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जैनहितैषी -
दर्शनसार - विवेचना |
[ भाग १३
इस ग्रन्थके रचयिता या संग्रहकर्त्ता श्रीमान् देवसेनसूरि हैं । भावसंग्रह नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है, जो ९६० श्लोकों में पूर्ण हुआ है, जिसके मंगलाचरण और प्रशस्तिसे पता लगता है कि वह भी इन्हीं देवसेन सूरिका बनाया हुआ है और वे विमलसेन माणिके शिष्य थे । यथा:मं० पणमिय सुरसेणणुयं मुणिगणहरवंदियं महावीरं । घोच्छामि भावसंग मिणमो भव्वपत्रोहहुं ॥ १ ॥ अन्त-- सिरिविमलसेणगणहर सिस्सो णामेण देवसेणुत्ति । अबुहजणबोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥ ६७ ॥
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इसके सिवाय इनके विषयमें और कुछ मालूम नहीं हुआ। इनका संघ संभवतः मूलसंघ ही होगा। क्योंकि अन्य सब संघोंको इन्होंने जैनाभास बतलाया है। इनका बनाया हुआ 'आराधनासार' मामका एक ग्रन्थ माणिकचन्द ग्रन्थमालामें छप गया है। ' तत्वसार ' नामका एक और छोटासा ग्रन्थ है, जिसके छपानेका प्रबन्ध हो रहा है । इनके सिवाय ज्ञानसार, आदि और भी कई अन्थ देवसेन के बतलाये जाते हैं; पर मालूम नहीं वे इन्हीं देवसेन के हैं, या अन्य किसीके । इनकी सब रचना प्राकृत में ही है । इस ग्रन्थका सम्पादन इन्होंने विक्रम संवत् ९०९ की माप शुक्ला दशमीको किया है । उस समय ये धारानगरीके पार्श्वनाथके मन्दिरमें निवास करते थे ।
२ इस ग्रन्थकी पहली गाथाके 'जह कहियं पुत्र्वसूरीहिं ' ( जैसा पूर्वाचार्योंने कहा है ) पदसे और ४९ वीं गाथाके 'पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एत्थ ' ( पूर्वाचार्योंकी बनाई हुई गाथाओं को एकत्र संचित करके बनाया ) आदि पदसे मालूम होता है कि इस ग्रन्थकी अधि काश गाथायें पहलेकी बनी हुई होंगीं और वे अन्य ग्रन्थोंसे ले ली गई होंगीं। खासकर मतोंकी उत्पत्ति आदिके सम्बन्धकी जो गाथायें हैं वे ऐसी ही जान पड़ती हैं । काष्ठासंघकी उत्पत्ति के सम्बन्धकी जो गाथायें हैं उन्हें यदि ध्यान से पढ़ा जाय तो मालूम होता है कि वे सिलासिलेवार नहीं हैं, उनमें पुनरुक्तियाँ बहुत हैं । अवश्य ही वे एकाधिक स्थानोंसे संग्रह की गई हैं।
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३ ग्रन्थकर्त्ताने दर्शनोंकी उत्पत्तिके क्रम पर भी ध्यान नहीं रक्खा है। यदि समय के अनुसार यह क्रम रक्खा गया होता तो वैनयिकों की उत्पत्ति बौद्धों से पहले, और मस्करीकी उत्पत्ति श्वेताम्बरोंसे पहले लिखी जानी चाहिए थी । मालूम नहीं, श्वेताम्बरोंको उन्होंने मस्कर से पहले और वैनायिकों को बौद्धों के बाद क्यों लिखा है । संभव है, 'एयंतं विवरयिं आदि गाथाके क्रमको ठीक रखने के लिए ऐसा किया गया हो ।
४ इस पुस्तकका पाठ तीन प्रतियों के आधार से मुद्रित किया गया है। क प्रति श्रीमान् सेठ माणिकचन्द पानाचन्दजीके भण्डारकी है, जिस पर लिपिसमय नहीं लिखा है । इस पर कुछ टिप्पणियाँ भी दी हुई हैं । यह अधिक शुद्ध नहीं है । ख प्रति बम्बई के तेरहपंथी मन्दिरके कमसे कम ५०० वर्ष पहले के लिखे हुए एक गुटके पर लिखी हुई है, जो प्राय: बहुत ही शुद्ध है । अवस्य ही इसमें कई जगह काष्ठासंघकी जगह हड़ताल लगा-लगाकर मूलसंघ या मयूरसंघ लिख दिया है और यह करतूत काष्ठा संघी भट्टारक श्रीमान् श्रीभूषणजीकी है जो वि० संवत् १६३६ में अहमदाबादकी गद्दी पर विराजमान थे । इस विषय में हम एक लेख जैनहितैषकि ५ में भागके ८ वें अंक में प्रकाशित कर चुके हैं। तीसरी ग
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