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________________ २०२ . जैनहितैषी [भाग १३ सकता है, जब कि सबको अपने स्वतंत्र विचार, आत बताते हैं; उनहीको उन ही मुगासे श्वेताबिना किसी प्रकार के संकोचके, प्रकट करनेकी म्बरी और स्थानकवासी भाई भी आह मानते दूरी पूरी आजादी हो और हमारे भाई उत् है; परन्तु एक कहते हैं कि भगवान ने ऐसा कहा विचारोंको बिना किसी प्रकार की भड़क या पक्ष- और दूसरे कहते हैं कि नहीं, ऐसा नहीं कहा, पातके पड़े, सुनें और जाँचें; और यदि खंडन वैसा कहा । युनियाभरमें जैनधर्म ही एक ऐसा करनेकी जरूरत हो तो खंडन करें और जरूर धर्म है जो अपने तत्त्वोंको अककी कसौटी पर रखंडन करें; परंतु टंडे और सभ्यताके शब्दोंमें। जाँचनेकी घोषणा केकी बोटले करता है: ऐसा ही खयाल करके आज मैं इस लेखके द्वारा अन्य सब ही धर्म प्राय: आज्ञा-प्रधान है। केसी इस विषयमें अपने विचार प्रकट करनेका साहस भी आज्ञा-प्रधान धर्मको यह अधिकार नहीं हो करता हूँ और खंडनमें हो या मंडनमें, अन्य सकता है कि वह किसी दूसरे धर्मका सडन भाईयोंके विचार जाननेकी उत्कंटा रखता हूँ, करे और उसको मिथ्यामत बताने । यह अधिजिससे यह प्रश्न हल हो जाय और इसकी अस- कार केवल उस ही धर्मको हो सकता है, जो लियत खुल जाय । मैं इस प्रश्नको चार विभागोंमें ऐसी किसी भी बातके माननेको तय्यार नहीं विभाजित करता हूँ है जो बुद्धिकी कसौटी पर पूरी न उतरे : हमको (१) वर्ण और जातिका धर्मसे सम्बन्ध वर्ण और जातिके इस अत्यावश्यक लिहाल्तको (२) वर्ण और जातिका रोटीबेटी-व्यवहारसे भी पराक र भी परीक्षाकी कसौटी पर करना चाहिए और सम्बन्ध, (३) वर्ण और जातिका पेशेसे सत्य वालको खोज निकालना चाहिए । सम्बन्ध, (४) वर्ण और जातिका जन्मसे और संसारक समस्त प्राणी अनादि कालसे संसारकर्मसे सम्बन्ध । पी चोर दुःखसागरमें पड़े हुए अनेक कष्ट उठा रहे हैं । जो कोई इन प्राणियोंको इस घोर दुःखसे १ वर्ण और जातिका धर्मस सम्बन्ध। छडाकर उत्तम सुख प्राप्त कराता है, वही धर्म है जैनधर्मका सम्पूण आधार आप्तवचन और और वही कल्याणका मार्ग है। वस्तुस्वभावनयप्रमाण पर है । सर्वश, वीतराग, और हितोप- का ही नाम धर्म है। जीवका विभाव भाव दूर देशक होनेसे आप्तके वचन प्रमाण होते हैं और होकर असली स्वभाव प्राप्त हो जाना ही उसका नयप्रमाणसे वस्तुस्वभावकी जाँच और सत्य कल्याण है । स्वभावसे सब ही जीव समान हैं. सब ही असत्यका निर्णय होता है। सब ही धर्मवाले धर्म मार्ग पर चल सकते हैं और सबहीका कल्याण अपने धर्मको आप्तकथित बताते हैं और सब ही हो सकता है। पापियोंको धर्मात्मा बनाना, दुःखी अपने परमेश्वरको सर्वज्ञ-वीतराग और हितोपदेश जीवोंको सुखी करना ही धर्मका काम है। अनादि की पदवी देकर आप्त सिद्ध करते हैं । इस ही कालसे संसारके सब ही जीव मिथ्यात्वमें फंसे कारण जैन शास्त्रोंमें परीक्षा-प्रधानी होने पर हुए अनेक प्रकारके घोर पाप कर रहे हैं। उनज्यादा जोर दिया गया है और अंधश्रद्धाको को पापसे हटाकर कल्याणमार्ग पर लगाना ही मिथ्यात्वमें दाखिल किया है । इस परीक्षाकी धर्मका स्वरूप है । जो धर्म अपने कल्याणके ज्यादा जरूरत इस कारण भी हो गई है कि मार्गको किसी वर्ण, किसी जाति, किसी देश, हमारे दिगम्बरी भाई जिन अरहंत भगवानको किसी रंग या किसी अवस्थाके जीवके वास्ते सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशके आदि गुणोंसे तो खुला रखता है और दूसरोंके लिए बन्द कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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