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________________ २९४ जैनहितैषी [भाग १३ कहा-" प्यारी ! यह रोनेका समय नहीं है। अपने राजाके किसी गुण पर इतना नहीं रीझती बुन्देलोंकी स्त्रियाँ ऐसे अवसरों पर रोया नहीं जितना उसकी वीरता पर। हरदौल अपने गुणोंसे करतीं। ईश्वरने चाहा, तो हम तुम जल्द मिलेंगे। अपनी प्रजाके मनका भी राजा हो गया, जो मझ पर ऐसी ही प्रीति रखना। मैंने राजपाट मल्क और माल पर राज करनेसे भी कठिन हरदौलको सौंपा है; वह अभी लड़का है । उसने अभी दुनिया नहीं देखी है । अपनी सलाहोंसे र है। इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। उधर दक्खिउसकी मदद करती रहना।” रानीकी जबान नमें जुझारसिंहने अपने प्रबन्धसे चारों ओर बन्द हो गई । वह अपने मनमें कहने लगी- शाही दबदबा जमा दिया । इधर ओरछेमें हर"हाय यह कहते हैं, बुन्देलोंकी स्त्रियाँ ऐसे अव- दौल ने प्रजापर मोहनी मंत्र फूंक दिया । सरों पर रोया नहीं करतीं । शायद उनके हृदय फागुनका महीना था, अबीर और गुलानहीं होता, या अगर होता है तो उसमें प्रेम न लसे जमीन लाल हो रही थी । कामदेवका होगा।" रानी कलेजे पर पत्थर रखकर आँसू प्रभाव लोगोंको भड़का रहा था, रबीने पी गई और हाथ जोड़कर राजाकी ओर मुस- खेतोंमें सुनहला फर्श बिछा रखा था और कुराती हुए देखने लगी; पर क्या वह मुसकुरा-खलिहानोंमें सुनहले महल उठा दिये थे। सन्तोष हट थी ? जिस तरह घुप्प अन्धेरे मैदानमें मशा- इस सुनहले फर्श पर अठलाता फिरता था और 'लकी रोशनी अन्धेरेको और भी अथाह कर देती निश्चिन्तता इस सुनहले महल में तानें अलाप है उसी तरह रानीकी मुसकुराहट उसके मनके रही थी। इन्हीं दिनोंमें दिल्लीका नामवर फेकैत अथाह दुःखको और भी प्रकट कर रही थी। कादिरखाँ ओरछे आया । बड़े बड़े पहेलवान ___ जुझारसिंहके चले जाने के बाद हरदौल- उसका लोहा मान गये थे। दिल्लीसे ओरछे तक सिंह राज करने लगे। थोड़े ही दिनों उनके मर्दानगीके मदसे मतवाले उसके सामने आये, न्याय और प्रजावात्सल्यने प्रजाका मन हर लिया। पर कोई उससे जीत न सका। उससे लड़ना ___ लोग जुझारसिंहको भूल गये । जुझारसिंह- भागसे नहीं, बल्कि मौतसे लड़ना था । वह के शत्र भी थे और मित्र भी । पर हरदौलसिंहका किसी इनामका भूखा न था; जैसा ही दिलका कोई शत्रु न था। सब मित्र ही थे । वह ऐसा दिलेर था, वैसा ही मनका राजा था । ठीक हँसमुख और मधुरभाषी था कि उससे जो ही होलीके दिन उसने धूम धामसे ओरछेमें सूचना दो बातें कर लेता, वही जीवनभर उसका भक्त दी कि “ खुदाका शेर, दिल्लीका कादिरखाँ बना रहता । राजभरमें ऐसा कोई नहीं था, जो ओरछे आ पहुँचा है। जिसे अपनी जान भारी उसके पासतक न पहुँच सकता हो । रात दिन हो आकर अपने भागका निपटेरा करले।" उसके दरबारका फाटक सबके लिए खुला ओरछेके बड़े बड़े बुन्देले सुरमा यह घमण्डारी रहता था । आरेछेको कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा वाणी सुनकर गरम हो उठे । फाग और उफकी नसीब न हुआ था। वह उदार था, न्यायी था, तानके बदले ढोलकी धीरध्वनि सुनाई देने विद्या और गुणका ग्राहक था । पर सबसे बड़ा लगी । हरदौलका अखाड़ा ओरछेके पहलवानोंगुण जो उसमें था वह उसकी वीरता थी। उस- और फेकैतोंका सबसे बड़ा अड्डा था । सन्ध्याका यह गुण हद दर्जको पहुँच गया था। जिस को यहाँ सारे शहरके सूरमा जमा हुए। कालदेव जातिके जीवनका अवलम्ब तलवार पर है, वह और भारदेव लन्देलोंकी नाक थे । सैकड़ों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522833
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size4 MB
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