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________________ २४० जैनहितैषी - जैनमत में जो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि भेद हैं, वे हिन्दू धर्म में नहीं माने गये हैं; परन्तु कुछ कुछ इसी ढँगसे उसमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोशवाले जीव बतलाये हैं, पर इनके लक्षण नहीं मिलते। जैनधर्म में अजीवके पाँच भाग हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्ति - काय और काल । धर्मास्तिकाय जीव और पुलों की गति में और अधर्मास्तिकाय स्थितिमें सहायक होता है । धर्म और अधर्म - ये दोनों दव्यें जैन मतमें विलक्षण हैं। शेष अजीवके तीन भाग हिन्दू मत में भी प्रकृति के विकार कहे हैं । इस विषयको न्याय और वैशेषिक शास्त्रोंने अच्छी तरह बताया है । पुलको न्याय और वैशेषिक शास्त्रों में परमाणु कहा है । परमाणु की यह परिभाषा है: - • जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः । भागस्तस्य च षष्ठो यः परमाणुः स उच्यते ॥ जिस तरह दो दो तीन तीन अथवा अधिक मुद्गल मिलकर प्राकृतिक वस्तुओंके रूपमें आते हैं और संसारकी रचना करते हैं, वैसे ही न्याय मतानुसार परमाणु भी करते हैं । समस्त संसार परमाणुओं के मिलने से ही बना है । न्याय और वैशेषिक शास्त्रका यही मत है । और यही मत जैन शास्त्रका है * । वेदान्त और सांख्य शास्त्रोंका यह मत नहीं है । सांख्यशास्त्र विकासवादी है, और वेदान्तशास्त्र मायावादी । आजकल पाश्चात्य विद्वान् विकासवाद को ही ठीक मानते हैं - परमाणु अथवा पुद्गलवादको नहीं । माया - * परन्तु जैनमतमें पुगलके उस छोटे से छोटे हिस्से के परमाणु कहते हैं जिसका कोई भाग न हो सके असंख्य अनन्त परमाणुओंके समूहसे दृष्टिगोचर होने! वाला पुल बनता है । जालान्तर्गत रजका छहा हिस्सा जैनधर्मके अनुसार परमाणु नहीं, किन्तु असं ख्य परमाणुओंका समूह है-सम्पादक । Jain Education International [ भाग १३ वाद और विकासवाद में कुछ अन्तर नहीं है, अर्थात् सृष्टिकी उत्पत्ति दोनों में ही एकसी है-सिर्फ प्रकृति और मायाके रूपमें कुछ अन्तर है । जिस तरह जैनमत में कालके दो रूप कहे हैं। अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिर्णा, वैसे ही सांख्यशास्त्रमें कालके संक्रम और प्रतिसंक्रम ये दो रूप कहे हैं । उत्सर्पिणी अथवा संक्रमकाल में सब वस्तुयें अच्छी होती हैं और अवसर्पिणी अथवा प्रतिसंक्रमकाल में सब वस्तुयें बुरी होती जाती हैं । हिन्दू शास्त्रमें समयके सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग ये चार भाग भी कहे हैं । ये चारों भाग उत्सर्पिणी अथवा संक्रमकाल और अवसर्पिणी अथवा प्रतिसंक्रमकाल में आ जाते हैं । वास्तवमें जैनमतके अनुसार दो ही द्रव्य हैं। जीव और अजीव । ऐसे ही हिन्दूधर्म में न्याय, वैशेषिक और सांख्यमत के अनुसार ये ही दोनों वस्तुयें द्रव्य मानी गई हैं । सांख्यमत, पुरुष और प्रकृतिको द्रव्य मानता है, न्याय और वैशेषिक शास्त्र जीव और प्रकृतिको द्रव्य मानते हुए ईश्वरको भी द्रव्य मानते हैं । इस विषय में सांख्यमत और जैन मतकी सहमत्ता है । "जैन में कहा है कि आस्रव तत्त्वके द्वारा जीव- अजीवका सम्बन्ध होता है, अर्थात् आस्रव वह क्रिया है, जिसके द्वारा मनुष्यको पुण्यपाप लगता है। पुण्यपापोंहीसे अजीब का बन्धन होता है। कल्पना करो कि जीव एक जलाशय है और कर्म जलप्रवाह । जिस मार्ग से यह प्रवाह बहकर जलाशय में आवेगा, वही आस्रव कहा जायेगा। आस्रव दो प्रकारका है - शुभ और अशुभ। शुभ आस्रव पुण्यजनक है, और अशुभ पापजनक । इन दोनों ही कमसे जीवका बन्धन होता है । अब इसी बात को हिन्दुशास्त्र की दृष्टि से देखो तो जिसे आस्रव कहा है. वह हिन्दू शास्त्रों में प्रवृत्ति मार्ग है । मन, वचन, कायसे अच्छे बुरे कर्म For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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