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जैनहितैषी
[भाग १३
अप्राशुकचणकाणां भक्षणतः वर्जितः मुनीन्द्रैः । परिरचितं विपरीतं विशेषितं वर्गणं चोद्यम् ॥ २५ ॥ (युग्मम् । ) अर्थ-श्रीपूज्यपाद या देवनन्दि आचार्यका शिष्य वज्रनन्दि द्रविड संघका उत्पन्न करनेवाला हुआ । यह प्राभृत ग्रन्थों ( समयसार, प्रवचनसार आदि ) का ज्ञाता और महान् पराक्रमा था । मुनिराजोंने उसे अप्रासुक या सचित्त चनोंके खानेसे रोका; क्योंकि इसमें दोष होता है-पर उसने न माना और बिगड़कर विपरीतरूप प्रायश्चित्तादि शास्त्रोंकी रचना की।
बीएसु णत्थि जीवो उन्भसणं णस्थि फासुगं णत्थि । सावज ण हु मण्णइ ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठ॥ २६ ॥
बीनेषु नास्ति जीवः उद्भक्षणं नास्ति प्राशुकं नास्ति ।
सावद्यं न खलु मन्यते न गणति गृहकल्पितं अर्थम् ॥ २६ ॥ अर्थ-उसके विचारानुसार बीजोंमें जीव नहीं हैं, मुनियोंको खड़े खड़े भोजन करनेकी विधि नहीं है, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है । वह सावध भी नहीं मानता और गृहकल्पित अर्थको नहीं गिनता।
कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। ण्हतो सीयलणीरे पावं पउरं स संजेदि ॥२७॥
कच्छं क्षेत्रं वसतिं वाणिज्यं कारयित्वा जीवन् ।
स्नात्वा शीतलनीरे पापं प्रचुरं स संचयति ॥ २७ ॥ अर्थ-कछार, खेत, वसतिका, और वाणिज्य आदि कराके जीवननिर्वाह करते हुए और शीतल जलमें स्नान करते हुए उसने प्रचुर पापका संग्रह किया। अर्थात् उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि खेती करावें, रोजगार करावें, बसतिका बनवावें और अप्रासुक जलमें स्नान करें तो कोई दोष नहीं है।
पंचसए छव्वासे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥ २८॥
पञ्चशते षडिशति विक्रमरानस्य मरणप्राप्तस्य ।
दक्षिणमथुरानातः द्राविडसंघो महाघोरः ॥ २८ ॥ . अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके ५२६ वर्ष बीतनेपर दक्षिण मथुरा ( मदुरा ) नगरमें यह महामोहरूप द्राविडसंघ उत्पन्न हुआ।
१.विशेषितं वर्गणं चोद्यं ' पर क पुस्तकमें जो टिप्पणी दी है उसका अर्थ यह है कि उसने प्रायश्चित शास्त्र बनाये । उसीके अनुसार हमने यह अर्थ लिखा है; परन्तु इसका अर्थ स्पष्टतः समझमें नहीं आया।
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