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________________ अङ्क ५-६] वर्ण और जाति-विचार । ता है, वह धर्म नहीं है; देषका बीज है। कल्या- विचारनेकी बात है कि काहे कोई ब्राह्म का मार्ग नहीं है बल्कि संसारको भस्म कर- गकी संतान हो, चाहे, चांडालकी; शरीर के लिए आगकी चिनगारी है। संसारभरमें एक दोनोंका ही हाइ-मांस आदिक अपवित्र पिना जनधम ही एसा धर्म है, जो अपने कल्याणक वनी ओझा ना आ शेगा। बादणके भागको प्राणिमात्रके वास्ते खोलता है और शरीरके भी सब ही परमाण अपवित्र हैं प्रकार पुकार कर कहता है कि-हे जगत्के प्रा- और चांडालके भीः इस लिर शरिके कारण णियो, छोड़ो पापक्रियाओंको, चलो इस मार्ग का इस माग- इनमें नीचता या उच्चता नहीं हो सकती है। पर, और करो अपना कल्याण ! अरहंत भगवा- हाँ इनमेंसे जिसका भी आत्मा सत्य धर्मसे नके समवसरणमें सिंह-सपोदिक महाहिंसक और पवित्र हो रहा है, वह पवित्र है और उच्च सूअर कुत्ता आदिक महा अपवित्र जीवोंका आना है और जिसका आत्मा मिथ्यात्वसे अशद्ध और उन सबको धर्ममार्ग बतलाया जाना, हो रहा है वह अपवित्र है और नीच है । इससे इस बातका ज्वलंत दृष्टान्त है कि यह धर्म जीव- सिद्ध है कि वर्ण या जातिका धर्मसे कोई मात्रके उद्धारके वास्ते है और सूर्यके प्रकाशकी सम्बन्ध नहीं है। तरह बुरे भले सभी जीवोंके हृदयोंमें रोशनी पहुँचाता है। जैनधर्मकी इस बड़ाईको और इस समय एक वर्णकी अनेकानेक जातिया हो भो ज्यादा खोलनेके वारले जैनधर्मके कथा- रही हैं। इनका तो किसी प्रकारका कथन किसी ग्रन्थोंमें ऐसी अनेक कथायें वर्णन की गई हैं कि जैनशास्त्रमें मिलता नहीं; ये जातियाँ तो देशकाएक सिंहको जो किसी पशुको मारकर उसका लकी परिस्थितियोंके, देशभेदके, और आसपासकी मांस खा रहा था और जिसका मुँह खूनसे भरा बैंचतान या लड़ाई झगड़ोंके कारण बन गई. हैं . हुआ था, मुनिमहाराजने उपदेश दिया और और बनती जाती हैं। वों की उत्पत्तिका जो कुछ उसने अपने मुखका मांस थूककर धर्म ग्रहण भी कथन जैनशास्त्रों में मिलता है उससे भी स्पष्ट किया । एक चांडालकी लड़की, जिसको इतना तौरपर यही सिद्ध होता है कि वर्णभेदका धर्मसे भारी कोढ़ हो रहा था कि उसके शरीरकी कोई सम्बध नहीं है : आदिपराणमें वर्णोकी दुंगधिसे दूरदूरतकके प्राणी दुखी हो रहे थे, उत्पत्तिके विषयमें लिखा है कि जब भोगभो विष्टाकी कूड़ी पर बैठी हुई थी, उसको भमि समाप्त हुई तब भगवान आदिनाथने प्रजामनिमहाराजने समझाया और धमोत्मा बनाया। जनोंको उनकी आजीविकाके वास्ते असि, मसि इसी प्रकार श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नकरंड श्रावका- कषि. विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छः कर्म चारमें लिखते हैं कि चांडालसे पैदा हुआ सिखाये। क्योंकि उस समय भगवान सरागी , मनुष्य भी यदि सम्यक्ती हो जावे तो वह भी बीतराग नहीं थे। उसही समय भगवानने तीन देवके समान पूजने योग्य है। धर्मके प्रभावसे वर्ण प्रकट किये। जिन्होंने हथियार बाँधकर रक्षा कुत्ता भी स्वर्गका देव हो जाता है और पापके प्रभा करनेका कार्य लिया वे क्षत्री कहलाये, जो खेती वसे स्वर्गका देव भी कुत्ता हो जाता है। यथा व्यापार और पशुपालन करने लगे वे वैश्य हुए ... सम्यग्दर्शनसंपन्नमपि मातंगदेहनं। देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरोजसम् ॥ २८॥ और सेवा करनेवाले शूद्र कहलाये। श्वापि देवोपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् । असिमसिः कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥२९॥ कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥ १७९ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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