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________________ २०४ जैनहितैषी [भाग १३ तत्र वृत्ति प्रजानां स भगवान्मतिकौशलात् । देकर स्वयं छः महीनेका योग लगाकर बैठ गये उपादिशत्सरागो हि स तदासीजगद्गुरुः ॥ १८०॥ और छः महीनेके पीछे योगसे उठने पर भी और उत्पादितात्रयो वास्तदा तेनादिवेधसा। उनको भ्रष्ट देखकर भी उन्होंने उनकी अवस्थाक्षत्रिया वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ॥१८३॥ पर अफसोसं तो किया; परन्तु धर्मका उपदेश क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वमनुभय तदाऽभवन् । रंच मात्र भी न दिया । योगसे उठकर जब वैश्याश्च कृषिवाणिज्यपशुपाल्योपजीविनः ॥ १८४ ॥ भगवानने आहारके वास्ते विहार किया, तो लोग तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्ते द्विषा कार्वकारवः । धर्मसे अनजान होने के कारण आहार न दे सके; कारवो रजकाद्याः स्युस्ततोन्ये स्युरकारवः ॥१८५।। यहाँ तक कि भगवानको आहारके वास्ते फिरते -आदिपुराण, पवे १६ फिरते छः महीने बीत गये; तो भी भगवान इन श्लोकोंमें यह बात खास तौर पर दिखाई किसीको आहारदानकी विधिका उपदेश नहीं गई है कि तलवार चलाना आदि आजीविकाके दिया । गरज जब ऐसी ऐसी आवश्यकताओंमें छः कर्म भगवान् इस कारण सिखा सके और भी भगवान् ऋषभदेवने केवलज्ञान प्राप्त होनेसे उसी समय तीन वर्ण भी इसी कारण बना सके पहले धर्मका उपदेश नहीं दिया; तब यह बात कि भगवान् उस समय सरागी थे, वैरागी नहीं कैसे हो सकती है कि उन्होंने वर्णव्यवस्था में थे। क्योंकि वैराग्यावस्थामें यह काम हो ही धर्मका सम्बंध रक्खा हो ? ऊपर लिखे हुए श्लोक नहीं सकता है । इससे स्पष्ट है कि भगवान उस भी साफ तौर पर यही प्रकट कर रहे हैं कि समय आप्त नहीं थे; क्योंक आप्तके वास्ते प्रजाकी आजीविकाके वास्ते ही भगवानने वीतरागी होना जरूरी है । आप्त न होनेसे वे न उनको छः कर्म सिखाये और उनके पेशेके ही तो कोई धर्ममर्यादा बाँध सकते थे और न उन्होंने अनसार उनके तीन भेद किये । इसमें धर्मक केवलज्ञान होनेसे पहले कोई धर्ममर्यादा बाँधी। कुछ भी लगाव नहीं है। इससे सिद्ध है कि वर्गों का धर्मसे कोई सम्बन्ध ___ भगवान् आदिनाथने वर्णव्यवस्था केवल नहीं है। लौकिक प्रबन्धके वारते ही की, इसका स्पष्टी___ भगवान् आदिनाथका सम्पूर्ण पुराण पढ़नेसे करण आदिपुराणके उस कथनसे और भी तो यहाँतक मालूम होता है कि धर्मविषयकी ज्यादा हो जाता है जहाँ भगवानको राजपद कोई मर्यादा बाँधना तो दूर रहा, उन्होंने तो मिलनेके बाद लिखा है कि कर्मभूमिकी रचना केवलज्ञान प्राप्त होनेसे पहले धर्मकी साधारण करनेवाले भगवान् वृषभदेवने अपने पितासे राज्य ऐसी बातोंका भी उपदेश नहीं दिया जिनके पाकर सबसे पहले इस प्रकार प्रजापालनक उपदेशकी अत्यन्त आवश्यकता थी। जिस समय प्रयत्न किया कि प्रथम उन्होंने प्रजाकी सृष्टि की, भगवानने दीक्षा ली, उस समय उनके साथ और उनकी आजीविकाके नियम बनाये और फिर । भी चार हजार राजाओंने दीक्षा ली; परन्तु वे अपनी अपनी मर्यादाका उल्लंघन न करें इसके सब धर्मसे अनजान थे, इस कारण भ्रष्ट हो गये नियम किये। इस तरह वे अपनी प्रजा पर राज्य और उनके द्वारा अनेक मिथ्यामतोंका प्रचार करने लगे । भगवानने अपने दोनों हाथोंमें हथिहुआ। यदि दीक्षासे पहले भगवान् उनको यति- यार लेकर क्षत्रियों की रचना की । क्योंकि जो धर्मका उपदेश दे देते तो ऐसा न होता, परन्तु हथियार बाँधकर रक्षा करते हैं वे ही क्षत्री कहलाते भगवान् उनको कुछ भी धर्म का उपदेश न हैं। फिर भगवान ने अपनी टाँगोंसे यात्रा करना सि.. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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