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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