________________
जैनहितैषी
[भाग १३
दाप
मानते हैं। उक्त दोषोंका, २१ पद्योंमें, कुछ विवरण रति, भीति (भय), निद्रा, राग और द्वेष ये पाँच देकर फिर ये दो पद्य और दिये हैं:- दोष तो ऐसे हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों एतैर्ये पीडिता दोषैस्तैर्मुच्यन्ते कथं परे। सम्प्रदायोंमें समान रूपसे माने गये हैं। शेष सिंहाना हतनागानां न खेदोस्ति मृगक्षये ॥ ९१५॥ दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तसर्वे रागिणि विद्यन्त दोषा नात्रास्ति संशयः। राय, उपभोगान्तराय, हास्य, अरति, जुगुप्सा, रूपिणीव सदा द्रव्ये गन्धस्पर्शरसादयः ॥ ९१६ ॥ शोक, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान और विरति ___ इन पद्योंमें लिखा है कि 'जो देव इन क्षुधादिक नामके १३ दोष दिगम्बरोंके माने हुए दोषोंसे पीडित हैं, वे दूसरोंको दुःखोंसे मुक्त कैसे क्षुधा, तृषा, मोह, मद, रोग, चिन्ता, जन्म, कर सकते हैं ? क्योंकि हाथियोंको मारनेवाले जरा, मृत्यु, विषाद, विस्मय, खेद और स्वेद सिंहोंको मृगोंके मारनेमें कुछ भी कष्ट नहीं होता। नामके दोषोंसे भिन्न है । इस लिए गणीजीका जिस प्रकार पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस और गंधा- उपर्युक्त कथन श्वेताम्बर शास्त्रोंके विरुद्ध है। दिक गुण हमेशा पाये जाते हैं, उसी प्रकार ये सब मालूम होता है कि अमितगतिधर्मपरीक्षाके दोष भी रागी देवोंमें पाये जाते हैं।' इसके १३ वें परिच्छेदसे इन सब पद्योंको ज्योंका त्यों बाद एक पद्यमें ब्रह्मादिक देवताओं पर कुछ आक्षेप उठाकर रखनेकी धुनमें आपको इस विरुद्धताका करके गणीजी लिखते हैं कि : सूर्यसे अंधकारके कुछ भी भान नहीं हुआ। समूहकी तरह जिस देवतासे ये संपूर्ण दोष नष्ट (६) एक स्थान पर, पद्मसागरजी लिखते हैं हो गये हैं, वही सब देवोंका अधिपति अर्थात् कि 'कुन्तीसे उत्पन्न हुए पुत्र तपश्चरण करके देवाधिदेव है और संसारी जीवोंके पापोंका मोक्ष गये और मद्री के दोनों पुत्र मोक्षमें न जाकर नाश करनेमें समर्थ है, यथाः-
सर्वार्थसिद्धिको गये। यथाःएते नष्टा यतो दोषा भानोरिव तमश्चयाः।
“कुन्तीशरीरजाः कृत्वा तपो जग्मुः शिवास्पदम् । स स्वामी सर्वदेवानां पापनिर्दलनक्षमः ॥ ९१८॥ मद्रीशरीरजौ भन्यो सर्वार्थसिद्धिमीयतुः ॥ १०९५॥ ___इस प्रकार गणीजी महाराजने देवाधिदेव , यह कथन यद्यपि दिगम्बरसम्प्रदायकी दृष्टिसे
अर्हन्त भगवान्का १८ दोषोंसे रहित वह सत्य है और इसी लिए अमितगतिने अपने स्वरूप प्रतिपादन किया है, जो दिगम्बरसम्प्रदाय- ग्रंथके १५वें परिच्छेदमें इसे नं० ५५ पर दिया में माना जाता है। परंतु यह स्वरूप श्वेताम्बर है। परन्तु श्वेताम्बरसम्प्रदायकी दृष्टिसे यह कथन सम्प्रदायके स्वरूपसे विलक्षण मालूम होता भी विरुद्ध है । श्वेताम्बरोंके 'पांडवचरित्र' आदि है; क्योंकि श्वेताम्बरोंके यहाँ प्रायः दूसरे ही ग्रंथों में 'मद्री' के पुत्रोंका भी मोक्ष जाना प्रकारके १८ दोष माने गये हैं। जैसा कि मुनि लिखा है और इस तरह पर पाँचोंही पाण्डवोंके आत्मारामजीके ' तत्त्वादर्शमें । उल्लिखित नीचे लिए मुक्तिका विधान किया है। लिखे दो पद्योंसे प्रगट है:
(७) पद्मसागरजीने, अपनी धर्मपरीक्षामें, अंतरायदानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः।
एक स्थान पर यह पद्य दिया है:--- हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्साशोक एव च ॥१॥ चार्वाकदर्शनं कृत्वा भूपी शुक्रबृहस्पती । कामो मिथ्यात्वमज्ञानं निद्रा च विरतिस्तथा। प्रवृत्तौ स्वेच्छया कर्तुं स्वकीयेन्द्रियपोषणम् ॥१३६५॥ रागो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाऽप्यमी ॥ २॥ इसमें शुक्र और बृहस्पति नाम राजाइन पद्योंमें दिये हुए १८ दोषोंके नामों से ओंको 'चार्वाक ' दर्शनका चलाने लिखा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
' www.jainelibrary.org