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________________ अङ्क ५-६] जैनधर्म और हिन्दूधर्म। भी कहते हैं । वेदान्त, जीवको एक ही मानता वासांसि जीर्णानि यथा विहाय है-अलग अलग नहीं। नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। __ जैसे जैनशास्त्रने माना है कि वास्तवमें जीव तथा शरीराणि विहाय जीर्णाशुद्ध ज्ञानस्वरूप है, पर कर्मोंका आवरण पड़नेसे न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ छिप जाता है- और जब यह आवरण हट जाता जैनधर्ममें संसारी जीवोंके मुख्य भेद दो हैं: है तो उसे कैवल्यज्ञान प्राप्त हो जाता है, स्थावर और त्रस । पृथिवीकाय, जलकाय, वायुवैसे ही वेदान्त और सांख्यशास्त्रोंने भी माना है। काय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय ये पाँच भेद वे कहते हैं जब सूर्यके सामने बादल आ जाते स्थावर या एकेन्द्रिय जीवोंके हैं । त्रस जीवोंके हैं तो सूर्य छिप जाता है और उसका प्रकाश द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये मलिन हो जाता है, इसी प्रकार जब जीव चार भेद हैं। इन सब प्रकारके जीवोंका जन्म अथवा आत्माके सामने कर्मोंका आवरण आ तीन प्रकारसे माना है-गर्भ, सम्मर्छन, और उपजाता है, तो वह मलिन और बन्धयुक्त दिखाई पाद । गर्भजन्म तीन प्रकारका है-जरायुज, देता है। यदि यह आवरण हट जाय तो अण्डज और पोत । पोत जन्म वह है, जो जीव माके उसकी वास्तविक अवस्था रह जायगी, और यह गर्भसे विना जरायुके उत्पन्न होता है; जैसे सिंह शुद्धज्ञान अवस्था है। जैसे जैनमत जीवको या बिल्ली।जो जीव आप ही आप उत्पन्न हो जाते अनादि, अज, अमर, अव्यय और नित्य मानता हैं जैसे वनस्पति आदि, वे सम्मूर्च्छन हैं । देवोंका है वैसे ही हिन्दूशास्त्र भी मानते हैं । गीतामें जन्म उपपाद जन्म है । हिन्दूधर्ममें जैनधर्मके कहा है: इन्हीं जन्मभेदोंके समान जरायुज, अण्डज, स्वेदज. न जायते म्रियते वा कदाचिन् और उद्भिज, ऐसी चार प्रकारकी सृष्टि मानी नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। है । स्वेदज और उद्भिज सम्मूर्च्छनके ही अन्तअजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो गत हैं । इस सम्बन्धमें यह कहना भी आवश्यक न हन्ते हन्यमाने शरीरे ॥ है कि हिन्दू धर्ममें पृथिवी, जल, वायु, अग्नि नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। और आकाश ये पंच तत्त्व माने गये हैं, परंतु ये न चैन क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुतः॥ तत्त्व प्रकृति के विकार हैं-पुरुषके नहीं हैं। आकाश अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमल्लेदयोऽशोष्य एव च। तत्त्वको तो जैनमतमें भी प्रकृति या अजीवका नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ भेद जड़ माना है; परन्तु पृथिवी, जल, जैनधर्मने जीवका आवागमन माना है । इसे वायु और अग्निको जैनधर्ममें स्थावर जीव भी हिन्दू धर्म भी वैसे ही मानता है । वेदान्त और माना है । यह विलक्षणता है। अर्थात् जैनधर्मके सांख्यशास्त्रोंका कथन है कि आवागमन, मनु- अनुसार ये चारों जीव भी हैं और जड़ भी हैं। ध्यके लिङ्ग अथवा सूक्ष्म शरीरको होता है-पुरुष ये चारों उस हालतमें जब कि इनमेंसे जीवनअथवा आत्माको नहीं । न्याय और वैशेषिक शक्ति नष्ट कर दी जाती है जड़ रह जाते हैं। शास्त्र जीवका ही आवागमन मानते हैं । जैन- जैसे प्राकृतिक जल सजीव है । यदि यह औंटा मत प्रतिपादित आवागमन, न्याय और वैशेषिक लिया जाय-गर्म कर लिया जाय तो जड. मात्र शास्त्रके सिद्धान्तोंसे सर्वथा मिलता है। गीतामें रह जाय । जैनधर्म बनस्पतिमें भी जीव मानता इस तरह कहा है: है, जो विज्ञानसिद्ध बात है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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