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________________ चोर । अङ्क ५-६ ] मैं सिर पकड़कर बैठ गया । डर के मारे मानों नाड़ियोंका रक्त बर्फ बनने के किनारे पर आगया । इस दशामें मैं कितनी देर बैठा रहा सो नहीं कह सकता । जिस कामको करने के लिए पाग लकी तरह घरसे निकल पड़ा था, वह न किया गया । मनमें होने लगा मानों इधर उधर सैकड़ों मनुष्य छिपे हुए मेरी ओर तीखी नजरसे घूर रहे हैं; - एक क्षणभर में ही जैसे वे सब एक स्वर से पुकार उठेंगे---" चोर, चोर चोर । " मैं झटपट दीवारसे नीचे उतरने लगा । बिजलीकी चमक के समान शीघ्रतासे जानकीका रोगसे पीला पड़ा हुआ मुख मेरे सामने उदय हुआ । आह, वह कुम्हलाया हुआ, जाड़ेका मारा, मलीन मुख देख कर हृदय फटने लगा उस मुखके चारों ओर मृत्युकी काली छाया घरी हुई हैं। मानों वह श्मशानमें बैठी है और चारों ओर हाहाकार करती हुई अनेक चितायें जल रही हैं । अब अधिक विलम्ब नहीं है । बिना दवाके मेरा घर श्मशान बन जायगा । । क्षणमात्र में सब भय चला गया। मैं प्राणपनसे चेष्टा करके दीवार के ऊपरवाली छत पर चला गया । कम ३] उस कमरे में किसीकी आहट न मिली। बड़ा गहरा अँधेरा है, कुछ नहीं सूझता - जेबसे पेटी निकालकर एक दियासलाई जलाई । जिस मैं मैं खड़ा हूँ, उसके बीचमें लकड़ीकी दीवार खींचकर वह दो हिस्सों में बाँटा गया है। बीचएक पर्दा पड़ा हुआ है, शायद इसी दरवाजेसे दूसरे कमरे में जाते होंगे । दीवार के सहारे दो आलमारियाँ हैं। बीचमें जके नीचे एक दराज है। खूँटी पर कुछ स्त्रियों के पहनने के कपड़े लटक रहे हैं। मेज पर एक बड़ा आईना लगा है। उसके पास ही विलायती रबरकी कंधियाँ, ब्रुश, पियर्स सोप, काचके अतरदानमें जर्मन हेको और देशी ओटो मोहिनी'की शीशियाँ, रोज पाउडर, हैजलाइनकी शीशी आदि सजाई हुई हैं । नीचे चमकदार बिलायती Jain Education International २४७ फर्श बिछा है । यह सब देखकर समझा कि यह कमरा किसी रमणीका शृंगारघर है । वह अवश्य ही धनवाली होगी, इसमें भी सन्देह नहीं । मेकी एक एक दराजको खींच खींच कर देखा, पर वे सब बंद थीं। दोनों आलमारियोंमें भी ताला लगा था । हताश होकर मैं सोचने लगा कि इतनी दूर आकर भी खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा ? एक दियासलाई और जलाकर इधर उधर देखने लगा । आलमारी के ऊपरवाले आले पर नजर पड़ते ही मेरे हृदय में फिरसे आशा लौट आई । आलेमें चाबियों का गुच्छा रक्खा भी मैं यह सोचे बिना न रह सका कि, 'भगवान् था ! इस नीच और निन्दित कामको करते हुए ही आज मेरा सहायक है । 1 १ गुच्छे में से चाबी खोजकर मैंने ऊपरवाली दराज खोली। दराज खींचते समय 'कचकच ' शब्द हुआ । उस समय एक और दियासलाई जलाकर मैंने देखा । एक हार, कई जोड़े चूड़ियाँ, करनफूलआवश्यकता नहीं है । मैं चोरी करने के लिए तो सब जड़ाऊ हैं । पर इतने गहनोंकी तो मुझे चोरी नहीं करता । मैं तो विवश होकर उसके प्राण बचाने के लिए कुछ दवा के लिए लेने आया हूँ । 1 यह सोचकर मैंने निश्चय किया कि एक चूड़ीसे ही मेरा काम चल जायगा । चूड़ी भी भारी कीमती है, पर मैं इसे बेचूँगा नहीं । किसी के यहाँ चार पाँच रुपये में गिरवी रख दूँगा । उन्हीं रुपयोंसे स्त्रीकी दवा करूँगा । फिर रुपये आने पर इसे गिरवीसे छुड़ाकर जैसे बनेगा वैसे इसके मालिक को दे दूँगा | / काँपते हुए हाथसे मैंने एक चूड़ी बाहर निकाल ली । मन-ही-मन कहा - हे परमात्मा ! मुझे क्षमा कर । बस मेरा यही सबसे पहला और सबसे अन्तिम पाप है । फिर जन्ममें कभी इस मार्ग पर न चलूँगा । दराज बंद करके जैसे ही पीछे सरकाई वैसे ही न मालूम, क्या चीज जोरसे नीचे गिर पड़ी । अन्धेरेमें सकपकाकर मैं काठकी तरह खड़ा रह गया। यदि किसीने यह शब्द सुना हो तो ? मुझे किसी कपड़ों सड़सड़ाने की आवाज आई । मानों एक एक पैर उठाता हुआ कोई घर . For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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