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________________ अङ्क ५-६] दर्शनसार। २५७ यापनीय संघकी उत्पत्ति । कल्लाणे वरणयरे संत्तसए पंच उत्तरे जाद। जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ॥ २९॥ कल्याणे वरनगरे सप्तशते पञ्चोत्तरे जाते । यापनीयसंघभावः श्रीकलशतः खलु सितपटतः ॥ २९ ॥ अर्थ-कल्याण नामके नगरमें विक्रम मृत्युके ७०५ वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार २०५ वर्ष बीतने पर ) श्रीकलशनाम श्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ। काष्ठासंघकी उत्पत्ति । सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो सयलसत्थविण्णाणी । सिरिपउमनंदिपच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ ३०॥ श्रीवीरसेनशिप्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी। श्रीपद्मनन्दिपश्चात् चतुःसंघसमुद्धरणधीरः ॥ ३० ॥ अर्थ-श्रीवीरसेनके शिष्य जिनसेन स्वामी सकल शास्त्रोंके ज्ञाता हुए। श्रीपद्मनन्दि या कुन्दकुन्दाचार्यके बाद ये ही चारों संघोंके उद्धार करनेमें समर्थ हुए। तस्स य सीसो गुणवं गुणभद्दो दिव्वणाणपरिपुण्णो । पक्खुववासुदुमदी महातवो भावलिंगो य॥३१॥ तस्य च शिष्यो गुणवान् गुणभद्रो दिव्यज्ञानपरिपूर्णः । पक्षोपवासः सुष्ठुमतिः महातपः भावलिङ्गश्च ॥ ३१ ॥ अर्थ-उनके शिष्य गुणभद्र हुए, जो गुणवान, दिव्यज्ञानपरिपूर्ण, पक्षोपवासी, शुद्धमति, महातपस्वी और भावलिंगके धारक थे । तेण पुणो वि य मिच्चु णाऊण मुणिस्स विणयसेणस्य । सिद्धंतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ ३२॥ तेन पुनः अपि च मृत्यु ज्ञात्वा मुनेः विनयसेनस्य । .... सिद्धान्तं घोषयित्वा स्वयं गतः स्वर्गलोकस्य ॥ ३२ ॥ अर्थ-विनयसेन मुनिकी मृत्युके पश्चात् उन्होंने सिद्धान्तोंका उपदेश दिया, और फिर वे स्वयं भी स्वर्गलोकको चले गये । अर्थात् जिनसेन मुनिके पश्चात् विनयसेन. आचार्य हुए और फिर. उनके बाद गुणभद्र स्वामी हुए। १ग प्रतिमें ' दुण्णि सए पंच उत्तरे ' ऐसा पाठ है जिसका अर्थ होता है, २०५ वर्ष । २ 'तेणप्पणो वि मिच्चु ' अर्थात् ' उन्होंने अपनी भी मृत्यु जानकर ' इस प्रकारका भी पाठ ख और ग प्रतियों में है। । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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