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________________ जैनहितैषी भाग १३] केये जानेके योग्य नहीं है । जहाँतक मुझे मालूम पहले दार्शनिक बातोंका विचार कीजिए। है, चंद्रगुप्तके समयका जो इतिहास मेगास्थनीज जैनशास्त्रने समस्त दार्शनिक विषयोंको नव तत्त्वोंमें आदि प्राचीन विद्वानोंका लिखा हुआ इस समय विभक्त किया है। यही शैली हिन्दू दर्शनशास्त्रोंकी उपलब्ध है, उसमें चंद्रगुप्तके स्वप्नोंका कोई उल्लेख भी है । सांख्यदर्शनने २५ तत्त्व, न्यायदर्शनने नहीं है । प्राचीन दिगम्बर जैनग्रंथ और शिला- १६ पदार्थ, और वैशेषिकदर्शनने ७ पदार्थ माने लेख भी इस विषयमें मौन पाये जाते हैं । भारत- हैं । वेदान्तदर्शनने केवल एक तत्त्व 'ब्रह्म'ही के प्राचीन इतिहासमें चंद्रगुप्तके स्वप्नों जैसी एक माना है । समस्त वस्तुओंको तत्त्वोंमें बाँटकर ऐसी बड़ी और महत्त्वकी घटनाका जिसने चंद्र- निर्णय करना बड़ी प्राचीन शैली है और यह गुप्तको विरक्त करके जैनमुनिदीक्षातक धारण जैनधर्म और हिन्दूधर्म-दोनोंमें ही है। करनेके लिए वाध्य किया हो, उल्लेख न होना यद्यपि जैनधर्ममें नव तत्त्व कहे हैं, तथापि संदेहसे खाली नहीं है । इस लिए जैन विद्वानों- मुख्य तत्त्व दो ही हैं, एक जीव और दूसरा को इस विषयके सत्यकी जाँच करनी चाहिए अजीव । ये ही दोनों द्रव्य हैं। सांख्यदर्शनमें और स्वपरसाहित्यका मथन करके, ऐतिहासिक इन्हीं दोनोंको पुरुष और प्रकृति कहा है और दृष्टि से इस बातका निर्णय करना चाहिए कि न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें जीव और प्रकृति । वास्तवमें सम्राट चंद्रगुप्तको इस प्रकारके भविष्य- जैसे सांख्य, न्याय और वैशेषिक मत द्वैतवाद सूचक कोई स्वप्न आये या कि नहीं, यदि आये हैं वैसे ही जैनमत भी द्वैतवाद है, अर्थात् यह तो वे कौन कौन स्वप्न थे, उनका क्या क्या जीव और अजीव दो वस्तुओंको मानता है । फल किसके द्वारा कहा गया, और वह वेदान्त मत सर्वथा अद्वैतवाद है । वह केवल फल स्वमशास्त्रकी दृष्टिसे कहाँतक सत्य हो जीवहीको नित्य सत्य मानता है-अजीवको सकता है। आशा है कि विद्वान् लोग इस विष- नहीं । इसीको उसने ब्रह्म कहा है। उसने अजीयपर अपने अपने विचारों और अनुसंधानोंको वकी व्यावहारिक सत्यता मानी है-वास्तविक प्रगट करके सर्व साधारणका भ्रम दूर करनेकी सत्यता नहीं । उसके मतानुसार अजीव ही कृपा करेंगे। माया है। बम्बई __ जैसे जैनशास्त्र जीवको चेतन और ज्ञानविशिष्ट मानता है वैसे ही वेदान्त और सांख्य शास्त्र भी मानते हैं। जैनधर्म और हिन्दूधर्म। __ न्याय और वैशेषिक शास्त्रोंकी जीवसम्बन्धी परिभाषा अवश्य कुछ भिन्न है । वह यह है:[ लेखक-श्रीयुत लाला कन्नोमलजी एम. ए.] इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-सुख-दुःखज्ञानानि आत्मनो लिङ्गमिति। । प्राणापाननिमेषोन्मेषमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः । पसिद्धान्त मिलते हैं और कौन कौन सुखदुःखेच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिङ्गानि ॥ नहीं-यही बताना इस लेखका उद्देश्य है। इस आलो- जैनमतकी जीव-परिभाषा, सांख्यमतकी परिचनाके लिए जैनधर्मके सिद्धान्त चार भागोंमें भाषासे अधिकतम मिलती है । जैसे जैनशास्त्र विभक्त किये गिये हैं-१ दार्शनिक विषय, २ कहता है कि, जीव अनेक हैं-सब जीव एक कार्यकर विषय, ३गृहस्थ धर्म और ४ साधु धर्म। नहीं, वैसे ही सांग्च्य न्याय और वैशषिक शास्त्र ता. १५-७-१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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