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________________ २३२ जैनहितैषी [भाग १३ पैरोंके नीचे भी एक तकिया रक्खो, अर्थात् करनेके हेतु ऊपर लिखी हुई क्रियाओंके सिवा सिरके समान पैरोंको भी कुछ ऊँचाई पर रक्खो। एक दूसरी क्रिया और करनी चाहिए । शरीरके कुछ दीर्घ श्वास लो और शिथिल हो जाओ, फिर जिस भागमें दर्द होता हो अथवा जिस अंगमें सिर नेत्र, गर्दन, छाती, पैर आदि एकके बाद एक व्याधि हो उस पर अपना हाथ रक्खो । ( अब अवयव पर जहाँ तक तुम्हारा हाथ पहुँचे थोड़ी यह कहने की आवश्यकता नहीं रही कि कोई देरतक हाथ रखकर ऐसी दृढ भावना करो कि भी क्रिया करनेके पहले दीर्घश्वास लेने और प्रत्येक अवयव अपना कार्य नियमित रूपसे कर शरीरको शिथिल करनेकी नितान्त अवश्यकता रहा है। यदि तुम्हारे किसी अवयवमें कोई व्याधि है। तुमको यह भी मालूम होगा कि हिन्दूहै तो उस अवयव पर अधिक समय तक हाथ धर्मानुसार किसी भी धार्मिक क्रियाके आरंभमें रक्खो और ऐसी भावना करो कि वह व्याधि आचमन और प्राणायाम करनेका विधान है निर्मूल हो रही है। तुम अपनी भावना शक्तिको और वह सकारण है । ) फिर तुम अपने चित्तकी कम मत समझो। तुम्हारी भावनाके द्वारा केवल वृत्तिको व्याधि-स्थान पर स्थिर करो । यह तुम्हारे शरीरका ही नहीं, वरन् सारे संसारका किया कुछ कठिन तो है, परंतु थोड़े दिनके परिवर्तन हो सकता है । ईसा मसीहने एक प्रसंग अभ्याससे सुगम हो जाती है। मान लो कि तुम्हारी पर कहा था-" यदि तुम आज्ञा करोगे तो ये छातीमें शूलका दर्द है, तो उस समय शरीरके पहाड़ लुढ़क कर समुद्रमें जा गिरेंगे।” मनु- और किसी अवयवकी ओर मन न लेजाकर ध्यकी भावनाका बल बहुत जबर्दस्त है । तुम केवल छातीकी ओर मन लगाओ-मानो कि मनुष्य हो; मनुष्य होनेका सत्त्व क्यों अपने हाथों उसके सिवा तुम्हारे और कोई अवयव है ही द्वारा खोते हो ? अपने हाथोंसे क्यों दरिद्र और नहीं । ऐसा करनेसे वह अवयव तुम्हारी चित्त. निर्बल बनते हो ? वृत्तिका केन्द्र बन जायगा और उस जगह पर जब निद्रादेवी तुम्हारी आँखों पर अपना तुम अधिक आत्मबल डाल सकोगे । जैसे अधिकार जमाने लगे तब एक अंतिम भावना सामान्य काँचके द्वारा आग पैदा नहीं होती, करके उस देवीके आधीन हो जाओ। तुम ऐसी परंतु बहिर्गोल ( Concave ) काँचको सूर्यकी भावना करो कि प्रातःकाल जब मैं सोकर उठू धूपमें रक्खो तो उस काच पर पड़नेवाली सूर्य्यकी तब मेरा शरीर पूर्णरूपसे स्वस्थ और ताजा हो, समस्त किरणें उसके एक मध्य बिन्द पर इकटी मस्तक हलका और प्रफुल्लित हो । बस, ऐसी हो जाती हैं और उसके नीचेवाले पदार्थमें आग भावना करके सो जाओ । जब तुम प्रातःकाल पैदा कर देती हैं। उसी प्रकार तुम्हारी भटकती सोकर उठोगे तब तुम्हें मालूम होगा कि तुम्हारा हुई वृत्तियों द्वारा रोग दूर नहीं हो सकता, शरीर स्वस्थ और निरोगी है । तुम्हारा शरीर तो परंतु उन सब वृत्तियोंको किसी एक अवयव यंत्र है, उसे तुम जैसा बनाना चाहोगे वैसा ही पर स्थिर करनेसे अद्भुत परिणाम दिखाई देता बन जायगा। __ है। जिस अंगमें व्याधि हो उस पर मनकी किसी खास व्याधिका निवारण। वृत्तियोंको स्थिर करनेके पश्चात ऐसी कल्पना करो ऊपर लिखी हुई सब क्रियायें स्वास्थ्य और कि उस जगहसे व्याधि हटकर श्वासद्वारा बल प्राप्त करनेके लिए बताई गई हैं, परंतु यदि बाहर निकलती जाती है और जो श्वास तुम शरीरमें कोई खास व्याधि हो तो उसका निवारण भीतर खींचते हो उसके द्वारा तुम्हारे शरीरमं बल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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