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________________ अनहितैषी - सुव्रततीर्थे उपाध्यायः क्षीरकदम्ब इति शुद्धसम्यक्त्वः । `शिष्यः तस्य च दुष्टः पुत्रोपि च पर्वतः वक्रः ॥ १६ ॥ अर्थ — बावीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के समयमें एक क्षीरकदम्ब नामका उपाध्याय था । वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था । उसका ( राजा वसु नामका ) शिष्य दुष्ट था और पर्वत नामका पुत्र वक्र था । २५४ faaiयमयं किच्चा विणासियं सञ्चसंजम लोए । तत्तो पत्ता सव्वे सत्तमणरयं महाघोरं ॥ १७ ॥ विपरीतमतं कृत्वा विनाशितः सत्यसंयमो लोके । ततः प्राप्ताः सर्वे सप्तमनरकं महाघोरम् ॥ १७ ॥ अर्थ - उन्होंने विपरीत मत बनाकर संसारमें जो सच्चा संयम ( जीवदया ) था, उसको नष्ट कर दिया और इसके फलसे वे सब ( पर्वतकी माता आदि भी ) घोर सातवें नरकमें जा पड़े । वैनयिकों की उत्पत्ति । सव्वे यतित्थेसु य वेणइयाणं समुब्भवो अस्थि । सजडा मुंडियसीसा सिहिणो गंगा य केई य ॥ १८ ॥ सर्वेषु च तीर्थेषु च वैनयिकानां समुद्भवः अस्ति । सजटा मुण्डितशीर्षः शिखिनो नग्नाश्च कियन्तश्च ॥ १८ ॥ अर्थ-सारे ही तीर्थोंमें अर्थात् सभी तीर्थंकरों के बारेमें वैनयिकोंका उद्भव होता रहा है । उनमें कोई जटाधारी, कोई मुंडे, काई शिखाधारी और कोई नग्न रहे हैं । गुणवंते विय समया भत्तीय सव्वदेवाणं । णमणं दंडुव्व जणे परिकलियं तेहि मूढेहिं ॥ १९ ॥ दुष्टे गुणवति अपि च समया भक्तिश्च सर्वदेवेभ्यः । नमनं दण्ड इव जने परिकलितं तैर्मूढैः ॥ १९ ॥ [ भाग १३ अर्थ - चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् हो, दोनों में समानता से भक्ति करना और सारे ही देवोंको दण्डके समान आड़े पड़कर ( साष्टांग ) नमन करना, इस प्रकारके सिद्धान्तको उन मूखने लोगों में चलाया । * अज्ञानमतकी उत्पत्ति । सिरिवीरणाहतित्थे बहुस्सुदो पाससंघगणिसीसो । मक्कडिपूरणसाहू अण्णाणं भासए लोए ॥ २०॥ * विनय करनेसे या भक्ति करनेसे मुक्ति होती है, यही इस मतका सिद्धान्त जान पड़ता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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