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________________ २४८ में आया। डरके मारे मेरा श्वास रुकने के किनारे पर आ गया । ' पट ' से एक बटन दबाने की आवाज हुई और कमरे में बिजलीकी रोशनी फैल गई । एकदम उजाला होनेके कारण मेरी आँखें चकचधा गई । जैनहितैषी - जब थोड़ी देरमें आँखें खुलीं तब मैंने देखा कि मेरे सामने ही एक स्त्री सकपकाई हुई खड़ी है। आश्चर्य और भय से निश्चेष्ट होकर रमणी मेरी ओर देख रही है । मेरा सिर घूमने लगा, मानों पैरोंके नीचेकी जमीन खिसकती जा रही है दीवारका सहारा लेकर मैंने अपने आपको गिरने - से बचाया | मानों अपने भीतर मैं नहीं रहा । । आश्चर्यका वेग बीत जानेपर रमणीकी नजर दराज पर पड़ी। वह दरवाजेकी ओर बढ़ी। अब मुझे भी होश हुआ । समझा कि वह और किसीको जा रही है । पागलकी तरह मैं दरवा - जे की ओर लपककर उसके पैरों पर लोट गया । वह हलकीसी चींख मारकर दो पैर पीछे हट गई। मैंने कातर और दीन भावसे कहामुझे क्षमा करो, मेरा सर्वनाश मत करो, किसी को बुलाओ मत। "C माता, पत्थर की मूर्तिके समान चुपचाप खड़ी हुई वह मेरी ओर सन्देहकी दृष्टि से देखने लगी । फिर कहने लगा- "मा, मैं भले घरका हूँ, विवश होकर आज एक दिनके लिए चोर बना हूँ, इसके सिवाय मेरे लिए और कोई उपाय न था, मेरा विश्वास करो - मेरा विश्वास करो। " י उस रमणीने कुछ भी न कहा । वह वैसे ही पत्थर की मूर्तिके समान खड़ी रही। मैंने नजर उठाकर उसे देखा । मेरी दीनता देखकर ही हो, या माता कहनेसे ही हो—चाहे जैसे हो पर उसके मुखसे डरका भाव चला गया । मानों वह समझ चुकी कि मेरे द्वारा उसकी कोई हानि न होगी। नहीं तो अबतक वह अवश्य ही किसीको पुकारती । Jain Education International मैंने दबे हुए स्वरमें, संक्षेपसे अपनी सब अवस्था उससे कह दी। अब उसके पास दयाके [ भाग १३ सिवाय मेरे लिए और उपाय ही क्या था ? रमणीकी दृष्टि कोमल हो आई, मानों उसने मेरी बातका विश्वास किया । पर तब भी उस एक शब्द भी न निकाला । मैंने कहा - " मैंने चोरी की है पर मैं, चोर नहीं हूँ । आप दराज खोलकर देख लीजिए, मैंने और कोई ग नहीं लिया । सोचा था कि इस चुडीको गिरवी रखकर अपनी स्त्रीका इलाज करूँगा, पर मालूम होता है कि भगवानकी यह मरजी नहीं है । लो मा, यह अपना गहना लो। मैं चोर भी बना और अपनी स्त्रीके प्राण फिर भी न बचा सका ! " यह कहकर मैंने वह चूड़ी उसके पैरों के पास रख दी। मेरी आँखोंसे दो बूँद आँसू टपक पड़े । उस रमणीने एक बार अपने गहने की ओर और एक बार मेरे मुँहकी ओर देखा । फिर गर्दन टेढी करके थोड़ी देर खड़ी रहने के बाद वह अत्यन्त कोमल स्वर में बोली - "इस चूड़ीको तुम ले जाओ । " मैं आश्चर्य में डूबकर उसके मुँहकी ओर देखता रह गया । फिर गद्गद कंठसे मैंने कहामा, तुम साक्षात् देवी हो । आपकी दयासे आज मेरी स्त्रीके प्राण बचेंगे । यह उपकार मैं इस जन्ममें न भरूँगा । जैसे होगा वैसे इसे गिरवी से छुड़ाकर मैं वापिस लोटा दूँगा । " - " लौटाने की कोई जरूरत नहीं है । तुम जल्दीसे यहाँ से चले जाओ । ” यह कहकर स्त्रीने उँगली से दरवाजा दिखा दिया । [ ४ ] धीरे धीरे घर से बाहर निकल आया। उस मैं छतकी ओर बढ़ रहा था कि इतने में समय मन में नाना प्रकारके भाव आ रहे थे । चोर " । मेरा सब शरीर पत्थर हो गया । मान अकस्मात् न मालूम कौन पुकार उठा - " चोर, आकाशके सब तारे मुझे नजर गड़ाकर देख रहे हैं और कह रहे है- " चोर चोर । " नीचे से कोई जल्दी जल्दी ऊपर चढ़ता चला आ रहा था । और भी कई तरफ से कई मनुष्यों की आवाज सुनाई दी । हतज्ञान होकर मैं फिर उसी रमणीके घरमें आगया । उसने भी " चोर, , चोर" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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